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21 Jun 2025
निबंध लेखन
निबंध
दिवस- 6
प्रश्न 1. शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं है; शिक्षा स्वयं जीवन है। (1200 शब्द)
प्रश्न 2. लोकतंत्र की सफलता सबसे कमज़ोर आवाज़ को सुनने की क्षमता में ही निहित है। (1200 शब्द)1. शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं है; शिक्षा स्वयं जीवन है। (1200 शब्द)
परिचय :
लद्दाख की बंजर, उत्तुंग हिमालयी मरुभूमियों में, जहाँ तापमान −20°C से भी नीचे चला जाता है और पारंपरिक शिक्षा प्रणाली बच्चों को वास्तविक जीवन की चुनौतियों से जोड़ने में असफल रहती है, वहीं अभियंता और शिक्षा-सुधारक सोनम वांगचुक ने शिक्षा के वास्तविक अर्थ को ही पुनर्परिभाषित कर दिया है। उनकी वैकल्पिक शिक्षण संस्था स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख (SECMOL) बच्चों को केवल परीक्षा की तैयारी नहीं कराती, बल्कि उन्हें जीवन की समस्याओं को हल करने के लिये भी तैयार करती है, जैसे कि जल-संरक्षण के लिये आइस स्तूप का निर्माण करना या सौर ऊष्मा से गर्म होने वाले घर बनाना। वांगचुक का जीवन और कार्य जॉन ड्यूई की इस गहन अंतर्दृष्टि का जीवंत प्रमाण प्रस्तुत करते हैं— “शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं है; शिक्षा स्वयं जीवन है।”
यह कथन उस पारंपरिक दृष्टिकोण को चुनौती देता है जिसके अनुसार शिक्षा केवल जीवन में प्रवेश करने से पहले की एक तैयारी होती है अर्थात् शिक्षा वह सीढ़ी है जिसे चढ़कर व्यक्ति ‘वास्तविक’ दुनिया में जाता है। इसके विपरीत, यह विचार प्रस्तुत करता है कि शिक्षा जीवन के प्रत्येक अनुभव, प्रत्येक संपर्क और प्रत्येक हल की गई समस्या में अंतर्निहित होती है और यह सतत् व परिवर्तनकारी विकास की प्रक्रिया है।
मुख्य भाग:
दार्शनिक आधार: शिक्षा एक जीवंत प्रक्रिया के रूप में
- मूलतः, शिक्षा एक निरंतर प्रक्रिया है जो केवल रोज़गार के लिये नहीं, बल्कि एक सजग, विचारशील एवं उत्तरदायी जीवन जीने के लिये किसी व्यक्ति की बौद्धिक, नैतिक, भावनात्मक तथा सामाजिक क्षमताओं का विकास करती है।
- प्रगतिशील शिक्षा के प्रमुख समर्थक जॉन डेवी ने तर्क दिया कि अधिगम को अनुभव और आत्मचिंतन में निहित होना चाहिये, न कि स्मरण करने या रटने पर।
- उनका मानना था कि विद्यालयों, शिक्षण संस्थानों को समाज का प्रतिबिंब बनना चाहिये, तथा व्यक्तियों को लोकतांत्रिक जीवन में भागीदारीपूर्ण भूमिका के लिये (किसी भविष्य की वास्तविकता के लिये तैयारी के रूप में नहीं, बल्कि जीवन के साथ वर्तमान जुड़ाव के रूप में) तैयार करना चाहिये।
- जिद्दू कृष्णमूर्ति ने भी कहा था कि "शिक्षा परीक्षाएँ पास करने के लिये नहीं है, बल्कि जीवन जीने की कला सीखने के लिये है।"
- उनके विद्यालयों में शिक्षा में प्रकृति, मौन, करुणा और संवाद (ऐसे गुण जो केवल पेशों के लिये नहीं, बल्कि जीवन के लिये आवश्यक हैं) का समावेश होता था।
- महात्मा गांधी की नई तालीम में "करके सीखने" पर ज़ोर दिया गया, जिसमें शिल्प, नैतिक विकास और सामुदायिक सेवा को एकीकृत किया गया।
