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डेली न्यूज़

  • 25 Sep, 2020
  • 37 min read
शासन व्यवस्था

विदेशी अंशदान विनियमन (संशोधन) विधेयक, 2020

प्रिलिम्स के लिये

विदेशी अंशदान विनियमन (संशोधन) विधेयक, 2020, न्यायविदों के अंतर्राष्ट्रीय आयोग

मेन्स के लिये

विदेशी अंशदान के विनियमन की आवश्यकता, संशोधन विधेयक की आवश्यकता और उसकी आलोचना

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायविदों के अंतर्राष्ट्रीय आयोग (International Commission of Jurists- ICJ) ने कहा कि भारतीय संसद द्वारा पारित विदेशी अंशदान विनियमन (संशोधन) विधेयक, 2020 अंतर्राष्ट्रीय कानून के साथ पूर्णतः असंगत है और नागरिक समाज के कार्य में बाधा उत्पन्न करेगा।

प्रमुख बिंदु

  • गौरतलब है कि इस विधेयक को लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया है और अब इसे राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिये भेजा गया है। 
  • न्यायविदों के अंतर्राष्ट्रीय आयोग (ICJ) ने विधेयक को लेकर कहा कि इसके प्रावधान मानवाधिकार के रक्षकों और नागरिक समाज के अन्य कार्यकर्त्ताओं के समक्ष अनावश्यक और एकपक्षीय बाधाएँ उत्पन्न करेंगे। 
  • आयोग ने राष्ट्रपति से ‘अंतर्राष्ट्रीय कानून के साथ विधेयक की असंगति’ के कारण अपनी सहमति न देने का आह्वान किया है। 

विदेशी अंशदान विनियमन (संशोधन) विधेयक, 2020

  • केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत इस विधेयक में विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 में संशोधन करने का प्रावधान किया गया है। विदित हो कि यह अधिनियम व्यक्तियों, संगठनों और कंपनियों के विदेशी योगदान की मंज़ूरी और उपयोग को विनियमित करता है।
  • विधेयक के अंतर्गत लोक सेवकों के विदेशी अंशदान लेने पर पाबंदी लगाने का प्रावधान किया गया है। लोक सेवक में वे सभी व्यक्ति शामिल हैं, जो सरकार की सेवा या वेतन पर हैं अथवा जिन्हें किसी लोक सेवा के लिये सरकार से मेहनताना मिलता है।  
  • विधेयक में आधार (Aadhaar) को गैर-सरकारी संगठन (NGOs) या विदेशी योगदान प्राप्त करने वाले लोगों और संगठनों के सभी पदाधिकारियों, निदेशकों और अन्य प्रमुख अधिकारियों के लिये एक अनिवार्य पहचान दस्तावेज़ बनाने का प्रस्ताव किया गया है। 
  • विधेयक के अनुसार, कोई भी व्यक्ति, संगठन या रजिस्टर्ड कंपनी विदेशी अंशदान प्राप्त करने के पश्चात् किसी अन्य संगठन को उस विदेशी योगदान का ट्रांसफर नहीं कर सकता है। 
  • अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति, जिसे वैध प्रमाणपत्र मिला है, को प्रमाणपत्र की समाप्ति से पहले छह महीने के भीतर उसका नवीनीकरण कराना चाहिये। 
    • अब विधेयक में यह प्रावधान किया गया है कि प्रमाणपत्र के नवीनीकरण से पूर्व सरकार जाँच के माध्यम से यह सुनिश्चित करेगी कि: (i) आवेदन करने वाला व्यक्ति काल्पनिक या बेनामी नहीं है, (ii) उस व्यक्ति पर सांप्रदायिक तनाव भड़काने या धर्मांतरण के कार्य में शामिल होने के लिये मुकदमा नहीं चलाया गया है या उसे इनका दोषी नहीं पाया गया है, और (iii) उसे विदेशी अंशदान के गलत इस्तेमाल का दोषी नहीं पाया गया है, इत्यादि।
  • विधेयक में यह निर्धारित किया गया है कि विदेशी अंशदान केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI), नई दिल्ली की उस शाखा में ही लिया जाएगा, जिसे केंद्र सरकार अधिसूचित करेगी। 
  • अधिनियम के अनुसार, किसी NGO द्वारा प्राप्त विदेशी अंशदान की 50 प्रतिशत से अधिक राशि का इस्तेमाल प्रशासनिक खर्चे के लिये नहीं कर सकते हैं। विधेयक में संशोधन कर इस सीमा को 20 प्रतिशत कर दिया गया है।

