सामाजिक न्याय
दिव्यांगजनों के लिये सम्मान और समानता का भविष्य
- 13 Sep 2025
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यह एडिटोरियल 12/09/2025 को द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित “Humour targeted at disabled reveal a troubling mindset” लेख पर आधारित है। यह लेख मीडिया एवं समाज में दिव्यांगजनों के सूक्ष्म बहिष्कार को उजागर करता है और हमें स्मरण कराता है कि दिव्यांग जनों का वास्तविक सशक्तीकरण प्रामाणिक प्रतिनिधित्व, समावेशी नीतियों तथा दिव्यांगता को मानव-विविधता के एक स्वाभाविक एवं महत्त्वपूर्ण रूप में स्वीकार करने में निहित है।
प्रिलिम्स के लिये: अनुच्छेद 15 और 21, दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016, दिव्यांगजन अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, पीएम-दक्ष योजना, यूनीक डिसेबिलिटी आईडी स्कीम, दिव्य कला मेला, यूनेस्को, दिव्यांगजनों की शिक्षा के लिये विशेष मान्यता प्राप्त संस्थान
मेन्स के लिये: दिव्यांगजनों के समावेशन और सशक्तीकरण में भारत द्वारा की गई प्रमुख प्रगति, भारत में दिव्यांगजनों के समावेशन और सशक्तीकरण में प्रमुख बाधाएँ
हाल की सोशल मीडिया और मनोरंजन उद्योग की घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि दिव्यांगजन अब भी सूक्ष्म प्रकार के बहिष्करण का सामना करते हैं—कभी सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उपेक्षित होकर तो कभी हास्य का विषय बनाकर प्रस्तुत किये जाने के माध्यम से। निपुण मल्होत्रा बनाम सोनी पिक्चर्स फिल्म्स (2024) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्मरण कराया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है, परंतु यह संविधान के अनुच्छेद 15 और 21 में निहित गरिमा एवं समानता के मूल्यों के अनुरूप ही प्रयोग की जानी चाहिये। दिव्यांगजनों के अधिकार अधिनियम, 2016 भी इन संरक्षणों को विधिक आधार प्रदान करता है तथा सम्मान और समावेशन के सिद्धांतों की पुष्टि करता है। वास्तविक सशक्तीकरण तभी संभव है जब इन बाधाओं को दूर किया जाए, दिव्यांगजनों को सही और सम्मानजनक प्रतिनिधित्व मिले, नीतियाँ समावेशी हों तथा समाज की सोच में यह बदलाव आए कि दिव्यांगता कोई कमी नहीं, बल्कि मानवीय विविधता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
दिव्यांगजनों के समावेशन और सशक्तीकरण में भारत ने क्या प्रमुख प्रगति की है?
- प्रगतिशील कानूनी ढाँचा और अधिकार-आधारित दृष्टिकोण: दिव्यांगजन अधिकार (RPWD) अधिनियम, 2016, पहले के दिव्यांगजन अधिनियम, 1995 में विस्तार के साथ एक आदर्श बदलाव का प्रतीक है।
- इस नए कानून ने मान्यता प्राप्त दिव्यांगजनों की संख्या को 7 से बढ़ाकर 21 कर दिया है, जो कि दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCRPD) के अनुरूप है।
- इसमें सरकारी नौकरियों में 4% तथा उच्च शिक्षा संस्थानों में 5% आरक्षण का प्रावधान किया गया है, जिससे दिव्यांगजनों के समानता, सम्मान एवं गैर-भेदभाव के अधिकार को मज़बूती मिलेगी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने भी इन अधिकारों को सक्रियता से बरकरार रखा है, जैसा कि हाल ही में वर्ष 2025 के फैसले में देखा गया है, जिसमें न्यायिक सेवाओं से दृष्टिबाधित उम्मीदवारों को बाहर करने के खिलाफ फैसला सुनाया गया था।
- समावेशी अवसंरचना और गतिशीलता: वर्ष 2015 में शुरू किया गया सुगम्य भारत अभियान दिव्यांगजनों के लिये बाधा-मुक्त वातावरण बनाने की एक प्रमुख राष्ट्रीय पहल है।
- यह तीन प्रमुख क्षेत्रों निर्मित पर्यावरण, परिवहन और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी), में सुगम्यता को लक्षित करता है।
- इस अभियान के कारण सरकारी भवनों और सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2022 तक, 2016-2017 में पहुँच ऑडिट के दौरान पहचाने गए लगभग आधे राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों के सरकारी भवनों को सुगम्य बना दिया गया है।
