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डेली न्यूज़

आपदा प्रबंधन

हिमालय में प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों की आवश्यकता

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति ने ऐसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने और उन्हें कम करने के लिये मज़बूत पूर्व चेतावनी प्रणालियों (EWS) की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया है।

पूर्व चेतावनी प्रणाली (EWS) क्या है?

  • परिचय: प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (EWS) एक ढाँचा है जिसे खतरों का पूर्वानुमान लगाने और संप्रेषित करने के लिये डिज़ाइन किया गया है, जिससे जीवन और संपत्ति के नुकसान को कम करने हेतु समय पर कार्रवाई की जा सके।
  • बहु-खतरा पूर्व चेतावनी प्रणाली: बहु-खतरा पूर्व चेतावनी प्रणाली कई खतरों को संबोधित करती है, जो अकेले या एक साथ हो सकते हैं।
    • बहु-खतरे वाली पूर्व चेतावनी प्रणालियों और आपदा जोखिम जानकारी की उपलब्धता बढ़ाना आपदा जोखिम न्यूनीकरण 2015-30 के लिये सेंदाई फ्रेमवर्क द्वारा निर्धारित सात वैश्विक लक्ष्यों में से एक है।
  • मुख्य घटक:
    • जोखिम ज्ञान: खतरा-प्रवण क्षेत्रों को समझना।
    • निगरानी एवं पूर्वानुमान: वास्तविक समय डेटा के लिये सेंसर, उपग्रह और एआई का उपयोग करना।
    • प्रसार: प्राधिकारियों और समुदायों तक चेतावनियों का त्वरित संचार।
    • प्रतिक्रिया क्षमता: स्थानीय तैयारी और निकासी उपाय।

हिमालय में EWS की क्या आवश्यकता है?

  • बढ़ती आपदा संवेदनशीलता: डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में (1900-2022) दर्ज की गई 687 आपदाओं में से लगभग 240 हिमालय में घटित हुईं, जबकि 1902 और 1962 के बीच केवल पाँच आपदाएँ घटित हुई थीं।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: हिमनदों के तेज़ी से पिघलने और पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से बाढ़ और ढलान की अस्थिरता जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं।
    • वर्ष 2024 के जलवायु परिवर्तन जर्नल के अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच गई तो हिमालय का 90% हिस्सा वर्ष भर सूखे का सामना कर सकता है।
  • टेक्टोनिक और भूवैज्ञानिक अस्थिरता: भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के बीच टकराव जारी रहने के कारण हिमालय विवर्तनिक रूप से सक्रिय बना हुआ है।
    • भूकंपीय क्षेत्र IV और V में प्रमुख भ्रंश रेखाएँ (धौलागिरि, सिंधु-गंगा) 2005 के कश्मीर भूकंप की तरह लगातार भूकंप, भूस्खलन तथा हिमस्खलन जैसी आपदाओं को उत्पन्न करती हैं। 
  • हिमनद, जलविज्ञान और वर्षा संबंधी खतरे: हज़ारों हिमनद और हिमनद झीलें GLOFs का खतरा पैदा करती हैं, जैसा कि सिक्किम में वर्ष 2023 में दक्षिण ल्होनक झील आपदा में देखा गया था।
    • बादल फटने और अत्यधिक वर्षा की घटनाएँ अचानक बाढ़ का कारण बनती हैं, जैसे कि चमोली और उत्तरकाशी ज़िले (2021) में हुआ था।
    • वनों की कटाई, जलविद्युत परियोजनाएँ और अनियमित निर्माण (जैसे–जोशीमठ अवतलन, चार धाम परियोजना) ढलान स्थिरता को और कमज़ोर करते हैं।

