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भारतीय अर्थव्यवस्था

समावेशी आर्थिक विकास के लिये भारत की नीति

  • 12 Jun 2025
  • 24 min read

यह एडिटोरियल 11/06/2025 को द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित “India’s economic growth is not inclusive. It is a concentrated accumulation of wealth” पर आधारित है। इस लेख में भारत की 3.9 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और व्याप्त असमानता के बीच के गहरे अंतर को उजागर किया गया है, जो सभी नागरिकों के लिये वास्तविक प्रगति सुनिश्चित करने की दिशा में समावेशी विकास की आवश्यकता पर बल देता है।

प्रिलिम्स के लिये:

समावेशी विकास, सतत् विकास, मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति, चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, विश्व असमानता रिपोर्ट, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA), शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME)

मेन्स के लिये:

समावेशी विकास की ओर भारत की यात्रा, समावेशी विकास में बाधा डालने वाले मुद्दे। 

3.9 ट्रिलियन डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद के साथ विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की प्रशंसित स्थिति अत्यधिक असमानता और व्यापक अभाव की कठोर वास्तविकता को छुपाए हुए है। यद्यपि शीर्ष 1% के पास राष्ट्रीय संपत्ति का 40% से अधिक नियंत्रण है, औसत भारतीय कुलीन वर्ग की संपत्ति को छोड़कर 5,600 रुपए प्रति माह से कम पर गुजारा करता है। मानव विकास संकेतकों पर भारत की रैंकिंग निराशाजनक है, HDI पर 134वें और ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर 111वें स्थान पर, यह दर्शाता है कि GDP संख्या आम नागरिकों के लिये वास्तविक समृद्धि में परिवर्तित नहीं होती है। आगे बढ़ते हुए, भारत को यह सुनिश्चित करने के लिये समर्पित प्रयासों की आवश्यकता है कि इसकी आर्थिक उपलब्धियाँ सार्थक अवसर और समावेशी विकास उत्पन्न करें।

समावेशी विकास हेतु भारत की प्रगति का पथ क्या रहा है?

  • स्वतंत्रता-उपरांत युग (वर्ष 1947-1970): स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक वर्षों में, भारत ने राज्य-नेतृत्व वाले औद्योगीकरण, भूमि सुधार और गरीबी उन्मूलन पर केंद्रित समाजवादी-उन्मुख आर्थिक मॉडल अपनाया।
    • इसका उद्देश्य योजनाबद्ध आर्थिक विकास के माध्यम से सीमांत वर्ग के लोगों की स्थिति में सुधार लाना था, जिसमें हरित क्रांति ने खाद्य उत्पादन और ग्रामीण रोज़गार बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
    • पंचवर्षीय योजनाओं, विशेषकर 11वीं और 12वीं में समावेशी विकास पर ज़ोर दिया गया।
  • आर्थिक सुधार (वर्ष 1991-2000): वर्ष 1991 के आर्थिक उदारीकरण ने भारत के विकास पथ में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव को चिह्नित किया। 
    • यद्यपि अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने तीव्र विकास को बढ़ावा दिया, लेकिन इसने असमानता के अंतराल को भी बढ़ा दिया। 
    • आर्थिक विकास का लाभ शहरी क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट रहा तथा ग्रामीण एवं गरीब क्षेत्र पीछे रह गए। 
    • हालाँकि, इन सुधारों ने व्यापार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) और औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने के लिये मंच तैयार किया, जिससे समग्र राष्ट्रीय विकास में योगदान मिला।
  • अधिकार-आधारित दृष्टिकोण (वर्ष 2005-2015): 2000 के दशक के मध्य में, भारत विकास के लिये अधिकार-आधारित दृष्टिकोण की ओर अग्रसर हुआ। 
  • वर्तमान युग (2015-वर्तमान): हाल के वर्षों में, प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY), डिजिटल इंडिया अभियान और आयुष्मान भारत जैसी पहलों के साथ, डिजिटल एवं वित्तीय समावेशन की ओर ध्यान केंद्रित किया गया है। 
    • ये कार्यक्रम विशेष रूप से ग्रामीण और वंचित शहरी क्षेत्रों में बैंकिंग, स्वास्थ्य सेवा और डिजिटल सेवाओं तक पहुँच बढ़ाने के लिये तैयार किये गए हैं। 
    • इसके अतिरिक्त, स्टार्टअप इंडिया जैसी पहलों के माध्यम से नवीकरणीय ऊर्जा, बुनियादी अवसंरचना के विकास और उद्यमिता के लिये भारत का प्रयास, व्यापक आर्थिक भागीदारी पर सरकार के ज़ोर को दर्शाता है।

