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डेली न्यूज़

  • 18 Sep, 2019
  • 52 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

ड्रोन और भारत

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली के लुटियंस ज़ोन (Lutyens Zone) में दो अमेरिकी नागरिकों को राष्ट्रपति भवन के आस-पास कैमरा लैस ड्रोन (Drone) उड़ाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।

क्या होते हैं ड्रोन

  • ड्रोन एक प्रकार का फ्लाइंग रोबोट (Flying Robot) होता है, जिसे मनुष्यों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इसकी खोज मनुष्यों ने अपने दैनिक कार्यों के संपादन के लिये की थी, परंतु वर्तमान में इसका प्रयोग खुफिया जानकारी प्राप्त करने हेतु भी काफी व्यापक स्तर पर किया जा रहा है।
  • ड्रोन को मानव रहित विमान (Unmanned Aerial Vehicle-UAV) भी कहा जाता है।
  • इसका प्रयोग सामान्यतः ऐसे स्थानों पर किया जाता है, जहाँ मनुष्य आसानी से नहीं पहुँच सकते।

ड्रोन के प्रकार

  • नागर विमानन महानिदेशालय (Directorate General of Civil Aviation-DGCA) ने ड्रोन के मुख्यतः 5 प्रकार निर्धारित किये हैं (1) नैनो (2) माइक्रो (3) स्मॉल (4) मीडियम और (5) लार्ज।
    • नैनो ड्रोन: वे ड्रोन जिनका वज़न 250 ग्राम तक होता है।
    • माइक्रो ड्रोन: वे ड्रोन जिनका वज़न 250 ग्राम से अधिक लेकिन 2 किलो ग्राम से कम होता है।
    • स्मॉल ड्रोन: वे ड्रोन जिनका वज़न 2 ग्राम किलो से अधिक लेकिन 25 किलो ग्राम से कम होता है।
    • मीडियम ड्रोन: वे ड्रोन जिनका वज़न 25 किलो ग्राम से अधिक लेकिन 150 किलो ग्राम से कम होता है।
    • लार्ज ड्रोन: वे ड्रोन जिनका वज़न 150 किलो ग्राम से अधिक होता है।
  • नैनो ड्रोन के अतिरिक्त अन्य सभी ड्रोन को विमानन नियामक (Aviation Regulator) से विशिष्ट पहचान संख्या (Unique Identification Number-UIN) प्राप्त करना आवश्यक होता है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि विशिष्ट पहचान संख्या ड्रोन पर प्रदर्शित हो।
  • भारत में UIN सिर्फ भारतीय नागरिकों के लिये ही होता है एवं यह विदेशी नागरिकों को जारी नहीं किया जाता।

ड्रोन उड़ाने संबंधी शर्तें

  • नैनो ड्रोन के अतिरिक्त अन्य सभी ड्रोन के लिये आवश्यक उपकरण जैसे- जीपीएस (GPS), आईडी प्लेट (ID Plate), रेडियो फ्रिक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (Radio-Frequency Identification) आदि अनिवार्य हैं।
  • साथ ही यह भी आवश्यक है कि यदि कोई व्यक्ति स्मॉल ड्रोन उड़ा रहा है तो उसे उड़ाने से पूर्व इसकी सूचना स्थानीय पुलिस एवं प्रशासन को देनी होगी।
  • ‘नैनो ड्रोन’ बिना किसी पंजीकरण या परमिट के स्वतंत्र रूप से प्रयोग किये जा सकते हैं, लेकिन उन्हें ज़मीन से 50 फीट से अधिक ऊँचाई पर नहीं उड़ाया जा सकता।

केवल दिन में ही होता है प्रयोग

  • ड्रोन उड़ाने के संबंध में DGCA ने जो दिशा-निर्देश जारी किये हैं उनके अनुसार, किसी भी प्रकार के ड्रोन के लिये यह आवश्यक है कि उसका प्रयोग केवल दिन के समय ही किया जाए, परंतु रात के समय होने वाले सामाजिक समारोहों जैसे- विवाह समारोह आदि में फोटोग्राफी के लिये ड्रोन के प्रयोग को इस निर्देश का अपवाद माना गया है। प्रयोग करने से पूर्व स्थानीय पुलिस और प्रशासन को सूचना देना इस अपवाद के संबंध में भी अनिवार्य है।

क्या होता है नो फ्लाई ज़ोन (No Fly Zones)

  • नो फ्लाई ज़ोन (No Fly Zones) सामान्यतः वह क्षेत्र होता है जहाँ किसी भी प्रकार के विमान को उड़ाने की अनुमति नहीं होती है।
  • नो फ्लाई ज़ोन के संबंध में DGCA ने निम्नलिखित क्षेत्र निर्धारित किये हैं:
    • मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, बंगलूरू और हैदराबाद के उच्च यातायात हवाई अड्डों की परिधि से 5 किमी. तक का क्षेत्र।
    • देश के अन्य हवाई अड्डों के लिये यह 3 किमी. तक का क्षेत्र है।
    • कोई भी ड्रोन अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं (नियंत्रण रेखा और वास्तविक नियंत्रण रेखा सहित) के 25 किमी. के भीतर नहीं उड़ाया जा सकता है।
    • नई दिल्ली के विजय चौक से 5 किमी. तक का दायरा।
    • गृह मंत्रालय द्वारा अधिसूचित रणनीतिक स्थानों से 2 किमी. के भीतर भी ड्रोन नहीं उड़ाया जा सकता है।
    • राज्य की राजधानियों में सचिवालय परिसर के 3 किमी. के दायरे में भी ड्रोन उड़ाना निषेध है।

