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जनजातीय अस्मिता: सांस्कृतिक विरासत से सशक्त भविष्य तक

  • 30 Jun 2025
  • 36 min read

यह एडिटोरियल 26/06/2025 को द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख “Centre’s outreach to tribal people can be starting point for bottom-up development. But it won’t be easy” पर आधारित है। यह लेख PM JANMAN तथा DAJGUA जैसी योजनाओं के माध्यम से एक लाख जनजातीय ग्रामों तक सरकार की पहुँच को रेखांकित करता है, साथ ही 75 विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों (PVTG) के संदर्भ में क्रियान्वयन से जुड़ी निरंतर चुनौतियों को भी उजागर करता है।

प्रिलिम्स के लिये:

धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियान, PM जनमन, विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह, उलगुलान आंदोलन, एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय, वन अधिकार अधिनियम (FRA), वन धन केंद्र

मेन्स के लिये:

भारत की विरासत और विकास को आकार देने में जनजातियों की भूमिका, भारत में जनजातियों से जुड़े प्रमुख मुद्दे। 

जनजातीय कार्य मंत्रालय ने हाल ही में एक लाख जनजातीय गाँवों को लक्षित करते हुए एक महत्त्वाकांक्षी आउटरीच कार्यक्रम शुरू किया है, ताकि जनजातीय कल्याणकारी योजनाओं की डोरस्टेप डिलीवरी सुनिश्चित की जा सके, जिसमें धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियान भी शामिल है। जबकि सरकार ने जनजातीय आबादी, मुख्यतः 75 विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों के लिये विकास संबंधी अंतर को पाटने के लिये कई पहल की हैं, परंतु इनके क्रियान्वयन में अभी भी गंभीर चुनौतियाँ बनी हुई हैं। यह नवीनतम अभियान भारत की जनजातीय आबादी के समक्ष विद्यमान गहराई से जड़ें जमाए हुए मुद्दों को प्रभावी ढंग से समाधान करने के इस प्रयास की एक संभावना भी है और एक कसौटी भी।   

भारत की सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक-आर्थिक प्रगति में जनजातियाँ किस प्रकार योगदान देती हैं?

