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डेली न्यूज़

  • 23 Jul, 2021
  • 59 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

वाणिज्यिक जहाज़ों को बढ़ावा देने हेतु सब्सिडी योजना

प्रिलिम्स के लिये

भारतीय पोत परिवहन कंपनियों को सब्सिडी सहायता,  केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम, राष्ट्रीय एक्जिम (निर्यात-आयात) व्यापार

मेन्स के लिये

भारतीय पोत परिवहन कंपनियों के लिये सब्सिडी योजना की विशेताएँ, औचित्य और महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सरकारी कार्गो के आयात के लिये मंत्रालयों और केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (CPSE) द्वारा जारी वैश्विक निविदाओं में भारतीय पोत परिवहन (Shipping) कंपनियों को सब्सिडी सहायता प्रदान करने की एक योजना को मंज़ूरी दी है।

  • यह योजना पाँच वर्षों के दौरान 1624 करोड़ रुपए की सब्सिडी प्रदान करेगी।

प्रमुख बिंदु 

योजना की मुख्य विशेषताएँ:

  • यह योजना फ्लैगिंग (ध्वजांकन) में वृद्धि की परिकल्पना करती है तथा भारतीय जहाज़रानी क्षेत्र  में निवेश के लिये भारतीय कार्गो तक पहुँच प्रदान करेगी।
    • फ्लैगिंग का तात्पर्य राष्ट्रीय पंजीकरण द्वारा एक पोत को शामिल करने की प्रक्रिया से है तथा "फ्लैगिंग आउट" राष्ट्रीय पंजीकरण के माध्यम से एक पोत को हटाने/अलग करने की प्रक्रिया है।
  • सब्सिडी समर्थन एक विदेशी शिपिंग कंपनी द्वारा न्यूनतम बोली के 5% से 15% तक भिन्न होता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि जहाज़ को 1 फरवरी, 2021 के बाद या उससे पहले ध्वजांकित/फ्लैगिंग किया गया था।
  • हालाँकि पत्तन, पोत परिवहन और जलमार्ग मंत्रालय के अनुसार, 20 वर्ष से अधिक पुराने जहाज़ इस योजना के तहत पात्र नहीं होंगे।

योजना का औचित्य:

  • भारतीय नौवहन उद्योग का लघु आकार:  7,500 किलोमीटर लंबा समुद्र तट, महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय आयात-निर्यात (EXIM) व्यापार जो सालाना आधार पर लगातार बढ़ रहा है, वर्ष 1997 के बाद से पोत परिवहन में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की नीति के बावजूद भारतीय पोत परिवहन उद्योग और भारत का राष्ट्रीय बेड़ा अपने वैश्विक समकक्षों की तुलना में काफी छोटा है।
    • वर्तमान में भारतीय बेड़े की क्षमता के लिहाज से वैश्विक बेड़े में इसकी हिस्सेदारी मात्र 1.2% है। 
    • भारत के ‘आयत-निर्यात (एक्जिम)  व्यापार’ की ढुलाई में भारतीय जहाज़ों की हिस्सेदारी 1987-88 के 40. 7% से घटकर 2018-19 में लगभग 7.8% रह गई है।
  • उच्च परिचालन लागतों की भरपाई: वर्तमान में भारतीय शिपिंग उद्योग अपेक्षाकृत अधिक परिचालन लागत वहन करता है, इसके प्रमुख कारकों में ऋण निधि की उच्च लागत, भारतीय नाविकों के वेतन पर कराधान, जहाज़ों के आयात पर IGST, जीएसटी में निर्बाध इनपुट टैक्स क्रेडिट तंत्र आदि शामिल हैं।
    • इस संदर्भ में इन उच्च परिचालन लागतों का सब्सिडी सहायता के माध्यम से समर्थन किया जाएगा तथा  यह भारत में वाणिज्यिक जहाज़ों को ध्वजांकित करने के लिये अधिक आकर्षित करेगा।
  • विदेशी मुद्रा व्यय में वृद्धि: उच्च परिचालन लागत के कारण एक भारतीय चार्टरर (अथवा मालवाहक) के माध्यम से शिपिंग सेवाओं का आयात किसी स्थानीय शिपिंग कंपनी की सेवाओं को अनुबंधित करने की तुलना में सस्ता होता है।
    • परिणामस्वरूप विदेशी पोत परिवहन कंपनियों को किये जाने वाले ‘माल ढुलाई बिल भुगतान’ के मद में विदेशी मुद्रा व्यय में वृद्धि हुई है।

योजना का महत्त्व: 

  • रोज़गार सृजन की क्षमता: भारतीय बेड़े में वृद्धि से भारतीय नाविकों को प्रत्यक्ष रोज़गार मिलेगा क्योंकि भारतीय जहाज़ों को केवल भारतीय नाविकों को नियुक्त करना आवश्यक होता है।
    • इसके अतिरिक्त नाविक बनने के इच्छुक कैडेट्स को जहाज़ों पर ऑन-बोर्ड प्रशिक्षण प्राप्त करना आवश्यक होता है। भारतीय जहाज़, युवा भारतीय कैडेट लड़कों और लड़कियों को प्रशिक्षण के लिये स्लॉट उपलब्ध कराएंगे।
  • सामरिक लाभ: भारतीय शिपिंग उद्योग के विकास को बढ़ावा देने के लिये एक नीति भी आवश्यक है क्योंकि एक व्यापक राष्ट्रीय बेड़ा होने से भारत को आर्थिक वाणिज्यिक और सामरिक लाभ मिलेगा।
  • आर्थिक लाभ: एक मज़बूत और विविध स्वदेशी शिपिंग बेड़े से न केवल विदेशी शिपिंग कंपनियों को किये जाने वाले माल ढुलाई बिल भुगतान में विदेशी मुद्रा की बचत होगी, बल्कि महत्त्वपूर्ण कार्गो के परिवहन हेतु विदेशी जहाज़ों पर भारत की अत्यधिक निर्भरता भी कम होगी।
    • इस प्रकार यह आत्मनिर्भर भारत के उद्देश्य को प्राप्त करने के साथ ही भारतीय जीडीपी में योगदान करने में मदद करेगा।

स्रोत:  द हिंदू


शासन व्यवस्था

आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक, 2021

प्रिलिम्स के लिये 

आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक, 2021, सार्वजनिक उपयोगिता सेवाएँ, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947

मेन्स के लिये

आवश्यक रक्षा सेवाओं का संक्षिप्त विवरण एवं हड़ताल का अधिकार 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सरकार ने लोकसभा में आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक, 2021 (Essential Defence Services Bill, 2021) पेश किया।

