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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

रूस-यूक्रेन विवाद का इतिहास और वर्तमान संकट

वह 27 फरवरी, 2014 की रात थी। हथियारबंद लोगों ने क्रीमिया में संसद और मंत्रिपरिषद की इमारतों को अपने नियंत्रण में ले लिया और उन पर रूसी झंडे लहरा दिये। अगली सुबह जल्दी ही अचिन्हित वर्दी में और अधिक लोगों ने सेवस्तोपोल और सिम्फ़रोपोल में हवाई अड्डों पर कब्जा कर लिया। एक रूसी नौसैनिक पोत ने सेवस्तोपोल के पास बालाक्लावा में बंदरगाह को अवरुद्ध कर दिया जहाँ यूक्रेनी समुद्री रक्षक सैनिक तैनात थे और रूसी सेना के लड़ाकू हेलीकॉप्टर यूक्रेन के क्रीमिया की ओर बढ़ चले। अठारह दिन बाद आनन-फानन में आयोजित किये गए जनमत संग्रह के बाद व्लादिमीर पुतिन ने औपचारिक रूप से क्रीमिया को रूसी संघ में शामिल करने वाले दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किये। इस तरह 18 मार्च, 2014 को रूस और क्रीमिया के स्व-घोषित गणराज्य ने रूसी संघ में क्रीमिया गणराज्य और सेवस्तोपोल के परिग्रहण की संधि पर हस्ताक्षर किये। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने तुरंत 68/262 प्रस्ताव पारित करके इसका उत्तर दिया कि जनमत संग्रह अमान्य था और यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता बनी रहनी चाहिए। इस प्रस्ताव के खिलाफ केवल रूस ने मतदान किया। हालाँकि इस प्रस्ताव को लागू नहीं किया जा सका। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में लागू करने योग्य प्रस्तावों को पारित करने के प्रयासों को रूसी वीटो द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया था।

2014 में रूस द्वारा क्रीमिया का अधिग्रहण करने को आज के यूक्रेन संकट के साथ कैसे जोड़कर देखें? क्या इसमें कोई निरंतरता है? या कोई नवीन परिवर्तन? दो ऐसे देश जो दशकों तक एक ही संघ का अटूट हिस्सा रहे, और इतिहास के बड़े कालखंड में एक साम्राज्य का भाग रहे वो आज युद्ध की विभीषिका के बीच क्यों जा फंसे हैं? इन सवालों का जवाब देना जरूरी है ताकि हम घटित हो रहे संकट को ठीक से समझ सकें।

सोवियत संघ और यूक्रेनियन संघ

प्रथम विश्वयुद्ध के मध्य साम्राज्यवाद के साए से उभरते हुए यूक्रेनियन पीपल्स रिपब्लिक (यूएनआर) की स्थापना 1917 में हुई। जार के शासकीय पतन के बाद यूएनआर ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर लिया था। लेकिन इसी क्रम में बोल्शेविक क्रांति (1917) के बाद हुए रूसी गृहयुद्ध (1917–22) के दौरान रूसी रेड्स और व्हाइट्स के बीच हुए घोर संघर्ष से यूएनआर बच नहीं सका क्योंकि दोनों ताकतों ने यूक्रेनी संप्रभुता को मान्यता नहीं दी थी। लेकिन यूक्रेनी स्वतंत्रता की मिसाल ने बोल्शेविकों को एक सोवियत यूक्रेनी गणराज्य बनाने के लिए मजबूर किया जो 1922 में सोवियत संघ का एक संस्थापक सदस्य बना।