ड्रोन के इस्तेमाल के फायदे

  • ड्रोन, आधुनिक युग की तकनीक का एक नया आयाम है जिसे आसानी से किसी भी व्यक्ति द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है एवं दैनिक कार्यों के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है।
  • वर्तमान में कई पश्चिमी देशों में ड्रोन का प्रयोग ई-कॉमर्स उद्योग में वस्तुओं की होम डिलीवरी (Home Delivery) हेतु किया जा रहा है, यह परीक्षण काफी सफल रहा है एवं इससे परिवहन लागत में भी कमी देखने को मिली है।
  • ड्रोन के प्रयोग का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे न केवल लागत में कमी आती है, बल्कि समय की भी काफी बचत होती है, क्योंकि इसे सामान्यतः ट्रैफिक अवरोध का सामना नहीं करना पड़ता, साथ ही इसके प्रयोग से कंपनियों की श्रम लागत भी काफी कम हो जाती है।
  • ड्रोन उन स्थानों पर भी आसानी से पहुँच सकता है, जहाँ जाना इंसानों के लिये अपेक्षाकृत मुश्किल होता है या पूर्णतः असंभव होता है, अतः ड्रोन की यह विशेषता उसे आपदा प्रबंधन में प्रयोग करने के लिये भी एक अच्छा विकल्प बनाती है।
  • कई देशों में ड्रोन का प्रयोग कृषि संबंधी कार्यों जैसे- कीटनाशक के छिड़काव और फसल की देखभाल आदि के लिये भी किया जा रहा है।

ड्रोन के इस्तेमाल से नुकसान

  • ड्रोन एक मशीन है और अन्य मशीनों की तरह इस पर भी यही खतरा बना रहता है कि इसे आसानी से हैक (Hack) किया जा सकता है। हैकर आसानी से इसकी नियंत्रण प्रणाली (Control System) पर हमला कर ड्रोन को नुकसान पहुँचा सकता है एवं गोपनीय जानकारियाँ प्राप्त कर सकता है।
  • यदि ड्रोन जैसी तकनीक असामाजिक या आपराधिक तत्त्वों के पास पहुँच जाती है तो वह काफी खतरनाक साबित हो सकती है, क्योंकि ड्रोन के सहारे न सिर्फ जासूसी की जा सकती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर इसके सहारे हमला भी किया जा सकता है।
  • इसके अतिरिक्त ड्रोन के उड़ान भरते समय पक्षियों से टकराने का भी खतरा रहता है।

भारत की ड्रोन नीति (Drone Policy)

  • भारत में ड्रोन का चलन जिस प्रकार बढ़ रहा था उसे देखते हुए 1 दिसंबर, 2018 को संपूर्ण भारत में ड्रोन नीति (Drone Policy) लागू की गई थी।
  • इस नीति में यह निर्धारित किया गया था कि कोई भी व्यक्ति 18 वर्ष की उम्र से पहले ड्रोन नहीं उड़ा सकता है, साथ ही यह भी आवश्यक है कि उसने दसवीं क्लास तक पढ़ाई की हो और उसे ड्रोन से संबंधित बुनियादी चीज़ों की जानकारी हो।
  • नीति ने ड्रोन उड़ाने संबंधी निम्नलिखित ज़ोन निर्धारित किये थे:
    • रेड ज़ोन         उड़ान की अनुमति नहीं
    • येलो ज़ोन        नियंत्रित हवाई क्षेत्र - उड़ान से पहले अनुमति लेना आवश्यक
    • ग्रीन ज़ोन        अनियंत्रित हवाई क्षेत्र - स्वचालित अनुमति
    • नो ड्रोन ज़ोन     कुछ विशेष जगहों पर ड्रोन संचालन की अनुमति नहीं
  • ड्रोन नीति में कृषि, स्वास्थ्य, आपदा राहत जैसे क्षेत्रों में ड्रोन का वाणिज्यिक इस्तेमाल 1 दिसंबर, 2018 से प्रभावी हो गया था, लेकिन खाद्य सामग्री समेत अन्य वस्तुओं की आपूर्ति के लिये अनुमति नहीं दी गई थी।

वर्तमान समय में ड्रोन तकनीक अपने विकास के एक नए दौर से गुज़र रही है जिसके कारण यह सुनिश्चित करना आवश्यक हो जाता है कि इसका प्रयोग मानव जाति की सहायता एवं उसके हित के लिये ही हो, न कि असामाजिक तत्त्वों द्वारा मानवीय हितों को नुकसान पहुँचाने के लिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

नासा का अंतरिक्षयान LRO

चर्चा में क्यों?