  • यह जून 2021 में जारी किये गए अध्यादेश को प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है और आवश्यक रक्षा सेवाओं में शामिल कर्मियों के हड़ताल करने एवं किसी भी तरह के विरोध-प्रदर्शन पर रोक लगाता है।

प्रमुख बिंदु

आवश्यक रक्षा सेवाएँ: 

  • इसमें किसी भी प्रतिष्ठान या उपक्रम में वे सेवाएँ शामिल हैं जो किसी भी रक्षा संबंधी उद्देश्यों या सशस्त्र बलों की  स्थापना या उनकी रक्षा से जुड़ी हैं तथा आवश्यक वस्तुओं या उपकरणों के उत्पादन से संबंधित हैं। 
    • इसमें ऐसी सेवाएँ भी शामिल हैं जो बंद (Ceased) होने पर ऐसी सेवाओं से जुड़े प्रतिष्ठान या उसके कर्मचारियों की सुरक्षा को प्रभावित करती हैं। 
  • इसके अतिरिक्त सरकार किसी भी सेवा को एक आवश्यक रक्षा सेवा के रूप में घोषित कर सकती है, यदि इसकी समाप्ति निम्नलिखित को प्रभावित करती है:
    • रक्षा उपकरण या वस्तुओं का उत्पादन।
    • ऐसे उत्पादन में जुड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों या इकाइयों का संचालन या रखरखाव।
    • रक्षा से जुड़े उत्पादों की मरम्मत या रखरखाव।

 हड़ताल की परिभाषा :

  • इसे एक साथ कार्यरत व्यक्तियों के एक निकाय द्वारा कार्य की समाप्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें शामिल हैं: 
    • सामूहिक आकस्मिक अवकाश।
    • किसी भी संख्या में व्यक्तियों को कार्यरत रखना या रोज़गार स्वीकार करने से समन्वित इनकार।
    • जहाँ आवश्यक रक्षा सेवाओं के रख-रखाव हेतु ऐसा कार्य ज़रूरी हो, वहाँ ओवरटाइम कार्य प्रणाली से इनकार करना।
    • कोई अन्य आचरण जिसके परिणामस्वरूप आवश्यक रक्षा सेवाओं के कार्य में व्यवधान उत्पन्न होता है या होने की संभावना है।
  • हड़ताल, तालाबंदी और छँटनी पर रोक: 
    • सरकार आवश्यक रक्षा सेवाओं में लगी इकाइयों में हड़ताल, तालाबंदी और छँटनी पर रोक लगा सकती है।
    • साथ ही भारत की संप्रभुता और अखंडता, किसी भी राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता आदि के हित में यदि आवश्यक हो तो ऐसा आदेश जारी कर सकता है।

दंड:

  • अवैध तालाबंदी और छँटनी:
    • अवैध तालाबंदी या छँटनी करने वाले नियोक्ताओं को एक वर्ष तक की कैद या 10,000 रुपए जुर्माना या दोनों सज़ा एक साथ दी जा सकती है।
  • हड़ताल:
    • अवैध हड़ताल शुरू करने वाले या उसमें भाग लेने वाले व्यक्ति को एक वर्ष तक की कैद या 10,000 रुपए का जुर्माना या फिर दोनों सज़ा एक साथ दी जा सकती है।
    • अवैध हड़ताल जारी रखने के लिये उकसाने या जान-बूझकर ऐसे उद्देश्यों के लिये पैसे की आपूर्ति करने वाले व्यक्ति को दो वर्ष तक की कैद या 15,000 रुपए का जुर्माना या फिर दोनों सज़ा एक साथ हो सकती है।
      • ऐसे कर्मचारियों के विरुद्ध सेवा नियमों और शर्तों के अनुसार बर्खास्तगी सहित अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है।
      • ऐसे मामले में जिसमें जाँच करना व्यावहारिक रूप से उचित नहीं है, उसमें संबंधित प्राधिकारी को बिना किसी पूछताछ के कर्मचारी को बर्खास्त करने या हटाने की अनुमति दी जाती है।
  • सभी अपराधों की सज़ा संज्ञेय (Cognisable) और गैर-जमानती होगी।
    • संज्ञेय अपराध वे होते हैं जिनमें तत्काल गिरफ्तारी की आवश्यकता होती है।

सार्वजनिक उपयोगिता सेवा:

  • यह सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं (Public Utility Service) के अंतर्गत आवश्यक रक्षा सेवाओं को शामिल करने के लिये औद्योगिक विवाद अधिनियम (Industrial Disputes Act), 1947 में संशोधन करेगा।
    • बिजली, पानी, गैस, परिवहन आदि जैसी बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति करने वाले उपक्रम जनोपयोगी सेवा प्रदाता के दायरे में आते हैं।

हड़ताल का अधिकार

  • हड़ताल के अधिकार को विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1) मौलिक अधिकारों के रूप में कुछ स्वतंत्रताओं की सुरक्षा की गारंटी देता है जैसे:
    • वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
    • शांति पूर्वक और हथियारों के बिना सम्मेलन की स्वतंत्रता।
    • संगम या संघ बनाने का अधिकार।
    • पूरे भारत क्षेत्र में अबाध संचरण की स्वतंत्रता।
    • भारत के किसी भी हिस्से में निवास करने और बसने की स्वतंत्रता।
    • किसी भी व्यवसाय, पेशा अपनाने एवं व्यापार शुरू करने की स्वतंत्रता।
  • हालाँकि भारत के संविधान में हड़ताल को स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने कामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य 1958 के मामले को यह कहकर सुलझा लिया कि हड़ताल मौलिक अधिकार नहीं है। सरकारी कर्मचारियों को हड़ताल पर जाने का कोई कानूनी या नैतिक अधिकार नहीं है।
  • भारत ने औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत हड़ताल को एक वैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है।

औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947

  • यह सार्वजनिक उपयोगिता सेवा और हड़ताल को परिभाषित करता है, यह हड़ताल के अधिकार पर कुछ निषेध भी लगाता है। यह प्रावधान करता है कि सार्वजनिक उपयोगिता सेवा में कार्यरत कोई भी व्यक्ति अनुबंध का उल्लंघन कर हड़ताल पर नहीं जाएगा, जो इस प्रकार है:
    • हड़ताल से पहले छह सप्ताह के भीतर नियोक्ता को हड़ताल का नोटिस दिये बिना।
    • ऐसा नोटिस देने के चौदह दिनों के भीतर।
    • पूर्वोक्त ऐसे किसी नोटिस में निर्दिष्ट हड़ताल की तिथि की समाप्ति से पहले।
    • सुलह अधिकारी के समक्ष किसी भी सुलह की कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान और ऐसी कार्यवाही के समापन के सात दिन बाद।
  • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि ये प्रावधान कामगारों को हड़ताल पर जाने से नहीं रोकते हैं, लेकिन उन्हें हड़ताल पर जाने से पहले शर्त को पूरा करने की आवश्यकता होती है। इसके अलावा ये प्रावधान केवल सार्वजनिक उपयोगिता सेवा (Public Utility Service) पर लागू होते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन

प्रिलिम्स के लिये

नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन

मेन्स के लिये

इस परियोजना के भू-राजनीतिक निहितार्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अमेरिका ने ‘जर्मनी-रूस नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन’ (NS2P) परियोजना को मंज़ूरी दी है, जिससे रूस पर यूरोप की ऊर्जा निर्भरता काफी बढ़ जाएगी।

  • अमेरिका ने इससे पूर्व रूस और जर्मनी के बीच इस गैस पाइपलाइन को पूरा करने पर प्रतिबंध लगा दिया था।

Nord-Stream-2-Pipeline

प्रमुख बिंदु

नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन

  • यह 1,200 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन है, जो रूस में उस्त-लुगा से जर्मनी में ग्रीफ्सवाल्ड तक बाल्टिक सागर के रास्ते होकर गुज़रती है। इसमें प्रतिवर्ष 55 बिलियन क्यूबिक मीटर गैस ले जाने की क्षमता होगी।
  • इस पाइपलाइन को बनाने का निर्णय वर्ष 2015 में लिया गया था।
  • ‘नॉर्ड स्ट्रीम 1 सिस्टम’ को पहले ही पूरा किया जा चुका है और ‘नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन’ के साथ मिलकर यह जर्मनी को प्रतिवर्ष 110 बिलियन क्यूबिक मीटर गैस की आपूर्ति करेगा।

प्रभाव

  • रूस पर यूरोपीय संघ की निर्भरता
    • यह प्राकृतिक गैस के लिये रूस पर यूरोप की निर्भरता को और अधिक बढ़ाएगा, जबकि वर्तमान में यूरोपीय संघ के देश पहले से ही अपनी 40% गैस संबंधी आवश्यकताओं के लिये रूस पर निर्भर हैं।
  • यूक्रेन पर नकारात्मक प्रभाव
    • रूस और यूरोप के बीच एक मौजूदा पाइपलाइन है, जो कि यूक्रेन से होकर गुज़रती है, किंतु ‘नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन’ परियोजना पूरी हो जाने के बाद यह यूक्रेन को बायपास कर देगी और इसके कारण यूक्रेन को प्रति वर्ष लगभग 3 बिलियन डॉलर के महत्त्वपूर्ण पारगमन शुल्क का नुकसान होगा।
  • रूस के लिये भू-राजनीतिक जीत
    • यह रूस के लिये एक भू-राजनीतिक जीत और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उसके सहयोगियों के लिये परेशानी का सबब हो सकती है।

संयुक्त राज्य का नया रुख:

  • रूस को धमकी देने का नरम विकल्प:
    • अमेरिका ने रूस को धमकी देने के लिये नरम विकल्प को अपनाया है कि यदि इस पाइपलाइन का उपयोग किया जाता है तो इससे यूक्रेन या पूर्वी यूरोप के अन्य देशों को नुकसान पहुँच सकता है।
    • एक तरफ यह रूस के हाइड्रोकार्बन तक पहुँच प्राप्त करना चाहता है, वहीं दूसरी ओर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को शंका में डालता है, जो कि वर्ष 2014 के क्रीमियन संघर्ष और वर्ष 2016 तथा वर्ष 2020 के अमेरिकी चुनावों में कथित हस्तक्षेप जैसे अपराधों की एक शृंखला के लिये उत्तरदायी हैं। .
  • रूस के खिलाफ जर्मनी का अपना अधिनियम:
    • US-जर्मनी समझौता दर्शाता है कि अगर 'रूस ऊर्जा को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने और यूक्रेन के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई करने का प्रयास करता है' तो जर्मनी स्वयं प्रतिबंध लगाएगा तथा रूसी निर्यात को सीमित करेगा।
  • ग्रीन फंड फॉर यूक्रेन:
    • जर्मनी को मौजूदा रूस-यूक्रेन गैस पारगमन समझौते को 10 वर्ष तक बढ़ाने के लिये "सभी उपलब्ध शक्तियों या लाभों का उपयोग" करना है।
    • जर्मनी को भी यूक्रेन की ऊर्जा व्यवस्था में सुधार हेतु नए निर्मित 1 बिलियन डॉलर के ग्रीन फंड में कम-से-कम 175 मिलियन डॉलर का योगदान करना है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

नमक-स्रावित करने वाली मैंग्रोव प्रजाति के जीनोम की डिकोडिंग

प्रिलिम्स के लिये:

जीनोम अनुक्रम

मेन्स के लिये:

जैव विविधता के संदर्भ में अध्ययन का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वैज्ञानिकों ने पहली बार अत्यधिक नमक-सहिष्णु और नमक-स्रावित करने वाली मैंग्रोव प्रजाति एविसेनिया मरीना (Avicennia Marina) के संदर्भ-ग्रेड के एक पूरे जीनोम अनुक्रम (Genome Sequence) की जानकारी प्रदान की है।

  • इस अध्ययन का नेतृत्व जैव प्रौद्योगिकी विभाग ( Department of Biotechnology- DBT) जीवन विज्ञान संस्थान, भुवनेश्वर द्वारा किया गया था।

प्रमुख बिंदु: 

एविसेनिया मरीना: 

  • एविसेनिया मरीना भारत में सभी मैंग्रोव संरचनाओं में पाई जाने वाली सबसे प्रमुख मैंग्रोव प्रजातियों में से एक है।
  •  यह एक नमक-स्रावित और असाधारण रूप से नमक-सहिष्णु मैंग्रोव प्रजाति है जो 75% समुद्री जल में भी बेहतर रूप से बढ़ती है तथा >250% समुद्री जल को सहन करती है। 
  • यह दुर्लभ पौधों की प्रजातियों में से है, जो जड़ों में नमक के प्रवेश को बाहर करने की असाधारण क्षमता के अलावा नमक ग्रंथियों के माध्यम से 40% नमक का उत्सर्जन कर सकती है।
  • इसे ग्रे मैंग्रोव या सफेद मैंग्रोव भी कहा जाता है।

अध्ययन का महत्त्व: 