- रवींद्रनाथ टैगोर शिक्षा को एक ऐसी प्रक्रिया मानते थे जो रचनात्मकता और स्वतंत्रता को पोषित करती है, न कि रटंत शैली को। उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना औपनिवेशिक कठोरता से भिन्न एक स्वाभाविक और मुक्त शिक्षण पद्धति को विकसित करने के लिये की थी।
परिवर्तनशील विश्व में आजीवन अधिगम
- 21वीं शताब्दी तीव्र तकनीकी, पर्यावरणीय तथा सामाजिक परिवर्तनों से परिभाषित होती है। यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट (2023) में यह दर्शाया गया है कि आजीवन अधिगम (Lifelong Learning) समुत्थानशक्ति और अनुकूलनशीलता के लिये अनिवार्य बन चुका है। आज के वयस्कों को सतत् रूप से अपने कौशलों को उन्नत करना पड़ता है, चाहे वह कोडिंग हो या जलवायु साक्षरता।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020 भी इस प्रवृत्ति को मान्यता देती है, जो समुत्थानशील, बहु-विषयी शिक्षा तथा बहु-प्रवेश एवं बहु-निर्गमन की व्यवस्था के माध्यम से निरंतर अधिगम को प्रोत्साहित करती है।
- चाहे वह सेवानिवृत्त पेशेवरों द्वारा किये जा रहे ऑनलाइन पाठ्यक्रम हों या ग्रामीण महिलाओं द्वारा स्मार्टफोन का उपयोग कर उद्यमिता में कदम बढ़ाना, आज शिक्षा का विस्तार शैशवावस्था से लेकर जीवन पर्यंत तक हो गया है। यह सिद्ध हो चुका है कि शिक्षा केवल जीवन की तैयारी नहीं है, बल्कि जीवन की सतत् सहयात्री है।
समग्र विकास के रूप में शिक्षा
- सच्ची शिक्षा मन, हृदय और चरित्र को आकार देती है। यह केवल 'बुद्धि-गुणांक' (IQ) तक सीमित नहीं होती, बल्कि 'भावनात्मक बुद्धिमत्ता' (EQ), 'आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता' (SQ) तथा 'विपत्ति सहिष्णुता' (AQ) को भी समाहित करती है।
- डॉ. भीमराव अंबेडकर ने शिक्षा को केवल रोज़गार का साधन नहीं, बल्कि मुक्ति और सशक्तीकरण के उपकरण के रूप में प्रयोग किया। उनका नारा था—"शिक्षित बनो, संगठित रहो तथा संघर्ष करो" जो यह दर्शाता है कि वे शिक्षा को सामाजिक क्रांति का माध्यम मानते थे।
- मलाला यूसुफज़ई ने तालिबान द्वारा लड़कियों की शिक्षा पर लगाए गये प्रतिबंध के विरुद्ध संघर्ष किया। उनका आंदोलन केवल औपचारिक शिक्षा नहीं, बल्कि 'स्वर', 'साहस' और 'न्याय' के मूल्यों पर आधारित था।
- सुधा मूर्ति, जो भारत की पहली महिला इंजीनियरों में से एक हैं, ने कहानियों, दान और सामुदायिक सेवा के माध्यम से शिक्षा के जीवनानुभव का अनुसरण किया। उनके कार्य यह दर्शाते हैं कि शिक्षा केवल संस्थागत उपलब्धि नहीं, बल्कि व्यावहारिक जीवन में प्रतिबिंबित होती है।
- अल्बर्ट आइंस्टीन, जो शिक्षा की परिवर्तनकारी शक्ति में विश्वास रखते थे, ने कहा था—"शिक्षा तथ्यों का संग्रह नहीं, बल्कि सोचने की योग्यता का विकास है।" उनका दृष्टिकोण यह स्मरण कराता है कि सच्चा ज्ञान पाठ्यक्रमों तक सीमित नहीं होता, बल्कि जिज्ञासा, स्वतंत्र चिंतन और नैतिक उत्तरदायित्व के पोषण में निहित होता है।
लोकतंत्र और नागरिकता की नींव के रूप में शिक्षा
- शिक्षा केवल आर्थिक उत्पादन के लिये नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक जीवन के लिये भी अनिवार्य है। जैसा कि जॉन ड्यूई ने लिखा है, "लोकतंत्र को प्रत्येक पीढ़ी में नया जन्म लेना होता है और शिक्षा उसकी धात्री होती है।"
