भारतीय अर्थव्यवस्था
वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में भारत की स्थिति
यह एडिटोरियल 29/05/2025 को द फाइनेंशियल एक्सप्रेस में प्रकाशित “In the race for exports, India’s competitive edge missing” पर आधारित है। इस लेख में अमेरिका-चीन तनाव के बीच भारत के लिये नए व्यापार अवसर को सामने लाया गया है, साथ ही इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि गहन संरचनात्मक कमज़ोरियाँ और कम प्रतिस्पर्द्धात्मकता इसके लाभ में बाधा डालती हैं। इस अवसर का लाभ उठाने के लिये, भारत को साहसिक सुधारों को आगे बढ़ाने के साथ ही वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में प्रभावी रूप से एकीकृत होने की आवश्यकता है।
प्रिलिम्स के लिये:विदेश व्यापार नीति 2023, उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना, भारत का व्यापारिक निर्यात, ऑस्ट्रेलिया (ECTA), UAE (CEPA), PM गति शक्ति योजना, विश्व बैंक का लॉजिस्टिक्स परफॉरमेंस इंडेक्स, भारतमाला, सागरमाला, ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स, राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम मेन्स के लिये:भारत के निर्यात में वृद्धि के प्रमुख चालक, वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में भारत के एकीकरण को प्रभावित करने वाले प्रमुख मुद्दे। |
वैश्विक व्यापार को अमेरिकी टैरिफ नीतियों एवं संभावित चीनी निर्यात डायवर्जन से अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है, भारत चुनौती और अवसर के बीच एक चौराहे पर खड़ा है। पिछले अमेरिकी-चीन व्यापार युद्ध का लाभ न उठाने के बावजूद, भारत के पास अब वैश्विक व्यापार पैटर्न में बदलाव से लाभ उठाने का दूसरा मौका है। हालाँकि, हाल ही में एक प्रतिस्पर्द्धात्मकता सूचकांक ने मलेशिया, वियतनाम और थाईलैंड जैसे प्रमुख एशियाई समकक्षों में भारत को सबसे निचले स्थान पर रखा है, जो गहरी संरचनात्मक कमज़ोरियों को उजागर करता है। इसलिये, भारत को प्रतिक्रियात्मक उपायों से आगे बढ़ना चाहिये और व्यापक सुधारों को लागू करना चाहिये जो प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देते हैं, लालफीताशाही को कम करते हैं तथा वैश्विक मूल्य शृंखलाओं के साथ सक्रिय रूप से जुड़ते हैं।
भारत के निर्यात में वृद्धि के प्रमुख चालक क्या हैं?
- रणनीतिक सरकारी पहल और नीति सुधार: उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं और मेक इन इंडिया जैसी सुदृढ़ सरकारी नीतियों ने घरेलू विनिर्माण एवं निर्यात क्षमता में बहुत वृद्धि की है।
- विदेश व्यापार नीति- 2023 निर्यात प्रक्रियाओं को और सरल बनाती है तथा ई-कॉमर्स एवं उच्च तकनीक उत्पादों जैसे उभरते क्षेत्रों को प्रोत्साहित करती है।
- उदाहरण के लिये, मोबाइल फोन निर्यात वर्ष 2016 में लगभग शून्य से बढ़कर वर्ष 2024 में 20 बिलियन डॉलर से अधिक हो गया, जो कि मुख्य रूप से PLI प्रोत्साहनों से प्रेरित है।
- इसके अतिरिक्त, सत्र 2023-24 में फार्मास्यूटिकल्स का निर्यात बढ़कर 27.85 बिलियन डॉलर हो गया, जो नीतिगत प्रभाव को दर्शाता है।
- निर्यात पोर्टफोलियो और बाज़ारों का विविधीकरण: भारत का निर्यात क्षेत्र पारंपरिक वस्तुओं से आगे बढ़कर इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग गुड्स और सेवाओं जैसे उच्च मूल्य वाले क्षेत्रों तक विकसित हो गया है, जिससे कुछ उत्पादों एवं बाज़ारों पर निर्भरता कम हो गई है।
