भारतीय अर्थव्यवस्था
वैश्विक प्रतिकूलताओं के बीच भारत की आर्थिक दृढ़ता
यह संपादकीय “Among the challenges ahead for India, trade is the biggest risk to growth” पर आधारित है, जो बिज़नेस स्टैंडर्ड में 07/05/2024 को प्रकाशित हुआ था। लेख में अप्रैल–जून 2025 की अवधि में भारत की 7.8% GDP वृद्धि, जो पिछले पाँच तिमाहियों में सबसे मज़बूत रही, को रेखांकित किया गया है। साथ ही इसमें अमेरिका के टैरिफ, कमज़ोर नाममात्र वृद्धि और GST सरलीकरण जैसे जोखिमों को भी उजागर किया गया है, जो राजकोषीय स्थिरता पर दबाव डाल सकते हैं।
प्रिलिम्स के लिये: अमेरिकी व्यापार शुल्क, आयातित मुद्रास्फीति, आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25, मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत, एकीकृत भुगतान इंटरफेस, ग्रीन हाइड्रोजन, सेमीकॉन इंडिया प्रोग्राम, भारत सेमीकंडक्टर मिशन।
मेन्स के लिये: वैश्विक प्रतिकूलताओं के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ, भू-आर्थिक व्यवधानों से भारत के लिये उत्पन्न अवसर
भारत की अर्थव्यवस्था ने पहली तिमाही (अप्रैल–जून 2025) में 7.8% GDP वृद्धि दर्ज की, जो पिछले पाँच तिमाहियों में सबसे अधिक है। यह वृद्धि कृषि, विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में व्यापक विस्तार से प्रेरित रही। हालाँकि, इस मज़बूत प्रदर्शन के सामने गंभीर चुनौतियाँ भी हैं—अमेरिकी व्यापार शुल्क, जो भारत के लगभग 66% निर्यात को प्रभावित कर सकते हैं और उन पर 50% या उससे अधिक का कर लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, सिर्फ 8.8% की नाममात्र GDP वृद्धि भी राजकोषीय प्रबंधन को जटिल बना सकती है। मिश्रित संकेतों और बाह्य दबावों के इस माहौल में भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे के चुनौतीपूर्ण रास्ते पर आगे बढ़ने के लिये अधिक अनुकूलन की आवश्यकता है।
वैश्विक प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था किन प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रही है?
- प्रतिकूल वैश्विक व्यापार वातावरण: भारत का व्यापार परिदृश्य बढ़ते वैश्विक संरक्षणवाद और भू-राजनीतिक संघर्षों से तेज़ी से प्रभावित हो रहा है।
- अमेरिका ने भारतीय वस्तुओं पर 50% का भारी टैरिफ लगा दिया है, जो रूस के साथ दिल्ली के जारी तेल और रक्षा संबंधों पर वाशिंगटन की नाराज़गी का संकेत है।
- ये शुल्क वस्त्र, इंजीनियरिंग वस्तुएँ और रसायन जैसे प्रमुख क्षेत्रों के लिये खतरा हैं, जिससे विकास की संभावनाएँ कमज़ोर पड़ रही हैं।
- इसके अलावा, भारतीय निर्यात वृद्धि दर वित्त वर्ष 2024 की चौथी तिमाही में तेज़ी से घटकर 3.9% रह गई, जो पिछली तिमाही में 7.4% थी।
- इससे महत्त्वपूर्ण बाज़ारों में प्रतिस्पर्द्धी बने रहने की भारत की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- अमेरिका ने भारतीय वस्तुओं पर 50% का भारी टैरिफ लगा दिया है, जो रूस के साथ दिल्ली के जारी तेल और रक्षा संबंधों पर वाशिंगटन की नाराज़गी का संकेत है।
- वैश्विक मुद्रास्फीति और वस्तु मूल्य आघात: वैश्विक महँगाई में वृद्धि, जो मुख्यतः तेल और खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों से प्रेरित है, भारत के घरेलू मूल्यों पर भारी दबाव डाल रही है (आयातित मुद्रास्फीति)।