  • भारत की सभ्यतागत पहचान के सांस्कृतिक प्रहरी: जनजातियाँ अपनी मौखिक परंपराओं, लोक कला, आध्यात्मिक प्रथाओं और पारिस्थितिक विश्वदृष्टिकोण के माध्यम से भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करती हैं। 
    • ये भारत के प्रागैतिहासिक अतीत तथा उसकी बहुलतावादी चेतना से जीवंत रूप में जुड़ी हुई हैं। इनकी विशिष्ट जीवनशैली भारत में परिवर्तन के बीच सांस्कृतिक निरंतरता को दर्शाती है। 
      • भारत सरकार ने जनगणना- 2011 के अनुसार 705 जनजातियों को आधिकारिक रूप से मान्यता दी है, जिनमें प्रत्येक की अपनी अनूठी भाषायी और कलात्मक परंपराएँ हैं।
    • उदाहरण: गोंड (सबसे बड़ी जनजातियों में से एक) विश्व स्तर पर गोंड चित्रकला के लिये जाने जाते हैं, जो प्रकृति और आत्मा के संयोग की प्रतीक मानी जाती है।
  • मूल निवासी और भूमि के प्राकृतिक संरक्षक: जनजातीय समुदाय भारत की भौगोलिक संरचना में निहित हैं, जो प्रायः वनों और पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करते हैं तथा भूमि एवं जन के बीच एक सांस्कृतिक-सभ्यतागत संबंध स्थापित करते हैं।
    • इनकी क्षेत्रीय आत्मीयता स्वदेशी संप्रभुता और प्राकृतिक संरक्षण का बोध कराती है।
    • उदाहरण: गुजरात के डांग लोगों ने वनों के संरक्षण के लिये ब्रिटिशों के प्रवेश का विरोध किया। हसदेव अरण्य में गोंड और उराँव जनजातियाँ उन मूलनिवासी समुदायों में से हैं जो एक दशक से कोयला खनन का विरोध कर रहे हैं।
  • भारतीय इतिहास में प्रतिरोध और स्वशासन के प्रतीक: जनजातीय समुदायों ने बाह्य शासन के विरुद्ध (चाहे वह औपनिवेशिक सत्ता हो या संसाधनों के शोषण की नीतियाँ) निरंतर प्रतिरोध किया है तथा स्वदेशी स्वशासन के मॉडल को सुदृढ़ रूप में प्रस्तुत किया है। उनका यह संघर्ष भारत की औपनिवेशिक-विरोधी चेतना तथा विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया का केंद्रीय आधार रहा है।
    • उदाहरण: बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन ब्रिटिश भू-कानूनों को चुनौती देने वाला था; ‘जनजातीय गौरव दिवस’ इसी आत्मसम्मान की भावना का स्मरण है। भील, कोल तथा संथाल विद्रोहों सहित 80 से अधिक जनजातीय आंदोलनों ने औपनिवेशिक शासन को चुनौती दी।
  • आधुनिक उपभोक्तावाद के लिये नैतिक प्रतिपक्ष: जनजातीय समाज सामूहिकता, अल्प-स्वामित्व और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व जैसे मूल्यों पर आधारित हैं, जो दोहन-आधारित विकास के प्रतिमानों के विरुद्ध एक मज़बूत नैतिक विकल्प प्रस्तुत करते हैं। इनकी जीवनदृष्टि भारत के लिये वैकल्पिक आधुनिकताओं का पथ प्रशस्त करती है।
    • उदाहरण: अरुणाचल प्रदेश के गैलो समुदाय प्रकृति की पूजा करते हैं और पारिस्थितिकीय रूप से संधारणीय जीवन जीते हैं।
  • सामरिक सीमावर्ती क्षेत्रों में राष्ट्रीय एकता के स्तंभ: सुदूर और सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियाँ भारत की क्षेत्रीय अखंडता व सांस्कृतिक एकता को मज़बूत करती हैं। संवेदनशील क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति राष्ट्रीय संप्रभुता की पुष्टि करती है और स्थानीय स्तर पर राष्ट्र के साथ आत्मिक जुड़ाव को बढ़ावा देती है।
    • उदाहरण: कोन्याक नगा जनजाति, जो मुख्य रूप से भारत-म्याँमार सीमा के पास नगालैंड के मोन ज़िले में स्थित है, इस क्षेत्र की स्थिरता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • स्थानीय ज्ञान-परंपराओं के संवाहक: भारत की पारंपरिक औषधीय पद्धतियाँ, कृषि-तकनीकें, पारिस्थितिकीय समझ और लोककथाएँ जनजातीय ज्ञान से पोषित हुई हैं। ये परंपराएँ भारत की बौद्धिक विविधता को समृद्ध करती हैं तथा स्थानीय ज्ञान परंपराओं को आधार प्रदान करती हैं।
    • उदाहरण: ओडिशा के बोंडा जनजाति समुदाय आज भी पारंपरिक औषधियों और अनुष्ठानों से उपचार करते हैं; उनका ज्ञान भारत की जैवविविधता सूचीकरण में उपयोगी है।
  • सामुदायिक सामाजिक मॉडल के निर्माता: जनजातियाँ सामूहिक भूमि स्वामित्व, जन परिषदों द्वारा निर्णय तथा विकेंद्रित नेतृत्व जैसे गुणों के कारण समतामूलक सामाजिक संरचनाओं की प्रतिनिधि हैं। ये भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा के स्वदेशी रूप का प्रतिबिंब हैं।
    • उदाहरण: मेघालय में खासी जनजातियाँ मातृवंशीय उत्तराधिकार और सामुदायिक सहमति का पालन करती हैं। PESA अधिनियम (1996) ने अनुसूचित क्षेत्रों में इस तरह के स्वदेशी शासन को संवैधानिक बना दिया।
  • बहुलवाद और सहिष्णुता के रक्षक: जनजातीय विश्वदृष्टिकोण में आत्मवाद, प्रकृति-पूजा और बहुदेववाद सह-अस्तित्व में रहते हैं, जिससे भारत की सांस्कृतिक समन्वयशीलता को मज़बूती मिलती है। उनका समावेशी धार्मिक दृष्टिकोण भारत की धर्मनिरपेक्षता को आधार देता है।
    • उदाहरण: रबारी जनजाति हिंदू आस्थाओं और आदिवासी आत्मवाद का समन्वित रूप अपनाती है। 