भारत में समावेशी विकास में बाधा डालने वाले प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • निरंतर गरीबी और असमानता: आर्थिक विकास के बावजूद, भारत में असमानता काफी बढ़ गई है, जिससे लाखों लोग गरीबी में फँसे हुए हैं। 
    • देश की कुल संपत्ति का 53% केवल शीर्ष 1% जनसंख्या के पास है, जबकि निचले 50% भारतीयों के हिस्से में मात्र 4.1% संपत्ति आती है। 
    • धन-संपत्ति का यह बड़ा अंतर यह दर्शाता है कि विकास का लाभ अधिकांश आबादी तक नहीं पहुँचा है। 
    • यद्यपि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA)जैसे सरकारी कल्याण कार्यक्रमों से 80 करोड़ लोग लाभान्वित होते हैं, फिर भी धन का वितरण असमान रूप से विषम बना हुआ है, जो समतामूलक समृद्धि के लिये प्रणालीगत बाधाओं को उजागर करता है।
  • विशाल अनौपचारिक कार्यबल: भारत में समावेशी विकास में एक बड़ी बाधा अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का प्रभुत्व है, जो कुल कार्यबल का 90% हिस्सा है। 
    • इन श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा, उचित वेतन और औपचारिक रोज़गार लाभ तक पहुँच नहीं है। 
    • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक शोषण और आर्थिक झटकों के प्रति संवेदनशील होते हैं तथा उनके पास पेंशन या स्वास्थ्य देखभाल जैसी कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं होती। 
      • वास्तविक समावेशन के लिये, नीतियों को इस विशाल कार्यबल को औपचारिक बनाने और बुनियादी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये श्रम कानूनों में सुधार पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
  • क्षेत्रीय असमानताएँ: भारत की आर्थिक वृद्धि असमान रही है तथा राज्यों के बीच पर्याप्त असंतुलन है। 
    • उदाहरण के लिये, बिहार में प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) महाराष्ट्र का लगभग 5वाँ हिस्सा है, जो क्षेत्रीय आर्थिक अंतर को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। 
    • ये असमानताएँ देश की राष्ट्रव्यापी समावेशी विकास को बढ़ावा देने की क्षमता में बाधा डालती हैं, क्योंकि गरीब राज्यों को बुनियादी अवसंरचना और सामाजिक सेवाएँ प्रदान करने में संघर्ष करना पड़ता है। 
  • लैंगिक असमानता: लैंगिक असमानता भारत के समावेशी विकास पथ में एक महत्त्वपूर्ण बाधा बनी हुई है। 
    • विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ अनौपचारिक क्षेत्र में बड़ी संख्या में कार्यरत हैं, जहाँ पारिश्रमिक कम है और नौकरी की सुरक्षा भी नहीं है। 
    • विश्व असमानता रिपोर्ट (2022) के अनुसार, श्रम बल का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद, महिलाएँ पुरुषों की तुलना में केवल 18% आय अर्जित करती हैं।
      • ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स (2022) में 146 देशों में से भारत का 135वाँ स्थान इस मुद्दे की गहराई को उजागर करता है, जिससे महिलाओं के लिये रोज़गार और ऋण तक समान पहुँच सुनिश्चित करने के लिये नीतियों की आवश्यकता होती है।
  • कम वित्तीय साक्षरता: RBI के अनुसार, भारत में वित्तीय साक्षरता अभी भी कम है, केवल 27% जनसंख्या ही वित्तीय रूप से साक्षर है।
    • ज्ञान की कमी व्यक्तियों की वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र में पूर्ण रूप से भाग लेने की क्षमता को सीमित कर देती है, जिससे बचत, निवेश और ऋण तक पहुँच में बाधा उत्पन्न होती है। 
    • प्रधानमंत्री जन धन योजना जैसी वित्तीय समावेशन पहलों ने प्रगति की है, लेकिन आम जनता को, विशेष रूप से ग्रामीण एवं सीमांत समुदायों को, सूचित वित्तीय निर्णय लेने के लिये शिक्षित तथा उन्हें सशक्त बनाने के लिये और अधिक प्रयासों की आवश्यकता है।
  • बुनियादी अवसंरचना में अंतराल: बुनियादी अवसंरचना में महत्त्वपूर्ण सुधार के बावजूद, भारत को अभी भी बिजली, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं में काफी अंतराल का सामना करना पड़ रहा है। 
    • लगभग 25% भारतीयों के पास अभी भी बिजली नहीं है तथा कई ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा सुविधाएँ अपर्याप्त हैं। 
    • यद्यपि प्रधानमंत्री सौभाग्य और आयुष्मान भारत जैसी पहलों का उद्देश्य इन मुद्दों का समाधान करना है, फिर भी बुनियादी अवसंरचना की गुणवत्ता एवं पहुँच, विशेष रूप से ग्रामीण व दूरस्थ क्षेत्रों में, असंगत बनी हुई है। 

भारत में समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं? 