संशोधन की आवश्यकता

  • सरकार के अनुसार, इस संशोधन विधेयक का प्राथमिक उद्देश्य विदेशों से प्राप्त होने वाले अंशदान के गलत और अनुचित उपयोग पर रोक लगाना है।
  • आँकड़ों की मानें तो वर्ष 2010 से वर्ष 2019 के बीच विदेशी अंशदान की वार्षिक आमद (Inflow) में लगभग दोगुनी वृद्धि हुई हुई है, लेकिन कई बार यह देखा गया है कि विदेशी अंशदान के कई प्राप्तकर्त्ताओं ने विदेशी अंशदान की राशि का उस प्रयोजन के लिये प्रयोग नहीं किया है जिसके लिये उन्हें पंजीकृत किया गया था अथवा अनुमति दी गई थी।
  • ऐसे ही नियमों का पालन न करने के कारण सरकार ने वर्ष 2011 से वर्ष 2019 के बीच कुल 19,000 संगठनों, जिसमें गैर-सरकारी संगठन भी शामिल हैं, का पंजीकरण रद्द किया है।
  • ऐसे में इन संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों के कार्यों में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये मौजूदा नियमों में संशोधन की काफी आवश्यकता है।

संशोधन की आलोचना 

  • संशोधन के आलोचकों का मानना है कि इस इस संशोधन विधेयक के मसौदे को संबंधित हितधारकों से परामर्श के बिना तैयार किया गया है, इसलिये यह विधेयक संशोधन के कारण प्रभावित होने वाले लोगों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्त्व नहीं करता है।
  • किसी अन्य संगठन अथवा पंजीकृत कंपनी को विदेशी अंशदान हस्तांतरित करने पर प्रतिबंध लगाने के पीछे के कारण को सही ढंग से स्पष्ट नहीं किया गया है, और यह स्पष्ट है कि यह प्रावधान किस प्रकार विदेशी धन के उपयोग में पारदर्शिता लाने में मदद करेगा। हालाँकि आलोचक मानते हैं कि इस प्रावधान से गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) की परियोजनाओं के कार्यान्वयन पर ज़रूर प्रभाव पड़ेगा।
  • संशोधन के अनुसार, विदेशी अंशदान का केवल 20 प्रतिशत हिस्सा ही प्रशासनिक खर्च के लिये उपयोग किया जा सकता है, इस प्रावधान से देश के उन बड़े गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) को समस्या का सामना करना पड़ेगा जिनका प्रशासनिक खर्च काफी अधिक है।
  • यह विधेयक विदेशी अंशदान के क्षेत्र में सरकार के हस्तक्षेप को बढ़ाने और विदेशी सहायता से भारत में कार्यान्वित की जा रहीं परियोजनाओं में बाधा उत्पन्न करेगा।
  • कई आलोचक यह भी मानते हैं कि इस संशोधन विधेयक का इस्तेमाल सरकार अथवा प्रशासन के विरुद्ध बोलने वाले लोगों और संगठनों को निशाना बनाने के साधन के रूप में किया जा सकता है।

आगे की राह 

  • विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 में संशोधन का प्राथमिक उद्देश्य गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) को विदेशों से मिलने वाले अंशदान और उसके उपयोग की प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करना है। 
  • हालाँकि संशोधन विधेयक के कुछ प्रावधानों से यह उद्देश्य सही ढंग से प्रतिबिंबित नहीं होता है, इसके अलावा आलोचक सरकार पर हितधारकों से परामर्श न लेने का भी आरोप भी लगा रहे हैं।
  • आवश्यक है कि सरकार विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) द्वारा उठाए गए मुद्दों पर पुनर्विचार करे और यदि संभव हो तो विधेयक में संशोधन किया जाए। 

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

पेरिस समझौते के लिये चीन का नए सिरे से समर्थन

प्रिलिम्स के लिये 

पेरिस समझौता  

मेन्स के लिये 

पेरिस समझौते के लिये चीन की नई रणनीति 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, विश्व को COVID-19 संकट से उबरने के लिये 'ग्रीन फोकस' (Green Focus) का आह्वान करते हुए चीन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेरिस समझौते के लिये नए सिरे से समर्थन की पेशकश की है।