नासा का अंतरिक्षयान LRO चंद्रमा पर चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर का पता लगाने में इसरो की मदद करेगा।

प्रमुख बिंदु:

  • लूनर रिकॉनिसेंस ऑर्बिटर (Lunar Reconnaissance Orbiter- LRO) नासा का एक रोबोटिक अंतरिक्षयान है जो वर्तमान में चंद्रमा की परिक्रमा करते समय चित्रों के माध्यम से डेटा एकत्र करता है और चंद्रमा की सतह का अध्ययन करता है।
  • यह अंतरिक्षयान चंद्रमा पर पानी और अन्य संसाधनों की संभावना का पता लगाने में मदद करता है, साथ ही चंद्रमा के भविष्य के मिशनों की योजना बनाने में भी मदद करता है।
  • LRO का प्राथमिक उद्देश्य चंद्रमा की सतह का उच्च-रिज़ॉल्यूशन (High Resolution) 3डी मानचित्र तैयार करना था जिससे चंद्रमा हेतु भविष्य के रोबोट और क्रू (Crew) मिशनों की सहायता की जा सके।
  • LRO और लूनर क्रेटर ऑब्ज़र्वेशन एंड सेंसिंग सैटेलाइट मिशन (Lunar Crater Observation and Sensing Satellite Missions) 18 जून, 2009 को पृथ्वी से छोड़ा गया और इसने 23 जून, 2009 को चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया।
  • सितंबर 2010 में LRO ने अपना प्राथमिक मानचित्रण मिशन पूरा किया और चंद्रमा के चारों ओर एक विस्तारित विज्ञान मिशन (Extended Science Mission) शुरू किया। यह नासा के विज्ञान मिशन निदेशालय के अंतर्गत कार्य करता है।
  • LRO अंतरिक्षयान पर लगे उपकरण चंद्रमा के दिन-रात का तापमान, वैश्विक भू-स्थानिक ग्रिड (Global Geodetic Grid), चंद्रमा का एल्बिडो और उच्च रिज़ॉल्यूशन कलर इमेजिंग (High Resolution Color Imaging) से संबंधित जानकारियाँ उपलब्ध करा रहे हैं।

भू-स्थानिक ग्रिड (Geodetic Grid): यह GPS आधारित सैटेलाइट नेविगेशन में इस्तेमाल हेतु एक मानक है। इस मानक में समन्वित प्रणाली के तहत पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण मॉडल, संबंधित चुंबकीय मॉडल का विवरण तथा स्थानीय परिवर्तन इत्यादि शामिल होते हैं।

  • चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्रों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि यहाँ पर पानी की उपलब्धता की अधिक संभावनाएँ हैं।
  • अनुमानतः LRO के पास अभी भी कम-से-कम छह वर्षों के लिये अपने मिशन पर बने रहने हेतु पर्याप्त ईंधन है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


कृषि

तालचेर यूरिया परियोजना

चर्चा में क्यों?

तालचेर यूरिया परियोजना (Talcher Urea Project) के लिये कोयला गैसीकरण संयंत्र (Coal Gasification Plant) हेतु अनुबंध पर 17 सितंबर, 2019 को नई दिल्ली में हस्ताक्षर किये गए।

प्रमुख बिंदु:

  • भारत एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग कृषि कार्यों में संलग्न है, साथ ही खाद्यान्न सुरक्षा हेतु जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग कृषि के उत्पादन पर आश्रित है।
  • देश के खाद्यान्न उत्पादन में उर्वरकों, विशेषकर भारतीय संदर्भ में यूरिया की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान में यूरिया की आवश्यकता को पूरा करने के लिये भारत प्रत्येक वर्ष लगभग 50 से 70 लाख टन यूरिया का आयात करता है।
  • सरकार द्वारा घरेलू स्तर पर यूरिया उत्पादन को बढ़ाने हेतु सिंदरी, बरौनी, रामागुंडम और गोरखपुर जैसी बंद पड़ी इकाइयों के पुनरुद्धार के प्रयास किये जा रहे हैं।
  • वर्तमान में देश में यूरिया का उत्पादन प्राकृतिक गैस और द्रवीकृत प्राकृतिक गैस के उपयोग से किया जा रहा है।
  • द्रवीकृत प्राकृतिक गैस का आयात करना महंँगा है और इसमें अत्यधिक विदेशी मुद्रा खर्च होती है। इसलिये देश में यूरिया और अन्य उर्वरकों के उत्पादन के लिये स्वदेशी कच्चे माल का उपयोग किया जा रहा है। तालचेर उर्वरक परियोजना इस दिशा में उठाया गया एक कदम है जिसमें यूरिया के उत्पादन के लिये पेटकोक के साथ स्थानीय कोयले का उपयोग किया जाएगा।
  • इस परियोजना के लिये पेटकोक पारादीप रिफाइनरी से लिया जाएगा। यह परियोजना पर्यावरण की अनुकूलता के साथ ही प्रचुर मात्रा में उपलब्ध घरेलू कोयले के उपयोग को बढ़ावा देगी, साथ ही इस तकनीक की सफलता से कोयले के अन्य उत्पादों जैसे- डीजल, मेथनॉल और पेट्रोकेमिकल आदि के उत्पादन में भी तेज़ी आएगी।
  • यह परियोजना ओडिशा की आत्मनिर्भरता में सुधार करेगी साथ ही ओडिशा में यूरिया की उपलब्धता के माध्यम से कृषि विकास को बढ़ावा देगी।
  • पर्यावरण के अनुकूल होने के कारण यह परियोजना CoP-21 पेरिस समझौते के दौरान भारत द्वारा की गई प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में मदद करेगी।

स्रोत: pib


भूगोल

रेत और धूल भरे तूफान का सामना करने हेतु नया वैश्विक गठबंधन

चर्चा में क्यों?

