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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न. "एक मज़बूत डीप-टेक औद्योगिक आधार के बिना भारत के लिये अग्रणी तकनीकों को दिशा देने के बजाय केवल उनका उपयोग करने वाला देश बनकर रह जाने का जोखिम है।” अंतरिक्ष तकनीक, चिकित्सा-तकनीक और स्वच्छ तकनीक में डीप-टेक अनुसंधान के व्यावसायीकरण की भारत की क्षमता का मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)

    03 Dec, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 3 विज्ञान-प्रौद्योगिकी

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • डीप-टेक के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। 
    • भारत की अंतरिक्ष तकनीक, चिकित्सकीय तकनीक तथा स्वच्छ तकनीक के क्षेत्रों में डीप-टेक को व्यावसायिक रूप देने की क्षमता का विश्लेषण कीजिये। 
    • स्पष्ट कीजिये कि भारत के समक्ष केवल उपभोक्ता बने रहने के पीछे कौन-सी संरचनात्मक चुनौतियाँ हैं।
    • डीप-टेक अनुसंधान के व्यावसायीकरण को मज़बूत करने के उपाय प्रस्तावित कीजिये। 
    • उचित निष्कर्ष दीजिये। 

    परिचय: 

    डीप-टेक वे तकनीकें हैं, जो गहन वैज्ञानिक अनुसंधान तथा उच्च स्तर की अभियांत्रिकी पर आधारित होती हैं, AI, जीनोमिक्स, रोबोटिक्स और उन्नत पदार्थ विज्ञान। इन प्रौद्योगिकियों को स्वयं विकसित करने और उनका औद्योगिक आधार निर्मित किये बिना, भारत स्थायी रूप से इनके आयात (उपयोग) पर निर्भर रह सकता है। इससे न केवल सामरिक स्वायत्तता प्रभावित होती है, बल्कि मूल्य-सृजन की क्षमता भी सीमित रहती है।

    मुख्य भाग: 

    भारत की व्यावसायीकरण क्षमता

    • अंतरिक्ष तकनीक: उभरता हुआ निर्माता (उच्च क्षमता) बनने की ओर यह क्षेत्र भारत की सबसे सुदृढ़ व्यावसायीकरण क्षमता को प्रदर्शित करता है, जो IN-SPACe के माध्यम से ISRO और निजी क्षेत्र के पृथक्करण द्वारा संचालित है।
      • निर्माता बनाम उपयोगकर्त्ता डायनेमिक:
        • उपयोगकर्त्ता: अमेरिका नियंत्रित GPS पर निर्भरता।
        • निर्माता: NavIC का विकास, बेहतर क्षेत्रीय सटीकता और रणनीतिक स्वतंत्रता प्रदान करना।
      • व्यावसायिक सफलताएँ:
        • स्काईरूट एयरोस्पेस: रॉकेट (विक्रम-एस) लॉन्च करने वाली पहली निजी भारतीय कंपनी बन गई, जिससे यह सिद्ध हुआ कि निजी उद्योग पहले राज्य द्वारा आयोजित लॉन्च सेवाओं का व्यवसायीकरण कर सकते हैं।
        • पिक्सल: निर्माता होने का एक प्रमुख उदाहरण। यह हाल ही में हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग डेटा के लिये NASA का अनुबंध हासिल करने वाला पहला भारतीय स्टार्टअप बन गया, जिससे यह प्रमाणित हुआ कि भारतीय IP वैश्विक उच्च-तकनीकी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है।
        • अग्निकुल कॉसमॉस: 3D-प्रिंटेड सेमी-क्रायोजेनिक इंजन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया गया, ऑन-डिमांड प्रक्षेपण सेवाओं की ओर अग्रसर।
    • मेड-टेक: मिश्रित क्षमता और विकास अवरोध 
      • यद्यपि भारत विश्व की फार्मेसी (जेनेरिक) है, यह उच्च-स्तरीय चिकित्सा उपकरणों (70-80% आयात निर्भरता) का उपयोगकर्त्ता बना हुआ है।
      • उपयोगकर्त्ता संजाल: भारत लगभग सभी उच्च-स्तरीय इमेजिंग उपकरण (MRI, CT स्कैनर) GE और सीमेंस जैसी वैश्विक दिग्गज कंपनियों से आयात करता है।
      • उभरती हुई निर्माता क्षमताएँ:
        • SSI मंत्र: भारत की पहली स्वदेशी सर्जिकल रोबोटिक प्रणाली। इसने वैश्विक एकाधिकार (दा विंची सिस्टम) के एक सस्ते विकल्प का व्यावसायीकरण किया और जटिल मेक्ट्रोनिक्स को स्थानीय स्तर पर डिज़ाइन करने की क्षमता का प्रदर्शन किया।
        • राष्ट्रीय बायोफार्मा मिशन: राष्ट्रीय बायोफार्मा मिशन ने स्टार्टअप्स को सफलतापूर्वक समर्थन दिया है, लेकिन कई स्टार्टअप्स अंतिम चरण की पूंजी (सीरीज B/C फंडिंग) की कमी एवं नियामक बाधाओं के कारण विस्तार करने में असफल रहे हैं।
    • स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी: स्थापना परक उपयोग से निर्माणशीलता की ओर संक्रमण (क्षमता में वृद्धि) भारत ऐतिहासिक रूप से स्वच्छ तकनीक का उपयोगकर्त्ता रहा है (उदाहरण के लिये, नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों को पूरा करने के लिये चीन से सोलर पैनल आयात करना)। किंतु अब उत्पादन, शोध तथा स्वदेशी मूल्य शृंखला निर्माण की दिशा में परिवर्तन प्रारंभ हुआ है।
      • ग्रीन हाइड्रोजन: न्यूट्रेस और GreenH जैसे स्टार्टअप यूरोपीय प्रौद्योगिकी का आयात करने के बजाय उत्पादन लागत को कम करने के लिये स्वदेशी इलेक्ट्रोलाइज़र प्रौद्योगिकियों का विकास कर रहे हैं।
      • बैटरी भंडारण: यद्यपि PLI योजना विनिर्माण को प्रोत्साहित करती है, फिर भी भारत में उन्नत रसायन सेल (ACC) अनुसंधान एवं विकास में मज़बूत आधार का अभाव है, जिसके कारण यह आयातित लिथियम-आयन IP और कच्चे माल पर निर्भर है।

