इंदौर शाखा: IAS और MPPSC फाउंडेशन बैच-शुरुआत क्रमशः 6 मई और 13 मई   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    क्या भक्तिकाव्य को लोकजागरण का काव्य कहना उचित है? सुचिंतित विचार प्रस्तुत कीजिये।

    16 Oct, 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    आलोचक रामविलास शर्मा ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतों का संदर्भ देते हुए भक्तिकाव्य को लोकजागरण का काव्य कहा है। संभवत: ब्रह्म के प्रति प्रबल आस्था ने भक्त कवियों को इतना निर्भय बना दिया कि उनका काव्य सामंती अँधेरे को चुनौती देता हुआ लोकजागरण का प्रयास करता है।

    भक्तिकाव्य में लोकजागरण का प्रयास भाषा व भाव दोनों स्तरों पर दिखता है। भक्तिकाव्य ने काव्यभाषा के रूप में संस्कृत को अपदस्थ कर लोक भाषाओं को काव्यभाषा का दर्जा दिलाया। यह लोकजागरण की दृष्टि से आवश्यक भी था क्योंकि लोक की भाषा ही लोकजागरण की भाषा हो सकती है। लोकभाषा के पक्ष में कबीर व तुलसी एक साथ खड़े नज़र आते हैं-

    ‘‘संस्किरत है कूपजल, भाखा बहता नीर।’’-कबीर

    ‘‘का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिये साँच।

    काज जु आवै कामरी, का लै करिअ कुमाच।।’’- तुलसी

    भक्तिकाव्य में भाषा के साथ-साथ कथानक भी लोक से ही लिया गया है। यहाँ तक कि मुस्लिम सूफी कवियों ने भी अपने काव्य के आधार के रूप में पद्मावती व हीरामन तोते जैसी लोक कथाएँ ही लीं ताकि उनका संदेश लोक तक सीधे पहुँच सके।

    सामंती समाज में जहाँ नारी उपभोग की वस्तु मानी जाती है वहाँ नारियों को प्रेम की स्वतंत्रता देना अपने आप में एक लोकजागरण का कार्य है और सूर की गोपियों को यह स्वतंत्रता हासिल है। नारियों के विषय में प्रगतिशील न माने जाने वाले कवि तुलसी भी ‘‘कत विधि सृजी नारि जग मांही, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’’ कहते दिखाई देते हैं।

    भक्ति काव्य ने जाति व्यवस्था के विरुद्ध सशक्त संघर्ष किया है। कबीर ने तो जाति व्यवस्था के विरुद्ध मोर्चा ही खोल दिया। उन्होंने भक्ति के स्तर पर बेहद स्पष्ट कर दिया कि ‘हरि को भजे सो हरि का होई, जाति पांति पूछई नहिं कोई’। तुलसी कई जगह विप्र चरणों की वंदना करने के बाद भी अंतत: प्रभु के गोत्र को ही भक्त का गोत्र बताते हैं- ‘साह ही को गोत गोत होत है गुलाम को’।

    लोकजागरण में बाधक बनने वाले शास्त्रवाद के खिलाफ संत काव्यधारा विशेष रूप से मुखर है। संत कवियों को ‘कागद लेखी’ नहीं ‘आंखन देखी’ पर यकीन है। सूर के यहाँ भी अनपढ़ गोपियाँ शास्त्रज्ञ उद्धव को पराजित कर देती हैं जो शास्त्रवाद पर जाग्रत लोक की विजय को प्रदर्शित करता है।

    भक्त कवि तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था से भी अनजान नहीं हैं और इस व्यवस्था के विरुद्ध लोक के साथ खड़े दिखाई देते हैं। तुलसी का कलियुग-वर्णन आर्थिक, सामाजिक-राजनीतिक प्रत्येक स्तर पर अपने समय की विसंगतियों की पहचान करता है जो लोकजागरण का एक विशिष्ट पहलू है। वह न केवल इस लोक में शासकों के दुराचरण की आलोचना करते हैं बल्कि प्रजा को दुखी रखने वाले राजाओं के लिये परलोक में नर्क के रूप में दंड की व्यवस्था भी करते हैं और ‘रामराज्य’ के रूप में एक आदर्श भी स्थापित करते हैं। भक्तिकाव्य में भक्ति के साथ लोकजागरण की सरिता प्रवाहमान है इसमें कोई संदेह नहीं।

    To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.

    Print
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2