- यह विविधीकरण बाह्य झटकों के प्रति संवेदनशीलता को कम करता है और तेज़ी से बढ़ती वैश्विक मांग को पूरा करता है।
- सत्र 2013-14 के बाद से 115 से अधिक देशों को भारत के वस्तु निर्यात में 67% की वृद्धि हुई है, जिसमें अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात एवं नीदरलैंड जैसे प्रमुख देशों का निर्यात 51% रहा।
- वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में विस्तार: वैश्विक मूल्य शृंखलाओं (GVC) में भारत की बढ़ती भागीदारी, उसे उत्पादन के मूल्य-संवर्द्धित चरणों में विशेषज्ञता प्राप्त करने, निर्यात गुणवत्ता और पैमाने को बढ़ाने में सक्षम बनाती है।
- अपेक्षाकृत कम GVC भागीदारी दर (लगभग 41.3%) के बावजूद, रणनीतिक बुनियादी अवसंरचना और नीति सुधारों का उद्देश्य वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में अग्रणी फर्मों एवं MSME को आकर्षित करते हुए, बैकवर्ड और फॉरवर्ड लिंकेज को बढ़ावा देना है।
- वित्त वर्ष 2024 में चीन को भारत का निर्यात 8.7% बढ़कर 16.67 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया, जो क्षेत्रीय एकीकरण में वृद्धि दर्शाता है, जबकि क्षेत्र-विशिष्ट योजनाएँ उच्च तकनीक विनिर्माण को लक्षित करती हैं।
- इस एकीकरण से उत्पादकता में वृद्धि और निर्यात विविधीकरण का वादा किया गया है।
- सेवा निर्यात का अनुकूलन और वृद्धि: भारत के सेवा निर्यात, विशेष रूप से IT, दूरसंचार और व्यावसायिक सेवाओं में वृद्धि, अपेक्षाकृत उच्च मूल्य संवर्द्धन एवं वैश्विक मांग के साथ इसके निर्यात वृद्धि को दर्शाती है।
- वित्त वर्ष 2025 में सेवा निर्यात 12.45% बढ़कर रिकॉर्ड 374 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया, जिससे व्यापारिक निर्यात में अस्थिरता एवं व्यापार घाटे की भरपाई हो गई।
- डिजिटल सेवाओं में भारत की ताकत, वैश्विक दूरस्थ कार्य प्रवृत्तियों के साथ मिलकर इस विस्तार का समर्थन करती है। उदाहरण के लिये, दूरसंचार सेवाओं के निर्यात ने IT के साथ-साथ बढ़त हासिल की, जिससे ज्ञान-आधारित क्षेत्रों में भारत की प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त पर प्रकाश डाला गया।
- बुनियादी अवसंरचना और रसद आधुनिकीकरण: बेहतर बंदरगाह सुविधाओं, मल्टीमॉडल लॉजिस्टिक्स और डिजिटल सीमा शुल्क प्लेटफॉर्मों ने लागत कम कर दी है, दक्षता बढ़ाई है तथा निर्यात प्रक्रियाओं में तेज़ी लाई है।
- सागरमाला कार्यक्रम और PM गति शक्ति योजना जैसी पहलों का उद्देश्य लॉजिस्टिक्स लागत में कटौती करना है, जो निर्यात मूल्य का 14% तक है, जिससे प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार होगा।
- 35 मल्टीमॉडल लॉजिस्टिक्स पार्कों की स्थापना और राष्ट्रीय जलमार्गों के विस्तार से वस्तुओं के तीव्र आवागमन में योगदान मिलेगा।
- डिजिटलीकरण और व्यापार सुगमता: राष्ट्रीय एकल खिड़की प्रणाली और ट्रेड कनेक्ट जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म अनुमोदन को सुव्यवस्थित करते हैं तथा निर्यातकों को सुविधा प्रदान करते हैं, जिससे अनुपालन बोझ एवं समय कम होता है।
