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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    मध्यकाल में काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा के विकास पर प्रकाश डालिए।

    13 Jul, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण

    • भूमिका

    • मध्यकाल में काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा के विकास के कारण

    • निष्कर्ष

    मध्य काल के अंतर्गत भक्तिकाल तथा रीतिकाल दोनों आते हैं। काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा इस काल में निरंतर परिपक्व हुई तथा क्षेत्रीय दृष्टि से अखिल भारतीय विस्तार प्राप्त किया।

    मध्यकाल से पहले खुसरो तथा चंदबरदाई के काव्य में ब्रजभाषा का प्रारंभिक स्वरूप दिखता है। सूर के काव्य में यह भाषा परिवर्धित हुई और रितिकाल में इसने अपना पूर्ण वैभव प्राप्त किया।

    सूर की काव्यभाषा ब्रजभाषा का आरंभिक रूप होकर भी चरम रूप से सफल भाषा है। सूरदास ने ब्रजभाषा को उसी रूप में नहीं लिया जो सामान्य बोलचाल की भाषा में प्रचलित था भाषा को व्यापकता प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने 'जेही', 'तेही' जैसे अवधी शब्दों का प्रयोग 'गोड़', 'आपन', 'हमार' जैसे पूर्वी शब्दों का प्रयोग तथा महँगी (प्यारी) जैसे पंजाबी शब्दों का प्रयोग भी इसमें शामिल किया। सूर ब्रजभाषा की अंतर्निहित लयात्मक्ता को विकसित किया तथा चित्रात्मकता व अप्रस्तुत विधान के अनुकूल बनाया। इस कार्य में उन्हें अष्टछाप के अन्य कवियों का भी सहयोग मिला वहीं मीरा की ब्रज भाषा में राजस्थानी का भी मिश्रण हुआ है।

    भक्तिकाल के बाद उत्तर-मध्यकाल या रीतिकाल में ब्रजभाषा भाषा के विकल्प के रूप में नहीं बल्कि एक मात्र काव्यभाषा के रूप में स्थापित हो गई। रीतिकाल में ब्रज भाषा के प्रयोग दो रूप दिखाई पड़ते हैं। पहला रूप, प्रायः रीतिबद्ध व रीतिसिद्ध कवियों की भाषा में दिखता है, जिसमें आलंकारिकता, सजगता और चमत्कारप्रियता की प्रवृत्तियाँ बहुत व्यापक रूप से परिलक्षित होती हैं। यह भाषा अति सजग किस्म की है। इसका सबसे बेहतर प्रयोग बिहारी के दोहों में मिलता है। भाषा की समास क्षमता और भावों की समाहार क्षमता इसकी विशेषता है।

    इस काल की ब्रजभाषा का दूसरा रूप घनानंद जैसे रीतिमुक्त कवियों के काव्य में देखा जा सकता है। इनके यहाँ सहज शिल्प है। इनकी भाषा सुनकर व्यक्ति चमत्कृत नहीं होता बल्कि संवेदना के गहरे स्तर पर पहुँचता है। इनके अलंकार चमत्कृत नहीं करते बल्कि गहरा प्रभाव छोड़ते हैं।

    इस काल में ब्रजभाषा ने यद्यपि चरम विकास प्राप्त किया किंतु यह केवल भक्ति, वात्सल्य तथा श्रृंगार तक सीमित हो गई। यही कारण है कि लोक-रुचि बदलने के साथ ही खड़ी बोली ने इसे अपदस्थ कर दिया।

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