प्रमुख बिंदु:

  • चीन, दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषक उत्सर्जित करने वाला देश है और यह कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का एक चौथाई हिस्सा उत्सर्जित करता है।
  • चीन का लक्ष्य वर्ष 2030 से पहले कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन की चरम सीमा तक पहुँचना और वर्ष 2060 से पहले कार्बन तटस्थता प्राप्त करना है।
    • गौरतलब है कि यूरोपीय संघ ने वर्ष 2050 तक ‘जलवायु तटस्थता’ के लक्ष्य को निर्धारित किया है।
      • जलवायु तटस्थता जिसे सामान्यतः शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की स्थिति के रूप में व्यक्त किया जाता है, देश के कार्बन उत्सर्जन को संतुलित करती है। इसके अंतर्गत वातावरण से ग्रीनहाउस गैसों का अवशोषण और निष्कासन जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं।
  • इसके अतिरिक्त चीन पहले से ही अपनी 15% ऊर्जा माँग, गैर-जीवाश्म ईंधन से पूरी करता है और चीन का नवीकरणीय ऊर्जा ढाँचा विश्व के कुल नवीकरणीय ऊर्जा ढाँचे का 30% है।
  • हालाँकि, वैश्विक विशेषज्ञों का मानना है कि चीन का अपने देश में ही एवं विदेशों में कोयले एवं अन्य जीवाश्म ईंधन में बड़े पैमाने पर निवेश जारी है।
    • सैन फ्रांसिस्को स्थित एक पर्यावरण समूह ‘ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर’ (Global Energy Monitor) के अनुसार, या तो वर्तमान में चीन के पास 135 गीगावाट कोयला आधारित बिजली क्षमता मौजूद है या निर्माणाधीन है।
      • यह संयुक्त राज्य अमेरिका की कुल कोयला आधारित बिजली क्षमता का लगभग आधा है जो चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषक उत्सर्जक देश है।

संयुक्त राज्य अमेरिका की आलोचना:

  • चीन ने प्लास्टिक एवं कचरा निर्यात के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका की मांग पर भी प्रकाश डाला और प्रदूषक उत्सर्जन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में बाधा डालने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका की आलोचना की।
  • चीन के इस कदम ने संयुक्त राज्य अमेरिका-चीन संबंधों में एक नया मोड़ ला दिया है जो पहले से ही व्यापार, प्रौद्योगिकी, रक्षा एवं मानवाधिकार जैसे मुद्दों के कारण तनावपूर्ण चल रहे हैं।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिये जैव-अपघटक तकनीक

प्रिलिम्स के लिये 

‘Pusa अपघटक’ तकनीक 

मेन्स के लिये 

पराली जलाने की समस्या और समाधान

चर्चा में क्यों? 

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने फसल अपशिष्ट को खाद में परिवर्तित करने की जैव-अपघटन तकनीक का जायजा लेने के लिये ‘भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान’  (Indian Agriculture Research Institute-IARI) का दौरा किया। जैव-अपघटन तकनीक को फसल अपशिष्ट के जलने से होने वाले वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये एक लागत प्रभावी तरीका माना जाता है।

प्रमुख बिंदु

तकनीक के बारे में 

  • PUSA अपघटक (PUSA Decomposer) नामक तकनीक में ‘अपघटक कैप्सूल’ (Decomposer Capsule) और आसानी से उपलब्ध होने वाली आगतों (Inputs) का उपयोग करके तरल मिश्रण तैयार किया जाता है। फसल अपशिष्ट/पराली के 8 से 10 दिनों तक किण्वित होने के पश्चात् इसका जैव-अपघटन के उद्देश्य से खेतों में फसल अपशिष्टों/पराली पर छिड़काव किया जाता है। 
  • इस तकनीक से उर्वरकों के उपयोग में कमी आने के साथ-साथ खेतों में मृदा की उत्पादकता में भी वृद्धि होगी।
  • दिल्ली के मुख्यमंत्री इस संबंध में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से मिलकर पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिये इस सरल, उल्लेखनीय और व्यावहारिक तकनीक के कुशल और प्रभावी कार्यान्वयन पर चर्चा करेंगे।
  • इस कैप्सूल की लागत बहुत कम है। चार कैप्सूल का उपयोग कर गुड़ और चने के आटे से किसान लगभग 25 लीटर तरल मिश्रण तैयार कर सकते हैं, जो 1 हेक्टेयर भूमि पर छिड़काव के लिये पर्याप्त है।

कैसे काम करती है तकनीक?  