- स्वचालन और क्लाउड-आधारित कर सॉफ्टवेयर त्रुटि दर को कम करते हैं तथा सीमा शुल्क निकासी में तेज़ी लाते हैं, जिससे SME को वैश्विक बाज़ारों तक कुशलतापूर्वक पहुँचने में मदद मिलती है।
- डिजिटल प्रोत्साहन पारदर्शिता को बढ़ाकर और व्यापार लागत को कम करके निर्यात वृद्धि को प्रत्यक्ष रूप से समर्थन देता है।
- भू-राजनीतिक बदलाव और व्यापार पुनर्गठन: बढ़ते अमेरिकी-चीन व्यापार तनाव और वैश्विक आपूर्ति शृंखला व्यवधान भारत को बदलते व्यापार प्रवाह को प्राप्त करने एवं निर्यात हिस्सेदारी बढ़ाने का एक विशिष्ट अवसर प्रदान करते हैं।
- चुनौतियों के बावजूद, भारत का निर्यात वित्त वर्ष 2025 में 5.5% बढ़कर 821 बिलियन डॉलर हो गया, जो अनिश्चितता के बीच वैश्विक औसत से बेहतर प्रदर्शन था।
- उदाहरण के लिये, कंपनियों द्वारा उत्पादन स्थानांतरित करने के कारण वर्ष 2024 में अमेरिका को मोबाइल फोन निर्यात में 44% की वृद्धि हुई। UAE, ऑस्ट्रेलिया और EFTA देशों के साथ चल रहे FTA बाज़ार अभिगम एवं विविधीकरण को बढ़ाते हैं।
- बढ़ती घरेलू मांग से निर्यात प्रतिस्पर्द्धा को समर्थन: मज़बूत और विस्तारित घरेलू बाज़ार पैमाने की अर्थव्यवस्थाएँ बनाते हैं तथा नवाचार को बढ़ावा देते हैं, जिससे भारतीय निर्यातकों की वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार होता है।
- वैश्विक आर्थिक चुनौतियों के बावजूद, मज़बूत घरेलू मांग के समर्थन से भारत की विकास दर 6.5% पर स्थिर बनी हुई है।
- बढ़ते मध्यम वर्ग और मज़बूत उपभोग के साथ, इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्यूटिकल्स एवं ऑटोमोटिव जैसे क्षेत्र स्थानीय मांग-आधारित क्षमता विस्तार से लाभान्वित होते हैं।
- उन्नत वित्तीय सहायता और निर्यात ऋण: ब्याज समकरण योजना और MSME के लिये विस्तारित ऋण सुविधाएँ जैसी योजनाएँ रियायती वित्त उपलब्ध कराती हैं, लागत कम करती हैं त्तथा निर्यात को बढ़ावा देती हैं।
- इसके अतिरिक्त, EXIM बैंक और SIDBI जैसी निर्यात ऋण एजेंसियाँ 'लाइन ऑफ क्रेडिट' प्रदान करती हैं, जिससे बाज़ार में प्रवेश एवं विकास में सुविधा होती है। यह वित्तीय सहायता विशेष रूप से SME के लिये निरंतर निर्यात वृद्धि को सक्षम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में भारत के एकीकरण को प्रभावित करने वाले प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- सीमित बैकवर्ड लिंकेज और निम्न आयात एकीकरण: भारत की वैश्विक मूल्य शृंखला (GVC) में भागीदारी मुख्यतः अग्रगामी संबद्धताओं पर केंद्रित है, जो कच्चे माल के निर्यात पर अत्यधिक निर्भर है, बजाय इसके कि वह निर्यात उत्पादों में आयातित इनपुट को एकीकृत करे।
- इससे उच्च मूल्य-संवर्धित विनिर्माण में भारत की भूमिका सीमित हो जाती है तथा प्रतिस्पर्द्धात्मकता कम हो जाती है।
- देश का बैकवर्ड लिंकेज इंडेक्स वर्ष 2008 में 47.6% से घटकर वर्ष 2018 में 41.3% हो गया, जो कमज़ोर एकीकरण का संकेत है।
- इस बीच, दूरसंचार जैसे उच्च तकनीक वाले घटकों के लिये चीन से आयात वित्त वर्ष 2024 में 101.7 बिलियन डॉलर के उच्च स्तर पर बना हुआ है, जो बाह्य इनपुट पर निर्भरता को उजागर करता है।
- अवसंरचना की कमी और रसद संबंधी अड़चनें: अपर्याप्त परिवहन अवसंरचना, बंदरगाह क्षमता संबंधी बाधाएँ और अकुशल रसद के कारण निर्यात लागत बढ़ती है तथा शिपमेंट में विलंब होता है, जिससे भारत की GVC प्रतिस्पर्द्धात्मकता कमज़ोर होती है।
- जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट जैसे प्रमुख बंदरगाहों पर भीड़भाड़ तथा शीघ्र क्षयशील उत्पादों के लिये सीमित कोल्ड चेन अवसंरचना के कारण निर्बाध आपूर्ति शृंखला एकीकरण में बाधा उत्पन्न होती है।
- इन विलंबों के कारण लीड टाइम बढ़ जाता है, जिससे लीड कंपनियाँ भारत से सोर्सिंग करने से हतोत्साहित हो जाती हैं।
- जटिल एवं असंगत व्यापार विनियमन: भारत का विनियामक वातावरण, जटिल सीमा शुल्क प्रक्रियाओं, अलग-अलग टैरिफ और लगातार नीतिगत परिवर्तनों से चिह्नित है, जो वैश्विक फर्मों के लिये अनिश्चितता उत्पन्न करता है।
- उत्पादों का त्रुटीपूर्ण वर्गीकरण और अस्पष्ट HS कोड अनुपालन लागत एवं विलंब को बढ़ाते हैं।
- निर्यातक विनियामक बाधाओं को मुख्य बाधा बताते हैं, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक्स और फार्मास्यूटिकल्स जैसे क्षेत्रों में, जहाँ अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा किया जाना आवश्यक है।
- खंडित टैरिफ संरचना और निर्यात प्रोत्साहनों का असंगत अनुप्रयोग GVC में भारत के आकर्षण को सीमित करता है।
- कौशल अंतराल और श्रम गुणवत्ता बाधाएँ: यद्यपि भारत में श्रमिकों की संख्या बहुत अधिक है, लेकिन विनिर्माण और उच्च तकनीक क्षेत्रों में कुशल श्रमिकों की कमी GVC एकीकरण में बाधा उत्पन्न करती है।
- सेमीकंडक्टर और फार्मास्यूटिकल्स जैसे उच्च तकनीक वाले GVC क्षेत्रों में विशेष कौशल की आवश्यकता होती है, जो वर्तमान में न्यूनतम है।
- वर्ष 2024 में केवल 42.6% भारतीय स्नातक ही रोज़गार योग्य पाए गए। लक्षित कौशल विकास कार्यक्रम चल रहे हैं, लेकिन कार्यबल क्षमताओं में ठोस सुधार धीमी गति से हो रहा है, जिससे भारत की मूल्य शृंखला में अग्रणी बनने की क्षमता सीमित हो रही है।
- MSME और अग्रणी फर्मों के बीच कमज़ोर संबंध: MSME निर्यात में लगभग 50% का योगदान करते हैं, लेकिन वैश्विक अग्रणी फर्मों के साथ सीमित एकीकरण से पीड़ित हैं, जिससे उनकी GVC भागीदारी सीमित हो जाती है।
- वित्त, प्रौद्योगिकी और प्रबंधन विशेषज्ञता तक पहुँच की कमी जैसे मुद्दे MSME की प्रतिस्पर्द्धात्मकता में बाधा डालते हैं।
- उदाहरण के लिये, MSME को अंतर्राष्ट्रीय खरीदारों द्वारा अपेक्षित गुणवत्ता मानकों और प्रमाणन मानदंडों को पूरा करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
- इन संबंधों को मज़बूत करना, जैसा कि वियतनाम की सैमसंग के नेतृत्व वाली आपूर्ति शृंखलाओं में देखा गया है, भारत के लिये एक तत्काल प्राथमिकता बनी हुई है।
- अपर्याप्त अनुसंधान एवं विकास तथा नवप्रवर्तन पारिस्थितिकी तंत्र: अनुसंधान एवं विकास में भारत का कम निवेश (GDP का 0.6%) तथा उद्योग एवं शिक्षा जगत के बीच कमज़ोर सहयोग, नवप्रवर्तन करने तथा उच्च मूल्य वाले निर्यात करने की इसकी क्षमता को कम करता है।
- इससे GVC के डिज़ाइन और विकास चरणों में भागीदारी सीमित हो जाती है तथा भारत मुख्यतः असेंबल एवं निम्न-तकनीकी विनिर्माण तक ही सीमित रह जाता है।
- GVC को बढ़ाने तथा विदेशी अग्रणी कंपनियों को आकर्षित करने के लिये नवाचार क्षमताओं को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है।
