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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

सभ्यता की तोप और नस्लीय घृणा : यूक्रेन संकट

ख़ून अपना हो या पराया हो

नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर

जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में

अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर

साहिर लुधियानवी की इस नज़्म को सार रूप में कहें तो वो कह रहे कि चूँकि इंसानों में एक सा खून बह रहा इसलिये युद्ध चाहे पूरब में हो या पश्चिम में उसकी विभीषिका और इससे उपजा दुख एक सा ही होगा। आप भी सोच रहे होंगे कि हॉं, इसमें क्या संदेह है! साहिर ठीक तो कह रहे हैं, युद्ध के मैदान में अंतर से क्या ही फर्क पड़ता है। अफ्रीका हो या एशिया या फिर अमेरिका और यूरोप, युद्ध टैंक सभ्यता के आदर्शों को एक समान ही कुचलते हुए आगे बढ़ते हैं। लेकिन साहिर और आप सहृदय पाठकों से माफी मांगते हुए यह कहना होगा कि सारी दुनिया ऐसा नहीं सोचती। अभी भी संसार के एक हिस्से में ऐसे लोग हैं जो साहिर से, आपसे, हमसे अलग सोचते हैं। उनके लिये दुख की परिधि भूगोल से तय होती है और खून की कीमत नस्ल से।

अगर ऐसा नहीं होता तो 'यूक्रेन-रूस युद्ध' की रिपोर्टिंग ऐसी नहीं होती। आइये कुछ उदाहरण देखते हैं कि पश्चिम की दुनिया के लिये यूक्रेन का दुख कैसा है?

"यह (यूक्रेन) इराक या अफगानिस्तान की तरह नहीं है जहॉं दशकों से संघर्ष चल रहा हो। यह कहीं अधिक सभ्य, कहीं अधिक यूरोपीय है। यहॉं ऐसा कुछ होगा आप उम्मीद नहीं करते हैं।" सीबीएस न्यूज के एक संवाददाता ने इस तरह अपना 'दुख' प्रकट किया। इसी तरह आईटीवी न्यूज़ की रिपोर्टर के लिये "यूक्रेन का दुख अविश्वसनीय है क्योंकि यह यूरोप है, कोई विकासशील तीसरी दुनिया नहीं।" दुख की इसी श्रेणी को और टटोलें तो बीबीसी के पत्रकार इसलिये दुखी थे क्योंकि "नीली आंखें और सुनहरे बाल वाले यूरोपीय मारे जा रहे हैं।" ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिन सबके मूल में यह है कि यूक्रेन में युद्ध का होना इसलिये अविश्वसनीय है क्योंकि यह 'सभ्य' है और यहॉं के लोगों का मरना इसलिए 'अधिक दुखदायी' है क्योंकि ये 'अपने से' हैं। ये सभी मीडिया संस्थान अमेरिका या यूरोप के किसी देश के हैं।

मन में अगर घृणा बसी हो तो वो अपने प्रकट होने की राह तलाश ही लेती है। कई बार अपने अश्लीलतम रूप में यह प्रकट हो जाती है, जिसे झूठी प्रगति का मोटा आवरण भी ढँक नहीं पाता। पश्चिम की दुनिया की यह घृणा भी ऐसी ही है। सदियों से रची-बसी। हम-वे में बँटी हुई, श्रेष्ठता भाव में पगी हुई। आप देखिये न युद्ध की ज़रा सी चोट क्या पहुँची, भेदभाव वाला मन फूट पड़ा। दुख के इस क्षण में अपनी पीड़ा कुछ यूँ व्यक्त हुई कि दूसरों की पीड़ा को छोटा दिखाना पड़ गया। अहा! पश्चिम का यह दुख भी केवल पश्चिम तक न रह सका। मरते लोगों में भी नस्ल तलाश लेने वाला वर्ग ही खुद को सभ्य भी कह रहा है, इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी!

इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते आपसे यह भी साझा करना चाहूंगा कि पश्चिमी श्रेष्ठता का यह बोध कोई नई बात नहीं है। पश्चिम ने पूरी दुनिया में अपनी 'बर्बरता' को छिपाने के लिये इसी श्रेष्ठताबोध का ओट लिया था और जिसे 'श्वेत नस्ल का भार' नाम दिया था। रूडयार्ड किपलिंग के गढ़े इस जुमले 'The White Man's Burden' का निहितार्थ यही था कि चूँकि गोरी चमड़ी वाले, नीली आंखों वाले और सुनहरे बालों वाले लोग ही सभ्य और श्रेष्ठ हैं इसलिये इनका दायित्व बनता है कि असभ्य काले लोगों को सभ्य बनाएँ। और इसी 'भार' को ढोते हुए गोरों की दुनिया ने उपनिवेश बनाए, कालों को गुलाम बनाया, उनके संसाधनों को लूटा, स्थानीय संस्कृतियों को नष्ट किया। गोरों पर दुनिया को सभ्य बनाने का यह भार इतना वजनी था कि उन्होंने क्रूरता की हद तक जाकर अपमानजनक व्यवस्थाएँ बनाईं और लोगों से उनके अधिकार छीने। इतिहास की किताबों में आपने इस बर्बर कहानी को पढ़ा ही होगा। यहॉं मैं बस इतना संकेत करना चाह रहा हूँ कि पुरानी दुनिया का यह स्वाद अब भी यदा-कदा पश्चिम को रोमांचित कर देता है और गोरे उस भार को महसूस करने लगते हैं। और यही भार यूक्रेन के युद्ध मृतक में नीली आंखें खोज लेता है, सुनहरे बाल तलाश लेता है। और सभ्यता का दावा भी वह दुनिया कर रही है जिनके संग्रहालयों की आभा आज भी 'तीसरी दुनिया' के पुरावशेषों से ही है। तीसरी दुनिया की 'पहचान' को निकाल दिया जाए तो लंदन, मेट तथा पर्गेमन जैसे संग्राहलयों में 'गोरों की सभ्यता' की प्रदर्शनीय वस्तुओं का टोटा पड़ जाएगा।

दिलचस्प बात है कि जिस यूरोप का इतिहास ही युद्धों का रहा है और जिसने शक्ति के खेल के लिये दो विश्वयुद्धों की सौगात विश्व को दी, जिस अमेरिका ने परमाणु हमला जैसे भीषणतम युद्ध तरीकों को अपनाया, जहॉं गृहयुद्धों की एक लंबी शृंखला रही हो और जिसने अपने हित के लिये दुनिया के दूसरे हिस्सों को अस्थिर रखा वही दुनिया आज 'सभ्यता' और 'श्रेष्ठता' की दुहाई दे रही है। यह केवल नस्लीय श्रेष्ठता से उपजे घृणा का प्रकटीकरण है। यहॉं कोई कह सकता है कि कुछ उदाहरणों से पूरे पश्चिम का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता पर फिर इतिहास के हवाले से यही कहना ठीक होगा कि रूबीकान नदी पार करने वाले हर व्यक्ति के बारे में हम नहीं जानते पर जूलियस सीजर को जानते हैं। अंत में पश्चिम की दुनिया को फिर से साहिर के हवाले कर देते हैं - जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में/ अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर।

सन्नी कुमार

(लेखक इतिहास के अध्येता हैं तथा दृष्टि आईएएस में क्रिएटिव हेड के रूप में कार्यरत हैं)


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