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लैंगिक समानता की ओर भारत का मार्ग

  • 19 Jun 2025
  • 34 min read

यह संपादकीय 19/06/2025 को हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित “Unfinished business of gender parity in India” पर आधारित है। इस लेख में भारत में लैंगिक समानता से जुड़ी जारी चुनौतियों को केंद्र में रखा गया है। वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की 2025 की रिपोर्ट में भारत को 148 देशों में से 131वाँ स्थान दिया गया है, जो इस दिशा में और अधिक संगठित प्रयासों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व आर्थिक मंच की वर्ल्ड जेंडर गैप रिपोर्ट- 2025, महिला सशक्तीकरण, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, महिला ई-हाट, मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम 2017, प्रधानमंत्री जन धन योजना, ऑपरेशन सिंदूर, स्वयं सहायता समूह, महिला आरक्षण अधिनियम- 2023, विश्व बैंक का वर्ल्ड फाइंडेक्स सर्वे- 2021

मेन्स के लिये:

लैंगिक समानता प्राप्त करने में भारत की प्रमुख प्रगति, भारत में लैंगिक समानता में बाधा डालने वाले प्रमुख मुद्दे। 

लैंगिक समानता की दिशा में भारत के प्रयासों में प्रगति हुई है, लेकिन अभी भी आगे की राह कठिन है। महिलाओं की शिक्षा का स्तर सुधर रहा है, फिर भी संसद में राजनीतिक प्रतिनिधित्व मात्र 14% पर स्थिर है। आर्थिक असमानता बहुत अधिक है, महिलाएँ सकल घरेलू उत्पाद में 20% से भी कम योगदान देती हैं, और पुरुषों की तुलना में बहुत कम कमाती हैं। विश्व आर्थिक मंच की वर्ल्ड जेंडर गैप रिपोर्ट- 2025 एक निराशाजनक परिदृश्य प्रस्तुत करती है, जिसमें भारत को 148 देशों में से 131वें स्थान पर रखा गया है, जो अपने BRICS समकक्षों और दक्षिण एशियाई पड़ोसियों से भी पीछे है। वास्तविक लैंगिक समानता हासिल करने के लिये, भारत को सभी क्षेत्रों में ठोस, समावेशी प्रगति पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिये।

लैंगिक समानता प्राप्त करने में भारत की प्रमुख प्रगति क्या है? 