- उच्च घरेलू टैरिफ और संरक्षणवादी नीतियाँ: मध्यवर्ती वस्तुओं पर उच्च टैरिफ और घरेलू सब्सिडी सहित संरक्षणवादी व्यापार नीतियाँ, इनपुट लागत बढ़ाती हैं तथा GVC भागीदारी के लिये आवश्यक आयात एकीकरण को हतोत्साहित करती हैं।
- यह अंतर्मुखी दृष्टिकोण कंपनियों को भारतीय परिचालन को वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में शामिल करने से हतोत्साहित करता है।
- हाल के बदलावों के बावजूद, भारत अभी भी ASEAN समकक्षों की तुलना में अधिक टैरिफ लगाता है, जिससे इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटोमोटिव जैसे क्षेत्र प्रभावित होते हैं।
- आलोचकों का तर्क है कि इन बाधाओं को कम करने से प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार आएगा और GVC की अधिक भागीदारी आकर्षित होगी।
- निर्यात गतिविधि का भौगोलिक संकेंद्रण: निर्यात उत्पादन और GVC भागीदारी बेहतर बुनियादी अवसंरचना वाले कुछ तटीय राज्यों तक ही केंद्रित है, जिससे विशाल क्षेत्र अविकसित एवं अपवर्जित ही रह जाते हैं।
- छह राज्य निर्यात में 70% का योगदान करते हैं, जो असमान औद्योगिक विकास को दर्शाता है। अंतर्देशीय राज्य अपर्याप्त रसद और विद्युत् आपूर्ति से जूझ रहे हैं, जिससे निवेश बाधित हो रहा है।
- बुनियादी अवसंरचना के विकास और नीति समर्थन के माध्यम से क्षेत्रीय असमानताओं के अंतर को कम करना देश भर में GVC एकीकरण को व्यापक बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में एकीकरण तथा निर्यात को बढ़ावा देने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- समग्र निर्यातोन्मुख कौशल विकास पारिस्थितिकी तंत्र: GVC आवश्यकताओं के अनुरूप क्षेत्र-विशिष्ट, उद्योग-आधारित कौशल विकास केंद्र विकसित किया जाना चाहिये, जिसमें उन्नत विनिर्माण, डिजिटल प्रौद्योगिकियों एवं गुणवत्ता मानकों पर ज़ोर दिया जाए।
- कौशल अंतराल को तेज़ी से अंतर को कम करने के लिये व्यावसायिक प्रशिक्षण को वास्तविक काल उद्योग अनुभव और प्रमाणन कार्यढाँचे के साथ एकीकृत किया जाना चाहिये।
- वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं को सुनिश्चित करने के लिये PPP मॉडल और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का लाभ उठाने की आवश्यकता है। इससे एक तैयार कार्यबल विकसित होगा जो GVC के भीतर उच्च मूल्य-वर्द्धित गतिविधियों और नवाचार में संलग्न होने में सक्षम होगा।
- एकीकृत व्यापार सुविधा और डिजिटल सीमा शुल्क सुधार: पारदर्शिता सुनिश्चित करने, निकासी के समय को कम करने और कागज़ी कार्रवाई की अनावश्यकता को खत्म करने के लिये ब्लॉकचेन-सक्षम प्लेटफॉर्मों के माध्यम से सीमा शुल्क तथा रसद के लिये डिजिटलीकरण को लागू किया जाना चाहिये।
- निरीक्षणों को सुव्यवस्थित करने के लिये टैरिफ वर्गीकरण में सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिये तथा AI-आधारित जोखिम प्रबंधन को अपनाया जाना चाहिये।
- इसे राष्ट्रीय एकल खिड़की प्रणाली और ट्रेड कनेक्ट पोर्टलों के साथ जोड़ा जाना चाहिये, ताकि एक निर्बाध, एकल-स्रोत निर्यात सुविधा पारिस्थितिकी तंत्र बनाया जा सके, जो अनुपालन एवं प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाए।