6 सितंबर, 2019 को राजधानी दिल्ली में हुई UNCCD COP14 (United Nations Convention to Combat Desertification Conference of Parties) की बैठक में रेत और धूल भरे तूफान का सामना करने के लिये एक नए वैश्विक गठबंधन की शुरुआत की गई।

रेत और धूल भरे तूफान

  • रेत और धूल के तूफानों को सिरोको (Sirocco), हबूब (Haboob), येलो डस्ट (Yellow Dust), व्हाइट स्टॉर्म (White Storms) और हारमटन (Harmattan) के रूप में भी जाना जाता है।
  • यह भूमि एवं जल प्रबंधन तथा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एक प्राकृतिक घटना है।
  • इन तूफानों की तीव्रता, परिमाण या एक-दूसरे के साथ संबद्धता इन्हें अप्रत्याशित और खतरनाक बना सकती है।

प्रमुख बिंदु

  • UNCCD (United Nations Convention to Combat Desertification) द्वारा 45 देशों को इन तूफानों के स्रोतों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
  • सदस्य राज्यों के आग्रह के बाद संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रबंधन समूह (UN Environment Management Group) के माध्यम से सितंबर 2018 में बनाए गए गठबंधन की स्थापना और शुरुआती उपलब्धियों हेतु आवश्यक योगदान दिया गया है।

नवगठित गठबंधन के प्रमुख लक्ष्य:

  • एक वैश्विक प्रतिक्रिया तैयार करना जिसका उपयोग संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के व्यापक दृष्टिकोण को विकसित करने के लिये किया जा सकता है।
  • प्रतिक्रिया उपायों को लागू करने के लिये प्रभावित देशों और क्षेत्रों हेतु तूफान के प्रवेश बिंदुओं की पहचान के लिये एक रणनीति एवं कार्य योजना विकसित करना।
  • वैश्विक, क्षेत्रीय और उप-क्षेत्रीय स्तरों पर प्रभावित देशों एवं संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों के बीच भागीदारों को संलग्न करने तथा संवाद और सहयोग को बढ़ावा देने के लिये एक मंच प्रदान करना।
  • ज्ञान, डेटा, संसाधन, सूचना और तकनीकी विशेषज्ञता के आदान-प्रदान के लिये एक साझा मंच प्रदान करना।
  • जोखिम में कमी, समेकित नीति, अभिनव समाधान और क्षमता निर्माण के प्रयासों एवं धन इकट्ठा करने संबंधी पहलों के लिये आवश्यक उपायों और रणनीतियों को सुदृढ़ बनाना।
  • रेत और धूल भरे तूफान के शमन के लिये संयुक्त प्रतिक्रियाओं हेतु वित्तीय संसाधनों की पहचान करना तथा उन्हें एकत्रित करना।

रेत और धूल भरे तूफान के प्रभाव

  • कृषि भूमि का निरंतर उपयोग, वनों की कटाई, अतिवृष्टि, जल स्रोतों की कमी और औद्योगिक गतिविधियाँ सभी रेत और धूल भरे तूफान को बढ़ावा देती हैं।
  • इस प्रकार के तूफानों का मानव स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, परिवहन, जल और वायु गुणवत्ता सभी पर व्यापक सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ता है।
  • हाल के वर्षों में कुछ क्षेत्र विशेष में रेत और धूल भरे तूफानों की आवृत्ति एवं तीव्रता में हुई वृद्धि पर्यावरणविदों के लिये चिंता का विषय बनी हुई है। रेत और धूल भरे तूफानों की वैश्विक आकलन (Global Assessment of Sand and Dust Storms) रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकाला गया कि वैश्विक सर पर इन तूफानों के 25 प्रतिशत भाग के लिये मानव गतिविधियाँ ज़िम्मेदार है।
  • रेत और धूल भरे तूफान के महत्त्वपूर्ण संभावित चालकों में मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं। इसके मुख्य कारणों में विशेष रूप से भूमि एवं जल का अस्थायी उपयोग, तेज़ गति की पवन की अत्यधिक घटनाएँ, कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक शुष्कता, सूखे की बढ़ती आवृत्ति एवं गंभीरता के साथ-साथ लंबी अवधि, आदि शामिल हैं।

भारत सहित विभिन्न देशों की पहल

  • इस बैठक में चीन ने विशेष रूप से रेत और धूल भरे तूफान की तीव्रता पर संयुक्त मानकों को विकसित करने के लिये सशक्त अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का आह्वान किया है।
  • भारत ने इस विषय पर अपने राज्यों के मार्गदर्शन हुए एक योजना प्रस्तुत की।
  • हालाँकि ईरान ने इस बात पर बल दिया कि रेत और धूल भरे तूफान वाले हॉटस्पॉट पर पारंपरिक और आधुनिक ज्ञान के समृद्ध समन्वय का प्रयोग करके सशक्त क्षेत्रीय पहल की जा सकती है।

‘संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम कन्‍वेंशन’

