शासन व्यवस्था
भारत के फार्मास्युटिकल परिदृश्य का पुनरुद्धार
- 11 Jun 2025
- 31 min read
यह एडिटोरियल 10/06/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Pharma opportunity” लेख पर आधारित है। यह लेख भारत के 50 बिलियन डॉलर के फार्मास्युटिकल उद्योग के रणनीतिक महत्त्व को सामने लाता है, जिसे अमेरिकी टैरिफ से छूट दी गई है, जो वैश्विक स्वास्थ्य सेवा की भूमिका और नवाचार-संचालित विकास की क्षमता को रेखांकित करता है।
प्रिलिम्स के लिये:जेनेरिक दवाएँ, केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन, राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण, रोगाणुरोधी प्रतिरोध, प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद, ओषधि और चमत्कारिक उपचार ( आक्षेपणीय विज्ञापन) अधिनियम, 1954, उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना। मेन्स के लिये:भारत में फार्मास्युटिकल क्षेत्र को नियंत्रित करने वाला वर्तमान नियामक ढाँचा, भारत के फार्मास्युटिकल क्षेत्र के विकास को संचालित करने वाले प्रमुख कारक, भारत के फार्मास्युटिकल क्षेत्र के समक्ष प्रमुख मुद्दे। |
भारत का दवा उद्योग (फार्मास्युटिकल क्षेत्र), जिसका मूल्य वर्ष 2024 में 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर है और वर्ष 2030 तक 130 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है, वहनीय दवाओं की आपूर्ति में एक वैश्विक महाशक्ति बना हुआ है। हालाँकि, अमेरिकी प्रशासन द्वारा विभिन्न क्षेत्रों पर लगाए गए हाल के व्यापक पारस्परिक शुल्कों (Reciprocal Tariffs) के बावजूद, फार्मास्यूटिकल्स को महत्त्वपूर्ण छूट प्राप्त हुई है, जो इस क्षेत्र के रणनीतिक महत्त्व को रेखांकित करती है। व्यापारिक तनावों से यह छूट, वैश्विक स्तर पर सस्ती स्वास्थ्य सेवा बनाए रखने में भारत की अपरिहार्य भूमिका को दर्शाती है, साथ ही नवाचार और गुणवत्ता सुधार के माध्यम से आगे के विकास के अवसर भी प्रस्तुत करती है।
भारत में फार्मास्यूटिकल क्षेत्र को नियंत्रित करने वाला वर्तमान नियामक ढाँचा क्या है?
- केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO): स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन CDSCO भारत में फार्मास्यूटिकल्स की गुणवत्ता, सुरक्षा और प्रभावकारिता सुनिश्चित करने के लिये ज़िम्मेदार शीर्ष नियामक निकाय है।
- यह नई दवाओं के अनुमोदन, नैदानिक परीक्षणों, विनिर्माण लाइसेंसों तथा चिकित्सा उपकरणों और सौंदर्य प्रसाधनों के विनियमन की देखरेख करता है।
- CDSCO औषधि परीक्षण और लेबलिंग के लिये मानक निर्धारित करता है, तथा दवा उत्पादन के लिये अच्छे विनिर्माण अभ्यास (GMP) के कार्यान्वयन में भी शामिल है।
- औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940: औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम भारत के औषधि विनियामक ढाँचे की आधारशिला है।
- यह देश में दवाओं, सौंदर्य प्रसाधनों और चिकित्सा उपकरणों के निर्माण, बिक्री और वितरण को नियंत्रित करता है।
- यह सुनिश्चित करता है कि केवल सुरक्षा और प्रभावकारिता मानकों को पूरा करने वाली दवाओं को ही अनुमोदित किया जाए और बाज़ार में बेचा जाए।
- राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA): NPPA एक सरकारी एजेंसी है, जो भारत में आवश्यक दवाओं की कीमतों को विनियमित करने के लिये ज़िम्मेदार है।