पूर्व चेतावनी प्रणालियों (EWS) को मज़बूत करने के लिये पहल

  • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) पायलट परियोजना: उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) आधारित ओलावृष्टि चेतावनी प्रणाली स्थापित की जा रही है, जो किसानों के लिये एक किलोमीटर से कम क्षेत्रीय स्तर पर सटीक पूर्वानुमान उपलब्ध कराएगी।
  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) और राष्ट्रीय मध्यम अवधि मौसम पूर्वानुमान केंद्र (NCMRWF): वर्षा तथा बादल फटने के पूर्वानुमान के लिये मॉडलों का एकीकरण।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA): हिमालयी आपदा सहनशीलता के लिये क्षेत्रीय ढाँचे का विकास।
  • प्रौद्योगिकी-संचालित निगरानी प्रणाली: ISRO और राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (NRSC) ग्लेशियरों, अस्थिर ढलानों और नदी बेसिनों की वास्तविक समय में निगरानी करते हैं।
  • समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन: आपदा प्रबंधन प्रणाली-हिमालय (DMS-Himalaya) स्थानीय समुदायों को आपदा पूर्व तैयारी, खतरे का मानचित्रण और आपदा के बाद प्रतिक्रिया में प्रशिक्षण के माध्यम से सशक्त बनाता है, जिसमें स्कूल, पंचायतें तथा स्थानीय शासन शामिल हैं।
  • गूगल का एंड्रॉइड भूकंप पूर्व चेतावनी प्रणाली: NDMA और राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (NCS) के साथ मिलकर वर्ष 2023 में लॉन्च किया गया, जो भूकंपीय गतिविधि का पता लगाने के लिये स्मार्टफोन सेंसर का उपयोग करेगा। अलर्ट मॉडिफाइड मर्काली इंटेंसिटी (MMI) स्केल पर आधारित होते हैं, जो भूकंप के संभावित प्रभावों को मापता है।
  • सभी के लिये प्रारंभिक चेतावनी पहल: विश्व मौसम संगठन (WMO) और संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय (UNDRR) के सह-नेतृत्व वाली यह वैश्विक पहल भारत में यह सुनिश्चित करने में सहायता करती है कि हर हिमालयी समुदाय को समय पर और विश्वसनीय चेतावनियाँ प्राप्त हों।

हिमालय में EWS लागू करने में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • जटिल भौगोलिक संरचना: हिमालय की खुरदरी एवं ग्लेशियरयुक्त भूपृष्ठ तकनीकों जैसे ड्रोन, रडार तथा सेंसर को तैनात और बनाए रखना अत्यंत चुनौतीपूर्ण बनाती है, जिससे प्रभावी प्रारंभिक चेतावनी कवरेज कठिन हो जाता है।
  • सीमित डेटा अवसंरचना: भूमि आधारित अवलोकन स्टेशनों की कमी है और कई मौजूदा निगरानी प्रणालियाँ पुरानी हो गई हैं, जिसके परिणामस्वरूप डेटा में अंतराल उत्पन्न हो रहे हैं।
  • उच्च लागत: उपग्रह आधारित संचार प्रणाली एवं कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI)-संचालित पूर्वानुमान उपकरण स्थापित और संचालित करने में बड़ी वित्तीय निवेश की आवश्यकता होती है, जो प्राय: बड़े पैमाने पर लागू करने में बाधक होती है।
  • सांस्थानिक अलगाव: NDMA, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) और संबंधित राज्य सरकार जैसी प्रमुख एजेंसियों के बीच खराब समन्वय एकीकृत आपदा प्रबंधन प्रयासों को बाधित करता है।
  • सामुदायिक जागरूकता में अंतर: स्थानीय समुदाय प्राय: प्रारंभिक चेतावनी अलर्ट और प्रतिक्रिया प्रोटोकॉल की पर्याप्त समझ नहीं रखते, जिससे प्रणालियों की प्रभावशीलता कम हो जाती है।
  • वित्तीय प्रतिबंध: EWS जैसी निवारक और तैयारी संबंधी उपायों को अक्सर आपदा के बाद राहत तथा पुनर्वास प्रयासों की तुलना में कम वित्तीय प्राथमिकता मिलती है।
  • सीमा-पार डेटा साझा करने में समस्याएँ: पड़ोसी देशों, जैसे– नेपाल, भूटान और चीन के साथ सीमित सहयोग सीमा-पार खतरों के डेटा के वास्तविक समय में साझा करने में बाधा डालता है, जिससे क्षेत्रीय चेतावनियाँ समय पर जारी नहीं हो पातीं।

