जैव विविधता और पर्यावरण
पर्यावरणीय समुत्थानशीलता हेतु भारत की नीति
- 03 Dec 2025
- 174 min read
यह एडिटोरियल 03/12/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “The dismal state of India’s environment” पर आधारित है। यह लेख निरंतर नीतिगत शिथिलता, कमज़ोर सुरक्षा उपायों और संसाधन-प्रधान विकास मॉडल के कारण बढ़ते पर्यावरणीय संकट को उजागर करता है। यह एक ऐसी नीतिगत पुनर्निर्धारण की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देता है जो सुरक्षा को पुनर्स्थापित कर समुदायों को सशक्त बनाए और एक स्थायी भविष्य के लिये संस्थानों का पुनर्निर्माण करे।
प्रिलिम्स के लिये: अरावली रेंज, पीएम सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना, ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम, इंटरनेशनल बिग कैट एलायंस, MISHTI योजना, दक्षिण ल्होनक झील आपदा, 2023, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, अर्बन माइनिंग
मेन्स के लिये: पर्यावरण शासन में भारत द्वारा की गई प्रमुख प्रगति, भारत के समक्ष प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियाँ।
भारत एक गंभीर होते पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहा है, जो मुख्यतः एक दशक से लगातार नीतिगत शिथिलता और नियामकीय कमज़ोरियों के कारण हो रहा है। खनन मानदंडों की उपेक्षा के कारण अरावली पर्वतमाला के क्षरण से लेकर प्रमुख शहरों में व्याप्त विषाक्त वायु और यूरेनियम-संदूषित भू-जल की रिपोर्टों तक, देश का पारिस्थितिक संकट एक ऐसे मॉडल को दर्शाता है जो पर्यावरणीय संरक्षण से अधिक संसाधन दोहन को प्राथमिकता देता है। वन संरक्षण अधिनियम जैसे मूलभूत कानूनों में संशोधनों ने आवश्यक सुरक्षा उपायों को दरकिनार कर दिया है, जबकि लगातार न्यूनतम वित्तपोषण, प्रक्रियागत कमियों और कार्योत्तर मंज़ूरियों के बढ़ते उपयोग ने जवाबदेही को कमज़ोर कर दिया है। भारत को अब एक निर्णायक नीतिगत सुधार की आवश्यकता है जो पारिस्थितिक क्षरण को नियंत्रित कर सके, सुदृढ़ सुरक्षा उपायों को पुनर्स्थापित कर सके और एक वास्तविक सतत भविष्य सुनिश्चित करने के लिये संस्थानों को सुदृढ़ कर सके।
पर्यावरण शासन में भारत ने कौन-सी प्रमुख प्रगति की है?
- विकेंद्रीकृत ऊर्जा परिवर्तन— प्रधानमंत्री सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना: यह योजना ऊर्जा उत्पादन को केंद्रीकृत मॉडल से परे ‘प्रोज्यूमर’ मॉडल की ओर संरचनात्मक परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें घर-परिवार द्वारा स्वयं ऊर्जा का उत्पादन और उपभोग किया जाता है और जिससे बिजली सब्सिडी से सरकारी ऋण का बोझ कम होता है।
- यह एक आत्मनिर्भर पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करता है जो ऊर्जा निर्धनता और कार्बन इंटेंसिटी से एक साथ निपटता है तथा ऊर्जा परिवर्तन को केवल औद्योगिक नीति के बजाय एक जन आंदोलन में परिणत कर देता है।
- इस योजना ने विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जुलाई 2025 तक 4,946 मेगावाट की रूफटॉप सौर क्षमता की स्थापना की सुविधा प्रदान की है।