- यह सुनिश्चित करता है कि आवश्यक दवाएँ जनता को किफायती कीमतों पर उपलब्ध हों तथा निर्माता और आपूर्तिकर्त्ता बाज़ार का शोषण न कर सकें।
- NPPA नियमित रूप से आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (हाल ही में 1.74% की वृद्धि) के अंतर्गत दवाओं की कीमतों में संशोधन करता है तथा मूल्य नियंत्रण तंत्र का अनुपालन सुनिश्चित करता है।
- राज्य औषधि नियंत्रण प्राधिकरण: केंद्रीय प्राधिकरणों के अतिरिक्त, भारत में अलग-अलग राज्यों के अपने औषधि नियंत्रण विभाग हैं, जो क्षेत्रीय स्तर पर औषधि कानूनों के प्रवर्तन के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- क्लिनिकल परीक्षणों का विनियमन: भारत में क्लिनिकल परीक्षणों को औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 के अनुपालन में CDSCO द्वारा विनियमित किया जाता है।
- भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) नैदानिक परीक्षणों के संचालन के लिये नैतिक दिशा-निर्देश प्रदान करता है, जिसमें अच्छे नैदानिक अभ्यास (GCP) मानकों का पालन किया जाना चाहिये।
- फार्मास्युटिकल विज्ञापन और प्रचार: फार्मास्युटिकल विज्ञापन और प्रचार का विनियमन भारत के फार्मा क्षेत्र विनियमन का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है।
- ओषधि और चमत्कारिक उपचार ( आक्षेपणीय विज्ञापन) अधिनियम, 1954 औषधियों के विज्ञापन को नियंत्रित करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि विपणन में किये गए दावे सत्य हों तथा भ्रामक न हों।
- हाल ही के सुधार: भारतीय फार्मा क्षेत्र में भी विनियामक दक्षता में सुधार लाने के उद्देश्य से हाल ही में कई सुधार किये गए हैं।
- राष्ट्रीय चिकित्सा उपकरण नीति, 2023 और औषधि प्रौद्योगिकी उन्नयन सहायता योजना महत्त्वपूर्ण चिकित्सा उपकरणों तथा दवाओं के विकास पर ध्यान केंद्रित करती है।
भारत के फार्मास्युटिकल क्षेत्र की वृद्धि को प्रेरित करने वाले प्रमुख कारक कौन-से हैं?
- विनिर्माण में लागत दक्षता: भारत का फार्मास्युटिकल क्षेत्र विनिर्माण में महत्त्वपूर्ण लागत लाभ के कारण आगे बढ़ रहा रहा है।
- देश को सस्ते श्रम और कच्चे माल सहित निम्न परिचालन लागत का लाभ मिलता है, जिससे यह वैश्विक बाज़ार में अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धी बन जाता है।
- उदाहरण के लिये, भारत की दवा निर्माण लागत अमेरिका और यूरोप की तुलना में लगभग 30-35% कम है।
- यह मूल्य निर्धारण लाभ, जेनेरिक दवाओं के विश्व के सबसे बड़े प्रदाता के रूप में भारत की स्थिति को मज़बूत करता है, जो वैश्विक निर्यात में लगभग 20% का योगदान देता है।
- सरकारी सहायता और नीतिगत पहल: उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना और प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (PMBJP) जैसी विभिन्न योजनाओं के माध्यम से सरकारी सहायता विकास को बढ़ावा देती है।
- भारत सरकार ने PIL योजना के लिये 15,000 करोड़ रुपए (2.04 बिलियन अमेरिकी डॉलर) आवंटित किये हैं, जिसका उद्देश्य क्षेत्र की विनिर्माण क्षमता को बढ़ावा देना है।
- इसके अतिरिक्त, PMBJP का विस्तार 15,000 से अधिक केंद्रों तक हो गया है, जो 80% तक कम कीमत पर जेनेरिक दवाइयाँ उपलब्ध करा रहे हैं, जिससे पहुँच और सामर्थ्य दोनों में वृद्धि हुई है।