- एक जागरूक नागरिक अन्याय पर प्रश्न करता है, विविधता का सम्मान करता है तथा नागरिक जीवन में सार्थक भागीदारी निभाता है।
- स्कैंडिनेवियाई देशों में नागरिक शिक्षा को पाठ्यक्रम का मुख्य भाग माना गया है।
- भारत में 'समग्र शिक्षा अभियान' का उद्देश्य समावेशी और समानता-आधारित विद्यालयों की स्थापना करना है, जो बच्चों को उनके अधिकारों एवं कर्त्तव्यों का ज्ञान दें।
- चिंतनशील शिक्षा के बिना कोई भी लोकतंत्र खोखला रह जाता है। वास्तविक नागरिकता किसी परीक्षा की तैयारी नहीं, बल्कि एक सतत् अभ्यास है जो विचारशील शिक्षा के माध्यम से प्रतिदिन अर्जित की जाती है।
वैश्विक संकट के समय में शिक्षा
- चाहे जलवायु परिवर्तन, गलत सूचना या मानसिक स्वास्थ्य संकट का सामना करना पड़ रहा हो, आज हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो उत्तरदायी हो, मूल्यों-आधारित हो और जीवन को संबल देने वाली हो।
- जलवायु साक्षरता का उद्देश्य केवल पर्यावरण सिद्धांत पढ़ाना नहीं, बल्कि सतत् जीवन-चयन की समझ विकसित करना होना चाहिये।
- डिजिटल युग में, फर्ज़ी खबरों और सामाजिक ध्रुवीकरण से निपटने के लिये मीडिया साक्षरता और समालोचनात्मक चिंतन अनिवार्य बन गये हैं।
- कोविड-19 ने यह स्पष्ट कर दिया कि परीक्षा-आधारित नहीं, बल्कि आत्मचिंतनशील और जीवन-केंद्रित शिक्षा ही आघात-सहनीयता और अनुकूलन क्षमता जैसे गुण विकसित कर सकती है।
- भविष्य ऐसी शिक्षा की मांग करता है, जो किसी स्थिर जीवन-लक्ष्य की नहीं, बल्कि अनिश्चितता, जटिलता और करुणा के साथ जीने की तैयारी कराये।
चुनौतियाँ:
यथार्थ प्रायः इस दृष्टिकोण से पीछे छूट जाता है—
- ASER- 2022 की रिपोर्ट से स्पष्ट होता है कि महामारी के दौरान भारत में बुनियादी अधिगम और अंकगणित कौशल में भारी गिरावट आयी।
- शिक्षा प्रणाली आज भी परीक्षा-केंद्रित, जड़ और विषमता से ग्रस्त है।
- रचनात्मकता, नैतिकता और आत्मान्वेषण जैसे पहलुओं को प्रायः गौण समझा जाता है।
आगे की राह:
- अनुभवात्मक और समस्या-समाधान आधारित शिक्षण, जैसा कि SECMOL जैसी संस्थाएँ अपनाती हैं।
- मुख्य पाठ्यक्रम में कला, नैतिक शिक्षा, पारिस्थितिकी और जीवन-कौशल का समावेश।
- शिक्षकों की क्षमता-वृद्धि, समुदाय आधारित सहभागिता और लचीली अधिगम-प्रणालियों का विकास।
निष्कर्ष:
जब सोनम वांगचुक लद्दाख की कठिन परिस्थितियों में बच्चों को सोलर-हीटर बनाना या विषम क्षेत्रों में खाद्य-वनस्पति उगाना सिखाते हैं, तो वे उन्हें किसी काल्पनिक भविष्य के लिये नहीं तैयार कर रहे होते, बल्कि उन्हें वर्तमान में ही पूर्ण, उत्तरदायी एवं अर्थपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा दे रहे होते हैं। यही वास्तविक शिक्षा का मर्म है।
भारत जैसे देश के लिये: जहाँ परंपरा, आधुनिकता और समता की आकांक्षाओं के जटिल अंतर्संबंध हैं यह समग्र दृष्टिकोण विशेष रूप से प्रासंगिक है। यह संविधान की मूल भावनाओं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 के रूपांतरणकारी लक्ष्यों और सतत् विकास लक्ष्यों के वैश्विक संकल्पों के अनुरूप है।
उत्तरदायी, सहृदय एवं सक्रिय नागरिकों के निर्माण के लिये शिक्षा को एक समावेशी, आजीवन चलने वाली प्रक्रिया के रूप में पुनः कल्पित करना (जो आलोचनात्मक चिंतन, अनुभव आधारित अधिगम और मूल्यपरकता पर आधारित हो) अत्यंत आवश्यक है।