- वैश्विक आर्द्रभूमि शासन-रामसर स्थलों का विस्तार: भारत ने आक्रामक रूप से 'पारिस्थितिक तंत्र-केंद्रित सोच' को वनों की परिधि से आगे विस्तारित करते हुए अब 'ब्लू कार्बन' परिसंपत्तियों को रणनीतिक महत्त्व दिया है। साथ ही देश ने जल-स्तर संरक्षण एवं बाढ़-शमन अवरोधों को सुदृढ़ करने हेतु आर्द्रभूमियों की सुरक्षा में एशिया का अग्रणी स्थान प्राप्त किया है।
- इस शासन परिवर्तन में आर्द्रभूमि को बंजर भूमि के रूप में नहीं बल्कि जलभृत पुनर्भरण और प्रवासी पक्षी मार्गों के लिये महत्त्वपूर्ण जलवायु अवसंरचना के रूप में मान्यता दी गई है।
- भारत का रामसर टैली- 2025 के अंत तक 94 स्थलों तक (दक्षिण एशिया में सबसे अधिक) पहुँच जाएगा।
- ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम (GCP): अगस्त 2025 की अधिसूचना में, भारतीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने वृक्षारोपण के लिये ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम (GCP) नियमों में महत्त्वपूर्ण संशोधन किया, जिससे ध्यान सरल 'वृक्षारोपण' से हटकर सत्यापन योग्य पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्स्थापन पर केंद्रित हो गया।
- यह 'त्वरित नीति (एजाइल गवर्नेंस)' का उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहाँ कंपनियों द्वारा मृत पौधों पर क्रेडिट पाने जैसी कमियों को शीघ्रता से दूर किया गया, ताकि केवल वास्तविक पारिस्थितिक मूल्य पर आधारित क्रेडिट ही विनिमेय हो सकें।
- नवीन दिशानिर्देश– 2025 ऋण पात्रता के लिये 5 वर्षों के बाद न्यूनतम 40% कैनोपी घनत्व को अनिवार्य करते हैं, जिससे 'प्लांट-एंड-फॉरगेट' खामी दूर हो जाती है।
- जलवायु वित्त को संस्थागत बनाना– सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड: सरकार ने ग्रीन बॉण्ड को अपने उधार कैलेंडर में एकीकृत करके जलवायु परिवर्तन कार्रवाई को 'नैतिक दायित्व' से 'राजकोषीय साधन' में बदल दिया है, जिससे सार्वजनिक बुनियादी अवसंरचना के लिये कम लागत वाली पूंजी प्रवाह की व्यवस्था तैयार हो गई है।
- इससे संधारणीय परियोजनाओं के लिये 'ग्रीनियम' (लागत अंतर) कम हो जाता है और वैश्विक निवेशकों को यह संकेत मिलता है कि भारत के जलवायु लक्ष्य सॉवरेन गारंटी द्वारा समर्थित हैं।
- केंद्र ने वित्त वर्ष 2024-25 की दूसरी छमाही के लिये ग्रीन बॉण्ड जारी करने हेतु 20,000 करोड़ रुपये की घोषणा की।
- जैव विविधता कूटनीति - इंटरनेशनल बिग कैट एलायंस (IBCA): भारत ने संरक्षण को विदेश नीति का हिस्सा बना लिया है और बाघों के पुनर्वास में अपनी सफलता का उपयोग करते हुए जैवविविधता संरक्षण में ग्लोबल साउथ का नेतृत्व किया है तथा प्रकृति-आधारित समाधानों के लिये एक कूटनीतिक ब्लॉक का निर्माण किया है।
- इससे पर्यावरण के क्षेत्र में भारत की 'सॉफ्ट पावर' को संस्थागत स्वरूप प्राप्त होगा तथा वैश्विक मंचों पर नियम-पालक से आगे बढ़कर भारत नियम-निर्माता और ज्ञान प्रदाता बन जाएगा।
- IBCA ने पाँच वर्षों (2023-24 से 2027-28) के लिये भारत सरकार से 150 करोड़ रुपये का प्रारंभिक समर्थन प्राप्त कर लिया है।
- यह प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता के आधार पर, शिकार-रोधी और पर्यावास प्रबंधन पर तकनीकी विशेषज्ञता को विश्व स्तर पर निर्यात करने का प्रयास है।
