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डेली न्यूज़

  • 24 Sep, 2020
  • 48 min read
शासन व्यवस्था

समाचार चैनलों के लिये आचार संहिता

प्रिलिम्स के लिये 

हेट स्पीच,  न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन

मेन्स के लिये 

आचार संहिता की आवश्यकता क्यों? 

चर्चा में क्यों? 

न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (News Broadcasters Association-NBA) ने उच्चतम न्यायालय में दिये गए हलफनामे में दुर्भावनापूर्ण, पक्षपातपूर्ण और प्रतिगामी सामग्री के खिलाफ सभी टेलीविज़न समाचार चैनलों पर बाध्यकारी रूप से लागू अपनी आचार संहिता का निर्माण करने का सुझाव दिया है। 

पृष्ठभूमि

  • समाचार चैनलों के टेलीविज़न कार्यक्रमों की ‘आहत करने वाली’ और ‘सांप्रदायिक’ सामग्री के नियमन में NBA की कथित अपर्याप्त क्षमता को संज्ञान में लेते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने 18 सितंबर को NBA और केंद्र सरकार से सुझाव माँगे थे, जिससे NBA की स्व-नियामक शक्तियों को और अधिक सुदृढ़ बनाया जा सके।
  • जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, इंदु मल्होत्रा ​​और के.एम. जोसेफ की पीठ द्वारा सुदर्शन न्यूज़ टीवी के विवादास्पद कार्यक्रम शृंखला 'बिंदास बोल' के खिलाफ याचिका पर सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने NBA को अपने नियमों को लागू करने में नरमी बरतने पर फटकार लगाई थी। पीठासीन न्यायाधीश जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने NBA को 'दंतहीन' कहा था।
  • इस कार्यक्रम पर आरोप लगाया गया था कि यह सिविल सेवाओं में मुसलमानों के प्रवेश को सांप्रदायिक रूप दे रहा था। 15 सितंबर को उच्चतम न्यायलय ने प्रथमदृष्टया अवलोकन करने के बाद कार्यक्रम के प्रसारण पर रोक लगा दी थी।
  • NBA द्वारा दायर हलफनामे में कहा गया है कि उसके द्वारा निर्मित आचार संहिता को सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा ‘केबल टेलीविज़न नेटवर्क नियम, 1994’ के ‘प्रोग्राम कोड के नियम- 6’ में सम्मिलित कर इसे वैधानिक मान्यता दी जानी चाहिये, जिससे ये संहिता सभी समाचार चैनलों के लिये बाध्यकारी बन सके।

 केंद्र सरकार का मत

  • केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से आग्रह किया कि वह ‘फेक न्यूज़ या हेट स्पीच’ पर अंकुश लगाने के लिये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को विनियमित करने हेतु किसी भी कवायद को शुरू न करें, क्योंकि इससे निपटने के लिये पर्याप्त नियम और दिशा-निर्देश पहले से ही मौजूद हैं।

हेट स्पीच

जेरेमी वाल्ड्रॉन, एक शोधकर्ता, ने ‘हेट स्पीच’ के बारे में दार्शनिक रक्षा पर आधारित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है-

  • ‘हेट स्पीच’ से आशय उन भाषणों/बयानों से है जो सामूहिक पहचान के आधार पर लोगों के खिलाफ जाति, नृजातीयता, धर्म, लिंग या कामुकता आदि के आधार पर हिंसा, नफरत या भेदभाव को उकसाते हैं।
  • इन मामलों में हेट स्पीच की सीमितता सुभेद्य अल्पसंख्यक वर्गों तक होनी चाहिये। इस अवधारणा के तहत केवल एक अपमानजनक बयान को हेट स्पीच के रूप में नहीं देखा जा सकता। 
  • उदाहरण के लिये, किसी धार्मिक व्यक्ति पर व्यंग्य जो उस धर्म के अनुयायियों की भावनाओं का मजाक बनाता है, उसे हेट स्पीच की परिभाषा के अंतर्गत सम्मिलित नहीं किया जा सकता। जब कोई भाषण किसी संपूर्ण समुदाय को ‘राष्ट्र विरोधी’ के रूप में सूचित करता है तो उसे हेट स्पीच की श्रेणी में रखा जाएगा।  

हेट स्पीच के संदर्भ में भारतीय कानून 

  • प्रोफेसर वाल्ड्रॉन की थ्योरी इसलिये बहुत आकर्षक है क्योंकि यह भारतीय लोकतांत्रिक विज़न के साथ मेल खाती है। यह स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्त्व  के मूल्यों को दर्शाती है जिसे संविधान के निर्माताओं ने मूलभूत आवश्यकता के रूप में वर्णित किया था।  
  • भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा-153A और धारा-295 A क्रमशः विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने और धार्मिक भावनाओं को अपमानित करने वाले भाषण/कार्य को अपराध घोषित करती हैं।

आचार संहिता की आवश्यकता क्यों? 