  • जब किसान फसल अपशिष्ट/पराली पर इस तरल मिश्रण का छिड़काव करता है, तो फसल अपशिष्ट/पराली नरम होकर 20 दिनों में पिघल जाती है। इसके परिणामस्वरूप बिना फसल अपशिष्ट/पराली को जलाए किसान फिर से बुवाई कर सकते हैं।  
  • इस तकनीक से मृदा की उर्वरता और उत्पादकता में सुधार होता है क्योंकि जैव-अपघटित होकर यही फसल अपशिष्ट/पराली फसलों के लिये खाद का काम करती है। इससे भविष्य में भी उर्वरकों की कम खपत की आवश्यकता होगी।

पराली जलाने की समस्या 

  • पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फसल अवशेषों/पराली को जलाने की समस्या देश के अन्य हिस्सों में भी विस्तृत हो रही है। प्रभावित क्षेत्रों में कई पर्यावरणीय और स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। 
  • फसल अवशेष जलाना भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code-IPC) की धारा-188 और वायु (प्रदूषण एवं नियंत्रण) अधिनियम-1981  के अंतर्गत एक अपराध है।
  • फसल अवशेषों को जलाने से लगभग 149.24 MT कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), 9 MT से अधिक कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), 0.25 MT सल्फर ऑक्साइड (SOX), 1.28 MT पार्टिकुलेट मैटर और 0.07 MT ब्लैक कार्बन आदि प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं। ये पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ दिल्ली में धुंध और हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने के लिये भी ज़िम्मेदार हैं।
  • धान की पराली को जलाने से उत्पन्न ऊष्मा के मृदा में 1 सेमी तक प्रवेश कर जाने से मृदा का तापमान 33.8 से 42.2 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है। इससे उपजाऊ मृदा में उपस्थित महत्त्वपूर्ण और उपयोगी बैक्टीरिया और कवक को बड़ी मात्रा में क्षति पहुँचती है।
  • ’अनुकूल’ कीटों को हानि पहुँचने और ‘शत्रु’ ’कीटों का प्रकोप बढ़ने के परिणामस्वरूप फसलों में बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। मृदा की ऊपरी परतों की घुलनशीलता क्षमता भी कम हो जाती है।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार, एक टन पराली जलाने से 5.5 किलोग्राम नाइट्रोजन, 2.3 किलोग्राम फॉस्फोरस, 25 किलोग्राम पोटेशियम और 1 किलोग्राम से अधिक सल्फर आदि पोषक तत्त्वों  की हानि होती है।
  • प्रभावित क्षेत्रों में लोगों में खाँसी और घबराहट जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ देखी गई हैं। ‘इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज, बेंगलुरु’ के अध्ययन में एक अनुमान के अनुसार,  फसल अपशिष्ट जलाने से होने वाली बीमारियों का इलाज कराने के लिये पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग प्रतिवर्ष 7.6 करोड़ रुपए खर्च करते हैं।

समाधान/आगे की राह

  • फसल अपशिष्ट/प्रबंधन के लिये जैव-अपघटक तकनीक एक बेहतर विकल्प है, जो पर्यावरणीय रूप से अनुकूल होने के साथ-साथ लागत प्रभावी भी है। इसके साथ-साथ अन्य विकल्पों को भी अपनाया जा सकता है।
  • फसल अपशिष्ट/पराली को जलाने बजाए इसका उपयोग पशु चारा, खाद , ग्रामीण क्षेत्रों में छत निर्माण, बायोमास ऊर्जा, मशरूम की खेती, पैकेजिंग सामग्री, ईंधन, कागज, जैव-इथेनॉल और औद्योगिक उत्पादन आदि विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है।
  • वर्ष 2014 में केंद्र सरकार द्वारा फसल अवशेषों के प्रबंधन के लिये राष्ट्रीय नीति जारी की गई जिसके पश्चात् फसल अवशेष प्रबंधन से मृदा को अधिक उपजाऊ बनाने में मदद मिली है तथा खाद लागत में 2,000 रूपए/हेक्टेयर तक की बचत हुई है।
  • हैप्पी सीडर (Happy Seeder), रोटावेटर (Rotavator), ज़ीरो टिल सीड ड्रिल (Zero till seed drill), धान स्ट्रा चॉपर (Paddy Straw Chopper), रीपर बाइंडर (Reaper Binder) आदि मशीनों  का उपयोग करके भी किसान फसल अवशेषों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित कर सकते हैं।
  • ये मशीनें बहुत महँगी हैं, अतः राज्य सरकारों को आगे आकर बेहतर सब्सिडी प्रदान करनी चाहिये। 