- 'अपशिष्ट-से-संपत्ति' संरचना— डिजिटल EPR प्रवर्तन: कार्रवाई के तहत स्वैच्छिक दिशा-निर्देशों से अनिवार्य, डिजिटल रूप से ट्रैक किये गए विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (EPR) में परिवर्तन किया गया है, जिससे निर्माताओं को अपने प्लास्टिक और ई-अपशिष्ट की लागत को आंतरिक रूप से वहन करने के लिये विवश होना पड़ रहा है।
- इससे एक औपचारिक चक्रीय अर्थव्यवस्था बाज़ार का निर्माण होता है, जहाँ अपशिष्ट प्रमाणपत्रों का व्यापार होता है, जिससे कूड़ा फेंकने के स्थान पर पुनर्चक्रण को प्रोत्साहन मिलता है तथा अनौपचारिक अपशिष्ट बीनने वाले क्षेत्र को औपचारिक मान्यता दी जाती है।
- प्लास्टिक अपशिष्ट पुनर्चक्रण क्षमता में प्रभावी रूप से सुधार हुआ है तथा CPCB ने अनुपालन न करने वाली कंपनियों पर पर्यावरण क्षतिपूर्ति जुर्माना लगाया है, जिससे अनुपालन सुनिश्चित हुआ है।
- तटीय समुत्थानशीलता– MISHTI योजना कार्यान्वयन: समुद्र-स्तर में वृद्धि के खतरे को पहचानते हुए, सरकार ने मैंग्रोव पुनर्वनीकरण के लिये एक लक्षित हस्तक्षेप शुरू किया, जिसमें NREGA श्रम को वैज्ञानिक संरक्षण के साथ जोड़ा गया।
- यह एक 'सह-लाभ' दृष्टिकोण है जो चक्रवातों के विरुद्ध जैविक समुद्री दीवार बनाते हुए ग्रामीण रोज़गार उत्पन्न करता है तथा कंक्रीट तटबंधों से प्रकृति-आधारित अवरोधों पर ध्यान केंद्रित करता है।
- वित्त वर्ष 2024-25 के लिये, आंध्र प्रदेश, गुजरात, केरल, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी को 3,836 हेक्टेयर खराब हुए मैंग्रोव के उपचार एवं पुनर्स्थापन के लिये 17.96 करोड़ रुपये आवंटित किये गए हैं।
भारत के समक्ष प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियाँ क्या हैं?
- हिमालय में हिमनद झील विस्फोट बाढ़ (GLOF): हिमालयी क्रायोस्फीयर (हिममंडल) संरचनात्मक पतन के दौर से गुजर रहा है, जहाँ त्वरित रूप से हिमनद विगलन से अस्थिर नई झीलें बन रही हैं। ये झीलें वास्तविक अर्थों में ‘समय-सम्बद्ध विस्फोटक खतरे’ बन गयी हैं, जो नीचे स्थित ऊर्जा अवसंरचना और सीमा क्षेत्रों की रणनीतिक कड़ियों को जोखिम में डालती हैं।
- यह अब केवल जलवायु का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक खतरा बन गया है, जैसा कि तब देखा गया जब अचानक हुई GLOF घटनाओं ने वर्षों के जलविद्युत निवेश को मिनटों में नष्ट कर दिया।
- दक्षिण ल्होनक झील आपदा, 2023 के बाद, केंद्र सरकार ने वर्ष 2024 के अंत में ₹150 करोड़ का शमन कार्यक्रम शुरू किया, जो विशेष रूप से कुछ 'उच्च जोखिम वाली' हिमनद झीलों को लक्षित करेगा।
- असममित वायु प्रदूषण - 'बाउल इफेक्ट': वायु प्रदूषण एक सामान्य पर्यावरणीय समस्या से आगे बढ़कर अब एक भौगोलिक संकट बन चुका है जिसमें उत्तरी भारत की चारों ओर से घिरी स्थलाकृति सर्दियों में प्रदूषकों को कैप्चर कर लेती हैजिससे एक विषैला 'गैस चैम्बर' वाला एक विषाक्त वातावरण बन जाता है जो दक्षिण भारत की अपेक्षाकृत खुले तंत्र से भिन्न है।
- यह निरंतर जोखिम अब एक पूरी पीढ़ी की फेफड़ों की क्षमता को संरचनात्मक रूप से जोखिम में डाल रहा है, जिससे दीर्घकालिक सार्वजनिक स्वास्थ्य भार उत्पन्न हो रहा है, जिसकी भरपाई आर्थिक विकास से नहीं की जा सकती।