- जेनेरिक दवाओं की बढ़ती वैश्विक मांग: वैश्विक जेनेरिक दवाओं के बाज़ार में भारत की प्रमुख स्थिति, विशेष रूप से अमेरिका जैसे विकसित देशों में, इसकी वृद्धि का आधार है।
- अमेरिका में खपत होने वाली जेनेरिक दवाओं में भारतीय फार्मा कंपनियों की हिस्सेदारी 40% है, जिसका बाज़ार मूल्य वर्ष 2024 में 9 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक होगा।
- इसके अलावा, अमेरिकी FDA ने 262 से अधिक भारतीय संयंत्रों को मंजूरी प्रदान किया है, जो अमेरिका के बाहर सबसे अधिक संख्या है और भारत की मज़बूत आपूर्ति क्षमताओं को दर्शाता है।
- जैव प्रौद्योगिकी और बायोलॉजिक्स में प्रगति: भारत में जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र, जिसमें बायोलॉजिक्स, बायोसिमिलर और टीके शामिल हैं, प्रगति कर रहा है।
- भारत का बायोसिमिलर बाज़ार 22% की CAGR से बढ़कर वर्ष 2025 तक 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने की उम्मीद है।
- इसके अतिरिक्त, भारत विश्व के 60% से अधिक टीकों की आपूर्ति करता है, जिससे वैश्विक स्वास्थ्य देखभाल नवाचार में, विशेष रूप से कैंसर और मधुमेह उपचार जैसे क्षेत्रों में, इसकी भूमिका मज़बूत होती है।
- अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों का विस्तार: भारत का फार्मा क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, विशेष रूप से यूरोपीय संघ और जापान जैसे विनियमित बाज़ारों में अपनी उपस्थिति का विस्तार जारी रखे हुए हैं।
- वैश्विक मानकों का पालन करने वाली सुविधाओं की बढ़ती संख्या के साथ, भारतीय कंपनियाँ इन बाज़ारों में अपनी उपस्थिति बढ़ा रही हैं।
- वित्त वर्ष 2024 में, भारत का फार्मास्यूटिकल निर्यात 200 से अधिक देशों को निर्यात के साथ 27.82 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया।
- प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) और वैश्विक भागीदारी: विदेशी निवेश और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी भारत के फार्मा उद्योग के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। FDI के सरल मानदंडों ने भारत के फार्मा क्षेत्र में अधिक वैश्विक निवेश को प्रोत्साहित किया है।
- भारत ग्रीनफील्ड फार्मा परियोजनाओं में 100% तक FDI की अनुमति प्रदान करता है तथा वर्ष 2000 से अब तक 23.04 बिलियन अमेरिकी डॉलर का FDI आकर्षित कर चुका है।
- हाल के उदाहरणों में हैदराबाद में अपने वैश्विक क्षमता केंद्र के विस्तार में सनोफी द्वारा किया गया 435 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश शामिल है, जो भारत की फार्मास्युटिकल क्षमता में बढ़ती वैश्विक रुचि को दर्शाता है।
- चिकित्सा उपकरण और डिजिटल स्वास्थ्य क्षेत्र का विस्तार: फार्मास्यूटिकल्स, चिकित्सा प्रौद्योगिकी और डिजिटल स्वास्थ्य का अभिसरण भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के विकास को गति दे रहा है।
- चिकित्सा उपकरणों और डिजिटल स्वास्थ्य समाधानों में प्रगति के साथ, भारत अपने स्वास्थ्य देखभाल पारिस्थितिकी तंत्र का विस्तार कर रहा है।
- भारत का चिकित्सा प्रौद्योगिकी बाज़ार 2030 तक 15% की CAGR से बढ़ते हुए 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने की उम्मीद है।