  • MSME और कौशल विकास के माध्यम से रोज़गार के अवसरों का विस्तार: बेरोज़गारी और अल्परोज़गार से निपटने के लिये भारत को सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME) के विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, जो रोज़गार सृजन के प्रमुख चालक हैं।
    • ऋण, प्रौद्योगिकी और बुनियादी अवसंरचना तक आसान पहुँच के माध्यम से MSME को सुदृढ़ करने से लाखों नौकरियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, विशेषकर ग्रामीण एवं अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में। 
    • इसके अतिरिक्त, PMKVY (प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना) जैसे कौशल विकास कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करने तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण का विस्तार करने से कार्यबल को उभरती बाज़ार आवश्यकताओं के अनुकूल ढलने में मदद मिलेगी, जिससे सीमांत समूहों के लिये रोज़गार एवं आय के स्तर में वृद्धि होगी।
  • सामाजिक सुरक्षा और कल्याण योजनाओं को सुदृढ़ करना: अनौपचारिक कार्यबल को कवर करने के लिये सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों को सुदृढ़ किया जाना चाहिये, जो भारतीय श्रम बाज़ार का 90% हिस्सा है। 
    • इसके अतिरिक्त, JAM ट्रिनिटी (जन धन, आधार, मोबाइल) के माध्यम से लक्षित सब्सिडी और प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) प्रभावी रूप से सीमांत आबादी तक पहुँच सकते हैं, जिससे उनकी आर्थिक लचीलापन में सुधार हो सकता है।
  • बुनियादी अवसंरचना के विकास के माध्यम से क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करना: विशाल क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के लिये, भारत को वंचित राज्यों में बुनियादी अवसंरचना और सामाजिक सेवाओं में निवेश को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। 
    • गति शक्ति और राष्ट्रीय लॉजिस्टिक्स नीति जैसे कार्यक्रम कनेक्टिविटी को बढ़ा सकते हैं, जबकि ग्रामीण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा एवं ऊर्जा अभिगम पर केंद्रित बुनियादी अवसंरचना का विकास आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा देगा। 
    • राज्यों के बीच बुनियादी अवसंरचना के अंतर को कम करके, भारत रोज़गार और उद्यम के लिये अधिक संतुलित अवसर उत्पन्न कर सकता है, विशेष रूप से पिछड़े क्षेत्रों में।
  • कार्यबल में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना: सभी आर्थिक क्षेत्रों में लैंगिक समावेशन को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। 
    • इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये नीतियों में महिलाओं के लिये समान वेतन, वित्त की सुगम्यता और कॅरियर के अवसर सुनिश्चित किये जाने चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में सांस्कृतिक और सामाजिक बाधाओं, जैसे बाल देखभाल सहायता एवं कार्यस्थल सुरक्षा, को दूर करने से महिलाओं को अधिक औपचारिक व पारिश्रमिक वाली भूमिकाएँ निभाने में मदद मिलेगी, जिससे समावेशी विकास में योगदान मिलेगा।
  • प्रौद्योगिकी के माध्यम से डिजिटल और वित्तीय समावेशन: सीमांत समुदायों को सशक्त बनाने और अर्थव्यवस्था में समान भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये डिजिटल पहुँच एवं साक्षरता का विस्तार आवश्यक है। 
    • डिजिटल साक्षरता को बढ़ाने के लिये PMGDISHA (प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान) जैसी पहलों को सुदृढ़ करना, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, शहरी-ग्रामीण विभाजन के बीच के अंतराल को समाप्त कर सकता है। 
    • इसके अतिरिक्त, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के माध्यम से ऋण सुगम्यता बढ़ाने से लघु उद्यमों और व्यक्तिगत उद्यमियों के विकास में सुविधा होगी।
  • विकास के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को मज़बूत करना: सरकार को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और बुनियादी अवसंरचना जैसे क्षेत्रों में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को बढ़ावा देना चाहिये।
    • रणनीतिक PPP मॉडल के माध्यम से इन क्षेत्रों में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने से वंचित क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण सेवाओं की उपलब्धता में तेज़ी आ सकती है, जिससे अधिक समावेशी विकास को बढ़ावा मिलेगा।
    • इसके अलावा, सार्वजनिक व निजी क्षेत्रों के बीच सहयोग से नवाचार, संसाधन एवं विशेषज्ञता लाई जा सकती है, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि देश के सभी क्षेत्रों में आर्थिक विकास संधारणीय और समतापूर्ण हो।
  • क्लाइमेट-स्मार्ट और सतत् विकास मॉडल: भारत के सामने मौजूद पर्यावरणीय चुनौतियों को देखते हुए, सतत् और समावेशी विकास को बढ़ावा देने का अर्थ है आर्थिक नियोजन में जलवायु अनुकूलन को एकीकृत करना। 
    • कृषि, विनिर्माण और ऊर्जा में हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाने से न केवल नये आर्थिक अवसर उत्पन्न होंगे, बल्कि पर्यावरणीय क्षरण एवं संसाधनों की कमी के मुद्दों का भी समाधान होगा। 
      • सौर ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों के लिये प्रोत्साहन के माध्यम से नवीकरणीय ऊर्जा के अंगीकरण को प्रोत्साहित करना तथा चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना, समावेशी, पर्यावरण-अनुकूल विकास को बढ़ावा देते हुए जलवायु प्रभावों को कम करने में मदद करेगा।
  • शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना: भ्रष्टाचार और अकुशलता प्रायः कल्याणकारी कार्यक्रमों एवं समावेशी विकास की पहुँच में बाधा डालते हैं।
    • जन विश्वास विधेयक और सरकारी सेवाओं के डिजिटलीकरण जैसे उपायों के माध्यम से पारदर्शिता, उत्तरदायित्व एवं शासन के लिये संस्थागत कार्यढाँचे को सुदृढ़ करने से यह सुनिश्चित होगा कि आर्थिक विकास के लाभ अधिक व्यापक रूप से वितरित हों। 
    • सार्वजनिक सेवा वितरण में सुधार, अनुपालन प्रक्रियाओं को सरल बनाना और प्रशासनिक बाधाओं को कम करना कल्याणकारी योजनाओं को अधिक प्रभावी एवं समावेशी बनाएगा।

