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प्रश्न :
प्रश्न. 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों ने पारंपरिक भारतीय उद्योगों के पतन और औपनिवेशिक आर्थिक संरचना के उदय में किस हद तक योगदान दिया, इसका मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)
02 Jun, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- 19वीं शताब्दी में पारंपरिक भारतीय उद्योगों को प्रभावित करने वाली ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों पर संक्षेप में विवेचना कीजिये।
- चर्चा कीजिये कि किस प्रकार इन नीतियों के कारण पारंपरिक उद्योगों का पतन हुआ तथा औपनिवेशिक काल के दौरान आर्थिक संरचना में आए परिवर्तन की भी व्याख्या कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
19वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों ने भारत के आर्थिक परिदृश्य को गहराई से बदल दिया। इन नीतियों के परिणामस्वरूप पारंपरिक भारतीय उद्योगों जैसे: वस्त्र, हस्तशिल्प और धातुकर्म का पतन हुआ। ब्रिटिश आर्थिक हितों की पूर्ति के उद्देश्य से बनाई गई ये नीतियाँ स्वदेशी उत्पादन व्यवस्था को व्यवस्थित रूप से नष्ट करती चली गईं और भारत को कच्चे माल के प्रदायक एवं ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के उपभोक्ता में रूपांतरित कर दिया। इसका सीधा प्रभाव यह हुआ कि कारीगर वर्ग दरिद्र होता गया और भारत की अर्थव्यवस्था को औपनिवेशिक परिशिष्ट के रूप में पुनर्गठित कर दिया गया।
मुख्य भाग:
ब्रिटिश नीतियों के कारण पारंपरिक उद्योगों का पतन:
- संरक्षणवाद का अंत: अंग्रेज़ों ने भारत में पहले से लागू उन शुल्कों और सुरक्षात्मक उपायों को समाप्त कर दिया, जो स्थानीय कारीगरों एवं उद्योगों को सुरक्षा प्रदान करते थे।
- चार्टर एक्ट- 1813 ने ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार एकाधिकार को समाप्त कर दिया, जिससे ब्रिटिशों द्वारा एकतरफा मुक्त व्यापार नीतियों का मार्ग प्रशस्त हुआ (19वीं शताब्दी के मध्य में)। इसके परिणामस्वरूप भारतीय बाज़ार सस्ते, मशीन से बने ब्रिटिश वस्त्रों से भर गए।
- दूसरी ओर, ब्रिटेन में निर्यात होने वाले भारतीय वस्त्रों पर लगभग 80% तक के भारी आयात शुल्क लगाए गए, जिससे भारतीय वस्त्र महंगे और प्रतिस्पर्द्धा में कमज़ोर हो गए।
- भारतीय कारीगर ब्रिटिश फैक्टरी-निर्मित वस्तुओं की कम कीमत और एकरूप गुणवत्ता का मुकाबला नहीं कर सके, जिसके चलते बंगाल, गुजरात एवं कोरोमंडल तट जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी तथा विऔद्योगीकरण की स्थिति उत्पन्न हो गई।
- कच्चे माल का निष्कर्षण: ब्रिटिश सामरिक और वाणिज्यिक हितों की पूर्ति के लिये शुरू की गई रेलवे ने भारत से ब्रिटेन तक कपास, जूट एवं नील जैसे कच्चे माल के निर्यात को सुगम बनाया।
- कच्चे माल को सस्ती कीमतों पर निर्यात किया जाता था और तैयार माल को ऊँची कीमतों पर आयात किया जाता था, जिससे आर्थिक निर्भरता बनी रहती थी।
- राजस्व व्यवस्था और भूमि नीतियाँ: स्थायी बंदोबस्त (वर्ष 1793), रैयतवाड़ी और महालवाड़ी जैसी भू-राजस्व प्रणालियाँ भले ही उन्नीसवीं सदी से पहले लागू की गई थीं, परंतु इनका प्रभाव विशेषतः किसानों और लघु उत्पादकों पर बढ़ते कर भार के रूप में उन्नीसवीं सदी एवं उसके बाद भी बना रहा।
- उच्च कर वसूली ने किसानों की क्रय-शक्ति को घटा दिया और उन्हें नकदी फसलों की कृषि की ओर प्रवृत्त किया, जिससे स्थानीय स्तर पर निर्मित वस्तुओं की माँग में गिरावट आई।
- धन की निकासी: जैसा कि दादाभाई नैरोज़ी के 'धन निकासी सिद्धांत' में प्रतिपादित किया गया है, भारत की संपत्ति का एक बड़ा भाग ब्रिटेन को भेजा गया, जिसकी भारत में पुनर्निवेश की कोई व्यवस्था नहीं थी।
- जो पूँजी भारतीय उद्योगों में निवेश की जा सकती थी, वह औपनिवेशिक कराधान और मुनाफे के ब्रिटेन प्रेषण के माध्यम से बाहर जाती रही, जिससे औद्योगिक विकास बाधित हुआ।
औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की संरचना का उदय:
- कृषि-केंद्रित परिवर्तन एवं विऔद्योगीकरण: भारत की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि आधारित हो गई, निर्यात के लिये नील, कपास और अफीम जैसी नकदी फसलों पर केंद्रित हो गई, जिससे भारत ब्रिटिश उद्योगों के लिये कच्चे माल का आपूर्तिकर्त्ता बन गया।
- नकदी फसलों पर ज़ोर ने निर्वाह कृषि का स्थान ले लिया, जिससे अकालों के प्रति आर्थिक सुभेद्यता बढ़ गई।
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था वैश्विक बाज़ार के उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशील हो गई और औद्योगिक अवसंरचना में निवेश से वंचित हो गई।
- दोहरी अर्थव्यवस्था का उदय: औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था ने दोहरा चरित्र विकसित किया, जिसमें एक ओर ब्रिटिश पूंजी के प्रभुत्व वाला छोटा आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र था, वहीं दूसरी ओर कच्चे माल का उत्पादन करने वाला एक बड़ा पारंपरिक कृषि क्षेत्र था।
- स्वदेशी उद्योग नष्ट हो गए, जबकि ब्रिटिश स्वामित्व वाली फैक्ट्रियों का विस्तार हुआ, जिससे आर्थिक असमानताएँ और गहरी हो गईं।
- रेलवे और बुनियादी अवसंरचना: हालाँकि रेलवे ने आंतरिक क्षेत्रों को बंदरगाहों से जोड़ा, लेकिन उनका प्राथमिक उद्देश्य स्वदेशी औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के बजाय ब्रिटेन को कच्चे माल के निर्यात को सुविधाजनक बनाना तथा ब्रिटिश वस्तुओं का आयात करना था।
- बाज़ार पर निर्भरता और आयात पर निर्भरता: ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के आगमन से उपभोक्ता पर निर्भरता बढ़ी, जिससे स्थानीय उत्पादन एवं नवाचार में कमी आई।
- पूंजी की कमी एवं स्वदेशी उद्योगों पर लगाए गए औपनिवेशिक प्रतिबंधों के कारण यह गिरावट और भी बढ़ गई।
निष्कर्ष:
ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप औद्योगिकीकरण में कमी आई, कृषि पर निर्भरता कम हुई और भारत एक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में परिणत हो गया, जो मुख्य रूप से ब्रिटिश हितों पर ही केंद्रित थी। इन नीतियों के प्रभाव ने भारत की दरिद्रता में योगदान दिया और स्वतंत्रता-पश्चात् आर्थिक सुधार के लिये चुनौतियाँ उत्पन्न कीं।
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