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

नासा का आर्टेमिस कार्यक्रम

प्रिलिम्स के लिये

आर्टेमिस कार्यक्रम, अपोलो मिशन, चंद्रयान -3

मेन्स के लिये

अंतरिक्ष अन्वेषण और मानव, भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम, अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में प्रगति

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नासा (National Aeronautics and Space Administration- NASA) ने अपने आर्टेमिस कार्यक्रम (Artemis Program) की रूपरेखा प्रकाशित की है, जिसमें वर्ष 2024 तक मनुष्य (एक महिला और एक पुरुष) को चंद्रमा पर भेजने की योजना बनाई गई है। 

  • गौरतलब है कि अंतिम बार नासा (NASA) ने चंद्रमा पर इंसानों को वर्ष 1972 में अपोलो मिशन (Apollo Mission) के दौरान भेजा था।

प्रमुख बिंदु

नासा का आर्टेमिस कार्यक्रम

  • आर्टेमिस कार्यक्रम (Artemis Program) के माध्यम से NASA वर्ष 2024 तक मनुष्य (एक महिला और एक पुरुष) को चंद्रमा पर भेजना चाहता है। इस मिशन का लक्ष्य चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव सहित चंद्रमा की सतह पर अन्य जगहों पर अंतरिक्ष यात्रियों को उतारना है।
  • आर्टेमिस कार्यक्रम के माध्यम से नासा (NASA) अपनी नई प्रौद्योगिकियों, क्षमताओं और व्यापार दृष्टिकोण का प्रदर्शन करना चाहता है, जो अंततः भविष्य में मंगल ग्रह के अन्वेषण के लिये आवश्यक होंगे।
  • नासा ने अपने इस पूरे कार्यक्रम को तीन भागों में विभाजित किया गया है, जिसमें 
    • पहला भाग आर्टेमिस I (Artemis I) है जो कि पूरी तरह से मानवरहित होगा और इसमें नासा द्वारा प्रयोग किये जाने वाले स्पेस लॉन्च सिस्टम (Space Launch System- SLS) और ओरियन अंतरिक्ष यान (Orion Spacecraft) का परीक्षण किया जाएगा। इसे अगले वर्ष 2021 तक लॉन्च किया जाएगा।
    • दूसरा भाग आर्टेमिस II (Artemis II) है जिसमें मानव दल को शामिल किया जाएगा और इसे वर्ष 2023 तक लॉन्च किया जाएगा, हालाँकि मिशन के इस हिस्से में चंद्रमा की सतह पर लैंड नहीं किया जाएगा।
    • मिशन का तीसरा और अंतिम भाग आर्टेमिस II (Artemis III) है, जिसे वर्ष 2024 में लॉन्च किया जाएगा और मिशन के इस हिस्से के तहत अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतारा जाएगा।

कार्यक्रम को लेकर नासा की तैयारी

  • आर्टेमिस कार्यक्रम के लिये नासा के नए रॉकेट जिसे स्पेस लॉन्च सिस्टम (Space Launch System- SLS) कहा जाता है, को चुना गया है। ध्यातव्य है कि यह रॉकेट ओरियन अंतरिक्ष यान (Orion Spacecraft) में सवार अंतरिक्ष यात्रियों को पृथ्वी से चंद्रमा की कक्षा में ले जाएगा।
  • इसके अलावा नासा ने अंतरिक्ष में रॉकेट लॉन्च करने के लिये अपने कैनेडी स्पेस सेंटर में एक्सप्लोरेशन ग्राउंड सिस्टम (Exploration Ground Systems) भी स्थापित किया है, ताकि आर्टेमिस कार्यक्रम और नासा के अन्य भावी कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में लॉन्च किया जा सके।
  • आर्टेमिस मिशन के लिये जाने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिये नासा ने नए स्पेस-सूट डिज़ाइन किये हैं, जिन्हें एक्सप्लोरेशन एक्स्ट्रावेहिकुलर मोबिलिटी यूनिट (Exploration Extravehicular Mobility Unit) या xEMU कहा जा रहा है। इस स्पेस-सूट में उन्नत गतिशीलता और संचार तथा विनिमेय भागों (Interchangeable Parts) की सुविधा है, जिसे माइक्रोग्रैविटी में या ग्रहीय सतह पर स्पेसवॉक (Spacewalk) के लिये उपयुक्त आकार दिया जा सकता है।