- आर्थिक सशक्तीकरण और कौशल विकास: सरकार ने दिव्यांगजनों की आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिये कई लक्षित योजनाएँ शुरू की हैं।
- प्रधानमंत्री-दक्ष योजना और दिव्यांगजनों के कौशल विकास के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं प्लेसमेंट सहायता प्रदान करती हैं।
- सहायक उपकरणों की खरीद/फिटिंग के लिये दिव्यांगजनों को सहायता (ADIP) योजना सहायक उपकरणों हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
- राष्ट्रीय दिव्यांगजन वित्त एवं विकास निगम दिव्यांगजन उद्यमियों को रियायती दरों पर ऋण प्रदान करता है।
- तकनीकी और डिजिटल समावेशन: कमियों को कम करने में तकनीक की शक्ति को पहचानते हुए, भारत व्यापक डिजिटल समावेशन पर ज़ोर दे रहा है। सरकार की ई-गवर्नेंस पहल अब वेब सुलभता को प्राथमिकता दे रही है, कई सार्वजनिक वेबसाइटें वेब सामग्री सुलभता दिशा-निर्देशों (WCAG) का पालन कर रही हैं।
- अद्वितीय दिव्यांगता पहचान-पत्र (यूडीआईडी) परियोजना एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जो दिव्यांगजनों का एक राष्ट्रव्यापी डेटाबेस तैयार करेगी तथा एक स्मार्ट कार्ड उपलब्ध कराएगी, जो दिव्यांगता के प्रमाण के रूप में कार्य करेगा।
- आर्थिक सशक्तीकरण और कौशल विकास: सरकार ने दिव्यांगजनों की आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिये कई लक्षित योजनाएँ शुरू की हैं।
- शैक्षिक समावेशन और छात्रवृत्ति योजनाएँ: नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 समावेशी शिक्षा पर ज़ोर देती है, जो दिव्यांग छात्रों के लिये अधिकार-आधारित ढाँचे को बढ़ावा देती है।
- सरकार ने प्री-मैट्रिकुलेशन से लेकर पोस्ट-ग्रेजुएशन तक दिव्यांग छात्रों को सहायता देने के लिये कई छात्रवृत्ति योजनाएँ शुरू की हैं।
- दिव्यांगजनों के लिये राष्ट्रीय छात्रवृत्ति ने हज़ारों छात्रों को सहायता प्रदान की है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य दिव्यांगजनों में ऐतिहासिक रूप से कम रही साक्षरता दर और शिक्षा में नामांकन की दर को बढ़ाना है।
- जागरूकता और समावेशी आख्यानों को बढ़ावा देना: कानूनी सुधारों के अलावा, सामाजिक दृष्टिकोण को दान-आधारित से अधिकार-आधारित परिप्रेक्ष्य में बदलने के लिये सचेत प्रयास किया जा रहा है।
- वार्षिक ‘दिव्य कला मेला’ जैसी पहल दिव्यांगजनों की कलात्मक और उद्यमशील प्रतिभा को प्रदर्शित करती है, रूढ़िवादिता को चुनौती देती है तथा उनमें गौरव एवं सम्मान की भावना को बढ़ावा देती है।
- सरकार द्वारा ‘दिव्यांगजन’ शब्द का प्रयोग, दिव्यांगता को एक सीमा की बजाय एक अद्वितीय क्षमता के रूप में पुनः परिभाषित करने के व्यापक बदलाव का हिस्सा है।
- पैरालंपिक जैसे वैश्विक मंच पर भारतीय पैरा-एथलीटों की बढ़ती सफलता इस सकारात्मक कहानी को और बढ़ाती है।
- विकेंद्रीकृत एवं समन्वित शासन: वर्ष 2012 में दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग (DEPwD) की स्थापना ने दिव्यांगजनों से संबंधित मुद्दों पर समर्पित और संगठित संस्थागत ध्यान सुनिश्चित किया।
- यह विभाग भारतीय पुनर्वास परिषद और विभिन्न राष्ट्रीय संस्थानों के साथ मिलकर नीति कार्यान्वयन में समन्वय स्थापित करने तथा देश भर में पुनर्वास सेवाएँ प्रदान करने का कार्य करता है।
- कई ज़िलों में ज़िला दिव्यांगता पुनर्वास केंद्रों (DDRCs) की स्थापना से ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगजनों को आवश्यक सेवाएँ उनके निकट ही उपलब्ध होने लगीं। इसके परिणामस्वरूप पेशेवर मार्गदर्शन, पुनर्वास सेवाओं और सहायक उपकरणों तक उनकी पहुँच में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।
भारत में दिव्यांगजनों के समावेशन और सशक्तीकरण में कौन-सी महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं?
