लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



डेली न्यूज़

शासन व्यवस्था

आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की धीमी गति

  • 20 Aug 2021
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता, मलिमथ समिति

मेन्स के लिये 

आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार: प्रासंगिकता व महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग  (NHRC) के तहत विशेषज्ञों के एक समूह ने त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिये आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों की धीमी गति पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission-NHRC) एक स्वतंत्र वैधानिक संस्था है, जिसकी स्थापना मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के प्रावधानों के तहत 12 अक्तूबर, 1993 को की गई थी, जिसे बाद में 2006 में संशोधित किया गया।

प्रमुख बिंदु 

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली :

  • आपराधिक न्याय प्रणाली का तात्पर्य सरकार की उन एजेंसियों से है जो कानून लागू करने, आपराधिक मामलों पर निर्णय देने और आपराधिक आचरण में सुधार करने हेतु कार्यरत हैं।
  • वास्तव में आपराधिक न्याय प्रणाली सामाजिक नियंत्रण का एक साधन होती है।
  • आपराधिक न्याय प्रणाली सुधारों में आमतौर पर सुधारों के तीन सेट शामिल हैं जैसे- न्यायिक सुधार,  जेल सुधार, पुलिस सुधार
  • उद्देश्य :
    • आपराधिक घटनाओं को रोकना।
    • अपराधियों और दोषियों को दंडित करना।
    • अपराधियों और दोषियों का पुनर्वास।
    • पीड़ितों को यथासंभव मुआवज़ दिलाना।
    • समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखना।
    • अपराधियों को भविष्य में कोई भी आपराधिक कृत्य करने से रोकना।

भारत में आपराधिक न्यायशास्त्र के लिये कानूनी ढाँचा : 

  • भारतीय दंड संहिता  (IPC) भारत की आधिकारिक आपराधिक संहिता है। इसे 1860 में लॉर्ड थॉमस बैबिंग्टन मैकाले की अध्यक्षता में 1833 के चार्टर अधिनियम के तहत 1834 में स्थापित भारत के पहले विधि आयोग की सिफारिशों पर तैयार किया गया था।
  • आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 भारत में आपराधिक कानून के क्रियान्यवन के लिये मुख्य कानून है। यह वर्ष 1973  में पारित हुआ तथा 1 अप्रैल, 1974 से लागू हुआ।

आपराधिक न्याय प्रणाली संबंधी मुद्दे :

  • बड़े पैमाने पर लंबित मामले : उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों और ज़िला अदालतों में लगभग 4.4 करोड़ मामले (Cases) लंबित थे।
  • विचाराधीन कैदियों की उच्च संख्या : सबसे अधिक विचाराधीन कैदियों के मामले में भारत, विश्व के प्रमुख देशों में से एक है। यह अनुभव किया गया कि मामलों के निपटारे में देरी के परिणामस्वरूप विचाराधीन और दोषी कैदियों के मामलों से संबंधित अन्य व्‍यक्तियों के मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है।
  • पुलिस सुधारों में देरी : पुलिस सुधारों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद ज़मीनी स्तर पर शायद ही कोई परिवर्तन हुआ हो।
    • न्याय के त्वरित और पारदर्शी वितरण में भ्रष्टाचार, वर्कलोड तथा पुलिस की जवाबदेही एक बड़ी बाधा है।
  • औपनिवेशिक युग के कानून : भारत में आपराधिक कानूनों का संहिताकरण ब्रिटिश शासन के दौरान किया गया था, जो आमतौर पर 21वीं सदी में भी वैसा ही बना हुआ है।

सुझाव:

  • आईपीसी में कुछ प्रावधानों को हटाया जा सकता है और ‘अपकृत्य विधि’ (Law of Torts) के तहत निवारण हेतु छोड़ दिया जा सकता है, जैसा कि इंग्लैंड में है।
  • दस्तावेज़ों के डिजिटलीकरण से जाँच और परीक्षण में तेज़ी लाने में मदद मिलेगी।
  • पुलिसकर्मियों के बीच कानूनों के बारे में जागरूकता बढ़ाना, एक क्षेत्र में शिकायतों की संख्या के अनुपात में पुलिसकर्मियों और स्टेशनों की संख्या में वृद्धि करना तथा आपराधिक न्याय प्रणाली में सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं मनोवैज्ञानिकों को शामिल करना।
  • पीड़ित के अधिकारों और स्मार्ट पुलिसिंग पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। पुलिस अधिकारियों की दोषसिद्धि की दर तथा उनके द्वारा कानून का पालन न करने की दर का अध्ययन करने की आवश्यकता है।
  • मलिमथ समिति (2000) की सिफारिशों का कार्यान्वयन।

मलिमथ समिति (2000) की सिफारिशों का कार्यान्वयन।

  • अभियुक्तों के अधिकार: समिति ने सुझाव दिया कि संहिता की एक अनुसूची सभी क्षेत्रीय भाषाओं में लाई जाए ताकि अभियुक्त को अपने अधिकारों के बारे में पता हो, साथ ही यह भी कि उन्हें कैसे लागू किया जाए और उन अधिकारों से वंचित होने पर किससे संपर्क किया जाए।
  • पुलिस जाँच: समिति ने कानून और व्यवस्था से जाँच विंग को अलग करने का सुझाव दिया।
  • न्यायालय और न्यायाधीश: रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात 10.5 प्रति मिलियन जनसंख्या है, जबकि दुनिया के कई हिस्सों में प्रति मिलियन जनसंख्या पर 50 न्यायाधीश हैं।
    • इसने न्यायाधीशों और न्यायालयों की ताकत बढ़ाने का सुझाव दिया।
  • गवाह संरक्षण: इसने अलग गवाह संरक्षण कानून का सुझाव दिया ताकि गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके और उनसे सम्मान के साथ व्यवहार किया जा सके।
  • न्यायालय के अवकाश: इसने लंबे समय से लंबित मामलों के कारण अदालत की छुट्टियों को कम करने की सिफारिश की।

स्रोत- द हिंदू

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2