जैसा कि महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था:
"जीवन ऐसे जियो जैसे कल ही मृत्यु होनी है और ऐसे सीखो जैसे अनंत काल तक जीना है।"
2. लोकतंत्र की सफलता सबसे कमज़ोर आवाज़ को सुनने की क्षमता में ही निहित है। (1200 शब्द)
परिचय:
वर्ष 2022 में, ओडिशा के एक सुदूर गाँव की एक आदिवासी महिला भारत की 15वीं राष्ट्रपति बनीं, वह इस सर्वोच्च संवैधानिक पद को संभालने वाली पहली आदिवासी और दूसरी महिला हैं। उनका निर्वाचित होना केवल एक औपचारिक उपलब्धि नहीं था, बल्कि इस बात का प्रतीक था कि जब लोकतंत्र अपने सर्वोत्तम रूप में कार्य करता है, तो वह सबसे वंचित वर्गों को भी आवाज़ देता है। फिर भी, ऐसी उपलब्धियाँ अब भी अपवाद हैं, सामान्य स्थिति नहीं।
लोकतंत्र, चुनाव और शासन की प्रणाली से कहीं ज़्यादा, एक नैतिक वादा है, समाज में सबसे कमज़ोर आवाज़ों को सुनना, उन्हें सशक्त बनाना और उनका उत्थान करना। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था, "किसी राष्ट्र की महानता इस बात से मापी जाती है कि वह अपने सबसे कमज़ोर सदस्यों के साथ कैसा व्यवहार करता है।"।
मुख्य भाग:
लोकतंत्र: मतपत्रों से परे एक नैतिक प्रतिबद्धता
- अपने मूल में, लोकतंत्र (Democracy) का अर्थ है लोगों द्वारा, लोगों के लिये और लोगों की सरकार। हालाँकि, यह आदर्श खोखला हो जाता है यदि लोकतंत्र केवल बहुसंख्यक शासन बनकर अल्पसंख्यकों व हाशिये पर रह रहे समुदायों के लिये न्याय, समानता और समावेश सुनिश्चित नहीं करता। लोकतंत्र का असली वादा तब पूरा होता है जब जाति, लिंग, वर्ग, जातीयता या क्षमता की परवाह किये बिना प्रत्येक आवाज़ का महत्त्व होता है।
- महात्मा गांधी ने इस नैतिक दिशा-निर्देश पर ज़ोर देते हुए कहा था: "सबसे गरीब और सबसे कमज़ोर आदमी/ महिला का चेहरा याद करें जिसे आपने देखा होगा और खुद से पूछें कि आप जिस कदम पर आप विचार कर रहे हैं वह क्या उनके लिये किसी भी प्रकार से उपयोग होगा?"
- नेल्सन मंडेला उस लोकतांत्रिक भावना का प्रतीक हैं जो सभी के लिये मानव गरिमा को समर्पित है, जब उन्होंने कहा था: "किसी राष्ट्र का मूल्यांकन इस आधार पर नहीं किया जाना चाहिये कि वह अपने उच्चतम नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है, बल्कि इस आधार पर कि वह अपने निम्नतम नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है।"
- जॉन रॉल्स (अमेरिकी राजनीतिक दार्शनिक):
- “सामाजिक संस्थाओं का प्रथम गुण न्याय है।”
- रॉल्स ने अपने “अंतर सिद्धांत” (Difference Principle) के माध्यम से यह ज़ोर दिया कि लोकतांत्रिक संस्थाओं का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिये कि वे सबसे वंचित लोगों की कितनी अच्छी तरह सेवा करती हैं।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर
- "लोकतंत्र, समानता पर आधारित सरकार का एक रूप है, जिसमें न केवल समान अवसर, बल्कि समान दर्ज़ा, सम्मान और प्रतिष्ठा भी शामिल है।"
- उन्होंने लोकतंत्र को सिर्फ शासन के एक रूप के रूप में नहीं देखा, बल्कि एक सामाजिक और नैतिक व्यवस्था के रूप में देखा, जो सबसे कमज़ोर समुदायों की सुरक्षा करती है।
'सबसे कमज़ोर आवाज़ें' कौन हैं?