- दुर्गम अवसंरचना और बढ़ता डिजिटल विभाजन: दुर्गम अवसंरचना और बढ़ते डिजिटल विभाजन के कारण, सुगम्य भारत अभियान जैसे नीतिगत प्रयासों के बावजूद शहरी डिज़ाइन एवं परिवहन प्रणालियाँ अब भी बहिष्कारवादी बनी हुई हैं। यह स्थिति एक गहराई से जमे हुए 'वास्तुशिल्प रंगभेद' की ओर संकेत करती है, जहाँ दिव्यांगजन अब भी मूलभूत सेवाओं और अवसरों से वंचित रह जाते हैं।
- अधिकांश सरकारी कार्यालयों, स्कूलों और कार्यस्थलों में रैम्प, स्पर्शनीय पथ या सुलभ शौचालयों का अभाव है, जिससे दैनिक आवागमन एक संघर्ष बन जाता है।
- डिजिटल मोर्चे पर, सुगम्यता मानकों का अनुपालन न करने के कारण दिव्यांगजन ई-गवर्नेंस, बैंकिंग और टेलीहेल्थ प्लेटफॉर्मों से वंचित रह जाते हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत दिव्यांगजनों के लिये डिजिटल पहुँच को मौलिक अधिकार माना है, लेकिन इसका कार्यान्वयन असंगत बना हुआ है।
- फरवरी 2025 में, दिव्यांगजनों के लिये मुख्य आयुक्त (CCPD) न्यायालय ने डिजिटल सुलभता मानकों का पालन न करने के लिये 155 निजी और सरकारी संगठनों को दंडित किया।
- यह दोहरा बहिष्कार, भौतिक और डिजिटल, स्वतंत्र जीवन को सीमित करता है तथा संरचनात्मक असमानताओं को बढ़ाता है।
- समावेशी शिक्षा में कमियाँ: शिक्षा प्रणाली वास्तव में समावेशी होने की बजाय बड़े पैमाने पर एकीकरणवादी बनी हुई है तथा प्रायः दिव्यांगजनों को उपेक्षित माना जाता है।
- विशेष शिक्षकों, सहायक प्रौद्योगिकियों और समावेशी शिक्षण पद्धतियों की कमी प्रभावी शिक्षण परिणामों को सीमित करती है।
- दुर्गम स्कूल अवसंरचना एवं कठोर मूल्यांकन पद्धति दिव्यांगजन बच्चों को और अधिक हाशिये पर धकेलती है।
- इसका परिणाम निम्न नामांकन, उच्च ड्रॉपआउट दर और बहिष्करण का अंतर-पीढ़ी चक्र है।
- भारत में 5 वर्ष की आयु के तीन-चौथाई दिव्यांग बच्चे और 5-19 वर्ष की आयु के एक-चौथाई दिव्यांग बच्चे किसी भी शैक्षणिक संस्थान में नहीं गए। (यूनेस्को रिपोर्ट 2019)
- यह शैक्षिक अंतर रोज़गार क्षमता में कमी लाता है तथा आर्थिक असुरक्षा को बढ़ाता है।
- रोज़गार अपवर्जन और कार्यस्थल भेदभाव: दिव्यांगजन अधिनियम के तहत वैधानिक आरक्षण के बावजूद, कार्यान्वयन संबंधी बाधाएँ और मनोवृत्तिगत पूर्वाग्रह दिव्यांगजनों को सार्थक रोज़गार से वंचित रखते हैं।
- निजी क्षेत्र में नियुक्तियाँ प्रतीकात्मक बनी हुई हैं तथा कार्यस्थल पर उचित व्यवस्था या अनुकूल भूमिकाओं पर सीमित ध्यान दिया जा रहा है।
- कौशल विकास पारिस्थितिकी तंत्र, सुलभ नौकरी पोर्टल एवं नियोक्ता संवेदनशीलता का अभाव इस चुनौती को और बढ़ा देता है।
- सरकारी आँकड़े बताते हैं कि 2.6 करोड़ दिव्यांगजनों में से केवल 36% ही रोज़गार प्राप्त कर रहे हैं। इनमें से, पुरुषों के रोज़गार प्राप्त करने की संभावना महिलाओं की तुलना में ज़्यादा है, जहाँ 47% पुरुषों को नौकरी मिलती है, जबकि महिलाओं के लिये यह आँकड़ा 23% है।
- परिणामस्वरूप, दिव्यांगजन अनौपचारिक क्षेत्र में अत्यधिक प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें ऊपर की ओर बढ़ने की सुविधा तथा आर्थिक सम्मान से वंचित रखा जाता है।