- उदाहरण के लिये, भारत में आयातित मुद्रास्फीति जून 2024 में 1.3% से बढ़कर फरवरी 2025 में 31.1% हो गई, जिसका कारण कीमती धातुओं, तेलों और वसा की बढ़ती कीमतें थीं।
- इससे मुद्रास्फीति का दबाव और अधिक बढ़ जाता है, जो भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के 4-6% के लक्ष्य दायरे को पार कर सकता है।
- भारत के सामने चुनौती यह है कि वह विकास को प्रोत्साहित करने के लिये मौद्रिक शिथिलता (Monetary easing) और वैश्विक आपूर्ति आघातों से उत्पन्न महँगाई के प्रबंधन के बीच संतुलन कैसे बनाए।
- उदाहरण के लिये, भारत में आयातित मुद्रास्फीति जून 2024 में 1.3% से बढ़कर फरवरी 2025 में 31.1% हो गई, जिसका कारण कीमती धातुओं, तेलों और वसा की बढ़ती कीमतें थीं।
- भू-राजनीतिक जोखिम और आपूर्ति शृंखला में व्यवधान: यूरोप और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में बढ़ते तनाव से उत्पन्न भू-राजनीतिक जोखिमों ने वैश्विक आपूर्तिशृंखलाओं में लगातार व्यवधान उत्पन्न किये हैं।
- भारत के लिये इसका अर्थ है आयातित कच्चे माल और मध्यवर्ती वस्तुओं की अधिक लागत।
- आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 ने रेखांकित किया है कि बढ़ते वैश्विक भू-राजनीतिक तनाव, लाल सागर क्षेत्र में जारी संघर्ष (जो प्रमुख नौवहन मार्गों को प्रभावित कर रहे हैं) और संरक्षणवादी व्यापार नीतियों ने परिवहन लागत को बढ़ा दिया है तथा आपूर्ति शृंखलाओं में अनिश्चितता उत्पन्न कर दी है।
- वैश्विक वित्तीय परिस्थितियों में कठोरता और रुपए का अवमूल्यन: वैश्विक वित्तीय परिस्थितियों में कठोरता, विशेष रूप से अमेरिकी फेडरल रिज़र्व द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि के कारण, भारतीय रुपए पर दबाव डाल रही है।
- भारत पर संभावित अमेरिकी टैरिफ की चिंताओं के कारण भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 88.36 के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुँच गया।
- रुपए के अवमूल्यन के साथ, भारत की बाह्य ऋण प्रबंधन और अपने विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिरता बनाए रखने की क्षमता और भी चुनौतीपूर्ण हो जाती है, जिससे राजकोषीय तथा वित्तीय स्थिरता को लेकर चिंताएँ बढ़ जाती हैं।
- धीमी वैश्विक रिकवरी और विलंबित व्यापार समझौते: जहाँ भारत यूरोपीय संघ और अमेरिका जैसे क्षेत्रों के साथ समझौतों के माध्यम से अपने व्यापारिक साझेदारों में विविधता लाने का प्रयास कर रहा है, वहीं भू-राजनीतिक व्यवधान तथा विलंबित व्यापार समझौतों के कारण इन वार्ताओं की गति धीमी हो रही है।
- भारत-यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को अभी अंतिम रूप दिया जाना बाकी है। इसी प्रकार, भारत और कनाडा के बीच व्यापार वार्ता मुख्यतः राजनयिक तनावों के कारण लंबे समय से रुकी हुई है।
- यह देरी मुख्यतः डेटा सुरक्षा, बौद्धिक संपदा अधिकार और व्यापार शुल्क जैसे जटिल मुद्दों के साथ-साथ मानवाधिकारों तथा पर्यावरणीय मानकों पर राजनयिक असहमति के कारण है।
- वैश्विक अनिश्चितता से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) में गिरावट: वैश्विक आर्थिक मंदी और निवेशक अनिश्चितता, व्यापार तनाव तथा भू-राजनीतिक जोखिमों के कारण भारत में FDI प्रवाह में कमी आई है।