आगे की राह

  • एकीकृत राष्ट्रीय मिशन और अनुसंधान समर्थन: NDMA के अंतर्गत हिमालयी प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली के लिये एक राष्ट्रीय मिशन स्थापित करें, जिसमें समर्पित फंडिंग और एक अनुसंधान संस्थान शामिल हो।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग: वास्तविक समय उपग्रह डेटा का विश्लेषण करने के लिये AI और मशीन लर्निंग का उपयोग करना तथा घाटियों एवं ग्लेशियर बेसिनों में स्वचालित मौसम स्टेशन स्थापित करना।
  • समुदाय आधारित EWS: अलर्ट के त्वरित प्रसार और समझ सुनिश्चित करने के लिये  स्थानीय स्वयंसेवकों तथा पंचायतों को शामिल करना।
  • सीमा-पार सहयोग: नेपाल, भूटान और चीन के साथ क्षेत्रीय डेटा-साझाकरण तंत्र बनाना  ताकि सीमा-पार खतरों की निगरानी की जा सके, जैसे–सुनामी के लिये स्थापित भारतीय सुनामी प्रारंभिक चेतावनी केंद्र (ITEWC)
  • खतरा मानचित्रण: ज़िला-स्तरीय खतरे के क्षेत्र के मानचित्रों का विकास करना ताकि वैज्ञानिक भूमि उपयोग योजना बनाई जा सके।
  • सिफारिशें: सरकार भूवैज्ञानिक रूप से अस्थिर क्षेत्रों में निर्माण कार्यों को प्रतिबंधित कर सकती है और भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में वनस्पति संरक्षण को प्राथमिकता दे सकती है, जैसा कि वर्ष 1976 में मिश्रा समिति द्वारा अनुशंसित किया गया था।
    • आपदा प्रबंधन को संविधान की सातवीं अनुसूची में एकीकृत किया जा सकता है, जैसा कि जे.सी. पंत समिति द्वारा अनुशंसित किया गया है।
  • ग्लोबल केस स्टडी: सफल पर्वतीय EWS पहलों, जैसे कि सेंट्रल हिमालय (चीन) में सिरेनमाको झील, जहाँ मानवरहित नौकाएँ उपग्रह डेटा के माध्यम से झील के स्तर और बर्फ के गिरने की निगरानी करती हैं तथा स्विस आल्प्स में ब्लैटन गाँव, जहाँ प्रारंभिक चेतावनियों ने ग्लेशियर के धँसने से होने वाली मृत्यु को रोका, महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं।
    • इसी प्रकार, जापान की भूकंप प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, इंडोनेशिया की सुनामी प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और स्विट्ज़रलैंड का अल्पाइन रडार नेटवर्क जैसे वैश्विक उदाहरण यह दर्शाते हैं कि मज़बूत अवसंरचना को सामुदायिक सहभागिता के साथ जोड़कर हिमालय को अधिक सुरक्षित तथा आपदा-सहनशील बनाया जा सकता है।

निष्कर्ष:

एक प्रभावी पूर्व चेतावनी प्रणाली (ईडब्ल्यूएस) जीवन बचा सकती है, आजीविका की रक्षा कर सकती है और आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु सेंडाई फ्रेमवर्क और सतत् विकास लक्ष्य 13 (जलवायु कार्रवाई) के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को बल प्रदान कर सकती है। हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र, जिसे अक्सर "तीसरा ध्रुव" कहा जाता है, का भविष्य सक्रिय, विज्ञान-संचालित और सहयोगात्मक आपदा प्रबंधन प्रयासों पर निर्भर करता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न

प्रश्न: जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न आपदाओं के प्रति हिमालयी क्षेत्र की बढ़ती संवेदनशीलता पर चर्चा कीजिये। पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ (ईडब्ल्यूएस) भारत की आपदा तैयारी को किस प्रकार मज़बूत कर सकती हैं?

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

प्रश्न: प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (EWS) क्या है?
EWS एक ऐसा ढाँचा है जो सेंसर, उपग्रहों और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग करके संभावित खतरों का शीघ्र पता लगाता है और उनकी सूचना देता है, जिससे आपदा से होने वाले नुकसान को कम करने के लिये समय पर कार्रवाई संभव हो पाती है।

प्रश्न: हिमालय में प्राकृतिक आपदाएँ बार-बार क्यों आती हैं?
ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने, जंगलों की कटाई, अनियोजित निर्माण गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों के चलते हिमालयी क्षेत्र में भूस्खलन, बाढ़ और हिमनद झीलों के फटने (GLOF) जैसी घटनाएँ बार-बार घटित होती रहती हैं।

प्रश्न: आपदा चेतावनी प्रणालियों के लिये कौन-सी भारतीय एजेंसियाँ ज़िम्मेदार हैं?
NDMA, IMD, ISRO और MoEFCC क्षेत्रीय और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन नेटवर्क के माध्यम से अलर्ट प्रदान करते हुए, मौसम, भूकंप, बाढ़ और हिमनद परिवर्तनों की संयुक्त निगरानी करते हैं।