(United Nations Convention to Combat Desertification- UNCCD)

  • वर्ष 1972 के स्‍टॉकहोम सम्‍मेलन से प्रेरणा लेकर वर्ष 1992 में रियो में जैव-विविधता, जलवायु परिवर्तन एवं मरुस्‍थलीकरण के विषय पर एकजुटता प्रकट की थी। पृथ्‍वी शिखर वार्ता के दौरान जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और मरुस्‍थलीकरण का सामना करने जैसे तीन महत्त्ववपूर्ण प्रस्‍तावों को स्‍वीकार किया।
  • संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत तीन रियो समझौतों (Rio Conventions) में से एक है। अन्य दो समझौते हैं-
    1. जैव विविधता पर समझौता (Convention on Biological Diversity- CBD)।
    2. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क समझौता (United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC)।
  • UNCCD एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो पर्यावरण एवं विकास के मुद्दों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी है।
  • मरुस्थलीकरण की चुनौती से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से इस दिवस को 25 साल पहले शुरू किया गया था।
  • तब से प्रत्येक वर्ष 17 जून को ‘विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस’ मनाया जाता है।
  • 14 अक्तूबर, 1994 को भारत ने UNCCD पर हस्‍ताक्षर किये। भारत में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इसका नोडल मंत्रालय है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


जैव विविधता और पर्यावरण

भारत का ‘कूलिंग एक्‍शन प्‍लान’

चर्चा में क्यों?

विश्‍व ओज़ोन दिवस (16 सितंबर) के अवसर पर संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने भारत की शीतलन कार्रवाई योजना/कूलिंग एक्‍शन प्‍लान (India's Cooling Action Plan-ICAP) की सराहना की।

‘कूलिंग एक्‍शन प्‍लान’ क्या है?

  • मार्च 2019 में भारत ने अपना ‘कूलिंग एक्शन प्‍लान’ शुरू किया है। कूलिंग की ज़रूरत हर क्षेत्र में है तथा यह आर्थिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
  • इसकी ज़रूरत आवासीय और व्यापारिक इमारतों के साथ कोल्ड चेन रेफ्रिज़रेशन, परिवहन और व्यापारिक प्रतिष्ठानों जैसे विभिन्न क्षेत्रों में होती है।
  • ‘कूलिंग एक्‍शन प्‍लान’ के अंतर्गत परिशीतन की मांग में कटौती करने में मदद मिलेगी, जिससे प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष उत्‍सर्जन में कमी आएगी।
  • इसके तहत आवासीय एवं व्‍यापारिक इमारतों, कोल्‍ड–चेन, रेफ्रीजिरेशन, यातायात और उद्योगों के लिये परिशीतन समस्‍याओं का समाधान किया जाएगा।

उद्देश्य

  • ICAP का उद्देश्य पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक लाभों को हासिल करने के लिये कार्यों में तालमेल का प्रयास करना है।
  • समाज को पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक लाभ प्रदान करते हुए सभी के लिये स्थायी शीतलन और उष्मीय सहूलियत प्रदान करना।

लक्ष्य

  • वर्ष 2037-38 तक विभिन्न क्षेत्रों में शीतलक मांग (Cooling Demand) को 20% से 25% तक कम करना।
  • वर्ष 2037-38 तक रेफ्रीजरेंट डिमांड (Refrigerant Demand) को 25% से 30% तक कम करना।
  • वर्ष 2037-38 तक शीतलन हेतु ऊर्जा की आवश्यकता को 25% से 40% तक कम करना।
  • वर्ष 2022-23 तक कौशल भारत मिशन के तालमेल से सर्विसिंग सेक्टर के 100,000 तकनीशियनों को प्रशिक्षण और प्रमाण-पत्र उपलब्ध कराना।

प्रमुख लाभ

  • अगले 20 वर्षों तक सभी क्षेत्रों में शीतलता से संबंधित आवश्यकताओं से जुड़ी मांग तथा ऊर्जा आवश्यकता का आकलन।
  • शीतलता के लिये उपलब्ध तकनीकों की पहचान के साथ ही वैकल्पिक तकनीकों, अप्रत्यक्ष उपायों और अलग प्रकार की तकनीकों की पहचान करना।
  • सभी क्षेत्रों में गर्मी से राहत दिलाने तथा सतत् शीतलता प्रदान करने वाले उपायों को अपनाने के बारे सलाह देना।
  • तकनीशियनों के कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करना।
  • घरेलू वैकल्पिक तकनीकों के विकास हेतु ‘शोध एवं विकास पारिस्थितिकी तंत्र’ को विकसित करना।
  • इससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह के कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलेगी।

स्रोत: pib


जैव विविधता और पर्यावरण

गिद्ध संरक्षण: एक सफल प्रयास

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र (Vulture Conservation and Breeding Centres– VCBCs) में गिद्धों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई, जो 700 से अधिक थी।

पृष्ठभूमि

  • गिद्धों की नौ प्रजातियाँ भारत की स्थानिक हैं, परंतु अधिकांश पर विलुप्त होने का खतरा है।
  • आईयूसीएन के अनुसार गिद्धों की नौ प्रजातियों की स्थिति निम्न है-

