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समलैंगिक विवाह कानूनों में धर्म और नैतिकता

  • 18 Oct 2023
  • 3 min read

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक युगलों के विवाह करने या नागरिक संघ बनाने के अधिकार को मान्यता देने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि मौजूदा कानून विवाह करने के अधिकार या समलैंगिक युगलों के नागरिक संघ में प्रवेश करने के अधिकार को मान्यता नहीं देता है और एक ऐसे कानून का निर्माण- जो इस व्यवस्था को सक्षम बना सके, संसद पर निर्भर करता है।

फिर भी इस निर्णय को समान अधिकारों और विधिक संरक्षण के ढाँचे के भीतर शामिल करना महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे उसकी लैंगिक रुचि कुछ भी हो, विवाह करने और परिवार स्थापित करने का अधिकार है। यह आवश्यक है कि समलैंगिक युगलों को अपने विपरीत-लैंगिक समकक्षों के समान ही विधिक अधिकार और संरक्षण प्राप्त हों। समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से इनकार एक प्रकार के भेदभाव के समान है जो सीधे LBTQIA+ युगलों की गरिमा और क्षमता को प्रभावित करता है।

इसके विपरीत, समलैंगिकता के विरुद्ध विचार रखने वाले व्यक्तियों का तर्क है कि यह प्रथा भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं है बल्कि यह पश्चिमी विचारधाराओं से प्रेरित है। उनका तर्क है कि भले ही इस तरह के विचारों को यूरोपीय और पश्चिमी समाज में बढ़ावा दिया जाता हो लेकिन भारत में इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिये और न ही इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिये। इस दृष्टिकोण के अनुसार, देश में सभी वैवाहिक रीति-रिवाज हमारे चिरकालिक मूल्यों और सामाजिक परंपराओं में गहराई से समाहित हैं।

भारत में समलैंगिक विवाहों को मान्यता देते समय समान अधिकारों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक संरक्षण के सिद्धांतों को संतुलित करने में शामिल नैतिक मुद्दों का परिक्षण कीजिये। इन चुनौतियों से निपटने के लिये आप हैं?

किन उपायों का सुझाव दे सकते हैं

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