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एक देश, एक चुनाव की प्रासंगिकता

भारत चुनावों का देश है। भौगोलिक विस्तार और बहुदलीय संसदीय प्रणाली के दृष्टिकोण से हम इतने विशाल हैं कि यहाँ चुनावों का मौसम हावी रहता है। चुनाव से लोकतंत्र मजबूत होता है। लोकसभा, तमाम राज्यों की विधानसभाओं एवं स्थानीय स्तर पर ग्राम पंचायत और नगर निकायों पर ध्यान दें तो भारत का कोई-न-कोई हिस्सा चुनावी मैदान बना होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत उत्तरोत्तर सुशासन की तरफ बढ़ा है किंतु इन्हें और भी तेज किये जाने की आवश्यकता है। अलग-अलग राज्यों में होने वाले चुनाव यदि लोकसभा चुनाव के साथ ही आयोजित हो तो कई लाभ भारत को एकमुश्त मिल सकते हैं। इसी परिकल्पना को ‘एक देश, एक चुनाव’ की संज्ञा दी गई है। दरअसल बदलाव संसार का नियम है। बदलाव को छोड़कर स्थिर कुछ भी नहीं है। व्यक्ति हो, तंत्र हो, समाज या फिर देश; सभी को उम्मीद के अनुकूल लक्ष्य पाने के लियेबदलाव से गुज़रना होता है। एक देश, एक चुनाव समय की मांग बन गई है।

गौरतलब है कि दो लोकसभा चुनावों के बीच कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होते हैं। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में करीब एक लाख करोड़ रुपए खर्च होंगे। इसमें 25 लाख कर्मचारी-अधिकारी और लाखों पुलिस एवं पैरामिलिट्री के जवान महीनों तक व्यस्त रहेंगे। परिणामस्वरूप प्रशासनिक तारतम्यता टूटेगी। केंद्र-राज्य के उचित समन्वय में भी कमी आएगी। यदि केंद्र के लोकसभा चुनाव और तमाम राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो भारत को कई प्रकार के अपव्यय से बचाया जा सकेगा। “लगातार चुनावों के कारण सरकारी खज़ाने पर पड़ रहे अतिरिक्त बोझ को यदि कम करके विकास के कार्यों को बढ़ावा मिले तो इसमें गलत क्या है!” भारत को यदि विकासशील से विकसित देश की राह पर रफ्तार के साथ बढ़ना है तो कई रिफॉर्म्स लाने पड़ेंगे। उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण, औद्योगिक नीति, शिक्षा नीति, स्वास्थ्य नीति, अर्थव्यवस्था का डिजिटलीकरण, जीएसटी और इन्हीं जैसे अनेकों बेहतरीन रिफॉर्म्स का भारत साक्षी रहा है। यदि एक देश, एक चुनाव को अमलीजामा पहनाया जाता है तो भारत के विकास की गति और तेज़ होगी।

ऐसा नहीं है कि एक देश एक चुनाव की अवधारणा भारत में नई है, दरअसल वर्ष 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ संपन्न हुए थे। वर्ष 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएँ समय से पहले भंग हो गईं। जिससे एक देश एक चुनाव का सिलसिला बाधित हुआ। तब से लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग आयोजित होने लगे। यानी भारत के पास एक देश एक चुनाव का अच्छा अनुभव है। अपने पूर्व के अनुभवों से सीखते हुए एक देश एक चुनाव के सिद्धांत को मज़बूती के साथ मूर्तरूप में बदला जा सकता है। इस क्रांतिकारी कदम में चुनौतियाँ कम नहीं हैं। सबसे पहले “ध्यान रखना होगा कि संघवाद की अवधारणा कमज़ोर न हो, बहुदलीय लोकतंत्र पर प्रहार न हो, राज्यों के हितों को दरकिनार न किया जाए।” क्योंकि राष्ट्र स्तर पर कोई भी बदलाव संविधान की परिधि में रहकर हो तो परिणाम श्रेयस्कर होता है।

