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शासन व्यवस्था

न्यायिक सुधार

  • 29 Sep 2018
  • 6 min read

न्यायिक सुधार

परिचय

  • सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों तथा सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच इस वर्ष संपन्न हुई एक संयुक्त बैठक में भारत के मुख्य न्यायाधीश की तरफ से न्यायिक सुधारों (विशेषकर जजों की भारी कमी का समाधान) के लिये वेदनापूर्ण आग्रह किया गया।
  • यह एक स्थापित तथ्य है कि न्यायपालिका के कार्यों का कुशल संचालन नियमित व सुचारू रूप से होने वाली नियुक्तियों के द्वारा ही हो सकता है, कितु स्वीकृति देने में सरकार द्वारा निष्क्रियता दिखाने के कारण अनेक नियुक्तियाँ अटकी पड़ी हैं।

न्यायिक सुधार क्यों?

  • न्यायिक नियुक्तियों के लिये एक उत्तरदायी व पारदर्शी व्यवस्था काम नहीं कर रही है। अतः नियुक्तियों व स्थानांतरण के लिये एक पारदर्शी, और विवेकाधीन व्यवस्था स्थापित करने की अनिवार्यता बढ़ गई है।
  • न्यायाधीशों को मनोनीत करने के लिये न तो कोई मापदंड निर्धारित किये गए हैं और न ही नियुक्ति के लिये प्रस्तावित किये गए नामों का किसी मापदंड पर रीतिबद्ध मूल्यांकन किया जा सकता है। प्रायः कहा जाता है कि न्यायिक तंत्र में भाई-भतीजावाद की प्रवृत्ति काफी बढ़ गई है, जिसके चलते यह अकुशलताओं से गुजर रहा है।
  • उच्च व निचली अदालतों में भी नियुक्ति में देरी होने के कारण न्यायिक अधिकारियों की कमी हो गई है, जो कि बहुत ही चिंताजनक है। इसी कारण, मामलों के लंबित रहने का अनुपात बढ़ता जा रहा है और यह पूरे भारतीय न्यायिक तंत्र को जकड़ चुका है।
  • छोटे कार्यकाल और कार्य के भारी दबावों के कारण सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को कानून को उत्कृष्ट बनाने और आवश्यक परिपक्वता अर्जित करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है।
  • न्याय अभी भी देश के बहुसंख्यक नागरिकों की पहुँच के बाहर है, क्योंकि वे वकीलों के भारी खर्च वहन नहीं कर पाते हैं और उन्हें व्यवस्था की प्रक्रियात्मक जटिलता से होकर गुजरना पड़ता है।

प्रस्तावित न्यायिक सुधार

  • नियुक्तियाँ: प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग द्वारा जजों को नियुक्त करने की कॉलेजियम व्यवस्था (वर्तमान व्यवस्था) के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यद्यपि, इसे अनेक आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है, फिर भी यह प्रभावशाली समाधान हो सकता है, जिसके लिये भारत के मुख्य न्यायाधीश व न्यायपालिका के बीच कार्यकारी शक्ति के लिये संतुलन बैठाना होगा।
  • लंबित मामले: विचाराधीन मामलों के अनुपात में कमी लाने के लिये कोर्ट में जजों की संख्या में वृद्धि की जानी चाहिये, कुछ विशेष श्रेणी के मामलों के समाधान के लिये समय-सीमा तय की जानी चाहिये तथा लोक अदालतों और ग्राम न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिये। इससे न केवल विचाराधीन मामलों की संख्या में आनुपातिक कमी आएगी बल्कि न्यायपालिका के मूल्यवान समय की बचत होगी।
  • अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का निर्माण: अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर सर्वोत्तम उपलब्ध प्रतिभा को आकर्षित करके यह जजों की योग्यता व गुणवत्ता में सुधार करेगा।
  • तकनीक: सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के कुशलतापूर्वक उपयोग से न्यायिक डेटाबेस बनाया जा सकता है। इसके द्वारा जजों के अलग-अलग प्रदर्शनों का आकलन किया जा सकेगा तथा एक संस्था के रूप में न्यायालय के समग्र प्रदर्शन का आकलन भी किया जा सकेगा।
  • विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह प्रस्तावित किया है कि खंडपीठों के माध्यम से उच्च न्यायालय के कार्यों का विकेंद्रीकरण किया जाए, जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाई जाए, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद अहस्तांतरणीय बनाया जाए और न्यायाधीशों की संख्या वर्ष 1987 के आधार पर 5 गुना बढ़ाई जाए।

आगे का रास्ता

  • जजों की नियुक्ति करने में न्यायपालिका व कार्यपालिका के बीच टकराव खत्म होने चाहिये तथा ऐसा स्वीकार्य समाधान निकलना चाहिये जिसमें दोनों संबद्ध पक्षों के मतों को सम्मान मिल सके।
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश के वेदनापूर्ण आग्रह को एक बड़ी चेतावनी व अविलंब समाधान की आवश्यकता के रूप में लिया जाना चाहिये तथा न्यायपालिका की कार्यपद्धति के विविध पक्षों में न्यायिक सुधार पर ध्यान दिया जाना चाहिये, जिनमें नियुक्तियाँ, स्थानांतरण व अवसंरचनात्मक विकास प्रमुख हैं।
  • इसके अतिरिक्त, नागरिकों की बढ़ती हुई भागीदारी से इस चर्चा को बल मिला है कि न्यायिक व्यवस्था का संचालन किस तरह किया जाए, जिससे यह अपनी राह में आने वाली बाधाओं से निपट सके तथा आम जनता को न्याय दिलाने का वास्तविक उपकरण बन सके।

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