भारत में जनजातियों से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • भूमि वंचना और संसाधन विस्थापन: जनजातियाँ बुनियादी अवसंरचना, खनन और संरक्षण परियोजनाओं के कारण अपनी पैतृक भूमि खो रही हैं और वह भी प्रायः बिना उचित पुनर्वास के। इस पीड़ा को जल, वन और भूमि के पुनः प्राप्त करने की उनकी सदियों पुरानी मांग से समझा जा सकता है।
    • भूमि जनजातीय पहचान, संस्कृति और अस्तित्व के लिये केंद्रीय आधार है। वन अधिकार अधिनियम (FRA) जैसे कानूनी सुरक्षा उपायों को कम लागू किया जाता है और प्रायः उन्हें कमज़ोर कर दिया जाता है। इस प्रकार का विस्थापन खाद्य असुरक्षा, आजीविका का ह्रास तथा सांस्कृतिक उखड़ाव उत्पन्न करता है।
    • नवंबर 2022 तक वन अधिकार अधिनियम (FRA) के अंतर्गत किये गये सभी दावों में से 38% से अधिक दावे अस्वीकार किये जा चुके हैं।
  • PESA अधिनियम का अल्प क्रियान्वयन और कमज़ोर स्थानीय शासन: PESA अधिनियम (1996) के बावजूद, अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं के पास प्राकृतिक संसाधनों और सामाजिक न्याय पर वास्तविक शक्तियों का अभाव है।
    • प्रशासनिक हस्तक्षेप और राज्य की अनिच्छा जनजातीय आत्मशासन को बाधित करती है। अधिकांश राज्यों ने समुदायों को सशक्त बनाए बिना कमज़ोर नियम पारित किये हैं। इसका परिणाम यह होता है कि विकास संबंधी निर्णय जनजातीय मूल्यों और आवश्यकताओं के साथ असंगतता दर्शाते हैं।
    • केवल 10 PESA राज्यों ने नियमों को अधिसूचित किया है, लेकिन वनों, भूमि और बाज़ारों पर सामुदायिक नियंत्रण नाममात्र का ही बना हुआ है। 
  • शैक्षिक पिछड़ापन और सांस्कृतिक विछिन्नता: मूल भाषा में शिक्षा के अभाव, सांस्कृतिक अलगाव और अप्रासंगिक पाठ्यक्रमों के कारण जनजातीय छात्रों के बीच ड्रॉपआउट की दर बहुत अधिक है।
    • जनजातीय क्षेत्रों के स्कूल प्रायः शिक्षकों की अनुपस्थिति और अपर्याप्त बुनियादी अवसंरचना से ग्रस्त रहते हैं।  
      • जनजातीय ज्ञान-पद्धतियों की उपेक्षा की जाती है, जिससे अधिगम बाधित होता है।  
    • एक तिहाई एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय अधूरे भवन निर्माण के कारण बंद पड़े हैं। 
      • सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि एकलव्य स्कूल भी 5% PVTG कोटा से पीछे हैं तथा बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों की दर बढ़ रही है।
  • स्वास्थ्य अभाव और प्रणालीगत अंतराल: जनजातियों को भौगोलिक स्थिति, गरीबी और भेदभाव के कारण अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल पहुँच, कुपोषण व उच्च शिशु मृत्यु दर का सामना करना पड़ता है।
    • सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रम प्रायः जनजातीय क्षेत्रों को अपवर्जित कर देते हैं या अनियमित होते हैं। पारंपरिक उपचार को कम महत्त्व दिया जाता है और राज्य स्वास्थ्य प्रणालियों के प्रति अविश्वास बना रहता है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी वंचना पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है।
    • उदाहरणस्वरूप, गुजरात के धोडिया, डुबला, गामित और नायक जनजातियों में सिकल सेल रोग की व्यापकता पाई गई है।
    • समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (सत्र 2016–2018) के अनुसार, भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 40% जनजातीय बच्चे वृद्धिरोधन (Stunting) से पीड़ित थे, हालाँकि हाल के वर्षों में इसमें कुछ सुधार देखा गया है। 
  • आर्थिक हाशियाकरण और अनौपचारिक निर्भरता: आदिवासी मुख्य रूप से लघु वनोपज और आकस्मिक श्रम पर निर्भर हैं, जिसमें बहुत कम मूल्य संवर्द्धन या वित्तीय लचीलापन है।
    • वे संगठित बाज़ारों और औपचारिक वित्त से वंचित रह जाते हैं। बिचौलियों द्वारा शोषण और मूल्य जागरूकता की कमी से आय की संभावना कम हो जाती है। कई जगहों पर उनका आर्थिक जीवन अभी भी वस्तु विनिमय जैसा है।
    • उदाहरण के लिये, झारखंड में वर्ष 2023 में किये गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि 46% से अधिक आदिवासी परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं और लगभग 50% युवा महिलाएँ और 42% युवा पुरुष स्थानीय अवसरों की कमी के कारण काम की तलाश में पलायन करते हैं।
  • पहचान का क्षरण और सांस्कृतिक विखंडन: मुख्यधारा के दबाव और सांस्कृतिक विखंडन के कारण जनजातीय भाषाएँ, विश्वास प्रणालियाँ और अनुष्ठान लुप्त हो रहे हैं। 
    • बाध्यात्मक समेकन ने आदिवासी विशिष्टताओं को धुँधला कर दिया है। मिशनरी गतिविधि और धार्मिक ध्रुवीकरण ने भी समरूप समूहों को विभाजित कर दिया है। इस सांस्कृतिक अलगाव से गौरव, स्मृति और सामूहिकता का क्षरण होता है।
    • हमारे देश में लगभग 197 भाषाएँ संकटग्रस्त अवस्था में हैं, जो विश्व के किसी भी अन्य देश से अधिक है।  
      • उदाहरण के लिये, पूर्वी भारत की महली भाषा, अरुणाचल प्रदेश की कोरो, गुजरात की सिदी और असम की दिमासा भाषा लुप्त होने के कगार पर हैं।
  • संघर्ष-क्षेत्र में उत्पीड़न और कानूनी अन्याय: उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में, आदिवासियों को राज्य बलों और उग्रवादियों दोनों से मानवाधिकारों के उल्लंघन का सामना करना पड़ता है। आलोचकों का तर्क है कि उनमें से कुछ को गलत तरीके से माओवादी करार दिया जाता है, जिसके कारण उन्हें कानूनी सहायता या पुनर्वास की बहुत कम सुविधा मिलती है। 
    • तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सल हिंसा को 'देश की सबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा चुनौती' बताया था।
    • इस कारण अनेक आदिवासी समुदाय निगरानी और सैन्यीकरण की स्थिति में जीने को विवश हैं, जिससे ऐतिहासिक अलगाव और भी गहरा होता है तथा हिंसा का दुष्चक्र चलता रहता है।
  • जनजातीय उत्पादों का बाज़ार से अलगाव: जनजातीय कारीगरों और उत्पादकों को बाज़ार तक पहुँच की सीमाएँ, ब्रांडिंग की कठिनाइयाँ एवं अनुचित मूल्य-निर्धारण जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
    • सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध होने के बावजूद जनजातीय उत्पादों को प्रायः कम आँका जाता है या शोषणकारी माध्यमों से बेचा जाता है। सरकारी सहायता प्रायः विखंडित और सीमित स्तर पर ही प्रभावी होती है, जिससे वह व्यापक स्तर पर लागू नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप, इन उत्पादों की आर्थिक सम्भावनाएँ अभी भी अप्रयुक्त बनी हुई हैं।
    • इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि वन धन केंद्रों की कुल 3,958 इकाइयों के बावजूद, केवल 11.83 लाख जनजातीय लाभार्थियों तक ही इसका लाभ पहुँच सका है।