- लक्षित MSME-GVC लिंकेज और नवाचार केंद्र: समर्पित नवाचार क्लस्टर स्थापित किया जाना चाहिये जो MSME को वैश्विक अग्रणी फर्मों से जोड़ते हैं, प्रौद्योगिकी अंतरण, गुणवत्ता प्रमाणन सहायता तथा बाज़ार पहुँच प्रदान करते हैं।
- निर्यातोन्मुख क्षेत्रों में MSME के लिये PLI प्रोत्साहनों के साथ ECLGS जैसी योजनाओं के माध्यम से वित्त और क्षमता निर्माण की सुविधा प्रदान की जानी चाहिये।
- इन केंद्रों को MSME उत्पादकता को बढ़ावा देने और जटिल आपूर्ति शृंखलाओं में उनकी भूमिका बढ़ाने के लिये स्थानीय निर्यात इनक्यूबेटर के रूप में कार्य करना चाहिये।
- टैरिफ का युक्तिकरण और व्यापार नीति के साथ संरेखण: निर्यात उत्पादन के लिये आवश्यक मध्यवर्ती वस्तुओं और कच्चे माल पर शुल्क कम करने पर केंद्रित व्यापक टैरिफ युक्तिकरण को अपनाया जाना चाहिये।
- नीतिगत विरोधाभासों से बचने और वैश्विक एकीकरण को प्रोत्साहित करने के लिये टैरिफ सुधारों को निर्यात संवर्द्धन योजनाओं के साथ संरेखित किया जाना चाहिये।
- इसके साथ सक्रिय व्यापार कूटनीति और ऐसे मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) को अपनाना आवश्यक है, जो शुल्क रियायतें एवं गैर-शुल्क बाधाओं में कमी सुनिश्चित करें, जिससे बाज़ार तक पहुँच का विस्तार हो सके, साथ ही रणनीतिक सुरक्षा उपाय भी बनाए रखे जा सकें।
- मल्टी-मॉडल कनेक्टिविटी पर ज़ोर देने के साथ बुनियादी अवसंरचना का उन्नयन: माल ढुलाई के समय और लागत में भारी कटौती के लिये सड़क, रेल, वायु एवं जलमार्ग कनेक्टिविटी को मिलाकर एकीकृत मल्टीमॉडल लॉजिस्टिक्स पार्कों के विकास में तेज़ी लाने की आवश्यकता है।
- खराब होने की संभावना और इन्वेंट्री हानि को कम करने के लिये उत्पादन क्लस्टरों के पास कोल्ड-चेन अवसंरचना एवं वेयरहाउसिंग का विस्तार किया जाना चाहिये।
- अनुकूलित संसाधन आवंटन और उन्नत निर्यात आपूर्ति शृंखला लचीलेपन के लिये सागरमाला एवं PM गतिशक्ति कार्यक्रमों के तहत इन प्रयासों को समन्वित किया जाना चाहिये।
- नवप्रवर्तन-संचालित अनुसंधान एवं विकास वित्तपोषण और बौद्धिक संपदा पारिस्थितिकी तंत्र: फार्मास्यूटिकल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और विशिष्ट रसायनों जैसे निर्यात-केंद्रित क्षेत्रों को लक्षित करते हुए कर प्रोत्साहन एवं अनुदान के साथ सार्वजनिक व निजी अनुसंधान एवं विकास निवेश में वृद्धि की जानी चाहिये।
- नवाचार समूहों और फास्ट-ट्रैक पेटेंट प्रसंस्करण के माध्यम से अकादमिक-उद्योग सहयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- निर्यातकों को नवाचारों से धन अर्जित करने और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता को मज़बूत करने में मदद करने के लिये IP-समर्थित वित्तपोषण कार्यढाँचे को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- गतिशील निर्यात बाज़ार विविधीकरण रणनीति: पारंपरिक साझेदारों से परे उभरते मांग केंद्रों की पहचान करने के लिये बाज़ार आसूचना का उपयोग करते हुए डेटा-संचालित, लचीले निर्यात विविधीकरण दृष्टिकोण को अपनाना चाहिये।
- अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया पर केंद्रित राजनयिक चैनलों एवं व्यापार मिशनों के माध्यम से बाज़ार में प्रवेश के लिये समर्थन को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- डिजिटल प्लेटफॉर्म का लाभ उठाने और SME भागीदारी का विस्तार करने के लिये इस रणनीति को भारत मार्ट एवं ई-कॉमर्स एक्सपोर्ट हब जैसी पहलों के साथ एकीकृत किया जाना चाहिये।