- इसके अतिरिक्त, आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन (ABDM) स्वास्थ्य सेवा परिदृश्य को बदल रहा है, डिजिटल स्वास्थ्य समाधानों की सुविधा प्रदान कर रहा है तथा देश भर में पहुँच सुनिश्चित कर रहा है।
भारत के फार्मास्युटिकल क्षेत्र के समक्ष प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- गुणवत्ता नियंत्रण और विनियामक अनुपालन: भारत को निरंतर गुणवत्ता नियंत्रण बनाए रखने और वैश्विक विनियामक मानकों का पालन सुनिश्चित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
- फार्मा क्षेत्र के तेजी से विस्तार और बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के कारण कभी-कभी गुणवत्ता मानकों में खामियाँ आ जाती हैं।
- अमेरिका के बाहर USFDA-अनुपालन करने वाले संयंत्रों की सबसे अधिक संख्या होने के बावजूद, भारत में निर्मित कफ सिरप पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी जैसी हालिया घटनाएँ अनुपालन में संभावित अंतराल को दर्शाती हैं।
- बौद्धिक संपदा और पेटेंट संबंधी चुनौतियाँ: भारत के फार्मा क्षेत्र, विशेष रूप से जेनेरिक दवाओं के क्षेत्र बौद्धिक संपदा (IP) अधिकार और पेटेंट संबंधी महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करते हैं।
- अनिवार्य लाइसेंसिंग पर भारत का रुख, जैसा कि दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों को जेनेरिक एंटीरेट्रोवायरल दवाओं के प्रावधान के मामले में देखा गया है, अक्सर वैश्विक दवा कंपनियों के साथ तनाव का कारण बनता है।
- उदाहरण के लिये, भारत ने महत्त्वपूर्ण कैंसर दवाओं के लिये अनिवार्य लाइसेंस प्रदान किये हैं, जिसके कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ कानूनी प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गई है, जिसमें बौद्धिक संपदा अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया है।
- सक्रिय फार्मास्युटिकल अवयवों (API) के लिये आयात पर निर्भरता: भारत महत्त्वपूर्ण सक्रिय फार्मास्युटिकल अवयवों (API) के लिये आयात पर अत्यधिक निर्भर (विशेष रूप से चीन से) है।
- यह निर्भरता आपूर्ति शृंखला स्थिरता के लिये जोखिम, विशेष रूप से भू-राजनीतिक तनावों या व्यापार में व्यवधानों के संदर्भ, में उत्पन्न करती है।
- भारत का लगभग 70-80% API आयात चीन से होता है, जिससे इस क्षेत्र को आपूर्ति शृंखला संबंधी महत्त्वपूर्ण जोखिमों का सामना करना पड़ता है।
- वर्ष 2021 में, वैश्विक आपूर्ति शृंखला में व्यवधान, विशेष रूप से चीन से, आवश्यक API की कमी का कारण बना, जिसने भारत की दवा उत्पादन क्षमता की भेद्यता को उजागर किया।
- जेनेरिक दवाओं पर अत्यधिक निर्भरता: भारत का फार्मा उद्योग जेनेरिक दवाओं पर बहुत अधिक निर्भर है, जो इसके निर्यात का एक बड़ा हिस्सा है।
- यद्यपि जेनेरिक दवाएँ वैश्विक स्वास्थ्य सेवा के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन उन पर अत्यधिक निर्भरता से इस क्षेत्र में नवाचार और दीर्घकालिक स्थिरता को खतरा हो सकता है।
- यद्यपि जेनेरिक दवाएँ अमेरिकी बाज़ार का 40% हिस्सा हैं तथा भारत वैश्विक जेनेरिक निर्यात में 20% की हिस्सेदारी रखता है, फिर भी उद्योग को बायोलॉजिक्स और विशिष्ट दवाओं जैसे उच्च मूल्य वाले उत्पादों की ओर बढ़ने की आवश्यकता है।
- इसके बावजूद, भारत का जेनेरिक बाज़ार पर प्रभुत्व, फार्मास्यूटिकल मूल्य शृंखला में विविधता लाने और उच्च मार्जिन हासिल करने की इस क्षेत्र की क्षमता को सीमित करता है।