  • भारत में प्रिंट मीडिया का व्यवस्थित इतिहास 200 वर्षों से अधिक का रहा है। हाल के वर्षों में टेलीविज़न पत्रकारिता का तीव्र विस्तार हुआ है। टीवी पत्रकारिता में ‘सबसे पहले खबर दिखाने’ और ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ के नाम पर ‘व्यावसायिक प्रतिबद्धता’ और ‘पेशे की बुनियादी नैतिकता’ के उल्लंघन के बढ़ते मामलों की संख्या पत्रकारिता की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
  • दर्शकों के लिये निष्‍पक्ष, वस्‍तुनिष्‍ठ, सटीक और संतुलित सूचना प्रस्‍तुत करने के लिये पत्रकारों को पत्रकारिता के मौलिक सिद्धांत को ध्‍यान में रखते हुए द्वारपाल की भूमिका निभाने की आवश्यकता को देखते हुए टेलीविज़न चैनलों के लिये आचार संहिता बनाई जानी चाहिये।
  •  ‘फेक न्यूज़’ के मामलों के प्रकाश में आने के पश्चात् और इसके द्वारा सोशल मीडिया पर विस्तृत प्रभाव पैदा करने से वर्तमान समय में टेलीविज़न समाचार चैनलों के लिये आचार संहिता का निर्माण बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। सनसनीखेज, पक्षपातपूर्ण कवरेज़ और पेड न्यूज मीडिया का आधुनिक चलन बन गया है। किसी भी स्थिति में राय देने वाली रिपोर्टिंग को व्याख्यात्मक रिपोर्टिंग नहीं कहा जा सकता है।
  • व्यापारिक समूह और यहाँ तक ​​कि राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति समाचार पत्र और टेलीविज़न चैनलों का संचालन कर रहे हैं। यह चिंताजनक होने के साथ ही इससे पत्रकारिता के मूल उद्देश्‍य समाप्त हो रहे हैं।
  • अधिकारों और कर्तव्यों को अविभाज्य नहीं माना जा सकता है।  मीडिया को न केवल लोकतंत्र की रक्षा करने के लिये प्रहरी के रूप में काम करना चाहिये बल्कि उसे समाज के वंचित वर्गों के हितों के रक्षक के रूप में भूमिका का निर्वहन करना चाहिये।
  • मोबाइल फोन/स्मार्ट फोन के आने के पश्चात् सूचनाओं को साझा करने के क्रम में क्रांति आई है। प्रत्येक स्मार्ट फोन उपयोगकर्ता एक संभावित पत्रकार बन गया है। हालाँकि इंटरनेट और मोबाइल फोन ने सूचना की उपलब्धता का लोकतांत्रिकरण किया है लेकिन फेक न्यूज़ और अफवाहों के प्रसार की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। पत्रकारों को इस तरह के समाचारों और नकली आख्यानों से बचना चाहिये क्योंकि उनका उपयोग निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिये हमारे बहुलवादी समाज में विघटन और विभाजन पैदा करने में किया जा सकता है।

न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (NBA)

  • न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (NBA) निजी टेलीविजन समाचार और समसायिक घटनाओं के ब्रॉडकास्टर्स का प्रतिनिधित्व करता है।
  • यह पूर्णरूप से अपने सदस्यों द्वारा वित्तपोषित एक संगठन है। NBA में वर्तमान में 26 प्रमुख समाचार और समसामयिक घटनाओं के ब्रॉडकास्टर्स (कुल 70 न्यूज़ और समसामियक घटनाओं के चैनल) इसके सदस्य हैं।
  • NBA का मिशन निजी समाचार और समसामयिक घटनाओं के प्रसारकों की आँख और कान रूप में कार्य करते हुए उनकी और से पैरवी करने और हितों के मामलों पर संयुक्त कार्रवाई के केंद्रीय बिंदु के रूप में कार्य करने के लिये भूमिका हैं।

आगे की राह

  • अपेक्षित परिवर्तन लाने के लिये भ्रष्टाचार और लैंगिक एवं जातिगत भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने की आवश्यकता पर प्रिंट मीडिया और टेलीविज़न समाचार चैनलों द्वारा  जनता की राय बनाने में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिये।
  • इस संदर्भ में न्यूज़ मीडिया ने कई बार सकारात्मक भूमिका का निर्वहन भी किया है। ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को बढ़ावा देने में न्यूज़ मीडिया ने सकारात्मक भूमिका निभाई थी।

स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और सुरक्षा की आवश्यकता

प्रिलिम्स के लिये

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, G-4 समूह

मेन्स के लिये

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का महत्त्व और इसमें सुधार की आवश्यकता, इस संबंध में भारत की दावेदारी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से संपन्न एक बैठक के बाद जापान, जर्मनी, ब्राज़ील और भारत (G-4) ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (United Nations Security Council- UNSC) में सुधारों की अपनी मांग को दोहराते हुए एक समय सीमा के भीतर ठोस निर्णय लेने पर ज़ोर दिया।