नासा (NASA) और चंद्रमा से संबंधित मिशन 

  • अमेरिका ने वर्ष 1961 के बाद से ही लोगों को अंतरिक्ष में लाने की कोशिश शुरू कर दी थी। इसके आठ वर्ष बाद 20 जुलाई, 1969 को नील आर्मस्ट्रांग (Neil Armstrong) अपोलो 11 मिशन के तहत चंद्रमा पर कदम रखने वाले पहले मानव बने थे। 
    • उल्लेखनीय है कि अंतरिक्ष की सतह की ओर बढ़ते हुए नील आर्मस्ट्रांग ने कहा था कि ‘यह मनुष्य के लिये एक छोटा कदम है, मानव जाति के लिये एक विशाल छलांग है।’ अपोलो 11 मिशन के अंतरिक्ष यात्रियों ने एक संकेत के साथ चंद्रमा पर एक अमेरिकी ध्वज छोड़ा था।
  • अंतरिक्ष अन्वेषण के अलावा NASA के इन प्रयासों का उद्देश्य अंतरिक्ष के क्षेत्र में अमेरिकी नेतृत्व को प्रदर्शित करना और चंद्रमा पर अमेरिका की एक रणनीतिक उपस्थिति स्थापित करना है।

चंद्रमा पर अन्वेषण से संबंधित अन्य कार्यक्रम

  • वर्ष 1959 में सोवियत संघ का लूना (Luna) 1 और 2 चंद्रमा पर जाने वाला पहला मानवरहित रोवर बन गया। तब से लेकर अब तक इस कार्य में कुल 7 देश सफल हुए हैं।
  • अमेरिका ने अपोलो 11 मिशन को भेजने से पूर्व वर्ष 1961 से वर्ष 1968 के बीच रोबोटिक मिशनों के तीन वर्ग भी भेजे थे। इसके बाद जुलाई 1969 से वर्ष 1972 तक कुल 12 अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री चाँद की सतह तक पहुँचे। 
  • उल्लेखनीय है कि नासा के अपोलो मिशनों में शामिल अंतरिक्ष यात्री अध्ययन के लिये पृथ्वी पर 382 किलोग्राम चंद्रमा की चट्टान और मिट्टी लेकर आए हैं। 
  • 1990 के दशक में अमेरिका ने रोबोट मिशन क्लेमेंटाइन (Robotic Missions Clementine) और लूनर प्रॉस्पेक्टर (Lunar Prospector) के साथ चंद्रमा पर अन्वेषण कार्यक्रम फिर से शुरू किया।
  • वर्ष 2009 में नासा (NASA) ने लूनर रिकॉनाइसेंस ऑर्बिटर (Lunar Reconnaissance Orbiter- LRO) और लूनर क्रेटर ऑब्ज़र्वेशन एंड सेंसिंग सैटेलाइट (Lunar Crater Observation and Sensing Satellite- LCROSS) के प्रक्षेपण के साथ चंद्रमा से संबंधित मिशनों की एक नई श्रृंखला शुरू की।
  • अमेरिका के अलावा यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी, जापान, चीन और भारत की अंतरिक्ष एजेंसियों ने चंद्रमा के अन्वेषण के लिये मिशन भेजे हैं।
  • वर्ष 2019 में चीन ने दो रोवर्स को चंद्रमा की सतह पर उतारा है जिससे चीन चंद्रमा के दूरस्थ भाग पर ऐसा करने वाला पहला देश बन गया।
  • भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने हाल ही में भारत के तीसरे चंद्र मिशन चंद्रयान -3 की घोषणा की है जिसमें एक लैंडर और एक रोवर शामिल होगा।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

लूसेर पारितंत्र के विनाश में शीर्ष कंपनियों की मिलीभगत

प्रिलिम्स के लिये 

लूसेर पारितंत्र 

मेन्स के लिये 

पाम ऑयल के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी,  भारत सरकार की पहलें 

चर्चा में क्यों?