  • महिला शिक्षा में प्रगति: भारत ने शिक्षा में लैंगिक समानता प्राप्त करने में उल्लेखनीय प्रगति की है।
    • प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का सकल नामांकन अनुपात 94.32% है, जो लड़कों के 89.28% से थोड़ा अधिक है। इसी तरह, माध्यमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन अनुपात 81.32% है, जबकि लड़कों का 78% है। 
    • भारत में महिलाओं की साक्षरता दर में 68% की वृद्धि हुई है, जो स्वतंत्रता के समय 9% से बढ़कर वर्तमान में 77% हो गई है तथा यह लैंगिक शिक्षा के अंतर को कम करने की दृढ़ प्रतिबद्धता का संकेत है।
  • वित्तीय समावेशन के माध्यम से आर्थिक सशक्तीकरण: प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) जैसी पहल महिलाओं के वित्तीय समावेशन को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण रही है। 
    • जनवरी 2025 तक, 56% PMJDY खाते महिलाओं के पास होंगे, जिससे उन्हें बैंकिंग, बचत और ऋण तक बेहतर पहुँच प्राप्त होगी। 
      • इस वित्तीय स्वतंत्रता ने महिलाओं को (विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में) महत्त्वपूर्ण वित्तीय निर्णय लेने और उद्यमशीलता में संलग्न होने की क्षमता प्रदान की है। 
    • प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) प्रणाली ने भी महिलाओं को सशक्त बनाया है, क्योंकि इससे यह सुनिश्चित हुआ है कि सरकारी सब्सिडी (जैसे: मध्य प्रदेश में लाडली बहना योजना) और कल्याण निधि सीधे उन तक पहुँचे तथा बिचौलियों की जरूरत नहीं पड़े।
  • महिला अधिकारों और सुरक्षा के लिये कानूनी सुधार: भारत ने महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तीकरण को बढ़ाने के उद्देश्य से कई महत्त्वपूर्ण कानूनी सुधार पेश किये हैं। 
    • आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 ने यौन उत्पीड़न और उत्पीड़न के लिये दंड को कड़ा कर दिया है, जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा के प्रति शून्य-सहिष्णुता के दृष्टिकोण को दर्शाता है। 
    • इसके अलावा, वर्ष 2017 में 26 सप्ताह के सवेतन मातृत्व अवकाश की शुरूआत एक महत्त्वपूर्ण कदम था, जिसने महिलाओं के लिये बेहतर कार्य-जीवन संतुलन को बढ़ावा दिया तथा उन्हें अपनी नौकरी खोने के भय के बिना कार्यबल में बने रहने में सक्षम बनाया। 
      • ये कानूनी कदम महिलाओं की सुरक्षा और सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने की गहरी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं।
  • नेतृत्वकारी भूमिकाओं में महिलाओं की बढ़ती भूमिका: भारत में महिलाएँ विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व की बाधाओं को तोड़ रही हैं, जिनमें CRPF के चार सेक्टरों का नेतृत्व करने वाली पहली महिला— चारु सिन्हा तथा भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने वाली— न्यायमूर्ति नागरत्ना जैसी हस्तियाँ शामिल हैं। 
    • कर्नल सोफिया कुरैशी ने विंग कमांडर व्योमिका सिंह के साथ मिलकर ऑपरेशन सिंदूर पर ब्रीफिंग का नेतृत्व किया, जो सेना में महिलाओं के लिये एक और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि साबित हुआ। 