प्रमुख बिंदु

  • इस बैठक के दौरान चारों देशों के विदेश मंत्रियों ने वर्ष 2005 के विश्व शिखर सम्मेलन में राष्ट्रों और शासनाध्यक्षों द्वारा परिकल्पित सुरक्षा परिषद के शीघ्र और व्यापक सुधार की दिशा में निर्णायक कदम उठाने के अपने संकल्प की पुष्टि की।
  • सभी प्रतिभागियों ने स्पष्ट किया कि वर्तमान में विश्व उस समय से बिल्कुल अलग है जब 75 वर्ष पूर्व संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया था। वर्तमान में परिस्थितियाँ बदल गई हैं, देशों की संख्या बढ़ गई है और चुनौतियाँ भी बढ़ गई हैं, ऐसे में इन नई चुनौतियों से निपटने के लिये नवीन समाधानों की आवश्यकता भी महसूस हो रही है।
  • इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए जापान, जर्मनी, ब्राज़ील और भारत (G-4) के प्रतिभागियों ने समकालीन वास्तविकताओं को बेहतर ढंग से दर्शाने के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आमूलचूल बदलाव लाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। 

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और उसकी भूमिका

  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC),  संयुक्त राष्ट्र (UN) की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है, जिसका प्राथमिक कार्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति और सुरक्षा बनाए रखना है।
  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने अपना पहला सत्र 17 जनवरी, 1946 को वेस्टमिंस्टर, लंदन में आयोजित किया था।
  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में कुल 15 सदस्य होते हैं, जिसमें से 5 स्थायी सदस्य और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्राँस, रूस और चीन शामिल हैं और स्थायी सदस्यों के पास वीटो का अधिकार होता है।
  • पाँच स्थायी सदस्य देशों के अलावा 10 अन्य देशों को क्षेत्रीय आधार पर दो वर्ष के लिये अस्थायी सदस्य के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में शामिल किया जाता है। 
  • यदि विश्व में कहीं भी सुरक्षा संकट उत्पन्न होता है तो उस मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के समक्ष लाया जाता है, जिसके पश्चात् यह परिषद मध्यस्थता और विशेष दूत की नियुक्ति जैसी विधियों के माध्यम से विभिन्न पक्षों के मध्य समझौता कराने का प्रयास करती है, इसके अलावा यह परिषद संयुक्त राष्ट्र महासचिव से भी उस विवाद को सुलझाने का अनुरोध कर सकती है।
    • इन सब के बावजूद यदि किसी क्षेत्र में मामला बढ़ता है तो सुरक्षा परिषद वहाँ युद्धविराम के निर्देश जारी कर सकता है और शांति सेना तथा सैन्य पर्यवेक्षकों की नियुक्ति कर सकता है।
  • यदि परिस्थितियाँ बहुत विकट होती हैं, तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सुरक्षात्मक प्रतिबंध और वित्तीय दंड भी अधिरोपित कर सकता है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की आवश्यकता

  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) शांति व्यवस्था और संघर्ष प्रबंधन के लिये अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का एक प्रमुख अंग है और संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा लिये गए निर्णयों के विपरीत इस परिषद के निर्णय सदस्य देशों पर बाध्यकारी होते हैं।
  • इसका अर्थ है कि इस परिषद में काफी व्यापक शक्तियाँ निहित हैं और यह परिषद आवश्यकता पड़ने पर ऐसे निर्णय भी ले सकती है, जो किसी एक देश की संप्रभुता पर अतिक्रमण कर सकते हैं, उदाहरण के लिये किसी देश पर प्रतिबंध अधिरोपित करने का निर्णय।
  • यद्यपि यह महत्त्वपूर्ण और आवश्यक भी है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पास इस प्रकार की शक्तियाँ होनी चाहिये, किंतु यदि हम चाहते हैं कि विश्व के सभी देश परिषद द्वारा लिये गए निर्णय का सम्मान करें तो यह आवश्यक है कि परिषद को अधिक-से-अधिक प्रतिनिधि बनाया जाए यानी इसमें ज़्यादा-से-ज़्यादा क्षेत्रों का प्रतिनिधित्त्व सुनिश्चित किया जाए।
  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वर्तमान संरचना भी वर्ष 1945-46 की भू-राजनितिक परिस्थितियों का प्रतिनिधित्त्व करती है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से कई देश इसमें शामिल हुए हैं, इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इन नए देशों और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्त्व करने में असफल रहा है।
  • संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से वैश्विक भू-राजनीति और वैश्विक मुद्दों में परिवर्तन आया है, इसलिये अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने नए मुद्दे ज़्यादा प्रासंगिक हो गए हैं अतः संयुक्त राष्ट्र तथा इसकी सुरक्षा परिषद की संरचना और कार्यशैली में भी परिवर्तन होना अनिवार्य है। 
  • वर्तमान समय में संपूर्ण विश्व दो गुटों विकासशील और विकसित में बंँटा हुआ है लेकिन UNSC में केवल चीन ही एक विकासशील देश है, इसके अतिरिक्त अफ्रीका जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र की यहाँ पर उपस्थिति ही नहीं है। 
  • पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया के देश एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं, इसके साथ ही भारत जैसे देश की वैश्विक स्तर पर बढ़ती भूमिका इसकी संयुक्त राष्ट्र में अधिक महत्त्वपूर्ण भागीदारी का आह्वान करती है।
  • सुरक्षा परिषद में आवश्यक सुधार की अनुपस्थिति में एक खतरा यह है कि वैश्विक स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया किसी अन्य मंच पर स्थानांतरित हो सकती है, और इस तरह की प्रतियोगिता किसी के भी दीर्घकालिक हित में नहीं होगी।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार और G-4 की भूमिका