- यद्यपि दिल्ली का जन–नवंबर 2025 का औसत AQI (187) पिछले आठ वर्षों में सबसे बेहतर दर्ज हुआ, यह अभी भी असुरक्षित है और लखनऊ व वाराणसी जैसे उत्तरी शहर सर्दियों में प्रदूषण-सीमा को लगातार पार करते रहते हैं।
- संरचनात्मक जल संकट और जलभृत का गिरता स्तर: भारत 'जल संकट' से 'संरचनात्मक अभाव' की ओर बढ़ रहा है, जहाँ भूजल निष्कर्षण पुनर्भरण दरों से अधिक है, जो विकृत कृषि सब्सिडी और अनियोजित शहरीकरण द्वारा प्रेरित है और यह प्राकृतिक पुनर्भरण क्षेत्रों को नष्ट कर रहा है।
- यह खतरा बहुआयामी है, क्योंकि इससे अब सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग और औद्योगिक स्थिरता का खतरा उत्पन्न हो गया है, क्योंकि प्रमुख प्रौद्योगिकी केंद्रों को 'डे जीरो' परिदृश्य का सामना करना पड़ रहा है, जिससे वैश्विक व्यापार परिचालन बाधित हो सकता है।
- अनुमान है कि वर्ष 2030 तक देश की जल मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुनी हो जाएगी, जिसका अर्थ है कि करोड़ों लोगों के लिये जल की गंभीर कमी होगी।
- बंगलुरु में वर्ष 2024 के गंभीर जल संकट के कारण IT कॉरिडोर टैंकरों पर निर्भर हो गए।
- 'हरित बनाम हरित' भूमि संघर्ष और आवास विखंडन: एक बढ़ता हुआ विश्लेषणात्मक खतरा नवीकरणीय ऊर्जा विस्तार और जैवविविधता संरक्षण के बीच संघर्ष है, जहाँ सौर पार्क एवं बिजली लाइनें गंभीर रूप से लुप्तप्राय मेगाफौना के अंतिम शेष आवासों को विखंडित कर रही हैं।
- यह 'हरित दुविधा' जलवायु शमन (शुद्ध-शून्य लक्ष्य) और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच चयन करने के लिये बाध्य करती है, जिसके परिणामस्वरूप कानूनी गतिरोध उत्पन्न होता है तथा मानव-वन्यजीव मृत्यु दर में वृद्धि होती है।
- सत्र 2024-25 में संघर्ष तीव्र हो जाएगा तथा बिजली लाइनों की अधिकता के कारण ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) की संख्या 150 से नीचे गिर जाएगी, जबकि जैसलमेर में वर्ष 2025 में कैप्टिव ब्रीडिंग की एक महत्त्वपूर्ण सफलता मिली।
- तटीय क्षरण और चक्रवात का खतरा: भारत का तटीय क्षेत्र बढ़ते समुद्री स्तर और तीव्र होते चक्रवातों की 'दोहरी मार' का सामना कर रहा है, जो न केवल बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं, बल्कि भूमि के बड़े हिस्से को स्थायी रूप से क्षरण करते हैं, जिससे देश की भूमि-सीमा वास्तविक रूप से घट रही है।
- यह एक गंभीर विकास खतरा है, क्योंकि यह घनी तटीय आबादी को विस्थापित करता है और ताजे जल के स्रोतों को खारा बनाता है, जिससे उपजाऊ कृषि डेल्टा प्रभावी रूप से रहने योग्य नहीं रह जाते हैं।
- INCOIS अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि वर्ष 2100 तक भारतीय तटरेखाओं पर समुद्र स्तर में 0.5-1 मीटर की वृद्धि होगी, जिससे जलवायु संबंधी गंभीर खतरे उत्पन्न होंगे, जो क्षेत्रीय गुरुत्वाकर्षण विसंगतियों के कारण वैश्विक औसत से काफी अधिक होंगे।
- 'विरासत अपशिष्ट' और माइक्रोप्लास्टिक विषाक्तता: 'विरासत अपशिष्ट' (पुराने लैंडफिल ढेरों) के प्रबंधन में विफलता ने एक विषाक्त संकट उत्पन्न कर दिया है, जहाँ भारी धातुओं के रिसाव से भूजल विषाक्त हो जाता है, जबकि माइक्रोप्लास्टिक खाद्य शृंखला में प्रवेश कर जाता है, जिससे एक अदृश्य जैविक खतरा उत्पन्न हो जाता है।