- सामाजिक रूप से हाशिये पर रह रहे समूह: दलित, आदिवासी, LGBTQ+ समुदाय।
- आर्थिक रूप से वंचित: भूमिहीन मज़दूर, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग, बेरोज़गार।
- महिलाओं और बच्चों को संरचनात्मक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है।
- धार्मिक एवं जातीय अल्पसंख्यक।
- नीति निर्माण में दिव्यांग व्यक्तियों को प्रायः नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
- वैश्विक लोकतंत्रों में शरणार्थी, प्रवासी और राज्यविहीन जनसंख्या।
लोकतांत्रिक उपलब्धियाँ: सबसे कमज़ोर लोगों को सशक्त बनाना
- भारत के संवैधानिक सुरक्षा उपाय:
- संसद और पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिये आरक्षण (अनुच्छेद 243D, 330)।
- मूल अधिकार (अनुच्छेद 14-18) कानून के समक्ष समानता, अस्पृश्यता का उन्मूलन और भेदभाव के विरुद्ध सुरक्षा की सुनिश्चितता प्रदान करते हैं।
- नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) जैसे ऐतिहासिक निर्णयों ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया, जिससे LGBTQ+ नागरिकों की आवाज बुलंद हुई।
- पंचायती राज और राजनीतिक विकेंद्रीकरण:
- 73वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) ने स्थानीय निकायों को सशक्त बनाया और महिलाओं के लिये 33% आरक्षण अनिवार्य किया, जिसे अब कई राज्यों में बढ़ाकर 50% कर दिया गया है।
- वर्तमान में 1.4 मिलियन से अधिक महिलाएँ ग्रामीण शासन में निर्वाचित पदों पर कार्यरत हैं।
आवाज़ के साधन के रूप में सामाजिक आंदोलन
- RTI आंदोलन के परिणामस्वरूप सूचना का अधिकार अधिनियम (2005) अस्तित्व में आया, जिसने नागरिकों को सरकारी कार्यों पर प्रश्न उठाने का अधिकार दिया।
- NREGA (2005) की शुरुआत राजस्थान और आंध्र प्रदेश में हुए ज़मीनी स्तर के जन आंदोलनों से हुई।
- अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन (2011) ने शहरी गरीब और मध्यम वर्ग के नागरिकों को जवाबदेही की मांग के लिये प्रेरित किया।
लोकतंत्र की कमियाँ: जब कमज़ोर समुदायों को अनदेखा किया जाए
- सांकेतिक प्रतिनिधित्व:
- प्रायः गरीबों और हाशिए पर रह रहे लोगों को वोट बैंक के रूप में उपयोग किया जाता है, लेकिन नीति निर्माण से बाहर रखा जाता है।
- महिला सरपंचों को कई बार अपने पुरुष रिश्तेदारों के लिये मात्र नाममात्र का उम्मीदवार बनाया जाता है।
- चुनावी बाधाएँ:
- चुनावों की उच्च लागत, राजनीति का अपराधीकरण और वंशवादी वर्चस्व आम नागरिकों की भागीदारी को बाधित करते हैं।
- ADR (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) के अनुसार, 2019 में 43% सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज थे।
- विरोध की आवाज़ों का दमन:
- किसानों, छात्रों और अल्पसंख्यकों के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्र-विरोधी माना गया है।
- फ्रीडम हाउस (2024) ने प्रेस की स्वतंत्रता और असहमति रखने वालों के प्रति व्यवहार को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए भारत की स्थिति को "आंशिक रूप से स्वतंत्र" (Partly Free) श्रेणी में रखा।
- वैश्विक उदाहरण:
- संयुक्त राज्य अमेरिका में कुछ राज्यों के मतदाता दमन कानून (voter suppression laws) का असर असमान रूप से अफ्रीकी अमेरिकियों और हिस्पैनिक समुदायों पर पड़ता है।