  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की मांग के लिये जापान, जर्मनी, भारत और ब्राज़ील ने G-4 के नाम से एक गुट बनाया है और स्थायी सदस्यता के मामले में एक-दूसरे का समर्थन करते हैं।
  • G-4 देश लगातार बहुपक्षवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करने के साथ ही UNSC की संरचना में सुधार की मांग कर रहे हैं।
  • G-4 देश 21वीं शताब्दी की समकालीन ज़रूरतों के लिये संयुक्त राष्ट्र की स्वीकार्यता हेतु संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की आवश्यकता पर ज़ोर दे रहे हैं।

भारत और सुरक्षा परिषद

  • ध्यातव्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत संयुक्त राष्ट्र (UN) द्वारा शुरू की गईं सभी पहलों में सक्रिय रूप से भागीदार रहा है। 
  • संयुक्त राष्ट्र के शुरुआती वर्षों में भारत को दो महाशक्तियों अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में शामिल होने की पेशकश की गई थी, हालाँकि, भारत ने उस समय शीत युद्ध की राजनीति के कारण इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।
    • वहीं भारत को अब तक कुल आठ बार दो-वर्षीय कार्यकाल के लिये गैर-स्थायी सदस्य के रूप में चुना जा चुका है।
  • वर्तमान में भारत विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र और दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है, यही कारण है कि कई विशेषज्ञ और यहाँ तक कि कई देश, भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का हकदार मानते हैं।
  • भारत वैश्विक स्तर पर तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और यह न केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व के विकास के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है।
  • साथ ही भारत अपनी विदेश नीति के माध्यम से ऐतिहासिक रूप से विश्व शांति को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है। इस प्रकार यदि भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल किया जाता है तो इससे न केवल विकासशील देशों का प्रतिनिधित्त्व सुनिश्चित हो सकेगा, बल्कि इससे सुरक्षा परिषद को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने में मदद मिलेगी।

सुरक्षा परिषद में विस्तार की बाधाएँ 

  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार और इसके विस्तार में सबसे बड़ी बाधा तो सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य ही हैं, वे स्वयं ही किसी अन्य देश को स्थायी सदस्य के रूप में शामिल नहीं होने देना चाहते। वहीं अभी तक ऐसा कोई उदाहरण मौजूद नहीं है जहाँ किसी देश ने अकेले इस प्रकार का दर्जा प्राप्त किया हो।
  • इसके अलावा कई देश एक दूसरे की दावेदारी को नकार रहे हैं, उदाहरण के लिये- पाकिस्तान नहीं चाहता कि भारत स्थायी सदस्य बने, वहीं चीन इसके लिये जापान का विरोध कर रहा है, इसके अलावा इटली, जर्मनी का विरोध कर रहा है और अर्जेंटीना इस सीट के लिये ब्राज़ील का विरोध कर रहा है।
  • अफ्रीका में अभी तक इस बात पर कोई सहमति नहीं बन पाई है कि कौन सा देश स्थायी सदस्य के रूप में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करेगा।
  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के निर्धारण के लिये अभी तक कोई भी मापदंड निर्धारित नहीं किया गया है। 

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

सरकारी विद्यालय में शौचालयों पर CAG सर्वेक्षण

प्रीलिम्स के लिये 

नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, स्वच्छ विद्यालय अभियान, शिक्षा का अधिकार अधिनियम

मेन्स के लिये

सरकारी विद्यालयों के बुनियादी ढाँचे से संबंधित मुद्दे 

चर्चा  में क्यों?

भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (Comptroller and Auditor General- CAG) द्वारा संसद में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों द्वारा शिक्षा के अधिकार के हिस्से के रूप में सरकारी विद्यालयों में निर्मित 1.4 लाख शौचालयों में से लगभग 40 प्रतिशत अस्तित्त्वहीन (Non-Existent), आंशिक रूप से निर्मित और अप्रयुक्त हैं। 

प्रमुख बिंदु

  • आँकड़ों के अनुसार, देश भर में तकरीबन 10.8 लाख सरकारी विद्यालय हैं, जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र के केंद्रीय उद्यमों (CPSEs) की सहायता से कुल 1.4 लाख शौचालय बनाए गए हैं। 
  • भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में 15 राज्यों के 2,695 सरकारी विद्यालयों के शौचालयों का सर्वेक्षण किया है।