  • यह अध्ययन इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादकता सीमित पानी की उपलब्धता और मिट्टी एवं पानी के लवणीकरण जैसे अजैविक तनाव कारकों के कारण प्रभावित होती है। 
    • शुष्क क्षेत्रों में फसल उत्पादन हेतु जल की उपलब्धता एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है, जो विश्व के कुल भूमि क्षेत्र का 40 प्रतिशत है। 
    • विश्व स्तर पर लवणता 900 मिलियन हेक्टेयर (भारत में अनुमानित 6.73 मिलियन हेक्टेयर) है और इससे 27 बिलियन अमेरिकी डॉलर का वार्षिक नुकसान होने का अनुमान है।
  • अध्ययन में उत्पन्न जीनोमिक संसाधन शोधकर्त्ताओं के लिये तटीय क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण  फसल प्रजातियों की सूखी और लवणता सहिष्णु किस्मों के विकास के लिये पहचाने गए जीन की क्षमता का अध्ययन करने का मार्ग प्रशस्त करेंगे, जो भारत के 7,500 मीटर समुद्र तट और दो प्रमुख द्वीपों की व्यवस्था हेतु महत्त्वपूर्ण हैं।

मैंग्रोव:

  • ये छोटे पेड़ या झाड़ी होते हैं जो समुद्र तटों, नदियों के मुहानों पर स्थित ज्वारीय, दलदली भूमि पर पाए जाते हैं। मुख्यतः खारे पानी में इनका विकास होता है।
  • 'मैंग्रोव' शब्द संपूर्ण निवास स्थान या मैंग्रोव दलदल में पेड़ों और झाड़ियों को संदर्भित करता है।
  • मैंग्रोव फूल वाले पेड़ हैं, जो राइज़ोफोरेसी, एकेंथेसी, लिथ्रेसी, कॉम्ब्रेटेसी और अरेकेसी परिवारों से संबंधित हैं।

मैंग्रोव की विशेषताएँ:

  • लवणीय वातावरण: ये अत्यधिक प्रतिकूल वातावरण जैसे- उच्च नमक और कम ऑक्सीजन की स्थिति में जीवित रह सकते हैं।
  • कम ऑक्सीजन: किसी भी पौधे के भूमिगत ऊतक को श्वसन के लिये ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है लेकिन मैंग्रोव वातावरण में मिट्टी में ऑक्सीजन सीमित या शून्य होती है। इसलिये मैंग्रोव जड़ प्रणाली वातावरण से ऑक्सीजन को अवशोषित करती है।
    • इस उद्देश्य के लिये मैंग्रोव की विशेष जड़ें होती हैं जिन्हें ‘ब्रीदिंग रूट्स’ या ‘न्यूमेटोफोर्स’ कहा जाता है।
    • इन जड़ों में कई छिद्र होते हैं जिनके माध्यम से ऑक्सीजन भूमिगत ऊतकों में प्रवेश करती है।
  • रसीले पत्ते: मैंग्रोव रेगिस्तानी पौधों की तरह मोटे रसीले पत्तों में ताज़ा पानी जमा करते हैं।
    • पत्तियों पर ‘वैक्सी कोटिंग’ पानी को सील कर देता है और वाष्पीकरण को कम करता है।
  • विविपेरस: उनके बीज मूल वृक्ष से जुड़े रहते हुए अंकुरित होते हैं। एक बार अंकुरित होने के बाद वह प्रजनक के रूप में बढ़ता है।

खतरे: 

  • तटीय निर्माण: पिछले कुछ दशकों के दौरान सभी मैंग्रोव वनों का कम-से-कम एक तिहाई हिस्सा नष्ट हो गया है। झींगा खेतों, होटलों और अन्य संरचनाओं के निर्माण सहित तटीय विकास मैंग्रोव वनों के लिये प्राथमिक खतरा है।
    • कृषि भूमि और मानव बस्तियों के विस्तार के लिये प्रायः मैंग्रोव वनों को काटा जाता है।
  • अत्यधिक हार्वेस्टिंग: मैंग्रोव पेड़ों का उपयोग जलाऊ लकड़ी, निर्माण लकड़ी, लकड़ी का कोयला उत्पादन और पशुओं के चारे के लिये किया जाता है।
    • दुनिया के कुछ हिस्सों में मैंग्रोव वनों की अत्यधिक हार्वेस्टिंग की जा रही है, जो कि किसी भी दृष्टि से सतत् नहीं है।
  • अन्य: मैंग्रोव वनों और उनके पारिस्थितिकी तंत्र के लिये अन्य खतरों में- अत्यधिक मत्स्य पालन, प्रदूषण और समुद्र का बढ़ता स्तर आदि शामिल हैं।

कवरेज

  • वैश्विक: दुनिया के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में मैंग्रोव 118 से अधिक देशों और क्षेत्रों में पाए जा सकते हैं।
    • एशिया में दुनिया के मैंग्रोव वनों का सबसे बड़ा कवरेज है, जिसके बाद अफ्रीका, उत्तरी एवं मध्य अमेरिका, ओशिनिया और दक्षिण अमेरिका का स्थान है।
    • दुनिया के लगभग 75% मैंग्रोव वन सिर्फ 15 देशों में पाए जाते हैं।
  • भारत: 
    • भारत वन स्थिति रिपोर्ट (India State of Forest Report), 2019 के अनुसार देश में मैंग्रोव आवरण 4,975 वर्ग किमी. है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 0.15% है।
      • देश में मैंग्रोव वनस्‍पति में वर्ष 2017 के आकलन की तुलना में कुल 54 वर्ग किमी. (1.10%) की वृद्धि हुई है।
    • गंगा, महानदी, कृष्णा, गोदावरी और कावेरी नदियों के डेल्टा में मैंग्रोव वन पाए जाते हैं।
    • केरल के बैकवाटर में मैंग्रोव वन का उच्च घनत्व है।
    • पश्चिम बंगाल में सुंदरबन (Sundarban) विश्व का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है  जो यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थल (UNESCO World Heritage Site) में शामिल है।
      • यह पश्चिम बंगाल में हुगली नदी से बांग्लादेश में बालेश्वर नदी तक फैला हुआ है।
    • ओडिशा में भितरकनिका मैंग्रोव प्रणाली भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है।
    • तमिलनाडु के पिचावरम में मैंग्रोव वनों से आच्छादित पानी का विशाल विस्तार है। यह कई जलीय पक्षी प्रजातियों का घर है।
    • पश्चिम बंगाल में भारत के मैंग्रोव कवर का 42.45% हिस्सा है, इसके बाद गुजरात में 23.66% और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में 12.39% है।

Ecosystem-Services

स्रोत: पी.आई.बी.