- स्वास्थ्य देखभाल की अनुपलब्धता और उपेक्षा: दिव्यांगजनों के लिये स्वास्थ्य देखभाल सेवाएँ प्रणालीगत उपेक्षा और विशेष देखभाल के अभाव से ग्रस्त हैं।
- एक हालिया सर्वेक्षण में पाया गया है कि भारत में 80% से ज़्यादा दिव्यांगजन स्वास्थ्य बीमा के बिना रह गए हैं, जबकि 53.2% दिव्यांगजन के आवेदन बार-बार अस्वीकार किये जाने के कारण वे बीमा कवरेज प्राप्त करने में असमर्थ हैं।
- इसके अलावा, अस्पतालों में सांकेतिक भाषा या पुनर्वास चिकित्सा जैसी विविध आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी है।
- निवारक और पुनर्वास देखभाल अभी भी अविकसित है, जिसके कारण द्वितीयक स्थितियाँ अनुपचारित रहती हैं।
- महामारी ने इन खामियों को उजागर किया है, जहाँ दिव्यांगजनों को डिजिटल टेलीहेल्थ, आपातकालीन प्रतिक्रियाओं और टीकाकरण अभियानों से वंचित रखा गया। चिकित्सा के क्षेत्र में यह हाशिये पर धकेला जाना जीवन की गुणवत्ता और अस्तित्व, दोनों को कमज़ोर करता है।
- नीति-अंतराल और कमज़ोर शासन: भारत में RPWD अधिनियम 2016 जैसे प्रगतिशील कानून होने के बावजूद, उनका प्रभावी क्रियान्वयन बाधित रहता है। कमज़ोर शासन-व्यवस्था, अपर्याप्त निगरानी एवं जवाबदेही की कमी इस प्रक्रिया को और अधिक जटिल बना देती है।
- कई राज्यों में सलाहकार बोर्ड, सुगम्यता ऑडिट और शिकायत निवारण तंत्र या तो अनुपस्थित हैं या निष्क्रिय हैं।
- दिव्यांगजन के मुद्दों को प्रायः कल्याण विभागों के अंतर्गत रखा जाता है, जिससे शिक्षा, श्रम और शहरी विकास के साथ अंतर-क्षेत्रीय समन्वय कम हो जाता है।
- वर्ष 2024 में सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि कई राज्य आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के प्रमुख प्रावधानों, जैसे राज्य आयुक्तों की नियुक्ति, को लागू करने में विफल रहे हैं।
- परिणामस्वरूप, कानूनी अधिकारों के ज़मीनी प्रभाव के बिना ‘कागज़ी अधिकार’ बने रहने का खतरा है, जिससे संस्थाओं में विश्वास कम हो रहा है।
- आँकड़ों की कमी और सूचना के अस्पष्ट क्षेत्र: दिव्यांगजन से संबंधित सटीक आँकड़े दुर्लभ, पुराने और विभिन्न स्रोतों में बिखरे हुए हैं। सीमित परिभाषाओं वाली 2011 की जनगणना पर निर्भरता, दिव्यांग जनसंख्या का गंभीररूप से कम आकलन करती है।
- प्रकार, लिंग और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर वास्तविक समय (Real-time) में अलग-अलग आँकड़ों की अनुपस्थिति लक्षित हस्तक्षेपों में बाधा डालती है।
- भारत के 50% से भी कम दिव्यांगजनों के पास यूनिक डिसएबिलिटी आईडी (UDID) कार्ड है, जिसके कारण उन्हें सरकारी लाभों तक पहुँचने में कठिनाई होती है। इसका कारण देरी और डिजिटल साक्षरता की कमी है।
- मज़बूत साक्ष्य के अभाव में नीति-निर्माता बजट नियोजन, योजनाओं के क्रियान्वयन और प्रभाव की निगरानी में गंभीर अंध बिंदुओं का सामना करते हैं।
- डेटा स्तर पर अदृश्यता, विकास की चर्चा में भी अदृश्यता का कारण बन जाती है।