- RBI के आँकड़ों के अनुसार, मई 2025 में निवल FDI प्रवाह घटकर केवल 35 मिलियन डॉलर रह गया, जो एक वर्ष पहले 2.2 बिलियन डॉलर था।
- विदेशी निवेश में यह गिरावट भारत के लिये अपने बुनियादी ढाँचे और विकास लक्ष्यों को पूरा करना कठिन बना देती है।
- विदेशी पूँजी में यह कमी भारतीय रुपए को कमज़ोर करती है और वित्तीय बाज़ारों को अस्थिर करने का खतरा उत्पन्न करती है, जिससे भारत के बाह्य ऋण तथा विदेशी मुद्रा भंडार पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है।
- RBI के आँकड़ों के अनुसार, मई 2025 में निवल FDI प्रवाह घटकर केवल 35 मिलियन डॉलर रह गया, जो एक वर्ष पहले 2.2 बिलियन डॉलर था।
- वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति शृंखलाओं में व्यवधान: भारत का ऊर्जा क्षेत्र वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति में व्यवधानों के कारण दबाव में है, जिसका मुख्य कारण भू-राजनीतिक तनाव और वैश्विक तेल कीमतों में उतार-चढ़ाव है।
- भारत अपनी तेल आवश्यकताओं का लगभग 80% आयात करता है, इसलिये वर्ष 2025 जैसी स्थिति में ऊर्जा कीमतों में किसी भी बड़ी वृद्धि से राजकोषीय घाटे और महँगाई पर भारी दबाव पड़ता है।
- इससे उद्योगों की उत्पादन लागत बढ़ती है, उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति घटती है और विकास की गति धीमी पड़ जाती है।
- भुगतान संतुलन पर भी दबाव बढ़ता है, क्योंकि आयात बिल बढ़ने से विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव पड़ता है।
- ये गतिशीलता भारत के लिये नवीकरणीय ऊर्जा की ओर अपने परिवर्तन को तेज़ करने, रणनीतिक तेल भंडार को मज़बूत करने और ऊर्जा साझेदारी में विविधता लाने की तात्कालिकता को उजागर करती है।
भू-आर्थिक व्यवधान भारत के लिये कौन-से अवसर प्रस्तुत करते हैं?
- व्यापार साझेदारों और आपूर्ति शृंखलाओं का विविधीकरण: भू-आर्थिक व्यवधान, जैसे वैश्विक व्यापार की बदलती प्रवृत्तियाँ और आपूर्ति शृंखलाओं का पुनर्गठन, भारत के लिये एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रस्तुत करते हैं। इन परिवर्तनों के कारण भारत वैकल्पिक व्यापार मार्गों और वैश्विक मूल्य शृंखलाओं(Global Value Chains) में एक प्रमुख भूमिका निभाने की स्थिति में आ सकता है।
- जब पश्चिमी देश तेज़ी से चीन के विकल्पों की तलाश कर रहे हैं, तो भारत खुद को एक विश्वसनीय विनिर्माण और आपूर्ति केंद्र के रूप में स्थापित कर सकता है।
- भारत की "मेक इन इंडिया" और "आत्मनिर्भर भारत" नीतियाँ रणनीतिक रूप से इस बदलाव के साथ संरेखित हैं।
- इसके अलावा ये व्यवधान भारत को नए व्यापार समझौते करने के लिये प्रेरित कर सकते हैं, विशेष रूप से लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और आसियान देशों के साथ, जिससे भारत एक विश्वसनीय विनिर्माण भागीदार के रूप में स्थापित हो सकेगा।
- डिजिटल अर्थव्यवस्था और तकनीकी निर्यात में वृद्धि की संभावना: डिजिटल परिवर्तन और दूरस्थ कार्य की ओर चल रहा वैश्विक बदलाव भारत के लिये वैश्विक तकनीकी सेवा क्षेत्र में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को और सशक्त बनाने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है।