भारतीय अर्थव्यवस्था

RBI की डिजिटल मुद्रा

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय रिज़र्व बैंक, डिजिटल मुद्रा, क्रिप्टोकरेंसी

मेन्स के लिये:

भारत के लिये डिजिटल मुद्रा का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) अपनी डिजिटल मुद्रा की शुरुआत के लिये चरणबद्ध कार्यान्वयन रणनीति पर काम कर रहा है और निकट भविष्य में इसे थोक एवं खुदरा क्षेत्रों में लॉन्च करने की प्रक्रिया में है।

  • वित्त मंत्रालय द्वारा गठित एक उच्च-स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति ने आरबीआई अधिनियम सहित कानूनी ढाँचे में बदलाव के साथ केंद्रीय बैंक डिजिटल मुद्रा (सीबीडीसी) की सिफारिश की थी, जो वर्तमान में आरबीआई को बैंक नोट जारी करने के विनियमन का अधिकार देता है।

प्रमुख बिंदु

डिजिटल करेंसी:

  • यह एक भुगतान विधि है जो केवल इलेक्ट्रॉनिक रूप में मौजूद है और मूर्त नहीं है।
  • इसे कंप्यूटर, स्मार्टफोन और इंटरनेट जैसी तकनीक की मदद से संस्थाओं या उपयोगकर्त्ताओं के बीच स्थानांतरित किया जा सकता है।
  • यद्यपि यह भौतिक मुद्राओं के समान है, डिजिटल मुद्रा स्वामित्व के सीमाहीन हस्तांतरण के साथ-साथ तात्कालिक लेनदेन की अनुमति देती है।
  • डिजिटल करेंसी को डिजिटल मनी और साइबरकैश के नाम से भी जाना जाता है।
  • जैसे-क्रिप्टोकरेंसी

आवश्यकता:

  • कदाचार को संबोधित करना:
    • एक संप्रभु डिजिटल मुद्रा की आवश्यकता मौजूदा क्रिप्टोकरेंसी के अराजक डिज़ाइन से उत्पन्न होती है, जिसमें उनका निर्माण एवं रखरखाव जनता के हाथों में होता है।
      • सरकारी पर्यवेक्षण और सीमा पार भुगतान में आसानी, कर चोरी, आतंकी फंडिंग, मनी लॉन्ड्रिंग आदि जैसे कदाचारों के लिये असुरक्षित हैं।
      • डिजिटल मुद्रा को विनियमित करके केंद्रीय बैंक कदाचार पर रोक लगा सकता है
  • परिवर्तनशीलता/अस्थिरता को संबोधित करना:
    • चूंँकि क्रिप्टोकरेंसी किसी संपत्ति या मुद्रा से जुड़ी नहीं हैं, इसका मूल्य पूरी तरह से सट्टेबाज़ी (मांग और आपूर्ति) द्वारा निर्धारित किया जाता है।
    • इसके कारण बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी के मूल्य में भारी उतार-चढ़ाव आया है।
      • CBDCs को किसी भी संपत्ति जैसे- सोना या फिएट मुद्रा से क्रिप्टोकरेंसी में देखी जा रही अस्थिरता के अनुसार नहीं जोड़ा जाएगा।
  •  डिजिटल छद्म युद्ध:
    • भारत एक डिजिटल मुद्रा छद्म युद्ध के बवंडर में फंस सकता है क्योंकि अमेरिका और चीन नए जमाने के वित्तीय उत्पादों को पेश करके अन्य बाज़ारों में वर्चस्व हासिल करने के लिये  प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं।
      • वर्तमान में एक संप्रभु डिजिटल रुपया केवल वित्तीय नवाचार का मामला ही नहीं है  बल्कि इसके माध्यम से होने वाले अपरिहार्य छद्म युद्ध को भी रोकने की आवश्यकता है जो हमारी राष्ट्रीय और वित्तीय सुरक्षा के लिये खतरा उत्पन्न कर सकता है।
  • डॉलर पर निर्भरता को कम करना:
    • डिजिटल रुपया भारत को अपने रणनीतिक भागीदारों के साथ व्यापार के लिये एक बेहतर मुद्रा के रूप में प्रभुत्व स्थापित करने का अवसर प्रदान करता है, जिससे डॉलर पर निर्भरता कम होगी।
  • निजी मुद्रा का आगमन:
    • यदि निजी मुद्राओं को मान्यता मिलती है, तो ये सीमित परिवर्तनीयता वाली राष्ट्रीय मुद्राओं के समक्ष जोखिम उत्पन्न कर सकती हैं।

महत्त्व:

  • यह बिना किसी इंटर-बैंक सेटलमेंट के वास्तविक समय में भुगतान को सक्षम करते हुए मुद्रा प्रबंधन की लागत को कम करेगा।
  • भारत का काफी उच्च मुद्रा-जीडीपी अनुपात सेंट्रल बैंक डिजिटल मुद्रा (सीबीडी) का एक और लाभ  है, इससे काफी हद तक बड़े नकदी उपयोग (सीबीडीसी) द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है तथा कागज़ी मुद्रा की छपाई, परिवहन और भंडारण की लागत को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
  • यह निजी आभासी मुद्राओं के उपयोग से जनता को होने वाले नुकसान को भी कम करेगा।

मुद्दे:

  • आरबीआई की जाँच के अंतर्गत कुछ प्रमुख मुद्दों में सीबीडीसी का दायरा, अंतर्निहित तकनीक, सत्यापन तंत्र आदि शामिल हैं।
  • साथ ही कानूनी परिवर्तन आवश्यक होंगे क्योंकि वर्तमान प्रावधान भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम (Reserve Bank of India Act) के अंतर्गत भौतिक रूप में मुद्रा को ध्यान में रखते हुए किये गए हैं।
  • सिक्का अधिनियम (Coinage Act), विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FEMA) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (Information Technology Act) में भी संशोधन की आवश्यकता होगी।
  • तनाव के अंतर्गत बैंक से पैसे की अचानक निकासी चिंता का एक और मुद्दा है।

हाल में हुए परिवर्तन:

  • मध्य अमेरिका का एक छोटा-सा तटीय देश अल साल्वाडोर बिटकॉइन को कानूनी रूप में अपनाने वाला विश्व का पहला देश बन गया है।
  • ब्रिटेन भी सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी (Britcoin) बनाने की संभावना तलाश रहा है।
  • चीन ने वर्ष 2020 में अपनी आधिकारिक डिजिटल मुद्रा का परीक्षण शुरू किया जिसे अनौपचारिक रूप से "डिजिटल मुद्रा इलेक्ट्रॉनिक भुगतान, डीसी/ईपी" (Digital Currency Electronic Payment, DC/EP) कहा जाता है।
  • अप्रैल 2018 में धोखाधड़ी के लिये डिजिटल मुद्राओं का उपयोग किये जाने के बाद आरबीआई ने बैंकों और अन्य विनियमित संस्थाओं के लिये क्रिप्टो में लेन-देन को  प्रतिबंधित कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने मार्च 2020 में प्रतिबंध को असंवैधानिक करार दिया।

आगे की राह

  • डिजिटल मुद्रा का निर्माण भारत को अपने नागरिकों को सशक्त बनाने और हमारी लगातार बढ़ती डिजिटल अर्थव्यवस्था में इसका स्वतंत्र रूप से उपयोग करने तथा पुरानी बैंकिंग प्रणाली से मुक्त होने में सक्षम बनाने का अवसर प्रदान करेगा।
  •  मैक्रोइकॉनमी, तरलता, बैंकिंग सिस्टम एवं मुद्रा बाज़ारों पर इसके प्रभाव को देखते हुए नीति निर्माताओं के लिये भारत में डिजिटल मुद्रा की संभावनाओं पर विचार करना अनिवार्य हो गया है।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

भारत में निगरानी कानून और गोपनीयता

प्रिलिम्स के लिये:

पेगासस, टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000

मेन्स के लिये:

भारत में निगरानी कानून और गोपनीयता से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक वैश्विक सहयोगी खोजी प्रयास से पता चला है कि पेगासस (Pegasus) नामक परिष्कृत स्पाइवेयर का उपयोग करके लक्षित निगरानी के लिये भारत में कम-से-कम 300 व्यक्तियों की संभावित रूप से पहचान की गई थी। हालाँकि सरकार ने दावा किया है कि भारत में सभी इंटरसेप्शन/अवरोध कानूनी रूप से होते हैं।

  • भारत में संचार निगरानी मुख्य रूप से दो कानूनों- टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत होती है।
  • जहाँ टेलीग्राफ अधिनियम कॉल्स के अवरोधन से संबंधित है, वहीं सूचना प्रौद्योगिकी को सभी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक संचार की निगरानी से निपटने के लिये अधिनियमित किया गया था।

Pegasus-Project

प्रमुख बिंदु:

टेलीग्राफ अधिनियम: 

  • इस कानून की धारा 5(2) के तहत सरकार केवल कुछ स्थितियों में ही कॉल को इंटरसेप्ट कर सकती है:
    • जहाँ भारत की संप्रभुता और अखंडता के हित की बात हो।
    • राज्य की सुरक्षा के हित में।
    • विदेशी राज्यों या सार्वजनिक व्यवस्था के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध।
    • किसी अपराध को करने के लिये उकसाने से रोकना।

नोट: 

ये वही प्रतिबंध हैं जो संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए हैं।

  • हालाँकि ये प्रतिबंध तभी लगाए जा सकते हैं, जब सार्वजनिक आपात की स्थिति हो या सार्वजनिक सुरक्षा के हित का मामला हो।
  • इसके अलावा निगरानी के लिये किसी व्यक्ति के चयन का आधार और सूचना एकत्र करने की सीमा को लिखित रूप में दर्ज किया जाता है।
  • यह वैध इंटरसेप्शन पत्रकारों के खिलाफ नहीं हो सकता।
    • भारत में प्रकाशन के इरादे से केंद्र सरकार या राज्य सरकार से मान्यता प्राप्त संवाददाताओं के प्रेस संदेश, बशर्ते कि उनके प्रसारण को इस उपधारा के तहत प्रतिबंधित नहीं किया गया हो।
  • सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप: पब्लिक यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ बनाम भारत संघ’ (1996) वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने टेलीग्राफ अधिनियम के प्रावधानों में प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की कमी की ओर इशारा करते हुए निम्नलिखित टिप्पणियाँ की थीं-
    • टैपिंग किसी व्यक्ति की निजता पर गंभीर आक्रमण है।
    • इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रत्येक सरकार अपने खुफिया संगठन के माध्यम से कुछ हद तक निगरानी अभियान चलाती है, लेकिन साथ ही नागरिकों की निजता के अधिकार की रक्षा की जानी भी आवश्यक है।
  • इंटरसेप्शन के लिये स्वीकृति: सर्वोच्च न्यायालय की उपयुक्त टिप्पणियों ने वर्ष 2007 में टेलीग्राफ नियम में नियम 419A को पेश करने और बाद में वर्ष 2009 में आईटी अधिनियम में बदलाव करने का आधार प्रस्तुत किया था।
    • नियम 419A में कहा गया है कि गृह मंत्रालय में भारत सरकार का सचिव (संयुक्त सचिव के पद से नीचे का नहीं) केंद्र के मामले में इंटरसेप्शन का आदेश पारित कर सकता है और इसी तरह के प्रावधान राज्य स्तर पर भी मौजूद हैं।

आईटी अधिनियम, 2000

  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69 और सूचना प्रौद्योगिकी (प्रक्रिया और सुरक्षा के लिये अवरोधन, निगरानी एवं सूचना के डिक्रिप्शन) नियम, 2009 को इलेक्ट्रॉनिक निगरानी के लिये कानूनी ढाँचा प्रदान करने हेतु अधिनियमित किया गया था।
  • हालाँकि आईटी अधिनियम की धारा 69 का दायरा टेलीग्राफ अधिनियम की तुलना में बहुत व्यापक व अस्पष्ट है, क्योंकि इसके तहत इलेक्ट्रॉनिक निगरानी शुरू करने की एकमात्र शर्त ‘अपराध की जाँच’ करना है।
  • ये प्रावधान समस्याग्रस्त हैं और सरकार को इंटरसेप्शन एवं निगरानी गतिविधियों के संबंध में पूरी तरह से अस्पष्टता प्रदान करते हैं।

निगरानी से संबंधित मुद्दे:

  • कानूनी खामियाँ: सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के अनुसार, विधिक अंतराल निगरानी की अनुमति देता है तथा गोपनीयता को प्रभावित करता है। उदाहरण :
    • इंटरसेप्शन (Interception) के प्रकार जैसे मुद्दों पर अस्पष्टता, सूचना के विवरण का स्तर जिसे इंटरसेप्ट किया जा सकता है और सेवा प्रदाताओं से सहायता के परिणामस्वरूप कानून को दरकिनार करने में तथा राज्य द्वारा निगरानी में सहायता करती है।
  • मौलिक अधिकारों का प्रभावित होना : एक निगरानी प्रणाली की मौजूदगी निजता के अधिकार (केएस पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ मामला 2017 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आयोजित) तथा संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत वाक् स्वतंत्रता एवं  वैयक्तिक स्वतंत्रता के अभ्यास को प्रभावित करती है।
  • अधिनायकवादी शासन: निगरानी, सरकारी कामकाज में सत्तावाद के प्रसार को बढ़ावा देती है क्योंकि यह कार्यपालिका को नागरिकों पर अधिक शक्ति का प्रयोग करने और उनके व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करने की अनुमति देती है।
  • प्रेस की स्वतंत्रता को खतरा: पेगासस (Pegasus) के उपयोग पर वर्तमान खुलासे से पता चलता है कि कई पत्रकारों पर भी निगरानी रखी गई थी। इससे प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित होती है।

आगे की राह

  • भारतीय निगरानी व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है, जिसमें निगरानी की नैतिकता को शामिल किया जाना चाहिये और निगरानी के नैतिक पहलुओं पर विचार करना चाहिये।
  • इस संदर्भ में व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (PDP) विधेयक, 2019 के अधिनियमित होने से पहले एक समग्र बहस की आवश्यकता है।
  • ताकि मौलिक अधिकारों की आधारशिला के खिलाफ कानून का परीक्षण किया जा सके और डिजिटल अर्थव्यवस्था के विकास एवं देश की सुरक्षा को संतुलित किया जा सके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजनीति

उच्च न्यायालयों में न्यायिक नियुक्ति

प्रिलिम्स के लिये:

राज्यसभा, कार्यपालिका, न्यायपालिका, अनुच्छेद 217, अनुच्छेद 224A, तदर्थ न्यायाधीश, कॉलेजियम सिस्टम

मेन्स के लिये:

उच्च न्यायालयों में न्यायिक नियुक्ति से संबंधित विभिन्न संवैधानिक प्रावधान

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री ने राज्यसभा को विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में जानकारी दी।

  • मंत्री ने कहा कि उच्च न्यायपालिका में रिक्त पदों को भरना कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक सतत्, एकीकृत और सहयोगात्मक प्रक्रिया है।
  • इसके लिये राज्य के साथ-साथ केंद्रीय स्तर पर संवैधानिक अधिकारियों से परामर्श और अनुमोदन की आवश्यकता होती है।

प्रमुख बिंदु

HC के न्यायाधीशों की नियुक्ति:

  • संविधान का अनुच्छेद 217: यह कहता है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाएगी।
    • मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाता है।
  • परामर्श प्रक्रिया: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश एक कॉलेजियम द्वारा की जाती है जिसमें CJI और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
    • यह प्रस्ताव दो वरिष्ठतम सहयोगियों के परामर्श से संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाता है।
    • सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो केंद्रीय कानून मंत्री को प्रस्ताव राज्यपाल को भेजने की सलाह देता है।
    • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति इस नीति के आधार पर की जाती है कि राज्य का मुख्य न्यायाधीश संबंधित राज्य से बाहर का होगा।
  • तदर्थ न्यायाधीश: संविधान के अनुच्छेद 224A के अंतर्गत सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
    • किसी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति, जो उस उच्च न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय में न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, से उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा।
    • हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों (Pendency of Cases) से निपटने के लिये सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति पर ज़ोर दिया है।
      • अदालत ने तदर्थ न्यायाधीश (Ad-hoc Judge) की नियुक्ति और कार्यपद्धति हेतु मौखिक दिशा-निर्देश दिये हैं।

कॉलेजियम सिस्टम:

  • यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों (न कि संसद के अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा) के माध्यम से विकसित हुई है।
  • विकास:
    • इसने प्रथम न्यायाधीश मामले (First Judges Case) में वर्ष 1981 के अंतर्गत फैसला सुनाया कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सिफारिश की "प्राथमिकता" को "ठोस कारण होने पर अस्वीकार किया जा सकता है।
      • तत्कालीन सरकार ने अगले 12 वर्षों के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका पर कार्यपालिका को प्राथमिकता दी।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने द्वितीय न्यायाधीश मामले (Second Judges Case) में वर्ष 1993 में कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत, यह मानते हुए की कि परामर्श से तात्पर्य सहमति है। 
      • इसमें कहा गया है कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं थी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय में दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से गठित एक संस्थागत राय थी।
  • तीसरे न्यायाधीश मामले (Third Judges Case) में वर्ष 1998 के अनुसार राष्ट्रपति को दिया गया परामर्श बहुसंख्यक न्यायाधीशों का परामर्श माना जाएगा, इस परामर्श में मुख्य न्यायाधीश के साथ सर्वोच्च न्यायालय के 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श शामिल होंगे।

शामिल मुद्दे: 

  • बोझिल प्रक्रिया: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में अत्यधिक देरी होती है और उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की घटती संख्या न्याय वितरण तंत्र को प्रभावित कर सकती है।
  • पारदर्शिता का अभाव: औपचारिक मानदंडों की अनुपस्थिति के कई चिंताजनक निहितार्थ हैं।
    • वर्तमान में यह जांँचने हेतु कोई संरचित प्रक्रिया नहीं है कि कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित किसी न्यायाधीश के हितों का कोई टकराव है या नहीं।
  • अनुचित प्रतिनिधित्व: कॉलेजियम प्रणाली संरचनात्मक रूप से समाज के विशेष वर्गों का पक्ष लेती है तथा आबादी के उन समूहों से काफी दूर है जिनके न्याय हेतु वह प्रतिनिधित्व करना चाहती है।
  • उच्च न्यायालयों में रिक्तियांँ: 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की कुल स्वीकृत संख्या 1,098 है, लेकिन कार्यरत न्यायाधीशों की कुल संख्या केवल 645 है तथा 453 न्यायाधीशों की कमी है।
  • लंबित मामलों की उच्च संख्या: विभिन्न स्तरों पर भारत के कई न्यायालयों में लंबित मामलों की कुल संख्या  लगभग 3.7 करोड़ है, इस प्रकार एक बेहतर न्यायिक प्रणाली की मांग बढ़ रही है।

सुधार के प्रयास:

  • 99वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2014 के माध्यम से कॉलेजियम को वर्ष 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) द्वारा प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया गया था।
  • NJAC ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति को और अधिक पारदर्शी बनाने का प्रस्ताव रखा।
    • आयोग द्वारा उन सदस्यों का चयन किया जाएगा जो न्यायपालिका, विधायिका और नागरिक समाज से संबंधित होंगे।
  • सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने  वर्ष 2015 में  NJAC को असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि यह भारत के संविधान के मूल ढाँचे (आधारभूत संरचना) का उल्लंघन करता है  जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये खतरा है।