प्रश्न: पहाड़ों में प्रभावी EWS के वैश्विक उदाहरण क्या हैं?
जापान की भूकंप चेतावनियाँ, स्विट्ज़रलैंड का अल्पाइन रडार नेटवर्क और चीन की हिमनद बाढ़ निगरानी दर्शाती हैं कि कैसे उन्नत तकनीक और समन्वय पर्वतीय आपदा जोखिमों को कम करते हैं।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2020)

      शिखर                        पर्वत

  1. नामचा बरवा   -     गढ़वाल हिमालय  
  2. नंदा देवी      -       कुमाऊँ हिमालय  
  3. नोकरेक       -       सिक्किम हिमालय

उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं?

(a) केवल 1 और 2

(b) केवल 2

(c) केवल 1 और 3

(d) केवल 3

उत्तर: (B)


प्रश्न. यदि आप हिमालय से होकर यात्रा करेंगे तो आपको निम्नलिखित में से कौन-सा पौधा वहाँँ प्राकृतिक रूप से उगता हुआ देखने को मिलेगा? (2014)

  1. ओक   
  2. रोडोडेंड्रोन   
  3. चंदन

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2

(b) केवल 3

(c) केवल 1 और 3

(d) 1, 2 और 3

उत्तर: A


प्रश्न. जब आप हिमालय में यात्रा करेंगे तो आपको निम्नलिखित दिखाई देगा: (2012)

  1. गहरी घाटियाँ   
  2. यू-टर्न नदी मार्ग   
  3. समानांतर पर्वत शृंखलाएँ   
  4. तीव्र ढाल, जो भूस्खलन का कारण बन रही हैं

उपर्युक्त में से किसे हिमालय के युवा वलित पर्वत होने का प्रमाण कहा जा सकता है?

(a) केवल 1 और 2

(b) केवल 1, 2 और 4

(c) केवल 3 और 4

(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: D


मेन्स:

प्रश्न. हिमालय क्षेत्र और पश्चिमी घाट में भूस्खलन के कारणों के बीच अंतर बताइये। (2021)

प्रश्न. हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से भारत के जल संसाधनों पर कौन-से दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे? (2020)

प्रश्न . "हिमालय में भूस्खलन की अत्यधिक संभावना है।" इसके कारणों पर चर्चा करते हुए इसके शमन हेतु उपयुक्त उपाय बताइये। (2016)


मुख्य परीक्षा

भारत में न्यायालय की अवमानना

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियों को लेकर हाल ही में उठे विवाद ने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्याय प्रशासन की सीमाओं के बारे में विचार-विमर्श को जन्म दिया है।

  • ज़िम्मेदार व्यक्तियों के विरुद्ध अवमान की कार्यवाही शुरू करने की मांग ने अवमान की अवधारणा को सार्वजनिक चर्चा के केंद्र में ला दिया है।