- IT और बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (BPO) में भारत की गहरी प्रतिभा पहले से ही क्लाउड कंप्यूटिंग, AI और साइबर सुरक्षा सेवाओं की बढ़ती वैश्विक मांग को पूरा करने के लिये अच्छी स्थिति में है।
- वर्ष 2026 तक भारत की IT उद्योग 350 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने की संभावना है और यह देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 10% का योगदान देगा।
- एकीकृत भुगतान इंटरफेस (UPI) और आधार जैसे प्लेटफार्मों ने न केवल देश के भीतर लेन-देन को क्रांतिकारी रूप से बदल दिया है, बल्कि अब इन्हें अन्य देशों द्वारा एक मॉडल के रूप में अपनाया जा रहा है।
- वैश्विक ऊर्जा परिवर्तन में रणनीतिक स्थिति: निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर वैश्विक प्रयास भारत को नवीकरणीय ऊर्जा और ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों में अग्रणी बनने का अवसर प्रदान करता है।
- भारत की विशाल नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता, विशेष रूप से सौर और पवन ऊर्जा में, इसे ऊर्जा परिवर्तन में एक प्रमुख देश के रूप में स्थापित करती है।
- मार्च 2025 तक देश में कुल स्थापित नवीकरणीय ऊर्जा (RE) क्षमता 220.10 गीगावाट तक पहुँच गई है।
- हरित हाइड्रोजन उत्पादन और बैटरी भंडारण प्रौद्योगिकी को बढ़ाने के लिये देश के चल रहे प्रयास भारत को वैश्विक बाज़ारों में हरित ऊर्जा का निर्यातक बना सकते हैं।
- स्वच्छ ऊर्जा समाधानों की वैश्विक मांग बढ़ने के साथ, भारत इस अवसर का लाभ उठाकर घरेलू ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है तथा विश्व भर में सतत् समाधानों का आपूर्तिकर्त्ता भी बन सकता है।
- भारत की विशाल नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता, विशेष रूप से सौर और पवन ऊर्जा में, इसे ऊर्जा परिवर्तन में एक प्रमुख देश के रूप में स्थापित करती है।
- दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय नेतृत्व को मज़बूत करना: भू-आर्थिक व्यवधान भारत को दक्षिण एशिया में अग्रणी आर्थिक और रणनीतिक शक्ति के रूप में अपनी स्थिति को मज़बूत करने का अवसर प्रदान करते हैं।
- जैसे-जैसे वैश्विक ध्यान हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता की ओर बढ़ रहा है, भारत बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे अपने पड़ोसी देशों के साथ गहरे आर्थिक संबंध स्थापित करके अपने प्रभाव का विस्तार कर सकता है।
- वर्ष 2023 में श्रीलंका को भारत की 1 बिलियन डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट के साथ-साथ बांग्लादेश और नेपाल में बढ़ते व्यापार और अवसंरचना निवेश, भारत की क्षेत्रीय नेतृत्व भूमिका को मज़बूत करते हैं।
- भारत इन साझेदारियों का लाभ उठाकर क्षेत्रीय आर्थिक ब्लॉक बना सकता है, जिससे अस्थिर वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं पर निर्भरता कम होगी तथा इसकी रणनीतिक स्वायत्तता सुनिश्चित होगी।
- वैश्विक रक्षा और एयरोस्पेस साझेदारी की संभावनाएँ: जैसे-जैसे वैश्विक रक्षा रणनीतियाँ पारंपरिक शक्तियों से हटकर आत्मनिर्भरता और विविधीकरण की ओर बढ़ रही हैं।