प्रमुख निष्कर्ष

  • संसद में प्रस्तुत नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश भर के सरकारी विद्यालयों में निर्मित 70 प्रतिशत से अधिक शौचालयों में पानी की सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहीं 75 प्रतिशत शौचालयों में निर्धारित मानकों का सही ढंग से पालन नहीं किया गया है। 
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘स्वच्छ विद्यालय अभियान’ के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के केंद्रीय उद्यमों द्वारा पहचाने गए ऐसे कुल 83 शौचालय हैं, जिनका निर्माण अभी तक नहीं किया गया है। 
    • वहीं अन्य 200 शौचालयों का निर्माण तो पूरा हो गया है, किंतु वे अभी भी अस्तित्त्वहीन हैं, जबकि 86 शौचालय ऐसे हैं जिनका निर्माण केवल आंशिक रूप से किया गया है। 
  • रिपोर्ट के अनुसार, 691 शौचालय ऐसे हैं, जिन्हें पानी की कमी, टूट-फूट या अन्य कारणों से उपयोग में नहीं लाया जा रहा है। 
  • सर्वेक्षण में शामिल किये गए 1,967 विद्यालयों में से 99 विद्यालयों में किसी भी प्रकार का शौचालय नहीं है, जबकि 436 विद्यालयों में केवल एक शौचालय है, जिसका अर्थ है कि 27 प्रतिशत स्कूलों में लड़कों और लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय उपलब्ध कराने का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है। 
  • सर्वेक्षण के दौरान पाया गया कि जहाँ 72 प्रतिशत विद्यालयों में स्वच्छ पानी की उपलब्धता नहीं है, वहीं 55 प्रतिशत में हाथ धोने की कोई सुविधा नहीं थी। 
  • सर्वेक्षण के अनुसार, सरकारी विद्यालयों में 75 प्रतिशत शौचालय ऐसे हैं जहाँ दिन में कम-से-कम एक बार अनिवार्य सफाई के मानक का पालन नहीं किया जा रहा है। 

स्वच्छ विद्यालय अभियान के बारे में

  • स्वच्छ विद्यालय अभियान को सितंबर 2014 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) द्वारा लॉन्च किया गया था। 
  • इसका उद्देश्य शिक्षा के अधिकार (RTE) अधिनियम के जनादेश को पूरा करना है, जिसके अनुसार सभी विद्यालयों में लड़कों और लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय होने चाहिये। 
  • छात्रों के व्यवहार को बदलने के लिये स्वच्छ विद्यालय अभियान के तहत यह निर्धारित किया गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के केंद्रीय उद्यम (CPSE) स्वच्छ पानी और हाथ धोने की सुविधा के साथ सरकारी विद्यालयों में शौचालयों का निर्माण करेंगे और तकरीबन तीन से पाँच वर्ष तक उनका रख-रखाव करेंगे।

विद्यालयों में शौचालयों का महत्त्व

  • गौरतलब है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम में यह अनिवार्य किया गया है कि सभी बच्चों को प्रत्येक दिन कम-से-कम छह घंटे विद्यालय में बिताने होंगे। इतनी लंबी अवधि के लिये विद्यालय में रुकने के लिये शौचालय काफी महत्त्वपूर्ण हैं।
    • अधिनियम में यह निर्धारित किया गया है कि सभी विद्यालयों में लड़कों और लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय होने अनिवार्य हैं। 
  • विद्यालय में पानी, स्वच्छता और स्वच्छता सुविधाओं का प्रावधान एक स्वस्थ वातावरण के निर्माण में सहायता करता है और विद्यालय के बच्चों को बीमारी से बचाता है।
    • विदित हो कि स्कूल में मिड-डे मील खाने से पूर्व साबुन से हाथ धोने से काफी आसानी से बीमारियों के संचरण को रोका जा सकता है।
  • कई सामाजिक कार्यकर्त्ता मानते हैं कि लड़कियों के लिये अलग शौचालय का अभाव ही उनके विद्यालय छोड़ना का एक बड़ा कारण है। विद्यालय में लड़कियों के लिये एक अलग शौचालय होने से विद्यालय में नामांकन दर में काफी वृद्धि होती है।

आगे की राह

  • विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं के विकास से संबंधित इस तरह के कार्यक्रमों की सफलता के लिये नियमित निगरानी काफी महत्त्वपूर्ण है।
  • फंड, सफाई, स्वच्छता प्रशिक्षण और शौचालयों के रखरखाव आदि के अलावा जवाबदेही तय करने के मुद्दे पर ध्यान दिया जाना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम एवं नियंत्रण) प्राधिकरण

प्रिलिम्स के लिये

 सफर, राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम

मेन्स के लिये 

उत्तर भारत में फसल अवशेषों को जलाने के कारण बढ़ता प्रदूषण  

चर्चा में क्यों? 

उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) द्वारा नियुक्त ‘पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम एवं नियंत्रण) प्राधिकरण’ [Environment Pollution (Prevention and Control) Authority- EPCA] ने पंजाब एवं हरियाणा में फसल अवशेषों को जल्द जलाने को लेकर चिंता जताई।

प्रमुख बिंदु:

  • भारत सरकार के तहत ‘वायु गुणवत्ता और मौसम पूर्वानुमान तथा अनुसंधान प्रणाली’ (System of Air Quality and Weather Forecasting and Research- SAFAR) के अनुमान के अनुसार, पिछले कुछ ही दिनों में फसल अवशेष जलाने की संख्या शून्य से बढ़कर 42 हो गई है। 
    • सफर (SAFAR) ज़मीनी डेटा संगृहीत करने के लिये INSAT-3D एवं नासा (NASA) के उपग्रह का उपयोग करता है।
  • वर्ष 2019 में, पंजाब में 20 मिलियन टन के कुल अनुमानित फसल अवशेष का लगभग 9.8 मिलियन टन फसल अवशेष जला दिया गया था।
    • इसी तरह हरियाणा में कुल 7 मिलियन टन फसल अवशेष में से 1.24 मिलियन टन फसल अवशेष को जला दिया गया था।

फसल अवशेष जलाना (Stubble Burning):

  • पंजाब एवं हरियाणा में रबी फसल की बुवाई हेतु खेतों को तैयार करने के लिये फसल के अवशेष को साफ करना एक पारंपरिक प्रथा है।
  • फसल अवशेष जलाने की प्रक्रिया अक्तूबर महीने के आसपास शुरू होती है और दक्षिण-पश्चिम मानसून की वापसी के साथ नवंबर के महीने में चरम पर पहुँच जाती है।
  • परिणामतः दिल्ली में प्रदूषण के अन्य स्रोतों के साथ-साथ पंजाब एवं हरियाणा में धान की भूसी जलाने से होने वाले प्रदूषकों से दिल्ली एवं आसपास के क्षेत्रों की वायु की गुणवत्ता अत्यंत खराब हो जाती है।

कारण:

  • धान के रकबे में वृद्धि: चावल पर दी जाने वाली सब्सिडी एवं सुनिश्चित खरीद के कारण चावल की पैदावार में वृद्धि हुई है।   
  • पंजाब संरक्षण अधोभूमि अधिनियम, 2009 (Punjab Preservation of Subsoil Water Act, 2009) के कारण भूजल निष्कर्षण को हतोत्साहित करने के लिये जून के अंत तक धान की बुवाई में देरी होती है।
    • परिणामतः धान की कटाई में भी देरी होती है जो दक्षिण-पश्चिम मानसून की वापसी के साथ फसल अवशेष जलाने की प्रक्रिया से पूरी तरह से मेल खाता है।
  • तकनीक: कृषि क्षेत्र में तकनीकी विकास से बड़े रकबे वाले किसान धान कटाई के रूप में सिर्फ चावल के दाने वाले हिस्से को काटते हैं शेष डंठलों को खेत में ही छोड़ देते हैं। जिनको बाद में जला दिया जाता है।
    • इससे पहले इन फसल अवशेषों का उपयोग किसानों द्वारा खाना पकाने के लिये, पशुओं के स्थान को गर्म रखने आदि के रूप में किया जाता था।   
  • उच्च सिलिका सामग्री (High Silica Content): गैर-बासमती चावल के संदर्भ में धान की भूसी को चारे के रूप में इस्तेमाल करना खराब माना जाता है क्योंकि इसमें उच्च सिलिका सामग्री (High Silica Content) विद्यमान होती है।

प्रभाव:

  • फसल अवशेषों को जलाने से वायुमंडल में बड़ी मात्रा में ज़हरीले प्रदूषकों का उत्सर्जन होता है जिनमें मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, वाष्पशील कार्बनिक यौगिक और ‘कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन’ (Carcinogenic Polycyclic Aromatic Hydrocarbons) जैसी हानिकारक गैसें होती हैं। 
  • गेहूँ के भूसे को जलाने से पर्यावरण प्रदूषण होने के अलावा मिट्टी की उर्वरता में भी कमी आती है।
  • इसके अतिरिक्त फसल अवशेषों को जलाने से उत्पन्न गर्मी मृदा में प्रवेश करती है, जिससे मृदा की नमी में कमी एवं लाभकारी रोगाणुओं की मृत्यु हो जाती है।

आगे की राह:

  • अधिक मशीनीकरण, पशुधन में कमी, कंपोस्ट खाद बनाने हेतु दीर्घ-अवधि आवश्यकता तथा अवशेषों का कोई वैकल्पिक उपयोग नहीं होने के कारण खेतों में फसलों के अवशेष जलाए जा रहे हैं। यह न केवल ग्लोबल वार्मिंग के लिये बल्कि वायु की गुणवत्ता, मिट्टी की सेहत और मानव स्वास्थ्य के लिये भी बेहद दुष्प्रभावी है। 
  • फसल अवशेषों के इन-सीटू प्रबंधन के लिये कृषि में यंत्रीकरण को बढ़ावा देने के लिये केंद्रीय क्षेत्रक योजना’ के तहत किसानों को स्व-स्थाने (In-situ) फसल अवशेष प्रबंधन हेतु मशीनों को खरीदने के लिये 50% वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है और साथ ही स्व-स्थाने (In-situ) फसल अवशेष प्रबंधन हेतु मशीनरी के कस्टम हायरिंग केंद्रों (Custom Hiring Center) की स्थापना के लिये परियोजना लागत की 80% तक वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
  • हैप्पी सीडर’ (Turbo Happy Seeder-THS) के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।  हैप्पी सीडर (Turbo Happy Seeder-THS) ट्रैक्टर के साथ लगाई जाने वाली एक प्रकार की मशीन होती है जो फसल के अवशेषों को उनकी जड़ समेत उखाड़ फेंकती है।
  • फसल अवशेषों को न जलाने से ‘राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम’ (NCAP) को बढ़ावा मिलेगा, जिसका उद्देश्य वर्ष 2024 तक वार्षिक पीएम सांद्रता (PM Concentration) में 20-30% तक प्रदूषण को कम करना है।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन के लिये कितना तैयार है भारत

प्रिलिम्स के लिये

विश्व जोखिम सूचकांक, विश्व जोखिम रिपोर्ट

मेन्स के लिये

जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत की सुभेद्यता 

चर्चा में क्यों? 

विश्व जोखिम सूचकांक (World Risk Index-WRI)- 2020 के अनुसार, गंभीर प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक सुभेद्यता के कारण भारत 'जलवायु वास्तविकता' से निपटने के लिये 'खराब रूप से तैयार' (Poorly Prepared) था। 

सूचकांक के प्रमुख बिंदु

  • WRI-2020 में भारत 181 देशों में 89वें स्थान पर था। बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पश्चात् भारत जलवायु परिवर्तन के कारण दक्षिण एशिया में चौथा सबसे अधिक जोखिम वाला देश है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, श्रीलंका, भूटान और मालदीव ने गंभीर आपदाओं से निपटने के लिये भारत की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। भारत चरम घटनाओं से निपटने की तैयारियों के मामले में इन तीन पड़ोसी देशों से पीछे रह गया।
  • भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों ने एक वर्ष के दौरान विश्व जोखिम सूचकांक में अपनी रैंकिंग में मामूली सुधार किया है। भूटान ने अपनी रैंकिंग में सबसे अधिक सुधार किया। भूटान के पश्चात् पाकिस्तान का स्थान रहा है।
  • WRI-2019 की तुलना में सभी दक्षिण एशियाई देश जलवायु आपातकाल की वास्तविकता से निपटने के लिये रैंकिंग में अनुकूल क्षमता निर्माण के मामले में भी फिसल गए।

देश 

अनुकूलन क्षमता (WRI-2020) 

(100 में से)

अनुकूलन क्षमता (WRI-2019) 

(100 में से)

अफगानिस्तान 

92.09

59.75

बांग्लादेश 

85.81

54.44

भूटान 

72.82

46.65

भारत 

78.15

48.4

मालदीव 

76.51

36.29

नेपाल 

83.34

48.85

पाकिस्तान 

84.81

51.62

श्रीलंका 

77.3

39.94

  • भारत भी जलवायु परिवर्तन के अनुकूल क्षमताओं को मज़बूत करने में असफल रहा है। देश की पहली ‘व्यापक जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट’ में ‘जलवायु संकट’ के खतरों के बारे में चेतावनी दी गई है।
  • सूचकांक के अनुसार, 52.73 से ऊपर के स्कोर वाले देश गंभीर प्राकृतिक आपदाओं के अनुकूल अपनी क्षमताओं के निर्माण में 'बहुत खराब' (Very Poor) थे। 

देश 

विश्व जोखिम सूचकांक- 2020 में रैंक 

विश्व जोखिम सूचकांक- 2019 में रैंक 

अफगानिस्तान 

57

53

बांग्लादेश 

13

10

भूटान 

152

143

भारत 

89

85

मालदीव 

171

169

नेपाल 

121

116

छोटे द्वीपीय राष्ट्र 

  • सूचकांक के अनुसार, ओशिनिया सबसे अधिक जोखिम वाला महाद्वीप था, जिसके पश्चात् अफ्रीका और अमेरिका महाद्वीप थे। 
  • वानुअतु दुनिया भर में सबसे अधिक प्राकृतिक आपदा जोखिम वाला देश था। इसके पश्चात् टोंगा और डोमिनिका का स्थान था।
  • छोटे द्वीपीय राज्य, विशेष रूप से दक्षिण प्रशांत महासागरीय और कैरिबियन द्वीप, अत्यधिक प्राकृतिक घटनाओं के कारण उच्च जोखिम वाले देशों की श्रेणी में आते हैं। इनमें भूमंडलीय तापन के परिणामस्वरूप समुद्र जल स्तर में वृद्धि के कारण उत्पन्न जोखिम वाले देश भी शामिल थे।
  • जलवायु परिवर्तन में कम योगदान के बावजूद, छोटे द्वीपीय राष्ट्र सीमित वित्तीय संसाधनों के कारण जलवायु परिवर्तन के परिणामों से सबसे अधिक प्रभावित हुए थे।
  • इन छोटे देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल क्षमता निर्माण के लिये केवल वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराना ही पर्याप्त नहीं है। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण पहले से हो चुकी क्षति के लिये उन्हें मुआवजा दिया जाना चाहिये। 
  • सूचकांक के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण कतर सबसे कम जोखिम वाला देश (0.31) था।

