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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    छायावादी काव्य स्वाधीनता आंदोलन के सघनतम काल में रचे जाने के बावजूद यह काव्य राष्ट्रीय चेतना से कटा हुआ है। सुचिंतित टिप्पणी करें।

    17 Jul, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भूमिका

    • कथन की समीक्षा

    • निष्कर्ष

    छायावादी काव्य पर आरोप लगता रहा है कि स्वाधीनता आंदोलन के सघनतम काल में रचे जाने के बावजूद यह काव्य राष्ट्रीय चेतना से कटा हुआ है। छायावादी कविता को स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगना स्वाभाविक है, किंतु गहन विश्लेषण से सिद्ध होता है कि यह काव्य अपने समय के सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय संदर्भों को धारण ही नहीं करता बल्कि उनकी प्रगति में यथासंभव योगदान भी देता है

    छायावाद में जागरण शब्द का प्रयोग सभी कवियों ने अनेक संदर्भ में किया है। यह जागरण सूक्ष्म रूप से सांस्कृतिक नवजागरण और राष्ट्रीय राजनीतिक जागरण ही है। प्रसाद कहते हैं, "बीती विभावरी जाग री", निराला कहते हैं, "जागो फिर एक बार" और महादेवी कहती हैं, "जाग तुझको दूर जाना है"। छायावादी काव्य राष्ट्रीय जागरण की मूल चुनौतियों को गहराई से समझता है जिस देश में सदियों की पराधीनता के कारण जातीय व सांस्कृतिक स्वाभिमान नष्ट हो चुका हो वहाँ जागरण की पहली शर्त राष्ट्रीय स्वाभिमान की उत्पत्ति होती है।

    छायावादी कवि भारत के अतीत से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करके वर्तमान संघर्षों से जुझना चाहते हैं। अतीत की महानता का वर्णन उनके यहाँ कई बिंदुओं पर नज़र आता है-

    "पश्चिम की उक्ति नहीं गीता है गीता है"
                                     (निराला)

    "किसी का हमने छीना नहीं,प्रकृति का रहा पालना यही
    कहीं से हम आए थे नहीं, हमारी जन्मभूमि है यहीं"
                                      (प्रसाद)

    छायावादी कवि इस बात को बखूबी समझते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक जुझारू मन:स्थिति का होना आवश्यक है। वह कविता के माध्यम से राष्ट्रीय समस्याओं का केवल विश्लेषण नहीं करते बल्कि जुझारू मानसिकता के विकास का प्रयत्न भी करते हैं। जिस तरह से द्विवेदी युग में 'भारत-भारती' ने पूरे राष्ट्र में सांस्कृतिक ऊर्जा को जन्म दिया था वैसे ही छायावाद की कविताएँ भी जनसामान्य में जोश और उमंग पैदा करती है। प्रसाद लिखते हैं,

    "हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
    स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती"

    छायावादी कविता अपने समय से कुछ ऐसे स्तरों पर भी जुड़ी है जो साधारण कविताओं के लिए संभव नहीं होता। कविता अपने समय की घटनाओं का वर्णन करे यह कविता की सामाजिक दायित्वशीलता का मात्र एक पक्ष है। छायावादी कविता आगे बढ़कर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करती है। यह अपने समाज की निष्क्रिय तस्वीरें नहीं बल्कि, समाज के लिए वांछनीय परिवर्तनों के स्तर पर भी सक्रिय होती हैं। 'राम की शक्ति पूजा' की मूल समस्या यही है कि 1936 ई. के भारत में अहिंसात्मक शक्ति निरर्थक प्रतीक होने लगी है। स्वाधीनता के संघर्ष में नए विकल्प के तौर पर निराला सुझाते हैं कि,

    "शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन,
    छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनंदन।
    रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त,
    तो निश्चित तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त।।

    छायावाद की राष्ट्रीय चेतना अपने अंतिम स्तर पर केवल राष्ट्र तक सीमित नहीं रहती बल्कि संपूर्ण मानवता के स्तर पर सक्रिय हो जाती है। यह भारतीय चिंतन सृष्टि की वही धारणा है जिसमें राष्ट्रीय हितों व वैश्विक हितों को परस्पर विपरीत नहीं बल्कि सुसंगत शक्तियों के रूप में 'वसुधैव कुटुंबकम' का व्याख्यान किया जाता है। अतः हम कह सकते हैं स्थूल रूप से नहीं किंतु, सूक्ष्म रूप से अध्ययन करने पर छायावादी कविताएँ राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी तो है ही साथ ही मनुष्य के अंदर राष्ट्रीय भावना के विकास में भी सहायक रहीं।

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