- भारत के पास वैश्विक सुरक्षा में रक्षा निर्माता और रणनीतिक साझेदार के रूप में अपनी भूमिका का विस्तार करने का अवसर है।
- रक्षा के लिये भारत की “मेक इन इंडिया” पहल, इसके बढ़ते सैन्य-औद्योगिक परिसर के साथ मिलकर, इसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक प्रमुख साझेदार के रूप में स्थापित करती है।
- भारत के रक्षा निर्यात में वित्त वर्ष 2013–14 से लेकर 2024–25 के बीच 34 गुना से अधिक वृद्धि हुई है, जो इसकी रक्षा तकनीकों की वैश्विक मांग में तेज़ी का संकेत देती है।
- सेमीकंडक्टर विनिर्माण में वैश्विक नेता के रूप में उभरना: वैश्विक चिप की कमी और ऑटोमोबाइल से लेकर उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स तक लगभग हर क्षेत्र में सेमीकंडक्टर पर बढ़ती निर्भरता के साथ, भारत के पास अपनी सेमीकंडक्टर विनिर्माण क्षमताओं को विकसित करने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर है।
- केंद्र सरकार ने ₹76,000 करोड़ के निवेश के साथ सेमिकॉन इंडिया कार्यक्रम (SEMICON India Programme) की शुरुआत की है, जिसे इंडिया सेमिकंडक्टर मिशन (India Semiconductor Mission - ISM) के माध्यम से लागू किया जा रहा है। यह एक रणनीतिक कदम है जिसका उद्देश्य वैश्विक कंपनियों को आकर्षित करना और देश में एक मज़बूत सेमिकंडक्टर (चिप) निर्माण पारिस्थितिकी तंत्र तैयार करना है।
- वैश्विक स्तर पर सेमिकंडक्टर की मांग वर्ष 2030 तक $1 ट्रिलियन तक पहुँचने की उम्मीद है, और भारत का उन्नत विनिर्माण प्रौद्योगिकियों तथा कुशल श्रमबल पर ध्यान केंद्रित करना इसे सेमिकंडक्टर फैब्रिकेशन प्लांट्स के लिये एक संभावित केंद्र के रूप में स्थापित करता है।
- जैसे-जैसे देश चीन से दूर अपनी आपूर्ति शृंखलाओं में विविधता ला रहे हैं, भारत वैश्विक चिप बाज़ार में एक प्रमुख भागीदार के रूप में उभर सकता है।
भू-आर्थिक व्यवधानों के बीच भारत अपनी आर्थिक प्रत्यास्थी को कैसे बढ़ा सकता है और विकास को कैसे सुरक्षित रख सकता है?
- विविध व्यापार संरचना: भारत को चुनिंदा भौगोलिक क्षेत्रों पर अधिक निर्भरता को कम करना चाहिये तथा इसके लिये उसे एक बहुपक्षीय व्यापार रणनीति विकसित करनी होगी, जिसमें क्षेत्रीय समूहों, द्विपक्षीय समझौतों और दक्षिण-दक्षिण सहयोग को शामिल किया जाए।
- फ्रेंड-शोरिंग और नीयर-शोरिंग के माध्यम से वैकल्पिक आपूर्ति मार्ग (Supply Corridors) तैयार करना, आपूर्ति शृंखला में आने वाले व्यवधानों को कम कर सकता है।
- दीर्घकालिक हितों को सुरक्षित करने के लिये ऊर्जा, सेमिकंडक्टर और दुर्लभ पृथ्वी तत्त्वों जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- इसके लिये रणनीतिक व्यापार साझेदारी हेतु संस्थागत ढाँचे की आवश्यकता है। ऐसा विविधीकरण अर्थव्यवस्था को अचानक होने वाली बाहरी अस्थिरता से बचाता है।
- वित्तीय प्रणाली में व्यवधानों को सहन करने की क्षमता: बाह्य व्यवधानों का सामना करने के लिये वित्तीय क्षेत्र को मैक्रो-प्रूडेंशियल नियमों, प्रत्यावर्ती-अवसाद बफर (Counter-Cyclical Buffers), और तनाव-परीक्षण (Stress-Testing) तंत्रों से सुदृढ़ करना आवश्यक है।
- गहन घरेलू पूंजी बाज़ार को बढ़ावा देने तथा अस्थिर विदेशी पोर्टफोलियो प्रवाह पर निर्भरता कम करने से स्थिरता बढ़ती है।