निष्कर्ष: 

भारत के आर्थिक विकास के साथ-साथ समावेशिता पर भी स्पष्ट ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि समृद्धि समाज के सभी वर्गों तक पहुँचे। जबकि GDP और कल्याणकारी योजनाओं में हाल ही में हुई प्रगति सराहनीय है, लेकिन बढ़ती असमानता, गरीबी एवं सामाजिक विषमताओं पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। वास्तविक विकास हासिल करने के लिये नीतियों में समान धन वितरण, रोज़गार सृजन और सामाजिक सुरक्षा के साथ-साथ क्षेत्रीय एवं लैंगिक अंतराल की पूर्ति करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। 

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. समावेशी विकास सतत् और न्यायसंगत विकास को प्राप्त करने के लिये केंद्रीय है। भारत में समावेशी विकास के प्रमुख तत्त्वों, इसके कार्यान्वयन में बाधा डालने वाली चुनौतियों और समाज के सभी वर्गों के लिये समावेशी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की दिशा में आवश्यक उपायों का विश्लेषण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. 'आठ मूल उद्योगों के सूचकांक (इंडेक्स ऑफ एट कोर इंडस्ट्रीज़)' में निम्नलिखित में से किसको सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है? (2015)

(a) कोयला उत्पादन
(b) विद्युत् उत्पादन
(c) उर्वरक उत्पादन
(d) इस्पात उत्पादन

उत्तर: (b)


प्रश्न 2. निरपेक्ष तथा प्रति व्यत्ति वास्तविक GNP की वृद्धि आर्थिक विकास की ऊँची दर का संकेत नहीं करतीं, यदि— (2018)

(a)  औद्योगिक उत्पादन कृषि उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है।
(b)  कृषि उत्पादन औद्योगिक उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है।
(c)  निर्धनता और बेरोज़गारी में वृद्धि होती है।
(d)  निर्यातों की अपेक्षा आयात तेज़ी से बढ़ते हैं।

उत्तर: (c)


प्रश्न 3. किसी दिये गए वर्ष में भारत में कुछ राज्यों में आधिकारिक गरीबी रेखाएँ अन्य राज्यों की तुलना में उच्चतर हैं, क्योंकि— (2019)

(a) गरीबी की दर अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होती है
(b) कीमत-स्तर अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होता है
(c) सकल राज्य उत्पाद अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होता है
(d) सार्वजनिक वितरण की गुणता अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होती है

उत्तर: (b)


मेन्स 

प्रश्न 1. "सुधारोत्तर अवधि में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) की समग्र संवृद्धि में औद्योगिक संवृद्धि दर पिछड़ती गई है।" कारण बताइये। औद्योगिक नीति में हाल में किये गए परिवर्तन औद्योगिक संवृद्धि दर को बढ़ाने में कहाँ तक सक्षम हैं ?  (2017)

प्रश्न 2. सामान्यतः देश कृषि से उद्योग और बाद में सेवाओं को अंतरित होते हैं पर भारत सीधे ही कृषि से सेवाओं को अंतरित हो गया है। देश में उद्योग के मुकाबले सेवाओं की विशाल संवृद्धि के क्या कारण हैं? क्या भारत सशक्त औद्योगिक आधार के बिना एक विकसित देश बन सकता है? (2014)

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