हालाँकि 1930 के दशक की शुरुआत में जोसेफ स्टालिन यूक्रेनी राजनीतिक राष्ट्र को कुचलने के अधूरे काम को पूरा करने की ठान चुके थे। यह राजनीतिक राष्ट्र जैसा कि ऊपर बताया गया है बोल्शेविक क्रांति की पृष्ठभूमि में विकसित हुआ था। 1932-33 के राज्य-प्रायोजित अकाल में लगभग 40 लाख यूक्रेनी किसान मारे गए जिसे यूक्रेन में ‘होलोडोमोर’ (यानी, भुखमरी के माध्यम से हत्या) के रूप में जाना जाता है और एक नरसंहार माना जाता है। स्टालिन ने यूक्रेनी सांस्कृतिक अभिजात वर्ग को भी नष्ट कर दिया और जार के काल से प्रचलित धारणा कि यूक्रेनी रूसियों के "छोटे भाई" हैं इसे बढ़ावा देना शुरू कर दिया।

इसी तरह पूरा यूक्रेन जबरन “छोटे भाई" की तरह सोवियत संघ का हिस्सा बना रहा। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद उसी साल दिसंबर में यूक्रेनी जनमत संग्रह ने खुद को सोवियत संघ से अलग कर लिया। हालाँकि 1990 के दशक की शुरुआत में आर्थिक सुधारों के रुकने के साथ बोरिस येल्तसिन और अन्य रूसी हस्तियों ने यूक्रेनी सांस्कृतिक नीतियों की आलोचना करके और क्रीमिया के हस्तांतरण पर सवाल उठाकर घरेलू राष्ट्रवादियों को सोवियत साम्राज्य की याद दिलाना भी शुरू कर दिया था।

1997 में रूस और यूक्रेन के बीच एक व्यापक संधि ने यूक्रेनी सीमाओं की अखंडता की पुष्टि की थी। इस संधि की गारंटी रूस और पश्चिमी परमाणु शक्तियों ने 1994 के बुडापेस्ट ज्ञापन में दी थी जब यूक्रेन अपने सोवियत-निर्मित परमाणु शस्त्रागार को आत्मसमर्पण करने के लिए सहमत हुआ था। यह संधि 31 मार्च, 2019 को समाप्त हो गई।

वर्तमान संकट और अमेरिकी भूमिका

1990 के दशक के मध्य से यूक्रेन नाटो ढांचे के बाहर अमेरिका का एक महत्वपूर्ण रणनीतिक भागीदार रहा है। इस स्थिति को यूएस-यूक्रेन चार्टर (2008; 2021 में फिर से नई संधि पर हस्ताक्षर हुए थे।) के अंतर्गत सामरिक साझेदारी में औपचारिक रूप दिया गया है। वर्तमान चार्टर "रूसी आक्रमण का मुकाबला करने" में यूक्रेन की सुरक्षा को बढ़ाने के लिए अमेरिकी प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है लेकिन इसमें सूचीबद्ध विशिष्ट उपाय केवल यूक्रेनी सेना में सुधार और डेटा-साझाकरण में अमेरिकी सहायता पर केंद्रित हैं। युद्ध के मामले में किसी भी मौजूदा संधि के लिए अमेरिका को यूक्रेन की रक्षा करने की आवश्यकता नहीं है।

नाटो में शामिल होने का उद्देश्य अब यूक्रेनी संविधान में निहित है और इसके सशस्त्र बल धीरे-धीरे नाटो मानकों में परिवर्तित हो रहे हैं। लेकिन 2008 में पिछली बार जब नाटो के सदस्यों ने यूक्रेन के परिग्रहण के विचार पर चर्चा की थी तो जर्मनी और फ्रांस ने इसे अवरुद्ध कर दिया ताकि था ताकि रूस को आक्रामक होने का मौका न मिले। पिछले दो दशकों से यूक्रेन का लगातार पश्चिमी खेमे के साथ जाना व्लादिमीर पुतिन के आक्रामक राष्ट्रवाद वाले रूस को रास नहीं आया है।