दरअसल लगातार चुनाव के कारण ‘चुनाव आचार संहिता’ लागू होती रहती है, जिससे विकास के अनेक कार्य बाधित होते हैं। चुनाव होते रहने के चलते राजनीतिक दल हमेशा चुनावी मुद्रा में बने रहते हैं और राष्ट्र हित के विषयों पर कम ध्यान देते हैं। हर साल चार से पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों की नौबत आती है। यही कारण है कि भारत में पुनः एक देश एक चुनाव को अपनाने के लियेकोशिश तेज़ हो गई है। कई विकसित देशों ने चुनावों के अतिरिक्त बोझ से स्वयं को स्वतंत्र किया है, ऐसा उन्होंने संवैधानिक नियमों के तहत किया है। अमेरिका में चुनाव का दिन तय है। दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव पाँच साल के लियेएक साथ होते हैं और नगरपालिका चुनाव दो साल बाद होते हैं। ब्रिटेन में ब्रिटिश संसद और उसके कार्यकाल को स्थिरता प्रदान करने के लियेनिश्चित अवधि संसद अधिनियम-2011 पारित किया गया। स्वीडन में राष्ट्रीय विधायिका, प्रांतीय विधायिका तथा स्थानीय निकायों के चुनाव चार साल के लियेएक निश्चित तिथि यानी सितंबर के दूसरे रविवार को होते हैं। जर्मनी के संघीय गणराज्य के लियेबुनियादी कानून का अनुच्छेद-67 अविश्वास के रचनात्मक वोट का प्रस्ताव प्रस्तुत करता है। ये सब कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो इन देशों को अतिरिक्त चुनाव से बचाते हैं। यानी एक देश एक चुनाव का मॉडल व्यावहारिक और प्रासंगिक दोनों हैं।

भारत में एक देश एक चुनाव का रास्ता संविधान के अनुच्छेद-83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन से गुज़रेगा। इसके अलावा अनुच्छेद-368 के तहत आधे से ज़्यादा राज्यों की सहमति भी चाहिये। इस प्रकार यह कार्य आसान नहीं है। देश हित वाले कार्यों पर राजनीतिक आमसहमति सामान्य बात है। केंद्र सरकार और विभिन्न राज्यों के सत्तारूढ़ दलों को इस बात पर सहमत होना चाहिये कि लगातार चुनावों से देश और राज्यों के ऊपर अतिरिक्त बोझ बढ़ता है। पाँच साल में एक बार होने वाले चुनाव राष्ट्र हित में हैं। विधि आयोग का मानना है कि एक साथ चुनाव होने से मतदान का प्रतिशत बढ़ जाता है। “एक देश एक चुनाव भारत को कई मायने में सशक्त करता दिखेगा। निर्वाचन आयोग भी यह कह चुका है कि वह लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने में सक्षम है।” इससे समय और संसाधनों की अच्छी-खासी बचत होगी।