- संकट अब साधारण 'कूड़ा-अपशिष्ट' से बढ़कर प्रसंस्करण की प्रणालीगत विफलता में बदल गया है, जहाँ सुभेद्य पारिस्थितिकी (जैसे द्वीप/पहाड़ों पर) में पर्यटन की तीव्र वृद्धि अपशिष्ट अवसंरचना को पीछे छोड़ देती है, जिससे पारिस्थितिकी पतन हो जाता है।
- भारत में प्रतिदिन 1.5 लाख टन से अधिक नगरपालिका ठोस अपशिष्ट (MSW) उत्पन्न होता है, लेकिन केवल 83% अपशिष्ट ही एकत्र किया जाता है और 30% से भी कम का ही निपटारा किया जाता है।
- उदाहरण के लिये, लक्षद्वीप में पर्यटन में वृद्धि के कारण सत्र 2024-25 में 'बढ़ते अपशिष्ट संकट' की सूचना मिली है, क्योंकि वहाँ गैर-जैवनिम्नीकरणीय भार को संभालने के लिये कोई कार्यात्मक भस्मक नहीं है।
- 'गर्म रात' की घटना और ताप तनाव: जबकि अधिकतम तापमान सुर्खियाँ बटोरता है, बहुआयामी खतरा न्यूनतम रात्रि तापमान में वृद्धि है, जो मानव शरीर को ठीक होने से रोकता है, जिससे शहरी ताप द्वीपों में मृत्यु दर का जोखिम काफी बढ़ जाता है।
- यह 'साइलेंट किलर' कंक्रीट के शहरीकरण के कारण और भी अधिक बढ़ गया है, जो ऊष्मा को अवशोषित कर लेता है, शहरों को रात्रिकालीन ऊष्मा द्वीपों में बदल देता है, जिससे उन गरीबों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिनके पास ठंडक की सुविधा नहीं होती।
- वर्ष 1901 के बाद से 2024 को भारत का सबसे गर्म वर्ष माना गया, दिल्ली और चंडीगढ़ में जून 2024 में उल्लेखनीय 'अत्यधिक गर्म रातें' दर्ज की गईं, जहाँ रात का तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहा।
विकास को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरणीय समुत्थानशीलता सुदृढ़ करने के लिये भारत क्या कदम उठा सकता है?
- शहरी मास्टर प्लान में 'स्पंज सिटी' कार्यढाँचे को संस्थागत बनाना: भारत को शहर के मास्टर प्लान में विधिक रूप से पारगम्य सतहों और जलभृत पुनर्भरण क्षेत्रों को अनिवार्य बनाकर कंक्रीट जल निकासी से आगे बढ़कर प्रकृति-आधारित समाधान (NPS) की ओर बढ़ना चाहिये।
- यह उपाय एक 'ब्लू-ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर' नेटवर्क का निर्माण करता है जो शहरी बाढ़ को कम करता है, साथ ही शुष्क मौसम के लिये भूजल को पुनर्भरण करता है, जिससे शहरीकरण में जल की कमी को प्रभावी रूप से नियंत्रित किया जा सकता है।
- शहरी संरचना में आर्द्रभूमि को एकीकृत करके, शहर 'नगरीय ऊष्मा द्वीप' प्रभाव को कम कर सकते हैं, जिससे शीतलन ऊर्जा की मांग कम हो सकती है तथा ऊष्मा तरंगों के दौरान आर्थिक उत्पादकता बढ़ सकती है।
- ऊर्जा सुरक्षा के लिये विकेंद्रीकृत 'माइक्रो-ग्रिड' आर्किटेक्चर: एक अखंड केंद्रीकृत ग्रिड से वितरित नवीकरणीय ऊर्जा (DRE) माइक्रो-ग्रिड के नेटवर्क में स्थानांतरण से जलवायु-प्रेरित ग्रिड विफलताओं और ब्लैकआउट के खिलाफ समुत्थानशीलता बढ़ती है।
- यह दृष्टिकोण स्थानीय समुदायों को 'प्रोज्यूमर' के रूप में सशक्त बनाता है, जिससे पारेषण हानि कम होती है और चरम मौसमी की घटनाओं के दौरान भी ग्रामीण उद्योगों के लिये निर्बाध बिजली सुनिश्चित होती है।
