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कर्नाटक धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण विधेयक, 2021

  • 24 Dec 2021
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

विभिन्न राज्यों के धर्मांतरण विरोधी कानून, धर्म की स्वतंत्रता पर संवैधानिक प्रावधान, संविधान का अनुच्छेद 21

मेन्स के लिये:

धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का कर्नाटक संरक्षण विधेयक, 2021, धर्मांतरण विरोधी कानून और संबंधित मुद्दे, संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के फैसले

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कर्नाटक धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण विधेयक, 2021 कर्नाटक राज्य विधानसभा में पेश किया गया। यह विधेयक गलत बयानी, ज़बरदस्ती, धोखाधड़ी, लालच या शादी के माध्यम से एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मांतरण पर रोक लगाता है।

  • अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे अन्य राज्यों ने भी धर्म परिवर्तन को प्रतिबंधित करने वाले कानून पारित किये हैं।

प्रमुख बिंदु 

  • विधेयक के मुख्य प्रावधान :
    • दंडात्मक प्रावधान: धर्मांतरण एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध है।
      • कानून का उल्लंघन करने वाले लोगों हेतु तीन से पाँच वर्ष के कारावास की सज़ा और 25,000 रुपए के जुर्माने का प्रावधान किया गया है, वहीं नाबालिगों, महिलाओं और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदायों के व्यक्तियों को ज़बरन धर्म परिवर्तित करने हेतु बाध्य करने पर 3 से 10 साल तक की जेल तथा 50,000 रुपए का जुर्माना होगा। 
    • लोकस स्टैंडी लागू नहीं होता: प्रस्तावित कानून के अनुसार, धर्मांतरण की शिकायत परिवार के सदस्यों या रिश्तेदारों या संबंधित संस्था में किसी भी व्यक्ति द्वारा दर्ज की जा सकती है।
    • छूट: विधेयक उस व्यक्ति के मामले में जो कि "तत्काल अपने पूर्व धर्म में पुन: धर्मांतरित हो जाता है", छूट प्रदान करता है क्योंकि उसे "इस अधिनियम के तहत धर्मांतरण नहीं माना जाएगा"।
    • इच्छुक व्यक्ति के लिये प्रावधान: कानून लागू होने के बाद कोई भी व्यक्ति जो दूसरे धर्म में धर्मांतरित होने का इरादा रखता है, उसे कम-से-कम 30 दिन पहले ज़िला मजिस्ट्रेट को सूचित करना होगा।
    • इसके बाद धर्मांतरण की वास्तविक मंशा के पीछे के कारण को जानने के लिये पुलिस के माध्यम से ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा जांच की जाएगी।
    • ज़िला मजिस्ट्रेट को सूचित न करने पर धर्मांतरण को अमान्य घोषित कर दिया जाएगा।
  • भारत में धर्मांतरण विरोधी कानून:
    • संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद-25 के तहत भारतीय संविधान धर्म को मानने, प्रचार करने और अभ्यास करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है तथा सभी धर्म के वर्गों को अपने धर्म के मामलों का प्रबंधन करने की अनुमति देता है; हालाँकि यह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है।
      • हालाँकि कोई भी व्यक्ति अपने धार्मिक विश्वासों को ज़बरन लागू नहीं करेगा और परिणामस्वरूप व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी भी धर्म का पालन करने के लिये मजबूर नहीं किया जाना चाहिये।
    • मौजूदा कानून: धार्मिक रूपांतरणों को प्रतिबंधित या विनियमित करने वाला कोई केंद्रीय कानून नहीं है।
      • हालाँकि वर्ष 1954 के बाद से कई मौकों पर धार्मिक रूपांतरणों को विनियमित करने हेतु संसद में निजी विधेयक पेश किये गए हैं।
      • इसके अलावा वर्ष 2015 में केंद्रीय कानून मंत्रालय ने कहा था कि संसद के पास धर्मांतरण विरोधी कानून पारित करने की विधायी शक्ति नहीं है।
      • वर्षों से कई राज्यों ने बल, धोखाधड़ी या प्रलोभन द्वारा किये गए धार्मिक रूपांतरणों को प्रतिबंधित करने हेतु 'धार्मिक स्वतंत्रता' संबंधी कानून बनाए हैं।