- डिजिटल वित्त और फिनटेक नवाचार का उपयोग व्यवधानों के दौरान सेवाओं की निरंतरता सुनिश्चित कर सकता है।
- एक सुनियोजित मुद्रा प्रबंधन रणनीति बाहरी उथल-पुथल से सुरक्षा प्रदान करती है। ऐसा ढाँचा अनिश्चित वैश्विक परिस्थितियों में भी वित्तीय लचीलापन सुनिश्चित करता है।
- अनुकूल कृषि और खाद्य प्रणाली: भू-आर्थिक व्यवधान अक्सर खाद्य आपूर्ति शृंखलाओं को प्रभावित करते हैं, इसलिये भारत को एक जलवायु-स्मार्ट, प्रौद्योगिकी-संचालित और विविधीकृत कृषि आधार विकसित करने की आवश्यकता है।
- फसल कटाई के बाद के बुनियादी ढाँचे, कोल्ड चेन और स्थानीयकृत खरीद प्रणाली में निवेश आपूर्ति संबंधी व्यवधानों को कम करने में सहायक हो सकता है।
- फसल विविधीकरण और प्रत्यास्थ बीजों (Resilient Seeds) को बढ़ावा देने से अनुकूलन क्षमता में वृद्धि होती है। पारदर्शिता के साथ प्रबंधित रणनीतिक खाद्य भंडार व्यवधानों को सहन करने वाली भूमिका निभा सकते हैं।
- यह एक साथ खाद्य सुरक्षा, मूल्य स्थिरता और ग्रामीण आय की प्रत्यास्थी/लचीलापन सुनिश्चित करता है।
- प्रौद्योगिकी स्वायत्तता और डिजिटल लचीलापन: भारत के डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र और महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों को सुरक्षित करना भविष्य की मज़बूती के लिये अत्यंत आवश्यक है।
- AI, 5G/6G और साइबर सुरक्षा में स्वदेशी क्षमता विकसित करने से बाहरी कमजोरियाँ कम होती हैं।
- घरेलू डिजिटल अवसंरचना क्लाउड का निर्माण संवेदनशील डेटा को भू-राजनीतिक व्यवधानों से सुरक्षित रखता है।
- अनुसंधान एवं विकास तथा नवाचार पारिस्थितिकी तंत्र को प्रोत्साहित करने से वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बनाए रखते हुए आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिलता है। ऐसी तकनीकी संप्रभुता तकनीकी-आर्थिक विखंडन के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती है।
- मानव संसाधन और श्रम लचीलापन: लचीलापन केवल संसाधनों की ही नहीं, बल्कि लोगों की भी होती है, भविष्य के लिये तैयार क्षेत्रों में कार्यबल को कौशलयुक्त बनाना व्यवधानों के प्रति अनुकूलन क्षमता सुनिश्चित करता है।
- पोर्टेबल सामाजिक सुरक्षा प्रणालियाँ प्रवासी और गिग श्रमिकों को अचानक आर्थिक मंदी से बचाती हैं।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों और कार्यस्थल सुरक्षा तंत्र को मज़बूत करने से महामारी या जलवायु संबंधी संकटों के विरुद्ध मज़बूती प्रदान करता है।
- श्रम संहिताओं को लचीले लेकिन सुरक्षित रोज़गार मॉडल को प्रोत्साहित करना चाहिये। मानव पूंजी में इस तरह के निवेश से सतत् विकास के लिये एक स्थिर आधार तैयार होता है।
- क्षेत्रीय और वैश्विक नेतृत्व भूमिका: भारत को वैश्विक आर्थिक शासन में नियम निर्धारित करने वाले के रूप में स्वयं को स्थापित करना चाहिये।
- G20, BRICS और इंडो-पैसिफिक ढाँचे जैसे प्लेटफार्मों में सक्रिय नेतृत्व भारत को व्यापार, वित्त तथा प्रौद्योगिकी के नियमों को अपने अनुकूल आकार देने की अनुमति देता है।
- क्षेत्रीय वित्तीय सुरक्षा जाल (Financial safety nets) और समन्वित संकट प्रतिक्रिया (Coordinated crisis responses) सुरक्षा की अतिरिक्त परतें प्रदान करती हैं।