- गहरी जड़ें जमाए सामाजिक और रोज़मर्रा का भेदभाव: समाज में दिव्यांगजनों को अब भी दान और आश्रितता की दृष्टि से देखा जाता है, जिससे उनके अधिकारों एवं स्वायत्तता की उपेक्षा होती है।
- यह भेदभाव प्रायः परिवार स्तर से ही शुरू हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा में निवेश की कमी और आंतरिक बहिष्करण सामने आते हैं।
- सार्वजनिक स्थानों पर भेदभाव के कारण सामाजिक भागीदारी सीमित हो जाती है तथा सांस्कृतिक संवाद में अदृश्यता आ जाती है।
- यह ‘अन्यीकरण’ बहिष्कार के चक्र को जारी रखता है, जहाँ दिव्यांगजनों को समाज के योगदानकर्त्ता के रूप में नहीं, बल्कि बोझ के रूप में देखा जाता है। इसे तोड़ने के लिये दृष्टिकोण में बदलाव और मूल्य पुनर्संरचना की आवश्यकता है।
दिव्यांगजनों के लिये अधिक समावेशी और सशक्त भविष्य के निर्माण हेतु भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- अवसंरचना और प्रौद्योगिकी में सार्वभौमिक डिज़ाइन: सभी नए सार्वजनिक अवसंरचना, आवास और गतिशील प्रणालियों में सार्वभौमिक डिज़ाइन सिद्धांतों को लागू करने के लिये केवल सांकेतिक पहुँच से आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
- शहरी नियोजन संहिताओं, स्मार्ट सिटी परियोजनाओं और डिजिटल प्लेटफॉर्मों में सुगम्यता मानकों को रेट्रोफिटिंग की बजाय ब्लूप्रिंट स्टेज से ही एकीकृत किया जाना चाहिये।
- नवाचार केंद्रों के माध्यम से सहायक प्रौद्योगिकियों, आवाज़-सक्षम सेवाओं और समावेशी फिनटेक उपकरणों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- इस तरह का एकीकरण सुलभता को कल्याणकारी पूरक की बजाय मुख्यधारा की विकास प्राथमिकता के रूप में सामान्य बनाता है।
- वाराणसी की ‘सुगम्य काशी’ परिकल्पना सही दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- समावेशी शिक्षा तंत्र: कक्षाओं में केवल एकीकरण पर नहीं, बल्कि वास्तविक समावेशन पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये। इसके लिये सुलभ पाठ्यक्रम, विभिन्न प्रारूपों में उपलब्ध शिक्षण-सामग्री और दिव्यांगता-संवेदनशील शिक्षाशास्त्र में प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता है।
- प्रत्येक ज़िले में संसाधन केंद्र स्थापित करना, ताकि मुख्यधारा के स्कूलों को सहायक उपकरण और विशेष शिक्षक उपलब्ध कराए जा सकें।
- डिजिटल शिक्षा प्लेटफॉर्म में समावेशी प्रथाओं को शामिल करना आवश्यक है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हाइब्रिड लर्निंग मॉडल में कोई भी बच्चा पीछे न छूटे। इस प्रकार की पहलें प्रारंभिक अवस्था से ही बच्चों में गरिमा, आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता की भावना को पोषित करती हैं।
- दिव्यांगजनों की शिक्षा के लिये विशेष मान्यता प्राप्त संस्थान सही दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- समतामूलक रोज़गार और कार्यस्थल परिवर्तन: सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्र के संस्थानों के लिये समावेशी भर्ती ऑडिट को अनिवार्य बनाया जाना चाहिये, प्रोत्साहन एवं कर लाभों को विविधता परिणामों से जोड़ना चाहिये।