Vulture-Culture

  • वर्ष 1990 के उत्तरार्द्ध में, जब देश में गिद्धों की संख्या में तेजी से गिरावट होने लगी उस दौरान राजस्थान के केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में सफेद पीठ वाले एक गिद्ध (White-backed vulture) को बचाया गया जहाँ गिद्धों की संख्या में चिंताजनक दर से गिरावट हो रही थी।
  • गिद्धों की मौत के कारणों पर अध्ययन करने के लिये वर्ष 2001 में हरियाणा के पिंजौर में एक गिद्ध देखभाल केंद्र (Vulture Care Centre-VCC) स्थापित किया गया। कुछ समय बाद वर्ष 2004 में गिद्ध देखभाल केंद्र को उन्नत (Upgrade) करते हुए देश के पहले ‘गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र’ की स्थापना की गई।

प्रमुख बिंदु

  • वर्तमान में गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र में गिद्धों की तीन प्रजातियों व्हाइट-बैक्ड (White– backed), लॉन्ग-बिल्ड (long-billed) और स्लेंडर-बिल्ड (Slender–billed) का सरंक्षण किया जा रहा है।
  • गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र की स्थापना उस निर्णायक समय पर की गई जब गिद्धों की संख्या में 99 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की जा चुकी थी।
  • इस समय देश में नौ गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र हैं, जिनमें से तीन बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (Bombay Natural History Society-BNHS) के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से प्रशासित किये जा रहे हैं।
  • गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्रों का उद्देश्य न केवल गिद्धों की देखभाल करना व उनका संरक्षण करना है बल्कि उन्हें जंगली क्षेत्रों में छोड़ना भी है।
  • इन केंद्रों का पहला उद्देश्य गिद्धों की लुप्तप्राय तीन प्रजातियों में से प्रत्येक से सैकड़ों की संख्या में गिद्धों के जोड़े पैदा करना है।
  • भारत के संरक्षण प्रयासों में मुख्य फोकस आईयूसीएन की गंभीर संकटग्रस्त सूची में शामिल गिद्धों की तीन प्रजातियाँ हैं, जो निम्नलिखित हैं-
    • व्हाइट-बैक्ड वल्चर (Whilte-backed Vulture)
    • स्लेंडर-बिल्ड वल्चर (Slender-billed vulture)
    • लॉन्ग-बिल्ड वल्चर (long-billed vulture)

संकट के कारण

  • गिद्धों की संख्या में गिरावट का प्रमुख कारण डिक्लोफिनेक (Diclofenac) दवा है, जो पशुओं के शवों को खाते समय गिद्धों के शरीर में पहुँच जाती है।
    • पशुचिकित्सा में प्रयोग की जाने वाली दवा डिक्लोफिनेक को वर्ष 2008 में प्रतिबंधित कर दिया गया। इसका प्रयोग मुख्यत: पशुओं में बुखार/सूजन/उत्तेजन की समस्या से निपटने में किया जाता था।
    • डिक्लोफिनेक दवा के जैव संचयन (शरीर में कीटनाशकों, रसायनों तथा हानिकारक पदार्थों का क्रमिक संचयन) से गिद्धों के गुर्दे (Kidney) काम करना बंद कर देते हैं जिससे उनकी मौत हो जाती है।
    • डिक्लोफिनेक दवा गिद्धों के लिये प्राणघातक साबित हुई। मृत पशुओं में, दवा से 1% प्रभावित पशु भी कम समय में गिद्धों की बड़ी संख्या को मार सकती है।
  • दवा से प्रभावित पशुओं के शवों से स्थानीय आवारा जानवर भी मारे गए हैं परंतु गिद्धों की संख्या में गिरावट का यह प्रमुख कारण है।
  • वन विभाग शिकारियों को दूर रखने के लिये पशुओं के शवों को जला रहा है या फिर दफन कर रहा है। इस प्रक्रिया से गिद्धों के लिये भोजन की कमी हो रही है।

गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र

  • गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र हरियाणा वन विभाग तथा बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी का एक संयुक्त कार्यक्रम है।
  • गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र को वर्ष 2001 में स्थापित गिद्ध देखभाल केंद्र के नाम से जाना जाता था।
  • ‘साउथ एशिया वल्चर रिकवरी प्लान’ के प्रकाशित होने के साथ ही वर्ष 2004 में गिद्ध देखभाल केंद्र के उन्नत संस्करण के रूप में गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र की स्थापना की गई।

आगे की राह

  • वन विभाग को गिद्धों के संरक्षण के संदर्भ में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है, तथा ऐसे सुरक्षित क्षेत्रों (Safe Zones) के निर्माण पर ध्यान देना होगा जहाँ गिद्धों की अत्यधिक संख्या है।
  • अब तक नौ राज्यों में गिद्धों के लिये सुरक्षित क्षेत्रों के निर्माण के कार्यक्रम प्रारंभ किये जा चुके है।
  • गिद्ध धीमी प्रजनन दर वाले पक्षी हैं, इसलिये इन्हें विलुप्त होने से बचाने के लिये तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता है।

स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

सऊदी अरामको पर हवाई हमले के निहितार्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी सऊदी अरामको (Arabian American Oil Company-ARAMCO) पर ड्रोन से हवाई हमले हुए हैं, जिसके कारण अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार काफी हद तक प्रभावित हुआ है।