- केंद्र और राज्यों के बीच नीति समन्वय तंत्र: श्रम, भूमि अधिग्रहण, बुनियादी अवसंरचना और कौशल विकास पर नीतियों में सामंजस्य स्थापित करने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों को शामिल करते हुए एक उच्चस्तरीय निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता परिषद की स्थापना की जानी चाहिये।
- राज्यों को राष्ट्रीय GVC लक्ष्यों के अनुरूप क्षेत्र-विशिष्ट निर्यात संवर्द्धन रोडमैप तैयार करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिय, जिससे समावेशी विकास को बढ़ावा मिले। यह समन्वित दृष्टिकोण क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करेगा और अंतर्देशीय राज्यों की निर्यात क्षमता को खोलेगा।
- स्थिरता और हरित निर्यात प्रमाणन कार्यढाँचा: एक राष्ट्रीय हरित निर्यात प्रमाणन प्रणाली विकसित किया जाना चाहिये जो वैश्विक पर्यावरण मानकों के अनुरूप संधारणीय उत्पादन प्रथाओं और पर्यावरण अनुकूल आपूर्ति शृंखलाओं को प्रोत्साहित करे।
- कार्बन फुटप्रिंट में कमी और चक्रीय अर्थव्यवस्था के अंगीकरण पर क्षमता निर्माण के माध्यम से निर्यातकों को समर्थन दिया जाना चाहिये।
- इस पहल को राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम (NPOP) जैसी मौजूदा योजनाओं के साथ जोड़ना आवश्यक है, ताकि बाज़ार में बेहतर स्थिति और भविष्य के लिये निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता बनाई जा सके।
निष्कर्ष:
भारत की निर्यात वृद्धि को रणनीतिक सुधारों, विविधीकृत बाज़ारों और डिजिटल परिवर्तन द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है। हालाँकि, वैश्विक मूल्य शृंखलाओं (GVCs) में इसकी पूरी क्षमता को प्राप्त करने के लिये संरचनात्मक अवरोधों को दूर करना आवश्यक है। लक्षित हस्तक्षेप विशेष रूप से कौशल विकास, MSME एकीकरण, अवसंरचना और व्यापार सुगमता में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। केंद्र और राज्य के बीच समन्वित दृष्टिकोण, शुल्क युक्तिकरण और नवाचार समर्थन के साथ, दीर्घकालिक प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ावा दे सकते हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. “भारत वैश्विक व्यापार गतिशीलता में बदलाव का लाभ उठाने के लिये एक रणनीतिक मोड़ पर खड़ा है, फिर भी संरचनात्मक चुनौतियाँ वैश्विक मूल्य शृंखलाओं (GVC) में इसके एकीकरण को बाधित कर रही हैं।” विवेचना कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न 1. निरपेक्ष तथा प्रति व्यक्ति वास्तविक GNP में वृद्धि आर्थिक विकास की ऊँची स्तर का संकेत नहीं करती, यदि: (2018) (a) औद्योगिक उत्पादन कृषि उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है। उत्तर: (c) प्रश्न 2. SEZ अधिनियम, 2005, जो फरवरी 2006 में प्रभाव में आया, के कुछ उद्देश्य हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित पर विचार कीजिये (वर्ष 2010)
उपर्युक्त में से कौन-से इस अधिनियम के उद्देश्य हैं? (A) केवल 1 और 2 उत्तर: (A) प्रश्न 3. ‘बंद अर्थव्यवस्था’ वह अर्थव्यवस्था है जिसमें- (2011) (a) मुद्रा पूर्ति पूर्णतः नियंत्रित होती है उत्तर: (d) |