- यह 'ऊर्जा लोकतंत्र' को बढ़ावा देता है और रखरखाव में स्थानीय हरित नौकरियों का सृजन करता है तथा कार्बन तटस्थता के लक्ष्य को ज़मीनी स्तर पर आर्थिक सशक्तीकरण एवं औद्योगिक विश्वसनीयता के साथ संरेखित करता है।
- कृषि में 'चक्रीय जैव-अर्थव्यवस्था' को मुख्यधारा में लाना: कृषि अपशिष्ट को दायित्व (पराली दहन) से एक परिसंपत्ति (संपीड़ित बायोगैस/जैव-खाद) में परिवर्तित करके एक औपचारिक परिपत्र आपूर्ति शृंखला के माध्यम से ग्रामीण राजस्व का एक नया स्रोत निर्मित होता है।
- यह उपाय वायु प्रदूषण और मृदा क्षरण की समस्या का समाधान करता है, साथ ही आयातित जीवाश्म ईंधन एवं रासायनिक उर्वरकों का घरेलू विकल्प भी प्रदान करता है।
- यह 'पुनर्योजी कृषि' को बढ़ावा देता है, जिससे मृदा कार्बनिक कार्बन में वृद्धि होती है, जो एक महत्त्वपूर्ण कार्बन सिंक के रूप में कार्य करता है, जिससे खाद्य प्रणालियों को सुरक्षित करते हुए जलवायु झटकों के खिलाफ फसल की समुत्थानशीलता को बढ़ावा मिलता है।
- रणनीतिक 'महत्त्वपूर्ण खनिज' पुनर्चक्रण और शहरी खनन: हरित परिवर्तन के लिये आपूर्ति शृंखला को सुरक्षित करने के लिये, भारत को विशेष रूप से ई-अपशिष्ट और बैटरी भंडारण प्रौद्योगिकियों के लिये एक सख्त 'विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व' (EPR) व्यवस्था को लागू करना चाहिये।
- घरेलू 'शहरी खनन' क्लस्टरों के विकास से लिथियम और कोबाल्ट के लिये अस्थिर वैश्विक आयात बाज़ारों पर निर्भरता कम हो जाती है, जिससे नवीकरणीय क्षेत्र में रणनीतिक स्वायत्तता सुनिश्चित होती है।
- इससे बढ़ते अपशिष्ट संकट को संसाधन अवसर में बदल दिया जाता है तथा एक 'द्वितीयक सामग्री बाज़ार' को बढ़ावा मिलता है जो उच्च तकनीक विनिर्माण को समर्थन देता है और नए खनन के पारिस्थितिक पदचिह्न को कम करता है।
- महत्त्वपूर्ण अवसंरचना परिसंपत्तियों को 'जलवायु-सहिष्णु' करना: भारत को सभी बड़े पैमाने की अवसंरचना परियोजनाओं (सड़क, पुल, बंदरगाह) के लिये प्रारंभिक निविदा प्रक्रिया में अनिवार्य 'जलवायु जोखिम आकलन' को एकीकृत करने की आवश्यकता है।
- 'समुत्थानशील डिज़ाइन मानकों' को अपनाने से, जिनमें अनुमानित 50-वर्षीय बाढ़ रेखाओं और ताप तनाव को ध्यान में रखा जाता है, कमज़ोर परिसंपत्तियों के 'लॉक-इन' को रोका जा सकता है, जिसके लिये बाद में महंगी रेट्रोफिटिंग की आवश्यकता होगी।
- इससे भविष्य में आपदा से उबरने की लागत को न्यूनतम करके तथा आपूर्ति शृंखला में व्यवधान को रोककर 'राजकोषीय स्थिरता' सुनिश्चित होती है, जिससे बढ़ती जलवायु अस्थिरता के विरुद्ध अर्थव्यवस्था मज़बूत बनती है।
- एक सॉवरेन 'ग्रीन टैक्सोनॉमी' और मिश्रित वित्त का विकास करना: एक स्पष्ट, कानूनी रूप से बाध्यकारी 'ग्रीन टैक्सोनॉमी' की स्थापना से वास्तविक जलवायु-सकारात्मक निवेशों को 'ग्रीनवाशिंग' से अलग करने में सहायता मिलती है, जिससे दीर्घकालिक संस्थागत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) आकर्षित होता है।
- 'मिश्रित वित्त' साधनों का उपयोग करके, जहाँ सार्वजनिक निधियाँ निजी पूंजी के जोखिम को कम करती हैं, भारत तटीय दीवारों या सूखा सहिष्णु सिंचाई पद्धति जैसी उच्च जोखिम वाली लेकिन उच्च लाभ वाली अनुकूलन परियोजनाओं के लिये खरबों डॉलर की धनराशि संग्रहित कर सकता है।
