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प्रश्न :
प्रश्न. "नदी जोड़ो परियोजनाओं को जल संकट के संभावित समाधान के रूप में सराहा गया है, फिर भी इनके कार्यान्वयन से पारिस्थितिकी व्यवधान और ऐसे प्रयासों की दीर्घकालिक संवहनीयता को लेकर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।" टिप्पणी कीजिये। (250 शब्द)
28 Apr, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोलउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- नदी जोड़ो परियोजना की अवधारणा और इसके उद्देश्यों का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- नदियों को जोड़ने के संभावित लाभों की व्याख्या कीजिये तथा इसके पारिस्थितिकीय सरोकारों और परियोजना की दीर्घकालिक संवहनीयता पर भी चर्चा कीजिये।
- संतुलित परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हुए संधारणीय एवं सुनियोजित परियोजनाओं की आवश्यकता पर प्रकाश डालिये।
परिचय:
सर आर्थर कॉटन द्वारा 19वीं शताब्दी में प्रस्तावित और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (वर्ष 1980) में औपचारिक रूप से प्रस्तुत नदी जोड़ो परियोजना (ILR) का उद्देश्य नहरों और जलविद्युत स्टेशनों के नेटवर्क के माध्यम से प्रमुख नदियों को जोड़कर जल की कमी को दूर करना है। हालाँकि यह जल तनाव और बाढ़ को कम कर सकता है, लेकिन इसके पारिस्थितिक प्रभाव और दीर्घकालिक संवहनीयता को लेकर चिंताएँ बनी हुई हैं।
मुख्य भाग:
ILR परियोजना संभावित समाधान प्रस्तुत करती है:
- जल सुरक्षा: गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों जैसे अधिशेष क्षेत्रों से बुंदेलखंड जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में जल का पुनर्वितरण, राज्य-विशिष्ट जल चुनौतियों से निपटने के लिये एक महत्त्वपूर्ण रणनीति है।
- केन-बेतवा परियोजना जैसी पहल स्थायी जल आपूर्ति सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जो गंभीर सूखे व जल की कमी का सामना कर रहे क्षेत्रों के लिये स्थानीय आवश्यकताओं और दीर्घकालिक जल सुरक्षा पर केंद्रित है।
- बाढ़ और सूखे का शमन: यह बाढ़ और सूखे के गंभीर प्रभावों को भी कम कर सकता है, बिहार और असम जैसे क्षेत्रों में बाढ़ को रोक सकता है, जबकि मराठवाड़ा और विदर्भ जैसे क्षेत्रों में जल की कमी को दूर कर सकता है।
- कृषि को बढ़ावा: इस परियोजना से सिंचित कृषि भूमि में वृद्धि होगी, फसल उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि होगी और अनिश्चित मानसून पर निर्भरता कम होगी। इससे लाखों किसानों को खाद्य सुरक्षा मिल सकती है।
- भूजल पर निर्भरता कम करने के लिये परियोजना की क्षमता, घटते हुए जलभृतों पर दबाव को कम कर सकती है तथा कृषि में जल के सतत् उपयोग को बढ़ावा दे सकती है।
- जलविद्युत उत्पादन: नदियों को आपस में जोड़ने से नदियों की जलविद्युत क्षमता का दोहन होगा तथा बाँधों और जलाशयों के माध्यम से नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन होगा।
- भारत की कुल जलविद्युत क्षमता 148,700 मेगावाट होने का अनुमान है, जिसमें नदी परियोजनाओं से महत्त्वपूर्ण योगदान मिलने की उम्मीद है, जिससे देश की बढ़ती ऊर्जा मांगों को पूरा करने में मदद मिलेगी।
- परिवहन लाभ: भारत में लॉजिस्टिक्स लागत सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 14-18% (आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23) अनुमानित है, जो वैश्विक औसत 6-8% से बहुत अधिक है।
- अंतर्देशीय जलमार्गों का विकास, जो सड़क और रेल परिवहन की तुलना में अधिक लागत प्रभावी हैं, परिवहन लागत को कम कर सकता है तथा अंततः उत्पादन लागत में भी कमी ला सकता है।
ILR परियोजना से संबंधित पारिस्थितिकी और संवहनीयता संबंधी मुद्दे:
- पारिस्थितिकी तंत्र में लिये, केन-बेतवा परियोजना पन्ना टाइगर रिज़र्व के लिये खतरा बन गई है, जिससे वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों को नुकसान पहुँचने की संभावना है।
- जलीय प्रजातियाँ, विशेष रूप से मछलियाँ, प्रजनन और जीवित रहने के लिये नदियों के प्राकृतिक प्रवाह पर निर्भर करती हैं। नदियों के मार्ग में परिवर्तन से इन पारिस्थितिकी तंत्रों में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है।
- मृदा लवणता और अपरदन: जल का प्रवाह उन क्षेत्रों में मृदा की संरचना को बदल सकता है जो मूल रूप से अतिरिक्त जल ग्रहण के लिये उपयुक्त नहीं हैं।
- इसके परिणामस्वरूप मृदा अपरदन या लवणता में वृद्धि हो सकती है, विशेष रूप से तटीय क्षेत्रों में।
- दीर्घकालिक संवहनीयता: नदी जोड़ो परियोजनाएँ निरंतर वर्षा पैटर्न पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।
- बदलती जलवायु परिस्थितियों और अप्रत्याशित मानसून के कारण, इस तरह की बड़े पैमाने की परियोजनाएँ दीर्घकालिक समाधान प्रदान नहीं कर पाएंगी।
- नदी के जल की दिशा बदलने पर अत्यधिक निर्भरता के परिणामस्वरूप जल स्रोत समाप्त हो सकते हैं, अधिशेष क्षेत्रों में जल की कमी बढ़ सकती है, तथा परियोजना की दीर्घकालिक स्थिरता को नुकसान पहुँच सकता है।
- सामाजिक और आर्थिक विस्थापन: जलाशयों और नहरों के निर्माण से हजारों लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, जिससे आजीविका बाधित होगी और सामाजिक अशांति उत्पन्न होगी।
- इस परियोजना से जल विभाजन को लेकर राज्यों के बीच तनाव बढ़ सकता है। तमिलनाडु एवं कर्नाटक के बीच कावेरी विवाद जैसे विवाद और भी व्यापक हो सकते हैं।
- उच्च वित्तीय और परिचालन लागत: इस परियोजना के लिये बड़े पैमाने पर वित्तीय निवेश की आवश्यकता है, जिसकी अनुमानित लागत 5.5 लाख करोड़ रुपए है, जिसमें बांधों, नहरों और संबंधित बुनियादी अवसंरचना का निर्माण भी शामिल है।
- दीर्घकालिक प्रबंधन और पुनर्वास लागत भी बहुत बड़े वित्तीय बोझ प्रस्तुत करती है।
ILR परियोजना की संवहनीयता सुनिश्चित करने के उपाय:
- समग्र मूल्यांकन: दीर्घकालिक परिणामों का पूर्वानुमान करने और जोखिमों को कम करने के लिये गहन पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक प्रभाव मूल्यांकन के लिये उन्नत उपकरणों (GIS, AI) का उपयोग किया जाना चाहिये।
- समावेशी भागीदारी: राज्यों, स्थानीय समुदायों और जल विशेषज्ञों को सक्रिय रूप से शामिल करके भागीदारीपूर्ण निर्णय लेने को बढ़ावा दिया जाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि समाधान न्यायसंगत, क्षेत्र-संवेदनशील एवं सामाजिक रूप से स्वीकार्य हों।
- स्मार्ट जल प्रबंधन: IoT-आधारित निगरानी, सेंसर-चालित सिंचाई और वास्तविक काल बाढ़ पूर्वानुमान उपकरण अपनाए जाने चाहिये।
- बड़े पैमाने पर जल परिवर्तन पर निर्भरता कम करने के लिये ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई, सूक्ष्म जलग्रहण प्रबंधन, जलभृत पुनर्भरण एवं वर्षा जल संचयन जैसी प्रथाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- तेलंगाना के मिशन काकतीय और महाराष्ट्र के जलयुक्त शिवार जैसे सफलता मॉडल को अन्य क्षेत्रों में भी अपनाया जा सकता है।
- जलवायु अनुकूलन: सूखा सहिष्णु फसलों और मौसमी जल बजट जैसी अनुकूली रणनीतियों को एकीकृत किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
इस परियोजना को व्यापक पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक प्रभाव आकलन की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इससे भारत की नदियों, पारिस्थितिकी तंत्र एवं समुदायों को अपरिवर्तनीय क्षति न पहुँचे। भारत की जल समस्याओं के लिये ILR को वास्तव में व्यवहार्य समाधान बनाने के लिये अधिक संधारणीय और न्यायसंगत दृष्टिकोण आवश्यक है।
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