  • धर्मांतरण विरोधी कानूनों से संबद्ध मुद्दे:
    • अनिश्चित और अस्पष्ट शब्दावली: गलत बयानी, बल, धोखाधड़ी, प्रलोभन जैसी अनिश्चित और अस्पष्ट शब्दावली इसके दुरुपयोग हेतु एक गंभीर अवसर प्रस्तुत करती है।
      • ये काफी अधिक अस्पष्ट और व्यापक हैं, जो धार्मिक स्वतंत्रता के संरक्षण से परे भी कई विषयों को कवर करती हैं।
    • अल्पसंख्यकों का विरोध: एक अन्य मुद्दा यह है कि वर्तमान धर्मांतरण विरोधी कानून धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु धर्मांतरण के निषेध पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।
      • हालाँकि धर्मांतरण निषेधात्मक कानून द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली व्यापक भाषा का इस्तेमाल अधिकारियों द्वारा अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और भेदभाव करने के लिये किया जा सकता है।
    • धर्मनिरपेक्षता विरोधी: ये कानून भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने और हमारे समाज के आंतरिक मूल्यों और कानूनी व्यवस्था की अंतर्राष्ट्रीय धारणा के लिये खतरा पैदा कर सकते हैं।
  • विवाह और धर्मांतरण पर सर्वोच्च न्यायालय:
    • वर्ष 2017 का हादिया मामला: 
      • हादिया मामले में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘अपनी पसंद के कपड़े पहनने, भोजन करने, विचार या विचारधाराओं और प्रेम तथा जीवनसाथी के चुनाव का मामला किसी व्यक्ति की पहचान के केंद्रीय पहलुओं में से एक है।
      • ऐसे मामलों में न तो राज्य और न ही कानून किसी व्यक्ति को जीवन साथी के चुनाव के बारे में कोई आदेश दे सकते हैं या न ही वे ऐसे मामलों में निर्णय लेने के लिये किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर सकते हैं।  
      • अपनी पसंद के साथी को चुनना या उसके साथ रहने का अधिकार नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा है। (अनुच्छेद-21)
    • के.एस. पुत्तुस्वामी निर्णय (वर्ष 2017): 
      •  किसी व्यक्ति की स्वायत्तता से आशय जीवन के महत्त्वपूर्ण मामलों में उसकी निर्णय लेने की क्षमता से है। 
    • अन्य निर्णय:
      • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में यह स्वीकार किया है कि जीवन साथी के चयन के मामले में एक वयस्क नागरिक के अधिकार पर राज्य और न्यायालयों का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है यानी सरकार अथवा न्यायालय द्वारा इन मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।
      • सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न फैसलों में माना है कि जीवन साथी चुनने के वयस्क के पूर्ण अधिकार पर आस्था, राज्य और अदालतों का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।
      • भारत एक ‘स्वतंत्र और गणतांत्रिक राष्ट्र’ है तथा एक वयस्क के प्रेम एवं विवाह के अधिकार में राज्य का हस्तक्षेप व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। 
      • विवाह जैसे मामले किसी व्यक्ति की निजता के अंतर्गत आते हैं, विवाह अथवा उसके बाहर जीवन साथी के चुनाव का निर्णय व्यक्ति के ‘व्यक्तित्व और पहचान’ का हिस्सा है।
      • किसी व्यक्ति के जीवन साथी चुनने का पूर्ण अधिकार कम-से-कम धर्म/आस्था से प्रभावित नहीं होता है।

आगे की राह 

ऐसे कानूनों को लागू करने के लिये सरकार को यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वे किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को सीमित न करते हों और न ही इनसे राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुँचती हो; ऐसे कानूनों के मामले में स्वतंत्रता और दुर्भावनापूर्ण धर्मांतरण के मध्य संतुलन बनाना बहुत ही आवश्यक है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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