    • इसके अलावा, कॉर्पोरेट जगत में, NSE-सूचीबद्ध लगभग 97% कंपनियों ने मार्च 2025 तक कम से कम एक महिला निदेशक की नियुक्ति की है। 
  • आरक्षण के माध्यम से राजनीतिक सशक्तीकरण: भारत में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, विशेष रूप से ज़मीनी स्तर पर। 
    • 73 वें और 74वें संविधान संशोधनों ने पंचायतों और स्थानीय शासन निकायों में महिलाओं के लिये एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दीं, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय शासन के 40% से अधिक पद महिलाओं के पास हैं। 
    • महिला आरक्षण अधिनियम 2023, जो संसद और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें आरक्षित करता है, राष्ट्रीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। 
  • स्वास्थ्य एवं कल्याण में सुधार: भारत ने महिलाओं के स्वास्थ्य परिणामों, विशेषकर मातृ स्वास्थ्य में सुधार लाने में काफी प्रगति की है। 
    • राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (JSSK) जैसे कार्यक्रमों ने पिछले दशक में मातृ मृत्यु दर को 50% से अधिक कम करने में मदद की है। 
    • आयुष्मान भारत योजना ने स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच का विस्तार किया है, जिससे लाखों महिलाएँ मुफ्त स्वास्थ्य जाँच और उपचार से लाभान्वित हो रही हैं। 
      • स्वास्थ्य बीमा योजना AB-PMJAY के लाभार्थियों में लगभग 49% महिलाएँ हैं, जिससे विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य सेवा पहुँच सुनिश्चित होती है।
  • ग्रामीण भारत में महिला कार्यबल में भागीदारी में वृद्धि: भारत के प्रमुख रोज़गार कार्यक्रम, MGNREGA ने श्रम बल में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में महिला भागीदारी को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
    • MGNREGA श्रमिकों में 57.47% से अधिक महिलाएँ हैं (सत्र 2022-23 तक) जो कार्यक्रम के समान वेतन प्रावधानों से लाभान्वित हो रही हैं।
    • ये वेतन महिलाओं को स्वतंत्र आय प्रदान करते हैं, जिससे उनकी स्वायत्तता बढ़ती है। 
      • कार्यक्रम का प्रभाव राजस्थान जैसे राज्यों में भी दिखाई दे रहा है, जहाँ ग्रामीण महिलाओं में महत्त्वपूर्ण आर्थिक सशक्तीकरण हुआ है।
  • महिला उद्यमिता को बढ़ावा: स्टैंड अप इंडिया और MUDRA (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी) जैसी सरकार समर्थित योजनाएँ महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित करने में सहायक रही हैं। 
    • वर्ष 2021 में स्टैंड अप इंडिया योजना के तहत 68% ऋण महिलाओं को दिये गए, जो महिलाओं के व्यवसाय में संलग्न होने की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है।
    • इसके अलावा, स्वयं सहायता समूह (SHG) ग्रामीण महिलाओं को बचत, ऋण और वित्तीय साक्षरता तक पहुँच प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। 
      • स्वयं सहायता समूह वित्तीय और सामाजिक नेटवर्क के रूप में कार्य करते हैं, जो महिलाओं को अपना व्यवसाय शुरू करने तथा उसे बढ़ाने में सहायता करते हैं, साथ ही लखपति दीदी योजना के साथ मिलकर वित्तीय स्वतंत्रता को बढ़ावा देते हैं। 