भारत में न्यायालय का अवमान ​​क्या है और इससे संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • न्यायालय अवमान ​​अधिनियम, 1971: भारत में न्यायालय के अवमान ​​को न्यायालय अवमान ​​अधिनियम, 1971 (एच.एन. सान्याल समिति 1963 की अनुशंसाओं के आधार पर अधिनियमित) में परिभाषित किया गया है, जो अवमान ​​को दो श्रेणियों में विभाजित करता है:
    • सिविल अवमान: इसे किसी न्यायालय के आदेश, डिक्री या निर्णय की जानबूझकर अवहेलना या न्यायालय को दिये गए प्रतिबद्धता (अंडरटेकिंग) के उल्लंघन के रूप में परिभाषित किया जाता है।
    • आपराधिक अवमानना: इसे ऐसे कार्यों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो किसी न्यायालय की गरिमा को कलंकित करते हैं या उसकी प्राधिकारिता को कम करते हैं या न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करते हैं।
      • इसमें ऐसे किसी भी रूप में (लिखित, मौखिक या दृश्य) सामग्री का प्रकाशन शामिल है जो न्यायालय की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाए या न्याय प्रशासन में बाधा उत्पन्न करे।
  • संवैधानिक आधार: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को क्रमशः अनुच्छेद 129 तथा अनुच्छेद 215 के तहत अभिलेख न्यायालय के रूप में नामित किया गया है।
    • अभिलेख न्यायालय अपने निर्णयों को भविष्य के संदर्भ हेतु सुरक्षित रखता है और उसमें न्यायालय की अवमानना के लिये दंड देने की अंतर्निहित शक्ति होती है, जैसा कि न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में वर्णित है।
  • उद्देश्य (Objective): न्यायपालिका की प्राधिकृति, गरिमा और प्रभावी कार्यप्रणाली को बनाए रखना, ताकि ऐसे कार्यों को रोका जा सके जो न्यायालयों का अनादर करते हैं, उनके कार्य में बाधा डालते हैं या उनकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाते हैं, इस प्रकार न्यायपालिका के स्वतंत्र और निष्पक्ष संचालन को सुनिश्चित किया जा सके।
  • अवमानना कार्यवाही की पहल (Initiation of Contempt Proceedings): अवमानना की कार्यवाही प्रारंभ करने की प्रक्रिया न्यायालय अवमान अधिनियम (Contempt of Court Act,) 1971 में स्पष्ट रूप से परिभाषित की गई है।
    • स्वप्रेरित शक्ति (Suo Motu Power): उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय अपने स्तर पर, अर्थात् स्वप्रेरणा से (suo motu), कार्यवाही प्रारंभ कर सकते हैं यदि उन्हें यह विश्वास हो कि अवमानना का अपराध हुआ है।
    • तृतीय पक्ष याचिका (Third-Party Petition): कोई तीसरा पक्ष भी अवमानना के लिये याचिका दायर कर सकता है, लेकिन इसके लिये पूर्व अनुमति (सर्वोच्च न्यायालय के मामले में महान्यायवादी  की और उच्च न्यायालय के मामले में महाधिवक्ता की) आवश्यक है।
  • दंड: अधिनियम के अनुसार, जो व्यक्ति न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, उसे अधिकतम छह महीने का सरल कारावास या अधिकतम ₹2,000 का जुर्माना या दोनों दिये जा सकते हैं।
    • हालाँकि, यदि आरोपी द्वारा दिया गया क्षमायाचना (apology) न्यायालय को संतोषजनक प्रतीत होता है तो उसे दंड से मुक्त किया जा सकता है।
  • न्यायोचित आलोचना बनाम अवमाननापूर्ण आलोचना से संबंधित प्रमुख निर्णय: सामान्यतः यह स्वीकार किया गया है कि न्यायालय के निर्णय की न्यायोचित आलोचना (fair criticism) अवमानना नहीं मानी जाती। लेकिन जब ऐसी आलोचना न्यायोचित सीमा से आगे बढ़कर न्यायपालिका की गरिमा या अधिकार को कमज़ोर करती है तो इसे अवमाननापूर्ण माना जा सकता है।
    • अश्विनी कुमार घोष बनाम अरबिंद बोस (1952) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि निष्पक्ष आलोचना की अनुमति है, लेकिन न्यायालय के अधिकार को कमज़ोर करने का कोई भी प्रयास दंडनीय है।
    • अनिल रतन सरकार बनाम हीरक घोष (2002) मामले में इस दृष्टिकोण की पुनः पुष्टि की गई, जहाँ न्यायालय ने इस तर्क पर ज़ोर दिया कि अवमानना ​​के लिये दंड देने की शक्ति का प्रयोग संयम के साथ और केवल स्पष्ट एवं गंभीर उल्लंघनों के मामलों में ही किया जाना चाहिये।
    • एम.वी. जयराजन बनाम केरल उच्च न्यायालय (2015) में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी न्यायालय की आलोचना करते समय सार्वजनिक भाषणों में अपमानजनक भाषा का प्रयोग आपराधिक अवमानना के अंतर्गत आता है।
    • इसी प्रकार षणमुगम @ लक्ष्मीनारायणन बनाम मद्रास उच्च न्यायालय (2025) मामले में, न्यायालय ने इस तर्क पर ज़ोर दिया कि अवमानना ​​दंड का उद्देश्य न्याय प्रशासन को बनाए रखना है।
  • लोकतंत्र के संदर्भ में प्रासंगिकता: न्यायपालिका राज्य की प्राथमिकताओं और न्याय की पवित्रता को बनाए रखती है। नागरिकों और मीडिया को न्यायालयों की आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन ऐसी भ्रामक या अपमानजनक आलोचना जो न्यायपालिका की प्राधिकारिता को कमज़ोर करे, न्याय प्रक्रिया में हस्तक्षेप करे या लोकतंत्र को क्षति पहुँचाए, वह प्रतिबंधित है।

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायालय की अवमानना के बीच संतुलन कैसे बनाया जा सकता है?