- हरित ऊर्जा, डिजिटल अर्थव्यवस्था और दिव्यांगजनों की क्षमताओं के अनुरूप रचनात्मक उद्योगों जैसे उभरते क्षेत्रों में समर्पित कौशल पाइपलाइनों का निर्माण कराया जाना चाहिये।
- उचित समायोजन और अनुकूल कार्य मॉडल लागू किया जाना चाहिये, विशेषकर दूरस्थ एवं गिग-आधारित कार्यों में। ऐसे प्रणालीगत सुधार रोज़गार क्षमता को दीर्घकालिक आर्थिक सशक्तीकरण में बदल देते हैं।
- स्वास्थ्य एवं पुनर्वास निरंतरता: स्वास्थ्य एवं पुनर्वास की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, टेलीमेडिसिन सेवाओं और बीमा योजनाओं में दिव्यांगता-समावेशी प्रोटोकॉल को शामिल करते हुए स्वास्थ्य सेवाओं के वितरण को पुनः डिज़ाइन किया जाना चाहिये।
- फिज़ियोथेरेपी, मानसिक स्वास्थ्य, कृत्रिम अंग (Prosthetics) और समुदाय-आधारित देखभाल को समाहित करने वाला एक मज़बूत राष्ट्रीय पुनर्वास नेटवर्क विकसित किया जाना चाहिये, जिससे दिव्यांगजनों को व्यापक एवं सतत् सहयोग मिल सके।
- सेवा वितरण में गरिमा और सम्मान सुनिश्चित करने के लिये चिकित्सा एवं स्वास्थ्यकर्मियों को दिव्यांगता-संवेदनशील प्रशिक्षण प्रदान किया जाना आवश्यक है।
- निवारक और पुनर्वास देखभाल में निवेश न केवल जीवन रक्षा सुनिश्चित करता है, बल्कि जीवन की गुणवत्ता एवं स्वायत्तता भी सुनिश्चित करता है।
- सामाजिक दृष्टिकोण परिवर्तन: सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिये आवश्यक है कि दिव्यांगता से संबंधित चर्चा को जनसंचार माध्यमों, लोकप्रिय संस्कृति और नागरिक अभियानों की मुख्यधारा में स्थान दिया जाए। साथ ही, दान और आश्रितता पर आधारित कहानियों के स्थान पर सशक्तीकरण, अधिकारों एवं उपलब्धियों पर केंद्रित कहानियों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- स्कूल नागरिक शास्त्र और कॉर्पोरेट संवेदीकरण कार्यक्रमों में दिव्यांगता अधिकार शिक्षा को एकीकृत किया जाना चाहिये। स्थानीय सामुदायिक पहलों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, जो दिव्यांगजनों को नेतृत्वकर्त्ता, उद्यमी और नवप्रवर्तक के रूप में प्रदर्शित करती हों।
- यह दृष्टिकोणगत बदलाव उन्हें ‘देखभाल के प्राप्तकर्त्ता’ से समाज की विकास गाथा में समान हितधारकों में बदल देता है।
- शासन और नीतिगत जवाबदेही: विभिन्न क्षेत्रों में समन्वय के लिये दिव्यांगता समावेशन पर एक एकीकृत मिशन की स्थापना करके खंडित कल्याणकारी योजनाओं से आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
- समयबद्ध कार्यान्वयन ऑडिट, वास्तविक काल पर शिकायत निवारण तथा दिव्यांगजन समूहों द्वारा स्वयं संचालित सामाजिक ऑडिट सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
- बजट उपयोग और परिणामों में पारदर्शिता के लिये डिजिटल डैशबोर्ड एवं ओपन डेटा पोर्टल का प्रयोग किया जाना चाहिये। मज़बूत शासन विधायी मंशा को ज़मीनी स्तर पर ठोस बदलाव में परिवर्तित कर देता है।