भारत में जनजातीय सशक्तीकरण को बढ़ाने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है? 

  • जनजातीय-केंद्रित शासन को क्रियान्वित करना: अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को स्थानीय संसाधनों पर वास्तविक प्रशासनिक, न्यायिक एवं वित्तीय नियंत्रण प्रदान करके उन्हें और अधिक सशक्त बनाने की आवश्यकता है (जिसे हाल ही में पारित वन संरक्षण संशोधन अधिनियम द्वारा कमज़ोर कर दिया गया है)। 
    • उर्ध्वगामी शासन सुनिश्चित करने के लिये जनजातीय संस्थाओं को नियोजन, बजटीय आवंटन और विवाद समाधान शक्तियाँ हस्तांतरित की जानी चाहिये।
    • स्थानीय नेतृत्व के क्षमता निर्माण के माध्यम से जनजातीय स्वायत्तता को संस्थागत बनाया जाना चाहिये। यह बदलाव सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील शासन को सक्षम कर सकता है और प्रशासनिक अलगाव को कम कर सकता है। विकेंद्रीकरण के साथ सख्त अंकेक्षण व्यवस्था और सामाजिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना आवश्यक है, जिससे भ्रष्टाचार पर रोक लगे और पारदर्शिता बनी रहे।
  • शिक्षा और प्रशासन में जनजातीय भाषाओं को संस्थागत बनाना: स्थानीय पाठ्यपुस्तकों, शिक्षक प्रशिक्षण और मातृभाषाओं में डिजिटल कंटेंट के माध्यम से प्रारंभिक कक्षा की शिक्षा में जनजातीय भाषाओं को एकीकृत किया जाना चाहिये।
    • इससे सांस्कृतिक निरंतरता को बढ़ावा मिलता है और अधिगम के परिणाम बेहतर होते हैं। जनजातीय क्षेत्रों में सरकारी संचार और सार्वजनिक सेवाओं में जनजातीय लिपियाँ व बोलियाँ शामिल होनी चाहिये। 
      • भाषा समावेशन को एक संवैधानिक अधिकार के रूप में माना जाना चाहिये, न कि केवल एक सांस्कृतिक पूरक के रूप में।
  • जनजातीय सांस्कृतिक और बौद्धिक संपदा अधिकार कार्यढाँचा स्थापित करना: जनजातीय ज्ञान-पद्धतियों, कला रूपों, बीजों और चिकित्सा पद्धतियों को व्यावसायिक शोषण से बचाने के लिये कानूनी तंत्र बनाए जाने चाहिये। 
    • जनजातीय समुदायों को उनकी बौद्धिक और सांस्कृतिक संपत्ति पर सामूहिक अधिकार धारक के रूप में मान्यता दी जानी चाहिये। इससे सांस्कृतिक वस्तुकरण से सपर्द्धा करने में सहायता मिलती है और बाज़ार में उपयोग से लाभ-साझाकरण सुनिश्चित होता है।
    • पंजीकरण, कानूनी सहायता और प्रवर्तन के लिये एक स्वायत्त जनजातीय विरासत प्राधिकरण का गठन किया जाना चाहिये। पहचान आधारित सशक्तीकरण के लिये अमूर्त विरासत का कानूनी संरक्षण महत्त्वपूर्ण है।
  • जनजातीय-विशिष्ट उद्यमिता और मूल्य शृंखला मॉडल तैयार करना: अनुकूलित कौशल, विकेंद्रीकृत इनक्यूबेशन केंद्रों और जनजातीय सहकारी समितियों के माध्यम से वन-आधारित एवं शिल्प-आधारित सूक्ष्म उद्यमों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। 
    • जनजातीय-केंद्रित मूल्य शृंखलाएँ स्थापित की जानी चाहिये जो पारंपरिक प्रथाओं का सम्मान करते हुए उचित मूल्य और बाज़ार पहुँच सुनिश्चित करें। 
    • ब्रांडिंग, डिज़ाइन समर्थन और ई-कॉमर्स सुविधा को मॉडल में शामिल किया जाना चाहिये।
      • आदिवासी युवाओं को उनकी पारिस्थितिकी वास्तविकताओं के अनुरूप धारणीय उद्यमिता में प्रशिक्षित किया जाना चाहिये। सरकार को ‘आदिवासी उद्यम क्षेत्रों’ को गरिमापूर्ण आर्थिक परिक्षेत्रों के रूप में बढ़ावा देना चाहिये।
  • स्वदेशी और समुदाय-नेतृत्व वाले दृष्टिकोणों के साथ स्वास्थ्य प्रणालियों को पुनः दिशा प्रदान करना: प्रशिक्षण और प्रमाणन के माध्यम से आदिवासी चिकित्सकों को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में एकीकृत करके पारंपरिक एवं आधुनिक चिकित्सा के बीच सेतु का निर्माण किया जाना चाहिये। 
    • जनजातीय लैंगिक मानदंडों और सांस्कृतिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए स्थानीय लोगों द्वारा संचालित मोबाइल स्वास्थ्य इकाइयाँ स्थापित की जानी चाहिये। 
    • स्वास्थ्य प्रणालियों में आदिवासी आहार, मौसमी चक्र और प्राकृतिक उपचार परंपराओं को शामिल किया जाना चाहिये। 