    भारत के लिये उपयोगकर्त्ता बने रहने का जोखिम क्यों (संरचनात्मक चुनौतियाँ)

    • वित्तपोषण अंतराल: घरेलू जोखिम पूँजी प्रायः त्वरित लाभ वाले क्षेत्रों (फिनटेक/ई-कॉमर्स) को प्राथमिकता देती है जबकि डीप टेक के लिये दीर्घकालिक धैर्यपूर्ण पूँजी (5-10 वर्ष की अवधि) की आवश्यकता होती है।
      • इसके कारण, कई नवाचार प्रारंभिक स्तर पर ही रुक जाते हैं और या विदेशों में पंजीकरण स्थानांतरित (फ्लिपिंग– वित्तपोषण के लिये अमेरिका/सिंगापुर चले जाते हैं) कर देते हैं।  
    • क्रय-विक्रय की संस्कृति: कई सरकारी निविदाएँ प्रायः L1-T (स्वदेशी रूप से विकसित प्रौद्योगिकी के साथ सबसे कम लागत) की तुलना में L1 (सबसे कम लागत) को प्राथमिकता देती हैं। 
      • पैमाने की कमी के कारण डीप टेक उत्पादों की लागत शुरू में अधिक होती है, जिससे वे बड़े पैमाने पर उत्पादित विदेशी विकल्पों के समक्ष प्रतिस्पर्द्धा खो देते हैं।
    • अनुसंधान एवं विकास पर खर्च: भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.7% अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करता है (जबकि अमेरिका/चीन में यह 2%+ है)। एक प्रौद्योगिकी निर्माता अर्थव्यवस्था के लिये बुनियादी विज्ञान में भारी निवेश की आवश्यकता होती है।

    डीप-टेक अनुसंधान के व्यावसायीकरण को सुदृढ़ करने के उपाय: 

    • राष्ट्रीय डीप टेक स्टार्टअप नीति (ड्राफ्ट) को तेज़ी से क्रियान्वित करने की आवश्यकता: डीप टेक के लिये समर्पित फंड ऑफ फंड्स उपलब्ध कराने और IP व्यवस्था को सरल बनाने के लिये तत्काल कार्यान्वयन की आवश्यकता है।
    • सामरिक खरीद: रक्षा मंत्रालयों की तरह नागरिक मंत्रालयों में भी भारतीय क्रय-IDDM (स्वदेशी रूप से डिज़ाइन, विकसित और निर्मित) श्रेणियाँ शुरू की जानी चाहिये।
    • उद्योग-अकादमिक संपर्क: केवल शोध-प्रकाशनों से आगे बढ़कर पेटेंट आधारित व्यावसायीकरण को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। 
      • IIT मद्रास रिसर्च पार्क एक सफल मॉडल है (अग्निकुल आदि का विकास) जिनका प्रसार आवश्यक है। 

    निष्कर्ष: 

    अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत निर्माता के रूप में उभर चुका है, किंतु चिकित्सीय उपकरणों तथा स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी में आयात-निर्भरता की जड़ता से अभी भी जूझ रहा है। यदि भारत को केवल उपयोगकर्त्ता ही बने रहने की अवस्था से ऊपर उठना है तो भारत को डीप टेक को न केवल एक व्यावसायिक क्षेत्र के रूप में, बल्कि एक रणनीतिक बुनियादी अवसंरचना के रूप में देखना चाहिये तथा इसे धैर्यवान पूँजी और तरजीही बाज़ार अभिगम्यता के साथ समर्थन देना चाहिये।

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