भारत में लैंगिक समानता में बाधा डालने वाले प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • राजनीतिक अल्प प्रतिनिधित्व: भारत का राजनीतिक परिदृश्य महिलाओं को हाशिये पर रखता है, संसद में केवल 13.8% महिला प्रतिनिधित्व है, जो वर्ष 2023 में 14.7% से कम है। 
    • वर्ष 2023 में महिला आरक्षण अधिनियम पारित होने के बावजूद, राजनीतिक इच्छाशक्ति और संरचनात्मक बाधाओं के कारण इसका पूर्ण कार्यान्वयन वर्ष 2029 तक विलंबित है। 
    • यह गतिरोध शासन में महिलाओं की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयासों को कमज़ोर करता है। 
      • उदाहरण के लिये, केवल 5.6% मंत्री पद पर महिलाएँ हैं, जो निर्णय लेने के स्तर पर उनके अल्प प्रतिनिधित्व को उजागर करता है। 
  • श्रम बल में महिलाओं की कम भागीदारी: हाल की प्रगति के बावजूद, भारत में श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी अभी भी लगभग 41.7% के निम्न स्तर पर बनी हुई है।
    • पिछले कुछ वर्षों में महिला रोज़गार में वृद्धि के बावजूद, सामाजिक मानदंड, बाल देखभाल की कमी और वेतन अंतर महिलाओं को अनौपचारिक क्षेत्र की ओर धकेलते हैं, जहाँ सामाजिक सुरक्षा एवं संरक्षण न्यूनतम हैं। 
    • इसके अलावा, वर्ष 2020 में ऑक्सफैम इंडिया द्वारा किये गए शोध में भारत में महिलाओं द्वारा किये गए अवैतनिक कार्यों का आर्थिक मूल्य लगभग 19 लाख करोड़ रुपए होने का अनुमान लगाया गया था।
      • मैकिन्से की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि लैंगिक रोज़गार अंतर को कम करने से वर्ष 2025 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 770 बिलियन डॉलर की वृद्धि हो सकती है, फिर भी प्रगति धीमी है।
  • सांस्कृतिक बाधाएँ और पितृसत्तात्मक मानदंड: गहराई से व्याप्त पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण शिक्षा, रोज़गार और सामाजिक गतिशीलता में महिलाओं की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से प्रतिबंधित करते हैं। 
    • ये सांस्कृतिक बाधाएँ महिलाओं के लिये कॅरियर में प्रगति और नेतृत्व की भूमिकाओं (ग्लास सीलिंग और ग्लास क्लिफ) जैसे प्रमुख क्षेत्रों में विकल्पों को सीमित करती हैं, विशेषकर ग्रामीण भारत में। 
    • महिलाओं में वित्तीय जागरूकता के बारे में हाल ही में किये गए सर्वेक्षण से पता चला है कि 59% महिलाएँ अपने वित्तीय मामलों पर स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं लेती हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता और कम हो जाती है। 
      • इस प्रणालीगत पूर्वाग्रह ने वर्ष 2025 के वैश्विक लैंगिक अंतर सूचकांक के अनुसार, लैंगिक समानता के मामले में भारत को दक्षिण एशिया में सबसे निचले पायदान पर ला खड़ा किया है, जहाँ लैंगिक समानता केवल 64.1% है।
  • लैंगिक वेतन अंतर: भारत में लैंगिक वेतन अंतर अभी भी काफी महत्त्वपूर्ण है। जब महिलाएँ कार्यबल में प्रवेश करती हैं, तब भी उनकी आय समान भूमिकाओं में अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में लगातार कम होती है, विशेषकर उच्च-कुशल क्षेत्रों में।
    • उदाहरण के लिये, शहरी भारत में लैंगिक वेतन अंतर आँकड़ों में प्रतिबिंबित होता है, जो दर्शाता है कि महिलाएँ तुलनीय भूमिकाओं के लिये पुरुषों की तुलना में 30-40% कम कमाती हैं। 
    • यह असमानता अनौपचारिक क्षेत्रों तक फैली हुई है, जहाँ महिलाएँ प्रायः समान कार्य के लिये अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कम कमाती हैं, जैसे कृषि और घरेलू कार्य। 
  • शैक्षिक उपलब्धि बनाम रोज़गार के अवसर: यद्यपि महिलाओं की शैक्षिक उपलब्धि में उल्लेखनीय सुधार हुआ है, लेकिन शिक्षा से आर्थिक भागीदारी तक की छलांग प्रासंगिक रोज़गार के अवसरों की कमी के कारण बाधित है। 
    • उदाहरण के लिये, महिला STEM स्नातकों के उच्च अनुपात के बावजूद, भारत में STEM कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी एक तिहाई से भी कम (ORF) यानी 27% है।
    • यह विरोधाभास दर्शाता है कि शिक्षा प्रणाली, अपनी सफलताओं के बावजूद, सार्थक रोज़गार के अवसर उत्पन्न करने में विफल रही है, जिसका मुख्य कारण सांस्कृतिक और अवसंरचनात्मक अंतराल है।
  • अपर्याप्त मातृत्व लाभ और शिशु देखभाल सहायता: यद्यपि भारत ने 26 सप्ताह का सवेतन मातृत्व अवकाश प्रदान करने में प्रगति की है, फिर भी पर्याप्त शिशु देखभाल अवसंरचना का अभाव महिलाओं की कार्यबल भागीदारी के लिये एक प्रमुख बाधा बनी हुई है। 
    • शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में किफायती, सुलभ बाल देखभाल सेवाओं का अभाव कई महिलाओं को या तो कार्यबल छोड़ने या कम वेतन वाली, अंशकालिक नौकरियों को स्वीकार करने के लिये मज़बूर करता है। 
    • उदाहरण के लिये, 'द बेटर इंडिया' की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 73% महिलाएँ मातृत्व के पश्चात अपनी नौकरियाँ छोड़ देती हैं, जबकि वे पूर्णकालिक रोज़गार को सँभालने का प्रयास करती हैं।
      • इससे न केवल उनके कॅरियर विकास एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता की संभावनाएँ सीमित होती हैं बल्कि यह लिंग आधारित असमानता को भी और अधिक मज़बूत करता है।
  • वित्तीय सेवाओं में सीमित उपयोग: यद्यपि प्रधानमंत्री जन धन योजना जैसी पहलों ने महिला खाता स्वामित्व में वृद्धि की है, फिर भी इन खातों का उपयोग सीमित है, 32% महिलाओं के खाते निष्क्रिय (विश्व बैंक का वर्ल्ड फाइंडेक्स सर्वे- 2021) हैं। 
    • आर्थिक सशक्तीकरण के लिये वित्तीय समावेशन महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि महिलाएँ अधिक बचत करती हैं और परिवार की खुशहाली में पुनर्निवेश करती हैं। 

लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति को गति देने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है? 

  • महिलाओं के लिये व्यापक कौशल विकास कार्यक्रम लागू करना: औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये, भारत को प्रौद्योगिकी, नवीकरणीय ऊर्जा और डिजिटल सेवाओं जैसे उच्च विकास क्षमता वाले क्षेत्रों पर केंद्रित व्यापक कौशल विकास कार्यक्रम लागू करना चाहिये।
    • इन कार्यक्रमों में व्यावहारिक कौशल, उद्यमशीलता प्रशिक्षण और डिजिटल साक्षरता पर ज़ोर दिया जाना चाहिये, ताकि महिलाओं को उच्च वेतन वाली, कुशल नौकरियां प्राप्त करने में सशक्त बनाया जा सके।
    • विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं के कौशल विकास पर ज़ोर देने से शहरी-ग्रामीण विभाजन को पाटा जा सकता है तथा महिलाओं को उभरते नौकरी बाज़ारों में एकीकृत करने में सहायता मिल सकती है। व्यावसायिक अलगाव के चक्र को तोड़ने के लिये गैर-पारंपरिक क्षेत्रों पर विशेष ज़ोर दिया जाना चाहिये।
  • लिंग-संवेदनशील श्रम कानूनों को बढ़ाव देना और लागू करना: भारत को ऐसे श्रम कानूनों के प्रवर्तन (विशेष रूप से समान वेतन, कार्यस्थल उत्पीड़न और सवेतन पारिवारिक अवकाश से संबंधित कानून) को सुदृढ़ करना चाहिये जो लैंगिक समानता को बढ़ावा देते हैं। 
    • एक राष्ट्रीय कार्यढाँचा होना चाहिये जो यह सुनिश्चित करे कि सभी कार्यस्थल लचीले कार्य घंटों और बाल देखभाल सहायता संबंधी नीतियों का अनुपालन करें तथा महिलाओं की उन्नति के लिये समावेशी वातावरण को बढ़ावा दें। 
    • लैंगिक समानता मानदंडों के अनुपालन का आकलन करने के लिये कंपनियों का नियमित ऑडिट तथा गैर-अनुपालन के लिये दंडात्मक उपाय अपनाने से बेहतर प्रथाओं को प्रोत्साहन मिलेगा।
      • इससे कार्यस्थल पर प्रणालीगत परिवर्तन आएगा तथा औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की दीर्घकालिक भागीदारी सुनिश्चित होगी।
  • स्थानीय नेतृत्व पहल के माध्यम से राजनीतिक सशक्तीकरण को मज़बूत करना: स्थानीय शासन में आरक्षण की सफलता को आगे बढ़ाते हुए, भारत उच्च राजनीतिक नेतृत्व की भूमिकाओं के लिये महिलाओं को मार्गदर्शन और प्रशिक्षण देने के लिये लक्षित कार्यक्रम बना सकता है। 
    • इसमें पंचायत, नगरपालिका और राज्य स्तर पर महिला राजनेताओं के लिये क्षमता निर्माण पहल शामिल हो सकती है, जिससे उन्हें लोक प्रशासन, शासन एवं नेतृत्व कौशल से लैस किया जा सके। 
      • इस संदर्भ में, पंचायत जैसी वेब सीरीज ने जागरूकता बढ़ाने और महत्त्वपूर्ण मुद्दों को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
    • व्यावहारिक अनुभव वाली महिला नेताओं की एक पीढ़ी को बढ़ावा देकर, भारत धीरे-धीरे उच्च राजनीतिक कार्यालयों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा सकता है, जिससे राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर नीति निर्धारण में उनका प्रभाव बढ़ सकता है।
  • लिंग-संवेदनशील बजट और नीति निर्माण को बढ़ावा देना: भारत को सरकार के सभी स्तरों पर लिंग-संवेदनशील बजट (वर्ष 2005 में शुरू) को संस्थागत बनाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लिंग संबंधी विचारों को प्रत्येक नीति, कार्यक्रम और बजट आवंटन में एकीकृत किया जाए। 
    • इसमें किसी भी प्रमुख नीति या कल्याणकारी पहल को लागू करने से पहले लैंगिक प्रभाव आकलन करना शामिल होगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि महिलाओं की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जाए।
    • वित्तीय संसाधनों को विशेष रूप से उन योजनाओं के लिये आवंटित किया जाना चाहिये जो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे क्षेत्रों में महिलाओं को सशक्त बनाती हैं, जिससे सार्वजनिक धन का अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित हो सके। 
      • यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि लैंगिक समानता सभी राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय नीति-निर्माण का मुख्य केंद्र बिंदु बन जाए।
  • अनुकूलित वित्तीय सेवाओं के माध्यम से महिला उद्यमियों के लिये समर्थन बढ़ाना: महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित करने के लिये, भारत को एक विशेष वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र बनाने की आवश्यकता है जो महिलाओं को पूंजी, सूक्ष्म ऋण और उद्यम निधि तक आसान पहुँच प्रदान करे।
    • बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को महिला उद्यमियों के लिये ब्याज दरें कम करने तथा संपार्श्विक आवश्यकताओं में ढील देने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, जिससे उनके लिये अपना व्यवसाय स्थापित करना एवं उसे बढ़ाना आसान हो सके। 
    • महिला उद्यमियों का एक राष्ट्रीय डेटाबेस बनाया जाना चाहिये, ताकि उन्हें मार्गदर्शन, नेटवर्किंग अवसर और लक्षित व्यवसाय विकास कार्यक्रम जैसी अनुरूप सहायता सेवाएँ प्रदान की जा सकें।
  • लैंगिक मानदंडों को चुनौती देने के लिये शैक्षिक पाठ्यक्रम में सुधार: सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने और लैंगिक रूढ़िवादिता को चुनौती देने के लिये, भारत को स्कूल और उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम में लैंगिक समानता को शामिल करना चाहिये। 
    • इसमें न केवल महिलाओं की उपलब्धियों को बढ़ावा देना शामिल होगा, बल्कि लड़के और लड़कियों दोनों को लैंगिक समानता, सम्मान एवं साझा जिम्मेदारी जैसी अवधारणाओं पर शिक्षित करना भी शामिल होगा। 
    • विषय चयन में पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती देने पर ध्यान केंद्रित करने से (जैसे: लड़कियों को STEM एवं लड़कों को देखभाल करने वाले व्यवसायों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करना) गहरी जड़ें जमाए बैठी सामाजिक बाधाओं को तोड़ने में मदद मिलेगी। 
      • यह शैक्षिक बदलाव एक ऐसी नई पीढ़ी को आकार देगा जो जीवन के सभी क्षेत्रों में लैंगिक समानता के प्रति अधिक खुली होगी।
  • सुदृढ़ डेटा संग्रहण और लैंगिक-विभाजन को लागू करना: भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी क्षेत्रों में लिंग-विभाजन डेटा को व्यवस्थित रूप से एकत्रित किया जाए और साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण के लिये उसका उपयोग किया जाए। 
    • इसमें रोज़गार, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में लैंगिक अंतर पर नज़र रखना शामिल होगा, ताकि प्रगति का आकलन किया जा सके तथा हस्तक्षेप की आवश्यकता वाले क्षेत्रों की पहचान की जा सके। 
    • महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और नेतृत्वकारी भूमिकाओं के लिये एक राष्ट्रीय रजिस्ट्री बनाने से नीति निर्माताओं को संसाधनों एवं हस्तक्षेपों को प्रभावी ढंग से आवंटित करने में मदद मिलेगी। 
      • डेटा-संचालित दृष्टिकोण से भारत वास्तविक काल में प्रगति की निगरानी कर सकेगा तथा नीतियों और रणनीतियों में आवश्यक समायोजन कर सकेगा।
  • घरेलू कामगारों और अनौपचारिक मजदूरों के लिये सहायता प्रणालियों को मज़बूत बनाना: चूँकि महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करता है, इसलिये भारत को घरेलू कामगारों और अनौपचारिक मजदूरों के लिये सख्त कानूनी सुरक्षा एवं सामाजिक सुरक्षा तंत्र विकसित करना चाहिये।
    • इसमें श्रमिक संघों की स्थापना, स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच प्रदान करना तथा उचित वेतन और कार्य स्थितियाँ लागू करना शामिल है। 
    • घरेलू कामगारों के लिये न्यूनतम मज़दूरी कानून का कार्यान्वयन और बाल देखभाल सुविधाओं का प्रावधान इस क्षेत्र को महिलाओं के लिये अधिक संधारणीय एवं लाभकारी बना सकता है तथा उन्हें आर्थिक निर्भरता से बाहर निकालकर अधिक सुरक्षित कार्य स्थितियों में ला सकता है।
  • महिला-केंद्रित पहलों के लिये जेंडर इम्पैक्ट बॉण्ड की शुरुआत: महिला-केंद्रित परियोजनाओं में निवेश बढ़ाने के लिये, भारत जेंडर इम्पैक्ट बॉण्ड (GIB) की शुरुआत कर सकता है जो लैंगिक अंतर को कम करने के उद्देश्य से सामाजिक प्रभाव पहलों के लिये निजी पूंजी को आकर्षित करता है।
    • इस बॉण्ड से वंचित क्षेत्रों में महिलाओं की शिक्षा, महिलाओं के लिये उद्यमशील पारिस्थितिकी तंत्र और महिला स्वास्थ्य सेवाओं जैसी पहलों को वित्तपोषित किया जा सकेगा।
    • निवेशकों को लिंग-विशिष्ट परिणामों की सफलता से जुड़ा रिटर्न मिलेगा, जैसे कि महिला साक्षरता दर में वृद्धि या महिला कार्यबल में भागीदारी में सुधार, जिससे लैंगिक समानता के लिये एक स्थायी वित्तपोषण तंत्र का निर्माण होगा।