- यह वित्तीय संरचना 'सरकारी ऋण-योग्यता' को जलवायु प्रदर्शन के साथ संरेखित करती है, जिससे सतत विकास परियोजनाओं के लिये पूंजी की लागत कम हो जाती है।
- 'जीवित तटरेखाओं' के साथ एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM): कठोर कंक्रीट की समुद्री दीवारों को मैंग्रोव और प्रवाल भित्तियों से युक्त 'जीवित तटरेखाओं' से प्रतिस्थापित करने से समुद्र स्तर में वृद्धि एवं चक्रवाती लहरों के विरुद्ध गतिशील सुरक्षा मिलती है।
- यह पारिस्थितिक दृष्टिकोण समुद्र-स्तर वृद्धि और चक्रवातीय तरंगों के विरुद्ध अधिक सक्षम सुरक्षा प्रदान करता है क्योंकि कठोर संरचनाएँ प्रायः समीपवर्ती क्षेत्रों में क्षरण को बढ़ाती हैं जबकि ‘लिविंग शोरलाइन्स’ मत्स्य-प्रजनन स्थलों को भी सुदृढ़ करती हैं।
- यह 'ब्लू इकोनॉमी' को सुरक्षित करता है, लाखों मछुआरों की आजीविका की रक्षा करता है तथा रणनीतिक बंदरगाहों और तटीय आर्थिक क्षेत्रों की परिचालन समुत्थानशीलता सुनिश्चित करता है।
निष्कर्ष:
भारत के पर्यावरणीय शासन में एक निर्णायक सुधार के लिये मज़बूत सुरक्षा उपायों, सुदृढ़ बुनियादी अवसंरचनाओं और समुदाय-केंद्रित पारिस्थितिक प्रबंधन को एकीकृत करना आवश्यक है ताकि तेज़ी से बढ़ती पर्यावरण-ह्रास की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण किया जा सके। आर्थिक नियोजन में संधारणीयता को मूलभूत सिद्धांत के रूप में शामिल करके, भारत ऐसे विकास मॉडल को अपना सकता है, जो दोहनकारी न होकर पुनर्योजी और जोखिम-संवेदनशील हो।
ऐसा दृष्टिकोण सतत विकास लक्ष्यों— SDG 6 (स्वच्छ जल और साफ-सफाई), SDG 7 (सस्ती और प्रदूषण-मुक्त ऊर्जा), SDG 11 (सतत शहर एवं संतुलित समुदाय), SDG 13 (जलवायु परिवर्तन कार्रवाई), SDG 14 (जलीय जीवों की सुरक्षा) और SDG 15 (थलीय जीवों की सुरक्षा) की प्रगति को सीधे आगे बढ़ाता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: भारत की पर्यावरणीय शासन-व्यवस्था आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और पारिस्थितिक संधारणीयता सुनिश्चित करने की समानांतर चुनौती का सामना कर रही है। भारत के पर्यावरणीय विनियमन-तंत्र में मौजूद प्रमुख कमियों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये तथा सतत विकास के लिये पर्यावरणीय शासन को सुदृढ़ करने हेतु उपयुक्त उपाय सुझाइये। |
प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न
प्रश्न 1. भारत की वर्तमान पर्यावरणीय आपातस्थिति के क्या कारण हैं?
भारत की पर्यावरणीय आपातस्थिति पिछले दशक में पर्यावरणीय नीतियों के शिथिलीकरण, नियामक कार्यढाँचे की दुर्बलता, प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन और उत्तरदायित्व की कमी के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। इसके प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में निर्वनीकरण, वायु तथा जल प्रदूषण, भू-जल में यूरेनियम संदूषण और परियोजनाओं को पूर्व-स्वीकृति के बजाय पश्च-स्वीकृति देना जैसी प्रवृत्तियाँ पर्यावरणीय सुरक्षा-मानकों को कमज़ोर कर रही हैं।
प्रश्न 2. पर्यावरणीय शासन के क्षेत्र में भारत की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ क्या हैं?