- प्रतिभा की कमी और कौशल अंतराल: भारत के फार्मा क्षेत्र को कुशल प्रतिभा की बढ़ती कमी का सामना (विशेष रूप से बायोलॉजिक्स, उन्नत चिकित्सा और नियामक मामलों जैसे उभरते क्षेत्रों में) करना पड़ रहा है।
- प्रतिभा का यह अंतर उद्योग की प्रभावी ढंग से विस्तार करने और नवप्रवर्तन करने की क्षमता में बाधा डालता है।
- PWC की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि 43% फार्मा कंपनियों को कौशल की कमी के कारण डिजिटल परिवर्तन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
- इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्र का लक्ष्य वर्ष 2047 तक 450 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचना है, अनुसंधान एवं विकास तथा नैदानिक परीक्षणों में उन्नत विशेषज्ञता की मांग आपूर्ति से अधिक होने की उम्मीद है, जो विकास के लिये एक बड़ी बाधा उत्पन्न करेगी।
- पर्यावरणीय स्थिरता के मुद्दे: भारत के फार्मास्युटिकल उद्योग का पर्यावरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से अपशिष्ट प्रबंधन, ऊर्जा खपत और उत्पादन सुविधाओं से कार्बन उत्सर्जन के संबंध में।
- जैसे-जैसे वैश्विक स्थिरता मानक बढ़ रहे हैं, इन मुद्दों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
- उदाहरण के लिये, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और प्रदूषण नियंत्रण समितियों के आँकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2020 में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 656 टन जैव-चिकित्सा अपशिष्ट में से केवल 590 टन का ही उपचार किया गया।
- यह रोगाणुरोधी प्रतिरोध की बढ़ती समस्या में योगदान दे रहा है।
भारत के फार्मा क्षेत्र में सुधार के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- नवाचार और अनुसंधान एवं विकास (R&D) निवेश पर ध्यान केंद्रित करना: जेनेरिक दवाओं पर निर्भरता से हटकर उच्च मूल्य वाले उत्पादों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये भारत को अनुसंधान एवं विकास (अ&D) में अपने निवेश को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ाना होगा।
- नवाचार को प्राथमिकता देने से भारतीय फार्मा कंपनियों को बायोलॉजिक्स, बायोसिमिलर्स और व्यक्तिगत चिकित्सा जैसे उभरते चिकित्सीय क्षेत्रों में आगे बढ़ने में मदद मिलेगी ।
- शैक्षिक संस्थानों के साथ निजी क्षेत्र की साझेदारी को प्रोत्साहित करने से तालमेल उत्पन्न हो सकता है, जिससे अभूतपूर्व अनुसंधान को बढ़ावा मिलेगा और नई औषधि खोजों और प्रौद्योगिकियों का परिणाम सामने आएगा।
- API विनिर्माण क्षमताओं को मज़बूत करना: भारत को सक्रिय फार्मास्युटिकल सामग्री (API) के लिये विदेशी आयात, विशेष रूप से चीन से, पर अपनी निर्भरता कम करनी चाहिये।
- सरकारी प्रोत्साहनों (जैसे कि PIL योजना) के माध्यम से आत्मनिर्भर API विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करने से इस क्षेत्र को आपूर्ति शृंखला व्यवधानों से बचाया जा सकेगा।
- समर्पित API पार्कों की स्थापना और मौजूदा सुविधाओं को वैश्विक अनुपालन मानकों के अनुरूप उन्नत करने से यह भी सुनिश्चित होगा कि भारत में निर्मित दवाएँ लगातार उच्च गुणवत्ता वाली होंगी।