- रणनीतिक कूटनीति (हाल ही में भारत-चीन-रूस संरेखण) कमज़ोरियों को भू-आर्थिक लाभ में बदल सकती है।
- रुपए का अंतर्राष्ट्रीयकरण: एक अनुकूल अर्थव्यवस्था के लिये बाह्य मुद्रा आघातों से जोखिम कम करना आवश्यक है, जिसे धीरे-धीरे रुपए के अंतर्राष्ट्रीयकरण के माध्यम से हासिल किया जा सकता है।
- दो-पक्षीय और बहुपक्षीय निपटान समझौतों को रुपए में बढ़ावा देना, विशेषकर ऊर्जा और वस्तु साझेदारों (जैसे रुपए-रूबल समझौता) के साथ, अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम कर सकता है।
- रुपए में व्यापार बीजक (Trade invoicing), स्वैप लाइन (Swap lines) और डिजिटल रुपए लिंक को बढ़ावा देने से मौद्रिक संप्रभुता मज़बूत होती है।
- समय के साथ, एक क्षेत्रीय रुपए मंच उभर सकता है, जो स्थिरता और रणनीतिक स्वायत्तता दोनों को बढ़ावा देगा।
- घरेलू माँग आधार को मज़बूत करना: भारत को वैश्विक मंदी और आपूर्ति शृंखला के आघातों से बचाने के लिये घरेलू माँग को बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है।
- दो-आयामी रणनीति की आवश्यकता है
- ऋण पहुंच में सुधार, अनुपालन लागत में कमी और डिजिटल प्लेटफॉर्म का लाभ उठाकर MSME विकास।
- निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाने के लिये बुनियादी ढाँचे, आवास और हरित प्रौद्योगिकियों में सार्वजनिक पूंजीगत व्यय को सुदृढ़ करना।
- साथ ही, घरेलू पर्यटन और सांस्कृतिक उद्योगों का विस्तार नए आंतरिक गुणकों का सृजन कर सकता है।
- समान्य उपभोग तथा निवेश-प्रधान वृद्धि को मिलाकर, भारत एक मज़बूत और अनुकूल घरेलू माँग आधार तैयार कर सकता है, जो वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल से सुरक्षा प्रदान करता है।
- दो-आयामी रणनीति की आवश्यकता है
निष्कर्ष:
भारत की अर्थव्यवस्था वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है—बुनियादी तौर पर मज़बूत, फिर भी व्यापार युद्धों, मुद्रास्फीति के आघातों और आपूर्ति शृंखला में व्यवधानों जैसी वैश्विक चुनौतियों के प्रति संवेदनशील। अनुकूल बनाने के लिये अब एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है: व्यापार में विविधता लाना, ऊर्जा और खाद्य प्रणालियों को सुरक्षित करना, मानव पूंजी को सशक्त बनाना और घरेलू माँग को बढ़ाना। रुपए के अंतर्राष्ट्रीयकरण और तकनीकी संप्रभुता के माध्यम से रणनीतिक स्वायत्तता भारत की दीर्घकालिक स्थिरता का आधार बनेगी। "सच्ची आर्थिक ताकत अशांति से बचने में नहीं, बल्कि उसमें स्थिरता से आगे बढ़ना सीखने में निहित है।"
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. मज़बूत GDP वृद्धि के बीच, भारत को संरक्षणवादी व्यापार नीतियों और आपूर्ति शृंखला व्यवधानों जैसी बढ़ती भू-आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस परिवेश में भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
मेन्स:
प्रश्न. भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष वे कौन-सी चुनौतियाँ हैं जब विश्व स्वतंत्र व्यापार तथा बहुपक्षीयता से दूर होकर संरक्षणवाद तथा द्विपक्षीयता की ओर बढ़ रहा है। इन चुनौतियों का सामना किस तरह किया जा सकता है? (2025)