- म्याँमार में रोहिंग्या समुदाय लोकतंत्र की असफल संक्रमण प्रक्रिया के मौन शिकार बने हुए हैं, जिनकी आवाज़ अब भी दबाई जाती है।
संस्थाएँ और नागरिक समाज: वंचित समुदायों के लिये माध्यम
- न्यायपालिका, निरव आवाज़ों की आवाज़:
- जनहित याचिकाएँ (PIL) वन अधिकारों , स्वच्छ वायु और झुग्गीवासियों के पुनर्वास को सुरक्षित करने में सहायक रही हैं ।
- ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (1985) में फुटपाथ पर रहने वालों के आजीविका के अधिकार को मान्यता दी गई।
- मीडिया और तकनीक:
- सोशल मीडिया ने दलित ब्लॉगर्स, ग्रामीण पत्रकारों और दिव्यांग कार्यकर्त्ताओं को अभिव्यक्ति का मंच प्रदान किया है।
- हालाँकि, यह इको चेम्बर (echo chambers) और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध साइबर बुलिंग को भी बढ़ावा देता है, जिससे डिजिटल नैतिकता की आवश्यकता सामने आती है।
- गैर-सरकारी संगठन (NGO) और नागरिक समाज:
- मज़दूर किसान शक्ति संगठन (MKSS), सेवा (SEWA) और प्रथम जैसे संगठन शिक्षा, अधिकारों के प्रति जागरूकता और संगठित प्रयासों के माध्यम से गरीबों को सशक्त बना रहे हैं।
आगे की राह:
- संस्थागत सुधार:
- चुनावी वित्त में पारदर्शिता, आनुपातिक प्रतिनिधित्व, और स्वतंत्र निर्वाचन निगरानी जैसी पहलें सत्ताधारी वर्ग के नियंत्रण को कम कर सकती हैं।
- भेदभाव विरोधी कानूनों का अधिक सशक्त प्रवर्तन।
- नागरिक शिक्षा:
- स्कूलों में तथा जनसंचार माध्यमों के माध्यम से संवैधानिक मूल्यों की शिक्षा देने से लोकतांत्रिक संस्कृति का विकास हो सकता है।
- ग्रामीण, जनजातीय और शहरी गरीबों के बीच नागरिक साक्षरता को बढ़ावा देना।
- समावेशी नीति निर्माण:
- नीतियों के निर्माण, कार्यान्वयन और समीक्षा में प्रभावित समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिये।
- उदाहरण: केरल और पुणे में सहभागी बजट निर्धारण (participatory budgeting)।
- डिजिटल पहुँच और प्रतिनिधित्व:
- डिजिटल विभाजन को समाप्त करना ताकि ग्रामीण गरीब भी ई-गवर्नेंस और शिकायत निवारण तक पहुँच सकें।
- युवाओं की भागीदारी को सामाजिक नवाचार और राजनीतिक मार्गदर्शन के माध्यम से प्रोत्साहित करना।
निष्कर्ष:
जैसा कि अमर्त्य सेन ने डेवलपमेंट ऐज फ्रीडम में सही लिखा है: "Democracy is not just the right to vote every few years. It is the opportunity to participate in public dialogue and decision-making अर्थात् लोकतंत्र केवल कुछ वर्षों में एक बार मतदान करने का अधिकार नहीं है, बल्कि यह सार्वजनिक संवाद और निर्णय-निर्माण में भागीदारी का अवसर है।" सच्चे लोकतंत्र का मूल्यांकन उसकी चुनावी भव्यता या संस्थागत संरचनाओं से नहीं, बल्कि इस बात से होता है कि वह कितनी तत्परता से सुनता है, विशेषकर उन्हें, जिन्हें समाज अक्सर चुप करा देता है।
द्रौपदी मुर्मू के सर्वोच्च पद तक पहुँचने से लेकर गाँवों में महिलाओं के पंचायतों का नेतृत्व करने तक और झुग्गीवासियों द्वारा RTI का उपयोग करने से लेकर किसानों के द्वारा उचित मूल्य की माँग तक, लोकतंत्र की आत्मा उन अनसुनी आवाज़ों में निहित है, जिन्हें अब स्थान (space), गरिमा (dignity) और स्वायत्तता (agency) प्राप्त हो रही है।