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प्रश्न :
प्रश्न . भारत की कृषि अर्थव्यवस्था और भूमि स्वामित्व के पैटर्न पर औपनिवेशिक भू-राजस्व समझौतों के प्रभाव का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)
19 May, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- तीन प्रमुख औपनिवेशिक भूमि राजस्व बंदोबस्त (स्थायी, रैयतवाड़ी, महालवाड़ी) का परिचय दीजिये।
- कृषि अर्थव्यवस्था पर उनके प्रभाव की व्याख्या कीजिये तथा भूमि स्वामित्व पैटर्न में परिवर्तन जैसे कि ज़मींदारों का उदय आदि पर भी चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
ब्रिटिश शासन द्वारा लागू की गई स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी और महालवाड़ी बंदोबस्त भू-राजस्व व्यवस्थाएँ केवल कर वसूली की प्रणालियाँ नहीं थीं, बल्कि उन्होंने भारत की पारंपरिक कृषि संरचना को मूलतः परिवर्तित कर दिया। इन व्यवस्थाओं का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश राजस्व को अधिकतम करना था, किंतु इसके परिणामस्वरूप पारंपरिक भूमि स्वामित्व प्रणाली छिन्न-भिन्न हो गई और भारतीय कृषि पर दीर्घकालिक सामाजिक व आर्थिक प्रभाव पड़े।
मुख्य भाग:
प्रणाली
क्षेत्र
प्रमुख विशेषताएँ
स्थायी बंदोबस्त (1793)
बंगाल, बिहार, ओडिशा
निश्चित राजस्व, ज़मींदारों को भूस्वामी के रूप में मान्यता; वंशानुगत अधिकार; ज़मींदारी प्रथा।
रैयतवाड़ी बंदोबस्त
(19वीं सदी के प्रारंभ में)
मद्रास, बम्बई, असम, पंजाब के कुछ हिस्से
कृषकों (रैयतों) के साथ प्रत्यक्ष समझौता, राजस्व समय-समय पर तय किया जाता था।
महालवाड़ी बंदोबस्त
(वर्ष 1822 से आगे)
उत्तर-पश्चिमी प्रांत, पंजाब, मध्य भारत के कुछ भाग।
इकाई के रूप में गाँव या 'महाल'; राजस्व का सामूहिक रूप से आकलन; संयुक्त जिम्मेदारी।
कृषि अर्थव्यवस्था पर प्रभाव:
- राजस्व प्रथम दृष्टिकोण: अंग्रेज़ों ने कृषक कल्याण की अपेक्षा निश्चित राजस्व को प्राथमिकता दी तथा भूमि को मुख्यतः राजकोषीय संसाधन माना।
- स्थायी बंदोबस्त ने फसल के उतार-चढ़ाव को नजरअंदाज़ करते हुए भूमि राजस्व को निश्चित कर दिया, जिसके कारण लगान में वृद्धि हुई, कृषि संकट उत्पन्न हुआ, ज़मींदार गायब हो गए और भूमि सुधार के लिये बहुत कम प्रोत्साहन मिला।
- इसके अलावा, भूमि स्वामित्व की सुरक्षा की कमी ने किसानों को बेहतर कृषि पद्धतियों को अपनाने से हतोत्साहित किया।
- किसान ऋणग्रस्तता: रैयतवाड़ी बंदोबस्त में, किसानों से प्रत्यक्ष कर संग्रह में उच्च और अनम्य मांगें शामिल थीं।
- इससे कई लोग कर्ज में डूब गए, जिससे उनकी भूमि छिन गई, साहूकारों पर उनकी निर्भरता बढ़ गई और उनकी ज़मीनें बिखर गईं।
- खाद्य असुरक्षा और कृषि व्यावसायीकरण: इन बंदोबस्तों ने खाद्यान्न की तुलना में नकदी फसल (जैसे: नील, कपास, अफीम) की कृषि को बढ़ावा दिया, जिससे खाद्य सुरक्षा को नुकसान पहुँचा।
- इसके अतिरिक्त, महालवाड़ी बंदोबस्त ने ग्राम समुदायों पर राजस्व का आकलन किया और गाँव के अभिजात वर्ग के हाथों में सत्ता केंद्रित की, जिससे साधारण कृषक हाशिये पर चले गए।
भूमि स्वामित्व पैटर्न में परिवर्तन:
- ज़मींदारों का नया वर्ग: स्थायी बंदोबस्त ने ज़मींदारों को भूमि के मालिक और कर संग्रहकर्त्ता के रूप में स्थापित कर दिया। इसने एक भू-स्वामी अभिजात वर्ग का निर्माण किया, जो प्रायः अनुपस्थित ज़मींदार होते थे, जिन्हें अधिकतम किराया वसूलने के लिये प्रोत्साहित किया जाता था, जिसके परिणामस्वरूप एक सामंती कृषि संरचना का निर्माण हुआ।
- प्रथागत अधिकारों का ह्रास: पारंपरिक गाँव के सामुदायिक स्वामित्व और वंशानुगत भूमि अधिकारों को कमज़ोर किया गया। बंदोबस्तों ने निजी स्वामित्व को वैध बनाया, जिससे भूमि की बिक्री और हस्तांतरण में आसानी हुई, जो प्रायः छोटे किसानों और जनजातीय समुदायों के लिये नुकसानदेह था।
- काश्तकारी और बटाईदारी में वृद्धि: कई कृषक दमनकारी शर्तों के तहत काश्तकार या बटाईदार बन गए, जिससे ग्रामीण असमानता और काश्तकारी की असुरक्षा बढ़ गई।
- अंततः, गैर-कृषि ज़मींदार वर्ग का उदय और भूमिहीन काश्तकारों की बढ़ती जनसंख्या।
- स्थायी प्रभाव: इन बंदोबस्तों ने संरचनात्मक असमानताओं को जन्म दिया, ग्रामीण भारत में वर्ग विभाजन उत्पन्न किया और कृषि संबंधी अशांति को बढ़ावा दिया, जिसमें संथाल विद्रोह और दक्कन दंगे जैसे किसान विद्रोह शामिल थे।
- कृषि संकट के कारण अकाल की स्थिति और भी गंभीर हो गई, जैसा कि वर्ष 1943 के बंगाल अकाल के दौरान देखा गया, जहाँ कठोर राजस्व मांगों ने भेद्यता को और भी बदतर बना दिया।
निष्कर्ष:
औपनिवेशिक भूमि राजस्व समझौतों ने भूमि स्वामित्व को ज़मींदारों के प्रभुत्व की ओर पुनर्गठित किया, पारंपरिक सांप्रदायिक प्रणालियों को विस्थापित किया, जिससे दीर्घकालिक कृषि संकट और सामाजिक स्तरीकरण के बीज बोये गये।
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