साल 2014 में जब यूक्रेन में एक लोकप्रिय क्रांति ने रूसी समर्थक राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को सत्ता से बेदखल कर दिया और पश्चिमी समर्थक लोकतांत्रिक ताकतों को सत्ता में लाया तो क्रीमिया में एक घोर संकट पैदा हो गया। जैसा कि ’द न्यू यॉर्कर’ को दिये साक्षात्कार में (फरवरी 23, 2022) यूक्रेनी इतिहासकार सेरही प्लोखी ने इस विचार पर कि यूक्रेन में एक जन समूह अभी भी रूसी साम्राज्यवाद से खुद को जोड़ता है पर कहते हैं, “निश्चित रूप से उस विचार को 2014 में क्रीमिया में कर्षण मिला। वहाँ की अधिकांश आबादी जातीयता से रूसी थी। और इसे डोनबास में भी आबादी के एक हिस्से के मध्य कर्षण मिला था जिसकी एक लोकप्रिय सोवियत पहचान थी। वहाँ के लोग वास्तव में एक बहिष्करणीय पहचान के इस विचार से इनकार कर रहे थे और इसने इस विचार के लिए कुछ आधार बनाए कि हाँ, शायद हम यूक्रेनियन हैं, लेकिन हमारे बीच एक बड़ी रूसी भूमिका के लिए भी जगह है।”

डोनेट्स्क और लुहान्स्क पूर्वी यूक्रेन में स्थित दो राज्य हैं जो रूस के साथ सीमा साझा करते हैं। इन दो राज्यों के भीतर दो अलगाववादी क्षेत्र हैं जिन्हें डोनेट्स्क पीपुल्स रिपब्लिक (डीपीआर) और लुहान्स्क पीपुल्स रिपब्लिक (एलपीआर) के नाम से जाना जाता है जो रूसी समर्थित अलगाववादियों द्वारा चलाए जा रहे हैं। यह पूरा क्षेत्र जिसमें डोनेट्स्क, लुहान्स्क और उनके संबंधित अलगाववादी क्षेत्र शामिल हैं आम तौर पर 'डोनबास' क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। रूस ने लंबे समय से दावा किया है कि चूँकि ये मुख्य रूप से रूसी भाषी क्षेत्र हैं इसलिए उन्हें "यूक्रेनी राष्ट्रवाद" से संरक्षित करने की आवश्यकता है। सोवियत काल के दौरान द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कई रूसी श्रमिकों को वहाँ भेजे जाने के कारण रूसी बोलने वालों की उपस्थिति वहाँ बढ़ती रही थी।

तो अब आप यह जान चुके होंगे कि यहाँ केवल सामरिक शक्ति या क्षेत्रीय आधिपत्य से कहीं अधिक राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक मुद्दे हैं। साथ ही नाटो और पश्चिमी देशों के अड़ियल रवैए के कारण यह मुद्दे सुलझने की जगह और उलझते गए हैं। सीरिया, इराक, लीबिया, लेबनान, वेनेजुएला, जैसे कई देशों में पश्चिमी राष्ट्रों ने उनके समर्थित सरकारों को बिठाकर उनके जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्माण का जो हठ किया है उसका दुष्परिणाम बेहद गंभीर है। शीत युद्ध में इसी तरह की विभीषिका कई बार यूरोप, एशियाई और अफ्रीकी देशों में देखने को मिले थे। जहाँ रूस और यूक्रेन अपने मुद्दों को अपने इतिहास और सांस्कृतिक भिन्नताओं में सुलझा सकते थे वहीं पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप और व्लादिमीर पुतिन को उनका एक ‘तानाशाह’ मानने की जिद ने इस संघर्ष को जटिल बना दिया। चूँकि पुतिन एक अणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के नेता हैं तो उन्हें सद्दाम हुसैन या मुअम्मर गद्दाफी की तरह हटाया नहीं जा सकता।

शान कश्यप

(लेखक रवेंशा विश्विद्यालय, कटक में आधुनिक इतिहास के शोधार्थी हैं)

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