खाद्य कंपनियाँ अपने उत्पादों में शून्य ट्रांसफैट सीमा को पूरा करने के लिये पाम ऑयल का उपयोग कर रही हैं। इसका प्रभाव इंडोनेशिया के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों पर पड़ रहा है, जो इन अधिकांश कंपनियों के लिये पाम तेल का प्रमुख स्रोत है।

प्रमुख बिंदु 

  • ग्लोबल वॉचडॉग ‘रेनफॉरेस्ट एक्शन नेटवर्क’ (Rainforest Action Network-RAN) की एक जाँच से से पता चला है कि खाद्य और कॉस्मेटिक्स उत्पादों के निर्माण में संलग्न कंपनियों और वित्तीय संस्थानों की मिलीभगत के कारण लूसेर पारितंत्र (Leuser Ecosystem) पर नष्ट होने का खतरा मँडरा रहा है।
  • जाँच में दावा किया गया कि निम्नलिखित कंपनियों ने रॉयल गोल्डन ईगल (Royal Golden Eagle-RGE) समूह से पाम ऑयल की खरीद की। RGE समूह द्वारा अपनी सहायक कंपनियों के माध्यम से लूसेर पारितंत्र में विनाशकारी पाम  ऑयल और पल्प के बागान (Oil Palm and Pulp Plantations) स्थापित किये गए हैं -
    • खाद्य कंपनियाँ, जैसे- नेस्ले (Nestle), मोंडेलज़ (Mondelez) इंटरनेशनल (International), इंक (Inc) और यूनिलीवर (Unilever)।
    • कॉस्मेटिक्स कंपनियाँ, जैसे- कोलगेट-पामोलिव (Colgate-Palmolive) और काओ कॉर्प (Kao Corp)। 
    • बैंक, जैसे- जापान के मित्सुबिशी यू.एफ.जे फाइनेंशियल ग्रुप (Mitsubishi UFJ Financial Group of Japan), इंडस्ट्रियल एंड कमर्शियल बैंक ऑफ चाइना (Industrial and Commercial Bank of China) और ABN AMRO बैंक ऑफ डेनमार्क (ABN AMRO Bank of Denmark)
  • जाँच में दावा किया गया है कि RGE एक मिल से पाम तेल खरीदता है, जिसे लूसेर पारितंत्र में स्थापित टी. तुआलंग राया द्वारा आपूर्ति की जाती है।
  • पी.टी. तुआलंग राया के बारे में कहा जाता है कि इसके द्वारा पिछले छह माह में कम से कम 60 हेक्टेयर भूमि में वर्षा वनों को साफ किया गया। पिछले छह माह में वर्षा वनों को साफ  करने की दर तीन गुना अधिक रही है।
  • RAN की जाँच में बताया गया है कि इनमें से कई कंपनियों और बैंकों ने पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया था। उदाहरण के लिये, उपभोक्ता वस्तुओं के विनिर्माण में संलग्न जापानी कंपनी काओ  ‘No Deforestation, No Peatland and No Exploitation’ नीति अपनाने वाली पहली कंपनी थी।
  • इसी प्रकार MUFG और ABN AMRO, जो RGE को वित्तपोषित करते हैं, उत्तरदायी बैंकिंग के संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों पर हस्ताक्षरकर्ता हैं। इनके द्वारा टिकाऊ पाम तेल (Sustainable Palm Oil) के वित्तपोषण पर नीतियाँ भी निर्मित की गई हैं।
  • जैसे-जैसे दुनिया खाना पकाने के माध्यमों में औद्योगिक रूप से उत्पादित ट्रांसफैट को शून्य करने की स्थिति की ओर बढ़ रही है, वैसे-वैसे पाम ऑयल को अधिक अपनाया जा रहा है क्योंकि यह प्राकृतिक रूप से संतृप्त है।