प्रमुख बिंदु

  • हवाई हमलों से बुरी तरह प्रभावित सऊदी अरब के तेल उत्पादन में तकरीबन 5.7 मिलियन बैरल प्रतिदिन की कमी आई है, जो कि सऊदी अरब के तेल उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा है।
  • सऊदी अरामको, सऊदी अरब में तेल उत्पादन की सबसे बड़ी सरकारी कंपनी है। आँकड़ों के अनुसार, बीते वर्ष सऊदी अरामको की कुल कमाई 111 बिलियन डॉलर थी।
    • ध्यातव्य है कि 1970 के दशक में सऊदी अरब की सरकार ने अरामको का राष्ट्रीकरण कर दिया था।

किसने किया है हमला?

  • अरामको पर हुए हवाई हमले की ज़िम्मेदारी यमन के हूती विद्रोहियों (Houthi Rebels) ने ली है, जो कि यमन की सरकार और सऊदी अरब के नेतृत्व वाले सैन्य बलों के विरुद्ध लड़ रहे हैं।
  • हूती विद्रोहियों के संबंध में सदैव ही ईरान पर ये आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने राजनीतिक हित को साधने के लिये हूती विद्रोहियों को सैन्य व मौद्रिक समर्थन प्रदान करता है, हालाँकि ईरान सदैव ही इन आरोपों से इनकार करता रहा है।
  • सऊदी अरब द्वारा की गई शुरुआती जाँच के अनुसार भी हमले के लिये जिन हथियारों का प्रयोग किया गया वे ईरान के थे।
  • वहीं अमेरिका भी इन हमलों के लिये ईरान को ही ज़िम्मेदार मानता है। शुरुआती जाँच के आधार पर अमेरिका का कहना है कि सऊदी अरामको पर जो हमले हुए हैं वे यमन की ओर से नहीं बल्कि इराक या ईरान की ओर से हुए हैं।

सऊदी अरामको पर हमले के वैश्विक मायने

  • इस हमले के प्रभाव से सऊदी अरब के तेल उत्पादन में 5.7 मिलियन बैरल की कमी आई है, जिसके कारण विश्व की तेल आपूर्ति पर काफी बुरा असर पड़ा है।
  • इस हमले के कारण विश्व भर के तेल भंडारों को लेकर भी चिंताएँ काफी बढ़ गई हैं।
  • यह हमला न केवल संपूर्ण क्षेत्र में अस्थिरता पैदा करेगा, बल्कि अमेरिका और ईरान के मध्य तनाव में और अधिक वृद्धि करेगा।
  • वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतों में वृद्धि होगी जिससे उपभोक्ता लागत बढ़ जाएगी और विश्व की सभी बड़ी एवं तेल निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान होगा।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका में तेल भंडार की खोज ने मध्य पूर्व से तेल पर निर्भरता को कम किया है, जिसके कारण “तेल संकट" की स्थिति को रोकने में मदद मिलेगी, यदि ऐसा नहीं होता तो परिस्थितियाँ काफी गंभीर रूप धारण कर सकती थीं।

भारत पर भी होगा प्रभाव

  • सऊदी अरामको पर हमला ऐसे समय में हुआ है जब भारतीय अर्थव्यवस्था वित्तीय संकट का सामना कर रही है। वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में GDP वृद्धि दर 5 प्रतिशत पर आ गई है, जबकि बीते वित्तीय वर्ष की इसी तिमाही में यह दर 5.8 प्रतिशत थी।
  • भारत अपनी तेल संबंधी आवश्यकताओं का 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा अन्य देशों से आयात करता है एवं सऊदी अरब भारत के लिये दूसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है, इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि सऊदी अरब इतनी बड़ी मात्रा में तेल उत्पादन को कम कर देगा तो भारत पर इसका काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
  • पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय के आँकड़े दर्शाते हैं कि वर्ष 2017 से धीरे-धीरे भारत की तेल पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही है। आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018-19 में भारत की तेल खपत बढ़कर 211.6 मिलियन टन हो गई थी।
  • वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि से भारत का राजकोषीय संतुलन भी बिगड़ सकता है।
  • केयर रेटिंग (Care Ratings) नामक रेटिंग एजेंसी ने अनुमान लगाया है कि वर्तमान वित्तीय वर्ष में भारत लगभग 1.6 बिलियन बैरल कच्चा तेल आयात करने वाला है, अतः यदि कच्चे तेल के मूल्य में 1 डॉलर की भी वृद्धि होती है तो भारत को 1.6 बिलियन डॉलर अधिक चुकाने होंगे, जिसके कारण भारत के आयात बिल में काफी वृद्धि होगी।
  • कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि से न केवल भारत के आयात बिल में वृद्धि होगी, बल्कि भारतीय रुपए का अवमूल्यन भी होगा, क्योंकि जब तेल की कीमत में वृद्धि होगी तो भारत को तेल खरीदने के लिये और अधिक डॉलर की आवश्यकता होगी और भारत डॉलर की खरीद करेगा, जिससे डॉलर की अपेक्षा भारतीय रुपया कमज़ोर हो जाएगा।
  • भारत में घरेलू मांग पहले से ही काफी कम है और यदि कच्चे तेल की कीमतों में भी वृद्धि हो जाएगी तो मांग और अधिक उदासीन हो जाएगी, साथ ही इसका नकारात्मक प्रभाव भारतीय ऑटोमोबाइल सेक्टर पर भी पड़ेगा, जो कि आर्थिक सुस्ती से काफी अधिक प्रभावित हुआ है।
  • यदि कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि होगी तो ज़ाहिर है कि ईंधन की कीमतों में भी वृद्धि होगी, और यदि ऐसा होता है तो इसका प्रतिकूल प्रभाव विनिर्माण एवं एविएशन सेक्टर पर भी देखने को मिलेगा।