    • सामुदायिक स्वास्थ्य समितियों को स्थानीय वितरण की निगरानी करनी चाहिये और विश्वास-आधारित देखभाल सुनिश्चित करनी चाहिये। जनजातीय स्वास्थ्य को उसके सामाजिक-सांस्कृतिक मैट्रिक्स से अलग नहीं किया जा सकता।
  • विउपनिवेशित पाठ्यक्रम के साथ एक स्वदेशी शिक्षा नीति तैयार करना: जनजातीय-विशिष्ट पाठ्यक्रम विकसित किया जाना चाहिये जिसमें स्वदेशी इतिहास, पारिस्थितिकी, लोककथा और शासन प्रणाली को शामिल किया गया हो। 
    • शिक्षण पद्धति को सामुदायिक संदर्भों के लिये उपयुक्त अनुभवात्मक और मौखिक तरीकों की ओर ले जाना चाहिये। जनजातीय विद्वानों को पाठ्यपुस्तकों के डिज़ाइन और समीक्षा में शामिल किया जाना चाहिये।
    • बच्चों को सांस्कृतिक परिवेश से दूर रखने के लिये आवासीय स्कूली शिक्षा मॉडल में सुधार किया जाना चाहिये। शिक्षा को सशक्तीकरण का साधन बनना चाहिये, न कि आत्मसात करने का।
  • जलवायु-अनुकूल जनजातीय आजीविका मॉडल को संस्थागत बनाना: पुनर्योजी कृषि, समुदाय-आधारित वनरोपण तथा जनजातीय पारिस्थितिकी ज्ञान पर आधारित पारंपरिक जल संचयन प्रथाओं में निवेश किया जाना चाहिये।
    • सामुदायिक वन अधिकारों के माध्यम से कार्बन क्रेडिट बाज़ारों तक पहुँच सुनिश्चित की जानी चाहिये। जनजातीय समूहों के स्वामित्व और रखरखाव वाले विकेंद्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा मॉडल को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
    • जनजातीय लोगों की आजीविका को संवेदनशील निर्वाह से पारिस्थितिक अनुकूलन की ओर स्थानांतरित किया जाना चाहिये। राष्ट्रीय जलवायु अनुकूलन योजनाओं में उन्हें जलवायु संरक्षक के रूप में मान्यता दी जानी चाहिये।
  • जनजातीय क्षेत्रों में सहभागी डिजिटल समावेशन सुनिश्चित करना: दृश्य-श्रव्य, बहुभाषी सामग्री का उपयोग करके सांस्कृतिक रूप से प्रासंगिक डिजिटल साक्षरता कार्यक्रमों के माध्यम से डिजिटल विभाजन को समाप्त किया जाना चाहिये। 
    • टेलीमेडिसिन, ई-लर्निंग और ई-कॉमर्स जैसी सेवाएँ प्रदान करने वाले जनजातीय-संचालित डिजिटल संसाधन केंद्र स्थापित किये जाने चाहिये। 
    • डिजिटल बुनियादी अवसंरचना को ‘संस्कृति के लिये तकनीक’ सिद्धांत का पालन करना चाहिये, न कि ‘संस्कृति पर तकनीक’। जनजातीय डिजिटल अधिकारों को भारत के डिजिटल शासन कार्यढाँचे में एकीकृत किया जाना चाहिये।
  • जनजातीय सामाजिक उत्तरदायित्व तंत्र के माध्यम से निगरानी का विकेंद्रीकरण: स्वायत्त जनजातीय लेखा परीक्षा समूह बनाए जाने चाहिये जो सामाजिक लेखा परीक्षा, शिकायत मानचित्रण और भीड़-स्रोत फीडबैक जैसे भागीदारी उपकरणों का उपयोग करके कल्याणकारी योजनाओं के स्थानीय कार्यान्वयन का आकलन करें। 
    • योजनाओं के सफलता संकेतकों को परिभाषित करने में जनजातीय ज्ञान प्रणालियों को शामिल किया जाना चाहिये। डेटा प्रणालियों को जनजाति-विशिष्ट संदर्भों में परिणामों को अलग-अलग करना चाहिये। 
    • निगरानी को अधोगामी अनुपालन से लेकर उर्ध्वगामी अनुपालन तक स्वामित्व में स्थानांतरित किया जाना चाहिये। सार्वजनिक वित्त को प्रदर्शन-आधारित, समुदाय-प्रमाणित फीडबैक से जोड़ा जाना चाहिये।
  • जनजातीय विश्वदृष्टि के साथ विकास संकेतकों को पुनः परिभाषित करना: परंपरागत विकास संकेतक प्रायः आर्थिक वृद्धि और उत्पादकता से जुड़े होते हैं, जो आदिवासी समाजों की जीवन-दृष्टि और सांस्कृतिक आवश्यकताओं की अनदेखी करते हैं। अतः यह आवश्यक है कि विकास की अवधारणा को आदिवासी जीवन-मूल्यों के अनुरूप पुनर्परिभाषित किया जाये। इसके अंतर्गत वन तक पहुँच, अनुष्ठानिक स्वतंत्रता, खाद्य स्वायत्तता तथा पारिस्थितिक संतुलन जैसे संकेतकों को शामिल किया जाना चाहिये।
    • अनुसूचित क्षेत्रों में SDG स्थानीयकरण में इन्हें एकीकृत किया जाना चाहिये। विकास मॉडल में सांस्कृतिक संपदा और पारिस्थितिक संतुलन को ध्यान में रखना चाहिये। 
    • कल्याण के वैकल्पिक उपायों का अभिनिर्धारण करना संदर्भगत प्रासंगिकता सुनिश्चित करता है। सम्मानजनक नीति-निर्माण के लिये यह ज्ञान-मीमांसीय बदलाव आवश्यक है।