हाल के वर्षों में भारत ने कई पहलों के माध्यम से प्रगति दिखाई है— जैसे ‘प्रधानमंत्री सूर्या घर मुफ्त बिजली योजना’ के तहत रूफटॉप सौर ऊर्जा का विस्तार, अनेक रामसर आर्द्रभूमि स्थलों का विस्तार, ‘ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम’ में सुधार, सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड का निर्गम, ‘इंटरनेशनल बिग कैट अलायन्स’ की स्थापना, विस्तारित उत्पादक दायित्व (EPR) के डिजिटल प्रवर्तन को मज़बूत करना तथा MISHTI कार्यक्रम के माध्यम से मैंग्रोव संरक्षण।
प्रश्न 3. वर्तमान में भारत के समक्ष प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियाँ क्या हैं?
इन चुनौतियों में हिमालय में बढ़ते ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF), उत्तरी शहरों में गंभीर वायु प्रदूषण, संरचनात्मक जल संकट और जलभृतों का क्षरण, नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं एवं वन्यजीव आवासों के बीच संघर्ष, बढ़ते समुद्र स्तर से तटीय अपरदन, ठोस अपशिष्ट एवं माइक्रोप्लास्टिक की विषाक्तता तथा ‘वार्म नाइट्स (उष्ण रात्रि)’ से उत्पन्न ताप-तनाव में वृद्धि।
प्रश्न 4. पर्यावरणीय समुत्थानशीलता बढ़ाने के लिये भारत कौन-सी रणनीतियाँ अपना सकता है?
प्रमुख रणनीतियों में शहरी जल-प्रबंधन के लिये ‘स्पंज सिटी’ कार्यढाँचे का समावेश, विकेंद्रित माइक्रो-ग्रिड ऊर्जा प्रणालियाँ, कृषि में चक्रीय जैव-अर्थव्यवस्था पद्धतियाँ, शहरी खनन एवं रणनीतिक पुनर्चक्रण, जलवायु-रोधी महत्त्वपूर्ण बुनियादी अवसंरचना, सॉवरेन ग्रीन टैक्सोनॉमी तथा मिश्रित वित्त का विकास तथा तटीय सुरक्षा के लिये ‘लिविंग शोरलाइन’ आधारित समाधान शामिल हैं।
प्रश्न 5. भारत पर्यावरणीय शासन को सतत विकास के साथ किस प्रकार समन्वित कर सकता है?
पर्यावरणीय संरक्षण को आर्थिक नियोजन की मूल संरचना में समाहित कर भारत ‘पुनर्योजी विकास’ की दिशा में अग्रसर हो सकता है, जो जलवायु जोखिम को कम करता है, अवसंरचना की समुत्थान क्षमता बढ़ाता है और समुदायों की सहभागिता को सुदृढ़ करता है। यह दृष्टिकोण जल-सुरक्षा, स्वच्छ ऊर्जा, सतत शहर, जलवायु कार्रवाई और जैव-विविधता संरक्षण जैसे सतत विकास लक्ष्यों (SDG) को अग्रगामी बनाता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स
प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-से भौगोलिक क्षेत्र में जैवविविधता के लिये संकट हो सकते हैं? (2012)
- भू-मंडलीय तापन
- आवास का विखण्डन
- विदेशी जाति का संक्रमण
- शाकाहार को प्रोत्साहन
निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये:
(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (a)
प्रश्न 2. जैव-विविधता निम्नलिखित में से किन माध्यमों द्वारा मानव अस्तित्व का आधार बनी हुई है? (2011)
- मृदा निर्माण
- मृदा अपरदन की रोकथाम
- अपशिष्ट का पुनःचक्रण
- फसलों का परागण
निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये:
(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2, 3 और 4
(c) केवल 1 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (d)
मेन्स
प्रश्न 1. भारत में जैवविविधता किस प्रकार अलग-अलग पाई जाती है? वनस्पतिजात और प्राणिजात के संरक्षण में जैव विविधता अधिनियम, 2002 किस प्रकार सहायक है? (2018)