- हरित एवं सतत् विनिर्माण प्रथाओं का कार्यान्वयन: भारत के फार्मास्युटिकल उद्योग के लिये वैश्विक पर्यावरणीय मानकों को पूरा करने और प्रतिस्पर्द्धी बने रहने के लिये हरित एवं अधिक सतत् विनिर्माण प्रथाओं को अपनाना आवश्यक है।
- सतत् उत्पादन पद्धतियों को अपनाने से ऊर्जा खपत, अपशिष्ट और कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी, जो अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता लक्ष्यों के अनुरूप होगा।
- पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों, जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों और शून्य अपशिष्ट प्रक्रियाओं को अपनाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- भारत पर्यावरण संबंधी नियमों पर अपने बढ़ते जोर का लाभ उठाकर पर्यावरण अनुकूल दवा विनिर्माण में अग्रणी बन सकता है, जिससे उसकी वैश्विक प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी।
- डिजिटल स्वास्थ्य और एआई एकीकरण का विस्तार: भारत को कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और मशीन लर्निंग सहित डिजिटल स्वास्थ्य प्रौद्योगिकियों को फार्मास्युटिकल अनुसंधान, उत्पादन और वितरण प्रणालियों में पूरी तरह से एकीकृत करना चाहिये।
- AI का उपयोग करके, दवा की खोज और विकास प्रक्रियाओं में तेजी लाई जा सकती है तथा रोगी देखभाल को अधिक कुशलतापूर्वक वैयक्तिकृत किया जा सकता है।
- दवा विकास, नैदानिक परीक्षण और पूर्वानुमान विश्लेषण को कारगर बनाने के लिये AI-संचालित प्लेटफार्मों के उपयोग से न केवल परिचालन दक्षता बढ़ेगी, बल्कि नए उपचार मार्गों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी।
- इसके अतिरिक्त, AI गुणवत्ता नियंत्रण को बढ़ा सकता है, त्रुटियों को कम कर सकता है तथा समग्र आपूर्ति शृंखला प्रबंधन में सुधार कर सकता है।
- स्वास्थ्य अवसंरचना के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी: घरेलू और वैश्विक दोनों मांगों को पूरा करने के लिये, भारत को फार्मास्युटिकल अवसंरचना को बढ़ाने के लिये मज़बूत सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को बढ़ावा देना चाहिये।
- सरकार, निजी फार्मा कंपनियों और अनुसंधान संस्थानों के बीच सहयोग से आवश्यक दवाओं के उत्पादन, वितरण और पहुँच को बढ़ाने के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचा उपलब्ध होगा।
- ऐसी साझेदारियाँ उभरती स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने के लिये बेहतर संसाधन आवंटन, ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा पहुँच में सुधार तथा वंचित आबादी तक टीके और महत्त्वपूर्ण उपचार पहुँचाने में तेजी लाने में भी सक्षम होंगी।
- उन्नत चिकित्सा में कौशल और प्रतिभा विकास: जैसे-जैसे फार्मा उद्योग अधिक जटिल औषधि विकास में आगे बढ़ रहा है, भारत को कौशल और प्रतिभा विकास में भारी निवेश करना चाहिये, विशेष रूप से जैविक और व्यक्तिगत चिकित्सा जैसे अत्याधुनिक क्षेत्रों में।
- शैक्षणिक संस्थानों, फार्मा कंपनियों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के बीच सहयोग, नई प्रौद्योगिकियों को संभालने में सक्षम कुशल कार्यबल विकसित करने में महत्त्वपूर्ण होगा।
- सरकार को उन कंपनियों को प्रोत्साहन देना चाहिये जो उन्नत फार्मास्युटिकल प्रौद्योगिकियों में कर्मचारियों के कौशल उन्नयन में निवेश करती हैं, ताकि भविष्य के लिये एक स्थायी प्रतिभा पाइपलाइन सुनिश्चित हो सके।
