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जैव विविधता और पर्यावरण

पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिये जैव-अपघटक तकनीक

  • 25 Sep 2020
  • 8 min read

प्रिलिम्स के लिये 

‘Pusa अपघटक’ तकनीक 

मेन्स के लिये 

पराली जलाने की समस्या और समाधान

चर्चा में क्यों? 

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने फसल अपशिष्ट को खाद में परिवर्तित करने की जैव-अपघटन तकनीक का जायजा लेने के लिये ‘भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान’  (Indian Agriculture Research Institute-IARI) का दौरा किया। जैव-अपघटन तकनीक को फसल अपशिष्ट के जलने से होने वाले वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये एक लागत प्रभावी तरीका माना जाता है।

प्रमुख बिंदु

तकनीक के बारे में 

  • PUSA अपघटक (PUSA Decomposer) नामक तकनीक में ‘अपघटक कैप्सूल’ (Decomposer Capsule) और आसानी से उपलब्ध होने वाली आगतों (Inputs) का उपयोग करके तरल मिश्रण तैयार किया जाता है। फसल अपशिष्ट/पराली के 8 से 10 दिनों तक किण्वित होने के पश्चात् इसका जैव-अपघटन के उद्देश्य से खेतों में फसल अपशिष्टों/पराली पर छिड़काव किया जाता है। 
  • इस तकनीक से उर्वरकों के उपयोग में कमी आने के साथ-साथ खेतों में मृदा की उत्पादकता में भी वृद्धि होगी।
  • दिल्ली के मुख्यमंत्री इस संबंध में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से मिलकर पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिये इस सरल, उल्लेखनीय और व्यावहारिक तकनीक के कुशल और प्रभावी कार्यान्वयन पर चर्चा करेंगे।
  • इस कैप्सूल की लागत बहुत कम है। चार कैप्सूल का उपयोग कर गुड़ और चने के आटे से किसान लगभग 25 लीटर तरल मिश्रण तैयार कर सकते हैं, जो 1 हेक्टेयर भूमि पर छिड़काव के लिये पर्याप्त है।

कैसे काम करती है तकनीक?  

  • जब किसान फसल अपशिष्ट/पराली पर इस तरल मिश्रण का छिड़काव करता है, तो फसल अपशिष्ट/पराली नरम होकर 20 दिनों में पिघल जाती है। इसके परिणामस्वरूप बिना फसल अपशिष्ट/पराली को जलाए किसान फिर से बुवाई कर सकते हैं।  
  • इस तकनीक से मृदा की उर्वरता और उत्पादकता में सुधार होता है क्योंकि जैव-अपघटित होकर यही फसल अपशिष्ट/पराली फसलों के लिये खाद का काम करती है। इससे भविष्य में भी उर्वरकों की कम खपत की आवश्यकता होगी।

पराली जलाने की समस्या 

  • पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फसल अवशेषों/पराली को जलाने की समस्या देश के अन्य हिस्सों में भी विस्तृत हो रही है। प्रभावित क्षेत्रों में कई पर्यावरणीय और स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। 
  • फसल अवशेष जलाना भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code-IPC) की धारा-188 और वायु (प्रदूषण एवं नियंत्रण) अधिनियम-1981  के अंतर्गत एक अपराध है।
  • फसल अवशेषों को जलाने से लगभग 149.24 MT कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), 9 MT से अधिक कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), 0.25 MT सल्फर ऑक्साइड (SOX), 1.28 MT पार्टिकुलेट मैटर और 0.07 MT ब्लैक कार्बन आदि प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं। ये पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ दिल्ली में धुंध और हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने के लिये भी ज़िम्मेदार हैं।
  • धान की पराली को जलाने से उत्पन्न ऊष्मा के मृदा में 1 सेमी तक प्रवेश कर जाने से मृदा का तापमान 33.8 से 42.2 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है। इससे उपजाऊ मृदा में उपस्थित महत्त्वपूर्ण और उपयोगी बैक्टीरिया और कवक को बड़ी मात्रा में क्षति पहुँचती है।
  • ’अनुकूल’ कीटों को हानि पहुँचने और ‘शत्रु’ ’कीटों का प्रकोप बढ़ने के परिणामस्वरूप फसलों में बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। मृदा की ऊपरी परतों की घुलनशीलता क्षमता भी कम हो जाती है।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार, एक टन पराली जलाने से 5.5 किलोग्राम नाइट्रोजन, 2.3 किलोग्राम फॉस्फोरस, 25 किलोग्राम पोटेशियम और 1 किलोग्राम से अधिक सल्फर आदि पोषक तत्त्वों  की हानि होती है।
  • प्रभावित क्षेत्रों में लोगों में खाँसी और घबराहट जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ देखी गई हैं। ‘इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज, बेंगलुरु’ के अध्ययन में एक अनुमान के अनुसार,  फसल अपशिष्ट जलाने से होने वाली बीमारियों का इलाज कराने के लिये पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग प्रतिवर्ष 7.6 करोड़ रुपए खर्च करते हैं।

समाधान/आगे की राह

  • फसल अपशिष्ट/प्रबंधन के लिये जैव-अपघटक तकनीक एक बेहतर विकल्प है, जो पर्यावरणीय रूप से अनुकूल होने के साथ-साथ लागत प्रभावी भी है। इसके साथ-साथ अन्य विकल्पों को भी अपनाया जा सकता है।
  • फसल अपशिष्ट/पराली को जलाने बजाए इसका उपयोग पशु चारा, खाद , ग्रामीण क्षेत्रों में छत निर्माण, बायोमास ऊर्जा, मशरूम की खेती, पैकेजिंग सामग्री, ईंधन, कागज, जैव-इथेनॉल और औद्योगिक उत्पादन आदि विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है।
  • वर्ष 2014 में केंद्र सरकार द्वारा फसल अवशेषों के प्रबंधन के लिये राष्ट्रीय नीति जारी की गई जिसके पश्चात् फसल अवशेष प्रबंधन से मृदा को अधिक उपजाऊ बनाने में मदद मिली है तथा खाद लागत में 2,000 रूपए/हेक्टेयर तक की बचत हुई है।
  • हैप्पी सीडर (Happy Seeder), रोटावेटर (Rotavator), ज़ीरो टिल सीड ड्रिल (Zero till seed drill), धान स्ट्रा चॉपर (Paddy Straw Chopper), रीपर बाइंडर (Reaper Binder) आदि मशीनों  का उपयोग करके भी किसान फसल अवशेषों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित कर सकते हैं।
  • ये मशीनें बहुत महँगी हैं, अतः राज्य सरकारों को आगे आकर बेहतर सब्सिडी प्रदान करनी चाहिये। 

स्रोत: द हिंदू

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