- नीतिगत सटीकता के लिये डेटा और नवाचार: नीतिगत सटीकता सुनिश्चित करने के लिये विस्तृत, पृथक और निरंतर अद्यतन डेटा पर आधारित एक गतिशील राष्ट्रीय दिव्यांगता रजिस्ट्री स्थापित की जानी चाहिये। साथ ही, पहुँच और सेवा वितरण में कमियों की पहचान करने हेतु AI-ड्रिवेन एनालिसिस तथा GIS मैपिंग जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाना आवश्यक है।
- विविध आवश्यकताओं के अनुरूप नवीन सहायक तकनीकों के लिये स्टार्टअप्स के साथ साझेदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। डेटा-समर्थित शासन सुनिश्चित करता है कि संसाधन लक्षित, समावेशी और मापनीय हों।
- सामुदायिक सशक्तीकरण और विकेंद्रीकरण: सामुदायिक सशक्तीकरण और विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक है कि दिव्यांगजनों के नेतृत्व में स्वयं सहायता समूहों, सहकारी समितियों और महासंघों को संस्थागत रूप दिया जाए। साथ ही, उन्हें स्थानीय शासन और विकास योजनाओं में प्रभावी भागीदारी एवं निर्णय लेने को समर्थन दिया जाना चाहिये।
- सामुदायिक शक्तियों पर आधारित सूक्ष्म वित्त, उद्यमिता अनुदान और विकेंद्रीकृत आजीविका मॉडल को बढ़ावा देना चाहिये।
- निर्णय लेने वाले मंचों में दिव्यांगजनों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये पंचायती राज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकायों को सुदृढ़ बनाया जाना चाहिये। सशक्त समुदाय न केवल निर्भरता को कम करते हैं, बल्कि अनुकूल समावेशन पर आधारित स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण भी करते हैं।
निष्कर्ष:
भारत ने दिव्यांगजनों के समावेशन की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है, किंतु अवसंरचना, शिक्षा, रोज़गार और सामाजिक दृष्टिकोण में अब भी अनेक बाधाएँ विद्यमान हैं। दिव्यांगजनों का वास्तविक सशक्त भविष्य सशक्तीकरण के 4 ‘E’ — Equity (समता), Enablement (सक्षमता), Engagement (सहभागिता) और Employment (रोज़गार) पर आधारित है। जब इन सिद्धांतों को नीति और व्यवहार, दोनों में समाहित किया जाएगा, तभी भारत कल्याण-आधारित दृष्टिकोण से अधिकार-आधारित समावेशन की ओर अग्रसर हो सकेगा। इस प्रकार का परिवर्तन यह सुनिश्चित करेगा कि दिव्यांगजन न केवल सहायता प्राप्त करें, बल्कि राष्ट्र की विकास यात्रा में सक्रिय और समान भागीदारी भी निभाएँ।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. “प्रगतिशील कानून के बावजूद, भारत में दिव्यांगजनों को अधिकारों और अवसरों तक अभिगम्यता प्राप्त करने में प्रणालीगत बाधाओं का सामना करना पड़ता है”। समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रश्न 1. भारत में लाखों दिव्यांगजन निवास करते हैं। कानून के तहत उन्हें क्या लाभ उपलब्ध हैं? (2011)
- सरकारी स्कूलों में 18 वर्ष की आयु तक निशुल्क शिक्षा।
- व्यवसाय स्थापित करने के लिये भूमि का अधिमान्य आवंटन।
- सार्वजनिक भवनों में रैम्प।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (d)