निष्कर्ष: 

 "लैंगिक समानता केवल महिलाओं से जुड़ा विषय नहीं है, यह एक मानवीय विषय है। यह हम सभी को प्रभावित करता है।"

भारत ने लैंगिक समता की दिशा में सराहनीय प्रगति की है, परंतु यह यात्रा अब भी अधूरी है। शिक्षा, आर्थिक भागीदारी तथा नेतृत्व में व्याप्त अंतरालों को पाटने की दिशा में देश निरंतर आगे बढ़ रहा है, लेकिन इसके साथ-साथ सांस्कृतिक बाधाओं को तोड़ने, समान अवसर सुनिश्चित करने तथा समावेशी नीतियों को प्रभावी रूप से लागू करने पर भी संगठित ध्यान देना आवश्यक है।

वास्तविक लैंगिक समानता तब ही प्राप्त होगी जब पुरुषों और महिलाओं, दोनों को सफलता के लिये समान मंच उपलब्ध कराये जायेंगे।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. भारत ने विभिन्न क्षेत्रों में लैंगिक समानता प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, फिर भी वास्तविक समानता को साकार करने में अभी भी काफी चुनौतियाँ हैं। लैंगिक समानता की दिशा में भारत द्वारा की गई प्रमुख प्रगति और उन्नति में अभी भी बाधा बन रही बाधाओं का परीक्षण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा के पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन, विश्व के देशों के लिये 'सार्वभौम लैंगिक अंतराल सूचकांक (ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स)' का श्रेणीकरण प्रदान करता है? (2017)

(a) विश्व आर्थिक मंच
(b) UN मानव अधिकार परिषद्
(c) UN वूमन
(d) विश्व स्वास्थ्य संगठन

उत्तर: (a)


प्रश्न 2. महिलाओं के विकास के लिये भारत सरकार द्वारा शुरू की गई दो योजनाएँ हैं— स्वाधार और स्वयंसिद्ध। उनके बीच अंतर के संबंध में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2010)

  1. स्वयंसिद्ध का उद्देश्य कठिन परिस्थितियों में रहने वाली महिलाओं, जैसे प्राकृतिक आपदाओं या आतंकवाद से बची महिलाओं, जेलों से रिहा महिला कैदियों, मानसिक रूप से अक्षम महिलाओं आदि के लिये है, जबकि स्वाधार का उद्देश्य स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं का समग्र सशक्तीकरण करना है।
  2. स्वयंसिद्ध का क्रियान्वयन स्थानीय स्वशासन निकायों या प्रतिष्ठित स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से किया जाता है, जबकि स्वाधार का क्रियान्वयन राज्यों में स्थापित आई.सी.डी.एस. इकाइयों के माध्यम से किया जाता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 व 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2

उत्तर: (d)


मेन्स

प्रश्न 1.  "महिला सशक्तीकरण जनसंख्या संवृद्धि को नियंत्रित करने की कुंजी है।" चर्चा कीजिये। (2019)

प्रश्न 2. भारत में महिलाओं पर वैश्वीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा कीजिये।  (2015)

प्रश्न 3.  "महिला संगठनों को लिंग भेद से मुक्त करने के लिये पुरुषों की सदस्यता को बढ़ावा मिलना चाहिये।” टिप्पणी कीजिये।  (2013)

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