  • सशक्त आलोचना की रक्षा: संतुलन बनाए रखने के लिये न्यायपालिका के कार्यप्रणाली की सशक्त और रचनात्मक आलोचना की अनुमति दी जा सकती है ताकि जवाबदेही बनी रहे, लेकिन भ्रामक, दुर्भावनापूर्ण या निराधार आरोप (जैसे भ्रष्टाचार या पक्षपात के) जो जनता के विश्वास को कमज़ोर करते हैं, उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिये।
  • न्यायिक प्राधिकारिता का संरक्षण: किसी निर्णय के तर्क या परिणाम की निष्पक्ष आलोचना स्वीकार्य है, लेकिन किसी न्यायाधीश के चरित्र या ईमानदारी पर व्यक्तिगत हमले अस्वीकार्य हैं, क्योंकि न्यायाधीशों को निष्पक्ष रूप से कार्य करने हेतु अपमान और बदनामी से संरक्षण मिलना आवश्यक है।
  • जनहित की रक्षा के लिये ‘सत्य’ का बचाव: न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम की धारा 13 सत्यनिष्ठ, जनहितकारी आलोचना की रक्षा करती है और न्यायपालिका की साक्ष्य-आधारित जाँच की अनुमति देती है। हालाँकि, सबूत पेश करने का भार अभियोक्ता पर होता है, जिससे यह एक मज़बूत लेकिन सीमित बचाव बन जाता है।
  • अवमानना ​​शक्ति का प्रयोग अंतिम उपाय के रूप में करना: न्यायालयों को अवमानना ​​शक्ति का प्रयोग अंतिम उपाय के रूप में करना चाहिये तथा सावधानी एवं संयम के साथ इसका प्रयोग करना चाहिये, साथ ही आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिये और न्याय में बाधा उत्पन्न होने से रोकना चाहिये।

निष्कर्ष

न्यायालय की अवमानना न्यायपालिका के अधिकार, गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा करती है। यद्यपि निष्पक्ष आलोचना की अनुमति है, लेकिन न्याय को कमज़ोर करने या उसमें बाधा डालने वाले कार्यों को दंडनीय माना जाता है, जिससे अभिव्यक्ति और न्यायिक निष्ठा में संतुलन बना रहता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न. भारत में न्यायालय की अवमानना को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक और वैधानिक प्रावधानों का परीक्ष्ण कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. न्यायालय की अवमानना क्या है?
न्यायालय की अवमानना वह कृत्य है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने वाले न्यायालय के अधिकार, गरिमा या कार्यप्रणाली का अनादर करता है, बाधा डालता है या उसे कमज़ोर करता है।

2. न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 के अंतर्गत अवमानना के प्रकार क्या हैं?
सिविल अवमानना: न्यायालय के आदेशों की जानबूझकर अवज्ञा या वचनबद्धता का उल्लंघन। आपराधिक अवमानना: ऐसे कार्य या प्रकाशन जो न्याय को बदनाम करते हैं, बाधित करते हैं या उसमें हस्तक्षेप करते हैं।

3. न्यायालय की अवमानना के लिये क्या दंड दिया जा सकता है?
दोषी व्यक्ति को छह महीने तक का साधारण कारावास, 2,000 रुपये का जुर्माना या दोनों सज़ा हो सकती हैं, लेकिन यदि आरोपी संतोषजनक माफी मांग लेता है तो अदालत उसे सज़ा से छूट दे सकती है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2022)

  1. एच.एन. सान्याल समिति की रिपोर्ट के अनुसरण में न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 पारित किया गया था। 
  2.  भारत का संविधान उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को अपनी अवमानना के लिये दंड देने हेतु शक्ति प्रदान करता है। 
  3.  भारत का संविधान सिविल अवमानना और आपराधिक अवमानना को परिभाषित करता है। 
  4.  भारत में न्यायालय की अवमानना के विषय में कानून बनाने के लिये संसद में शक्ति निहित है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) 1, 2 और 4
(c) केवल 3 और 4
(d) केवल 3

उत्तर: (b)


मेन्स

प्रश्न. क्या आपके विचार में भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता है बल्कि यह “नियंत्रण और संतुलन” के सिद्धांत पर आधारित है? व्याख्या कीजिये। (2019)


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