भारत में जनजातीय कल्याण के लिये ज़ाक्सा समिति की सिफारिशें (Xaxa Committee Recommendations): 

  • वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के कार्यान्वयन को सुदृढ़ किया जाना चाहिये और विकास परियोजनाओं के कारण होने वाले विस्थापन से सुरक्षा की जानी चाहिये। भूमि अधिग्रहण के लिये आदिवासी समुदायों की पूर्व सूचित सहमति सुनिश्चित की जानी चाहिये।
  • प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिये, अधिक संख्या में जनजातीय शिक्षकों की भर्ती की जानी चाहिये तथा बेहतर बुनियादी अवसंरचना और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील विषय-वस्तु के साथ बस्तियों के निकट आवासीय विद्यालय स्थापित किये जाने चाहिये।
  • मोबाइल क्लीनिकों, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं और पारंपरिक जनजातीय चिकित्सा पद्धतियों को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ एकीकृत करके जनजातीय क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। 
  • वन उपज बाज़ारों तक पहुँच में सुधार, कृषि वानिकी को बढ़ावा देने तथा जनजातीय आवश्यकताओं के अनुरूप ऋण और कौशल विकास योजनाओं का विस्तार करके जनजातीय आजीविका का समर्थन किया जाना चाहिये।
  • योजनाओं की निगरानी करने, पृथक् आँकड़े एकत्र करने तथा सुधार की सिफारिश करने के लिये जनजातीय विकास पर एक समर्पित राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की जानी चाहिये।

जनजातीय कल्याण पर अन्य प्रमुख समितियाँ: 