- पुरानी बीमारियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए घरेलू दवा बाज़ार को पुनर्जीवित करना: मधुमेह, हृदय संबंधी बीमारियों और कैंसर जैसी गैर-संचारी बीमारियों (NCD) के बढ़ते बोझ को पूरा करने के लिये, भारत को अपने घरेलू दवा बाज़ार को पुरानी बीमारियों के उपचार पर केंद्रित करना होगा।
- भारत में NCD तेजी से रुग्णता और मृत्यु दर का प्रमुख कारण बन रहा है, इसलिये फार्मा कंपनियों को इन चिकित्सीय क्षेत्रों में अनुसंधान और उत्पादन को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- दीर्घकालिक, उच्च-मूल्य चिकित्सा पर ध्यान केन्द्रित करने से न केवल घरेलू स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकताएँ पूरी होंगी, बल्कि बढ़ते वैश्विक दीर्घकालिक रोग बाजार में निर्यात के अवसर भी उत्पन्न होंगे।
- सस्ती दवाओं तक पहुँच को सुव्यवस्थित करना: विशेष रूप से ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में सस्ती दवाओं तक व्यापक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये, भारत को जन औषधि योजना और अन्य सरकारी पहलों के विस्तार सहित वितरण नेटवर्क को बढ़ाना होगा।
- सस्ती दवा दुकानों की पहुँच बढ़ाकर भारत लागत और पहुँच संबंधी उन समस्याओं का समाधान कर सकता है, जो अनेक नागरिकों को समय पर देखभाल प्राप्त करने से रोकती हैं।
- अगली पीढ़ी की फार्मा प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देना: भारत को अगली पीढ़ी की फार्मास्यूटिकल प्रौद्योगिकियों, जैसे कोशिका-आधारित चिकित्सा और जीन थेरेपी में निवेश करना चाहिये, ताकि जेनेरिक दवाओं से आगे बढ़ा जा सके और वैश्विक उच्च-मूल्य वाली दवा बाज़ार में नेतृत्व की स्थिति स्थापित की जा सके।
- CRISPR जीन एडिटिंग और RNA-आधारित चिकित्सा जैसी तकनीकी प्रगति का लाभ उठाने से भारत की फार्मास्यूटिकल पेशकश में विविधता आएगी तथा नए वैश्विक बाज़ार खुलेंगे।
- यह दूरदर्शी दृष्टिकोण भारत को नवीन चिकित्सा के केंद्र के रूप में स्थापित करेगा तथा इसके निर्यात प्रोफाइल और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाएगा।
निष्कर्ष:
भारत का फार्मास्यूटिकल क्षेत्र एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है, जहाँ यह "विश्व की फार्मेसी" होने से आगे बढ़कर उच्च-मूल्य नवाचार में वैश्विक नेतृत्व की ओर अग्रसर हो रहा है। अनुसंधान एवं विकास (R&D), डिजिटल स्वास्थ्य और कौशल विकास में रणनीतिक सुधार और मजबूत सार्वजनिक-निजी साझेदारी इस क्षेत्र के अगले चरण को अनलॉक करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। आत्मनिर्भरता और वैश्विक उत्कृष्टता की दृष्टि के साथ, भारत सस्ती और अत्याधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं के भविष्य को आकार देने की दिशा में सुदृढ़ स्थिति में है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: Q. भारत का फार्मास्युटिकल क्षेत्र किफायती दवाओं की आपूर्ति में वैश्विक अग्रणी के रूप में उभरा है, फिर भी दीर्घकालिक विकास को बनाए रखने में इसे संरचनात्मक और रणनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)मेन्स:Q. भारत सरकार दवा कंपनियों द्वारा दवा के पारंपरिक ज्ञान को पेटेंट कराने से कैसे बचाव कर रही है? (वर्ष 2019) |