अफ्रीका 

  • रिपोर्ट में अफ्रीका को सुभेद्यता के हॉटस्पॉट रूप में पहचाना गया है। दुनिया के सबसेे सुभेद्य देशों में से दो-तिहाई से अधिक देश अफ्रीका महाद्वीप में स्थित थे।
  • सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक सबसे सुभेद्य देश था। इसके पश्चात् चाड, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो, नाइजर और गिनी-बिसाऊ का स्थान था।

जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत की अधिक सुभेद्यता 

  • भारत की सूखा, बाढ़ और उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के प्रति अधिक प्रवणता के कारण इस सदी के अंत तक जलवायु परिवर्तन भारत के लिये एक बड़ा संकट खड़ा कर सकता है।
  • ‘पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय’ के तत्त्वाधान में ‘भारतीय क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का आकलन’ (Assessment Of Climate Change Over The Indian Region) शीर्षक वाली  जलवायु परिवर्तन पर भारत सरकार की अब तक की पहली रिपोर्ट के अनुसार, इस सदी के अंत तक भारत के औसत तापमान में 4.4 डिग्री की वृद्धि हो सकती है, जिसका सीधा प्रभाव लू, हीट वेव्स और चक्रवाती तूफानों की बारंबारता में वृद्धि के साथ समुद्री जल स्तर में वृद्धि के रूप में दिखाई देगा।
  • इस रिपोर्ट के अनुसार, यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिये बड़े कदम नहीं उठाए गए तो हीट वेव्स की बारंबारता में 3 से 4 गुना की वृद्धि और समुद्र जल के स्तर में 30 सेंटीमीटर तक की वृद्धि हो सकती है।
  • पिछले 30 वर्षों (वर्ष 1986-वर्ष 2015) में सबसे गर्म दिन और सबसे ठंडी रात के तापमान में क्रमश: 0.63 डिग्री और 0.4 डिग्री की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि गर्म दिनों और गर्म रातों की बारंबारता में 55-70 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। भारत के लिये यह अनुमान अच्छी खबर नहीं है क्योंकि वह उन देशों में है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हो सकते हैं।
  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1951-वर्ष 2015 के बीच मानसून से होने वाली वर्षा में 6 प्रतिशत की कमी हुई है, जिसका प्रभाव गंगा के मैदानी भागों और पश्चिमी घाट पर देखा जा सकता है। वर्ष 1951-वर्ष 1980 की तुलना में वर्ष 1981-वर्ष 2011 के बीच सूखे की घटनाओं में 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मध्य भारत में अतिवृष्टि की घटनाओं में वर्ष 1950 के पश्चात् से अब तक 75 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
  • इस सदी के प्रथम दो दशकों (वर्ष 2000-वर्ष 2018) में तटीय क्षेत्रों में आने वाले शक्तिशाली चक्रवाती तूफानों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। मौसमी कारकों की वजह से उत्तरी हिन्द महासागर में अब और अधिक शक्तिशाली उष्णकटिबंधीय चक्रवात उत्पन्न हो सकते हैं।

विश्व जोखिम सूचकांक (WRI)

  • WRI संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय के पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान (UNU-EHS) और  बुंडनीस एंट्विक्लंग हिलफ्ट (Bundnis Entwicklung Hilft) द्वारा जर्मनी के स्टुटगार्ट विश्वविद्यालय के सहयोग से 15 सितंबर को जारी विश्व जोखिम रिपोर्ट-2020 का हिस्सा है।
  • WRI की गणना प्रत्येक देश के आधार पर जोखिम और सुभेद्यता के गुणन के माध्यम से की जाती है। WRI को 2011 के पश्चात् से प्रतिवर्ष जारी किया जाता है।
  •  यह सूचकांक दर्शाता है कि कौन से देशों को चरम प्राकृतिक घटनाओं से निपटने और अनुकूलन के लिये क्षमता निर्माण की आवश्यकता है।

आगे की राह 

  • भारत की 50% से अधिक कृषि वर्षा पर निर्भर है। यहाँ हिमालयी क्षेत्र में हजारों छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं और पूरे देश में कई एग्रो-क्लाइमेटिक जोन हैं। विश्व बैंक के अनुसार, मौसम की अनिश्चितता और प्राकृतिक आपदाओं भारत को कई लाख करोड़ डॉलर की क्षति हो सकती है। 
  • इस खतरे से निपटने के लिये भूमंडलीय तापन में योगदान करने वाली मानवजनित गतिविधियों पर नियंत्रण और जलवायु के बेहतर पूर्वानुमान की आवश्यकता है। 

स्रोत: डाउन टू अर्थ


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