पाम ऑयल के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी   

  • पाम ऑयल विश्व के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों के समान भौगोलिक क्षेत्रों में पनपने वाली फसल है, जो खाद्य और घरेलू उत्पादों के प्रयोजन हेतु प्रयुक्त की जाती है। पाम ऑयल वनस्पति तेल के मुख्य वैश्विक स्रोत के रूप में उभरा है, जो दुनिया के उत्पादन मिश्रण का लगभग 33% है। 
  • भारत दुनिया में पाम ऑयल का सबसे बड़ा आयातक है, जो इंडोनेशिया और मलेशिया से कुल वैश्विक मांग का लगभग 23%आयात करता है। 
  • इंडोनेशिया, मलेशिया, नाइजीरिया, थाईलैंड और कम्बोडिया आदि देश विश्व में FFB (Fresh Fruit Brunches) के कुल उत्पादन में 90% से अधिक हिस्सा रखते हैं।
  • वर्तमान में भारत में आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु पाम ऑयल के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। आंध्र प्रदेश देश के कुल पाम ऑयल के 80% से अधिक उत्पादन के साथ प्रथम स्थान पर है।  

भारत सरकार की पहलें 

  • पाम ऑयल की खेती के महत्त्व को देखते हुए कृषि सहकारिता एवं किसान कल्‍याण विभाग ने 1991-92 में संभावित राज्यों में तिलहन और दलहन पर प्रौद्योगिकी मिशन (TMOP) शुरू किया था।
  • आठवीं और नौवीं पचवर्षीय योजना के दौरान एक व्यापक केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में तेल पाम विकास कार्यक्रम (OPDP) शुरू किया गया। 
  • दसवीं और ग्यारहवीं योजना के दौरान, भारत सरकार ने तिलहन, दलहन, पाम ऑयल और मक्का की एकीकृत योजना (ISOPOM) के अंतर्गत पाम ऑयल की खेती के लिये सहायता प्रदान की। 
  • पाम ऑयल की खेती को बढ़ावा देने के लिये भारत सरकार ने वर्ष 2011-12 के दौरान राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत पाम ऑयल के क्षेत्र विस्तार (OPAE) पर एक विशेष कार्यक्रम का समर्थन किया, जिसका उद्देश्य पाम ऑयल की खेती के अंतर्गत 60,000 हेक्टेयर क्षेत्र को लाना था, जो मार्च 2014 तक जारी रहा। 
  • बारहवीं योजना के दौरान, तिलहन और पाम ऑयल (NMOOP) पर राष्ट्रीय मिशन (NMOOP) शुरू किया गया, जिसमें मिनी मिशन- II (MM-II) पाम ऑयल क्षेत्र के विस्तार और उत्पादकता में वृद्धि के लिये समर्पित है। 
  • भारत में लंबी समयावधि से पाम ऑयल के रोपण की संभावनाओं का पता लगया जा रहा है। वर्ष 2019 में अंडमान और निकोबार प्रशासन ने नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र में एकल कृषि वृक्षारोपण पर 16 वर्ष पूर्व लगाए गए प्रतिबंध को हटाने के लिये उच्चतम न्यायालय दरवाजा खटखटाया था। 
  • वर्ष 2014 में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने अधिकारियों से पाम ऑयल पर विचार करने का आग्रह किया था क्योंकि द्वीप की गर्म और आर्द्र उष्णकटिबंधीय जलवायु इसके विकास के लिये उपयुक्त थी।

 लूसेर पारितंत्र (Leuser Ecosystem)

  • यह इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप पर एक वन क्षेत्र है। लूसेर पारितंत्र सबसे प्राचीन और जीवन-समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र है।
  • यह पृथ्वी पर अंतिम स्थान है जहाँ सुमात्रा के ऑरंगुटान (orangutans) , हाथी (elephants), बाघ (tigers), गैंडे (rhinos) और सन बियर्स (Sun Bears) अभी भी एक ही पारिस्थितिकी आवास में घूमते हैं।

आगे की राह

 जब तक कॉर्पोरेट समूह (Corporate Groups)  ‘No Deforestation, No Peatland and No Exploitation’ बेंचमार्क के साथ अपने अनुपालन पर खरा नहीं उतरता, तब तक इन खाद्य और कॉस्मेटिक्स कंपनियों तथा बैंकों को रॉयल गोल्डन ईगल समूह और उसकी सभी सहायक कंपनियों से सोर्सिंग/संयुक्त-उद्यम/वित्तपोषण को निलंबित करना चाहिये।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


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