आगे की राह:

  • यह एक स्थायी स्वतंत्र निकाय के बारे में सोचने का समय है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिये पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ प्रक्रिया को संस्थागत बनाने हेतु न्यायिक प्रधानता की गारंटी देता है लेकिन न्यायिक अनन्यता की नहीं।
    • इसे स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिये, विविधता को प्रतिबिंबित करना चाहिये, पेशेवर क्षमता और अखंडता का प्रदर्शन करना चाहिये।
  • एक निश्चित संख्या में रिक्तियों के लिये आवश्यक न्यायाधीशों की संख्या का चयन करने के बजाय कॉलेजियम द्वारा राष्ट्रपति को वरीयता और अन्य वैध मानदंडों के क्रम में नियुक्त करने के लिये संभावित नामों का एक पैनल प्रदान करना चाहिये।

स्रोत : द हिंदू


सामाजिक न्याय

‘मृत्युपूर्व घोषणा’ और संबंधित नियम

प्रिलिम्स के लिये

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, मृत्युपूर्व घोषणा

मेन्स के लिये

मृत्युपूर्व घोषणा: महत्त्व और संबंधित विवाद

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो’ (CBI) की एक विशेष अदालत ने हत्या के एक आरोपी की हिरासत में मौत के लिये दो पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई, जो कि पीड़ित द्वारा की गई ‘मृत्युपूर्व घोषणा' पर आधारित है।

  • ‘केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो’ (CBI) भारत की प्रमुख जाँच एजेंसी है। यह भारत सरकार के कार्मिक, पेंशन तथा लोक शिकायत मंत्रालय के कार्मिक विभाग [जो प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के अंतर्गत आता है] के अधीक्षण में कार्य करता है।

प्रमुख बिंदु

‘मृत्युपूर्व घोषणा' का आशय

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा-32(1) ‘मृत्युपूर्व घोषणा' को मृत व्यक्ति द्वारा दिये गए प्रासंगिक तथ्यों के लिखित या मौखिक बयान के रूप में परिभाषित करती है। यह उस व्यक्ति का कथन होता है जो अपनी मृत्यु की परिस्थितियों के बारे में बताते हुए मर गया था।
    • यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि ‘एक व्यक्ति झूठ के साथ अपने सृजनकर्त्ता के समक्ष नहीं जा सकता।
  • अधिनियम की धारा 60 के तहत सामान्य नियम यह है कि सभी मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होने चाहिये यानी पीड़ित ने इसे सुना, देखा या महसूस किया हो।

‘मृत्युपूर्व घोषणा' संबंधी नियम

  • ‘मृत्युपूर्व घोषणा' को मुख्यतः दो व्यापक नियमों के आधार पर स्वीकृति दी जा सकती है:
    • जब पीड़ित प्रायः अपराध का एकमात्र प्रमुख प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य हो।
    • ‘आसन्न मृत्यु का बोध’, जो न्यायालय में शपथ दायित्व के समान ही होता है।

‘मृत्युपूर्व घोषणा' की रिकॉर्डिंग:

  • कानून के अनुसार, कोई भी व्यक्ति मृतक का मृत्युपूर्व बयान दर्ज कर सकता है। हालाँकि न्यायिक या कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया मृत्युकालीन बयान अभियोजन मामले में अतिरिक्त शक्ति प्रदान करेगा।
    • ‘मृत्युपूर्व घोषणा' कई मामलों में "घटना की उत्पत्ति को साबित करने के लिये साक्ष्य का प्राथमिक हिस्सा" हो सकती है।
  • इस तरह की घोषणा के लिये अदालत में पूरी तरह से जवाबदेह होने की एकमात्र आवश्यकता पीड़ित के लिये स्वेच्छा से बयान देना और उसकी मानसिक स्थिति का स्वस्थ्य होना है। 
    • मृत्यु से पहले की गई घोषणा को दर्ज करने वाले व्यक्ति को इस बात से संतुष्ट होना चाहिये कि पीड़ित की मानसिक स्थिति ठीक है।

ऐसी स्थितियाँ जहाँ न्यायालय इसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं करता है:

  • हालाँकि ‘मृत्युपूर्व घोषणा' अधिक प्रभावकारी होती है क्योंकि आरोपी के पास जिरह की कोई गुंजाइस नहीं होती है।
    • यही कारण है कि अदालतों ने सदैव इस बात पर ज़ोर दिया है कि ‘मृत्युपूर्व घोषणा' इस तरह की होनी चाहिये कि अदालत को इसकी सत्यता पर पूरा भरोसा हो।
  • अदालतें इस बात की जाँच करने के मामले में सतर्क होती हैं कि मृतक का बयान किसी प्रोत्साहन या कल्पना का उत्पाद तो नहीं है। 

पुष्टि की आवश्यकता (सबूत के समर्थन में): 

  • कई निर्णयों में यह उल्लेख किया गया है कि यह न तो कानून का नियम है और न ही विवेक का, कि मृत्यु से पहले की घोषणा की बिना पुष्टि किये कार्रवाई नहीं की जा सकती है।
    • यदि न्यायालय इस बात से संतुष्ट है कि मृत्युपूर्व घोषणा सत्य और स्वैच्छिक है तो बिना पुष्टि के उस आधार पर दोषसिद्ध किया जा सकता है।
  • जहाँ मृत्युपूर्व घोषणापत्र संदेहास्पद हो, उस पर बिना पुष्ट साक्ष्य के कार्रवाई नहीं की जानी चाहिये क्योंकि मृत्युपूर्व घोषणा में घटना के बारे में विवरण नहीं होता है।
    • इसे केवल इसलिये खारिज नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि यह एक संक्षिप्त कथन है। इसके विपरीत कथन की संक्षिप्तता ही सत्य की गारंटी देती है।

चिकित्सकीय राय की वैधता:

  • आमतौर पर अदालत इस बात की संतुष्टि के लिये चिकित्सकीय राय ले सकती है कि क्या व्यक्ति मृत्युकालीन घोषणा करने के समय स्वस्थ मानसिक स्थिति में था।
  • लेकिन जहाँ चश्मदीद गवाह के कथन के अनुसार व्यक्ति ने मौत से पहले घोषणा मानसिक रूप से स्वस्थ और सचेत अवस्था में की है, वहाँ चिकित्सकीय राय मान्य नहीं हो सकती।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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