  • एल्विन समिति (वर्ष 1959): जनजातीय विकास खंडों का मूल्यांकन किया गया और सांस्कृतिक संरक्षण की मांग की गई।
  • ढेबर आयोग (वर्ष 1960): इसने जनजातीय क्षेत्रों में भूमि हस्तांतरण के मुद्दे को स्वीकार किया, जहाँ जनजातीय आबादी विकास परियोजनाओं के लिये सरकारी अधिग्रहण सहित विभिन्न कारकों के कारण अपनी पैतृक भूमि खो रही थी।
    • इसमें संविधान की 5वीं अनुसूची के अंतर्गत किसी क्षेत्र को 'अनुसूचित क्षेत्र' के रूप में नामित करने के लिये विशिष्ट मानदंड भी रेखांकित किये गए।
  • लोकुर समिति (वर्ष 1965): बेहतर समावेशिता के लिये अनुसूचित जनजातियों का अभिनिर्धारण करने हेतु पाँच मानदंड प्रस्तावित किये गये।
    • इन मानदंडों में आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े समुदाय के साथ संपर्क में संकोच और पिछड़ापन शामिल हैं।
  • भूरिया समिति (वर्ष 1991): लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की सिफारिश की गई, जिसके परिणामस्वरूप PESA अधिनियम बना।
  • मुंगेकर समिति (वर्ष 2005): जनजातीय क्षेत्रों में शासन संबंधी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
  • बंदोपाध्याय समिति (वर्ष 2006): वामपंथी उग्रवाद प्रभावित जनजातीय क्षेत्रों में विकास पर ध्यान दिया गया।

निष्कर्ष: 

"हमारी प्रगति की कसौटी यह नहीं है कि हम उन लोगों की समृद्धि में और कितनी वृद्धि करते हैं जिनके पास पहले से बहुत कुछ है, बल्कि यह है कि हम उन लोगों के लिये पर्याप्त व्यवस्था कर पाते हैं या नहीं जिनके पास बहुत कम है !" — फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट का यह कथन भारत की जनजातीय समुदायों की पृष्ठभूमि में अत्यंत प्रासंगिक है। ये समुदाय कोई हाशिये पर खड़े समूह नहीं हैं जिन्हें मुख्यधारा में लाने के लिये केवल आत्मसात करने की नीति अपनायी जाये, बल्कि ये तो राष्ट्र की सांस्कृतिक, पारिस्थितिक और नैतिक आधारशिला के मुख्य वास्तुकार हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. "अनेक नीतिगत हस्तक्षेपों के बावजूद, भारत में जनजातीय सशक्तीकरण मान्यता, प्रतिनिधित्व और स्वायत्तता में संरचनात्मक अंतराल के कारण बाधित है।" विवेचना कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2013)  

    जनजाति

राज्य

1. लिम्बू

सिक्किम

2. कार्बी

हिमाचल प्रदेश

3. डोंगरिया कोंध

ओडिशा

4. बोंडा

तमिलनाडु

उपर्युक्त युग्मों में से कौन-से सही सुमेलित हैं?

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2 और 4
(c) केवल 1, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4  

उत्तर: (a) 


प्रश्न 2. भारत में विशिष्टत: असुरक्षित जनजातीय समूहों पर्टिकुलरली वल्नरेबल ट्राइबल ग्रुप्स (PVTGs)] के बारे में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. PVTGs देश के 18 राज्यों तथा एक संघ राज्यक्षेत्र में निवास करते हैं।
  2. स्थिर या कम होती जनसंख्या, PVTG स्थिति के निर्धारण के मानदंडों में से एक है।
  3. देश में अब तक 95 PVTGs आधिकारिक रूप से अधिसूचित  हैं।
  4. PVTGs की सूची में ईरूलार और कोंडा रेड्डी जनजातियाँ शामिल की गई हैं।

उपर्युक्त में से कौन-से कथन सही हैं?

(a) 1, 2 और 3
(b) 2, 3 और 4
(c) 1, 2 और 4
(d) 1, 3 और 4  

उत्तर: (c) 


प्रश्न 3. अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के अधीन, व्यक्तिगत या सामुदायिक वन अधिकारों अथवा दोनों की प्रकृति एवं विस्तार के निर्धारण की प्रक्रिया को प्रारंभ करने के लिये कौन प्राधिकारी होगा?   (2013) 

(a) राज्य वन विभाग
(b) ज़िला कलक्टर/उपायुक्त
(c) तहसीलदार/खण्ड विकास अधिकारी/मण्डल राजस्व अधिकारी
(d) ग्राम सभा 

उत्तर: (d)

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