एक देश एक चुनाव की चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। एक देश-एक चुनाव में यह विषय भी गंभीर है कि एक साथ सारे चुनावों के चलते अथवा राष्ट्रीय स्तर के किसी करिश्माई व्यक्तित्व के प्रभाव में अथवा राष्ट्रीय मुद्दों की लहर में राज्यों की जनता अपने स्थानीय मुद्दों और उनके लियेसंघर्षरत दलों के साथ न्याय करने से वंचित तो नहीं रह जाएगी? क्या देश की जनता, खासतौर से दलित, अल्पसंख्यक, महिलाएँ इत्यादि राजनीतिक रूप से इतने सजग हैं कि एक साथ लोकसभा व विधानसभा के लियेमतदान करते समय मुद्दों की इतनी स्पष्ट समझ रखते हैं कि वह अलग-अलग दलों के प्रत्याशियों को मतदान कर सके? क्योंकि प्राय: यह होता है कि मतदाता एक समय में किसी एक ही दल के प्रति पूरी तरह से समर्पित होते हैं। ऐसे में केंद्र से लेकर राज्यों तक में किसी एक ही राष्ट्रीय दल का एकतरफा बहुमत तो नहीं हो जाएगा? अगर ऐसा हुआ तो राज्यसभा में भी उस दल के बहुमत के चलते शक्तियों का केंद्रीकरण हो जाएगा और इससे सत्ता निरंकुश हो सकती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर तमाम चुनौतियों और संभावनाओं को समझने के लियेपूर्व राष्ट्रपति श्री ‘रामनाथ कोविंद’ की अध्यक्षता में समिति गठित की गई है। राष्ट्रीय हितों की प्राथमिकता, बड़े फैसले लेने की क्षमता, चुनावी खर्च में भारी कमी, प्रशासनिक व्यवस्था की दक्षता में वृद्धि और क्षेत्रीय अलगाववाद पर अंकुश इत्यादि लाभों के कारण एक देश एक चुनाव को स्वीकार करना महत्त्वपूर्ण हो गया है। अगस्त 2018 में भारत के विधि आयोग द्वारा एक साथ चुनावों पर जारी रिपोर्ट के अनुसार- “एक राष्ट्र एक चुनाव के अभ्यास से सार्वजनिक धन की बचत की जा सकती है, प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर पड़ने वाले तनाव को कम किया जा सकेगा, सरकारी नीतियों का समय पर कार्यान्वयन होगा तथा चुनाव प्रचार के बजाय विकास की गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए विभिन्न प्रशासनिक सुधार किये जा सकेंगे।” जस्टिस रेड्डी की अध्यक्षता वाले 1999 के विधि आयोग ने भी एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी।

राजनीति के स्तर को उठाने में भी एक देश एक चुनाव मददगार साबित होगा। क्योंकि इससे वोट बैंक और तुष्टीकरण की राजनीति कमज़ोर होगी, विकास के मुद्दे को बल मिलेगा, राष्ट्र हित मुख्य मुद्दा बनेगा, मतदाता पहले से ज़्यादा सक्रिय होंगे क्योंकि उन्हें पाँच साल में केवल एक बार ही वोट डालने का अवसर मिलेगा। दरअसल जब एक साथ लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे तब राज्य सरकारें वित्तीय बदहाली का शिकार होने से बचेंगी। निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त में उत्तरोत्तर कमी आएगी क्योंकि निश्चित अंतराल पर चुनाव कराने से उनके लियेव्यक्तिगत लाभ हेतु दल बदलना अथवा नया गठबंधन बनाना कठिन होगा। लोक लुभावन चुनावी घोषणाओं में भी कमी आ सकती है। कुल मिलाकर “एक देश एक चुनाव को बदलाव के लियेबदलाव कहा जा सकता है। सिर्फ इस एक कदम से भारत मीलों आगे निकल जाएगा।” परिपक्व भारतीय लोकतंत्र के लियेएक देश एक चुनाव की खामियों एवं चुनौतियों को दूर करना कठिन नहीं है।

सार यह है कि भारत को चुनावी मोड से बाहर निकालने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। “यदि भारत में एक देश एक कर (GST) को स्वीकार किया जा सकता है, एक देश एक कानून (समान नागरिक संहिता) बनाने पर विमर्श हो सकता है तो एक देश एक चुनाव को भी स्वीकार करने की आवश्यकता है।” क्योंकि कोई भी सरकार दल के लियेनहीं होनी चाहिये, सरकार जनता और देश के लियेहोनी चाहिये। इस एक निर्णय से चुनावी मशीनरी और चुनाव प्रक्रिया में स्वतः ही कई सुधार हो जाएंगे। क्या पता, यह विकसित भारत का प्रस्थान बिंदु साबित हो…

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