क्या कर सकता है भारत

  • विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे स्थिति में भारत सरकार कुछ खास नहीं कर सकती है। यदि भविष्य में तेल का संकट गहराता है तो वह अपने तेल भंडार से आपूर्ति कर स्थिति को काबू में करने की कोशिश कर सकती है, परंतु भारत का तेल भंडार इतना नहीं है कि भारत सरकार लंबे समय तक इससे संतुलन बनाए रख पाएगी। स्थिति अगर और गंभीर होती है तो सरकार तेल पर कर की दर में कटौती भी कर सकती है, लेकिन इसका प्रत्यक्ष असर राजकोषीय घाटे पर दिखाई देगा।

निष्कर्ष

सऊदी अरामको पर हुआ ड्रोन हमला वैश्विक स्तर पर चिंता का विषय बन गया है एवं यह भारत जैसे बड़े आयातकों के लिये भी गंभीर चिंता का विषय है। हालाँकि सऊदी अरब ने आश्वासन दिया है कि आपूर्ति में कोई कमी नहीं होगी, परंतु यदि बहाली की प्रक्रिया अनुमान से अधिक समय लेती है, तो भारत को अन्य विकल्पों की तलाश करनी होगी, ताकि देश में तेल संकट की स्थिति न पैदा हो और स्थिरता बरकरार रहे।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

हैजा के जीवाणु

चर्चा में क्यों?

ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट (Translational Health Science and Technology Institute) के डॉक्टरों द्वारा किये गए परीक्षण के अनुसार, हैजा पैदा करने वाले जीवाणुओं (विब्रियो कॉलेरी- Vibrio cholerae) ने एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है।

प्रमुख बिंदु:

  • प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Proceedings of the National Academy of Sciences- PNAS) नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया कि डॉक्टरों द्वारा किये गए परीक्षण में 99% जीवाणुओं ने दो या दो से अधिक एंटीबायोटिक दवाओं के मामले में प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है।
  • अध्ययन के अनुसार, 17% जीवाणुओं ने 10 से अधिक एंटीबायोटिक दवाओं और 7.5% जीवाणुओं ने 14 से अधिक एंटीबायोटिक दवाओं के लिये प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है।
  • सल्फाथेक्सोज़ोल (Sulfamethaxozole) एंटीबायोटिक के लिये उच्चतम प्रतिरोध 99.8% देखा गया, वहीं सबसे कम केवल 4% प्रतिरोध निओमाइसिन (Neomycin) के लिये देखा गया है।
  • डॉक्टरों की टीम ने वर्ष 1980, 2000, 2014 और 2015 के दौरान अलग-अलग जीवाणुओं के जीनोम अनुक्रमण (Genome Sequencing) का अध्ययन करते हुए यह पाया कि समय के साथ एंटीबायोटिक्स के प्रयोग से ही जीवाणुओं ने, इनके लिये प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है।
  • जीवाणुओं ने वर्ष 2014-2015 तक सामान्यतः इस्तेमाल किये जाने वाले सभी एंटीबायोटिक दवाओं के लिये बड़े पैमाने पर दवा प्रतिरोधी (Extensively Drug Resistant- XDR) बना लिये हैं और अभी भी बहुत सारे जीवाणु कार्यात्मक स्थिति में हैं।
  • प्रतिरोधी जीन आनुवंशिक रूप से विभिन्न गतिशील आनुवंशिक तत्त्वों से जुड़े होते हैं, जिसका अर्थ है कि प्रतिरोध तेज़ गति से स्थानांतरण के माध्यम से बहुत आसानी से अन्य बैक्टीरिया प्रजातियों में फैल सकता है।

स्रोत: द हिंदू


विविध

Rapid Fire करेंट अफेयर्स (18 September)

  • सर्वे ऑफ इंडिया (एसओआई) पहली बार ड्रोन की मदद से देश का डिजिटल नक्शा बना रहा है। विज्ञान और तकनीकी विभाग के सहयोग से यह काम दो साल में पूरा होगा। इसके लिये तीन डिजिटल केंद्र बनाए गए हैं। यहाँ से पूरे देश का भौगोलिक डिजिटल डेटा तैयार होगा। सैटेलाइट से नियंत्रित होने वाले जीपीएस सिस्टम की अपेक्षा यह डिजिटल नक्शा ज्यादा सटीक और स्पष्ट होगा। लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ऐसे स्थानों की मैपिंग नहीं की जाएगी, जिन्हें संवेदनशील माना जाता है। महाराष्ट्र, हरियाणा और कर्नाटक से इस प्रोजेक्ट की शुरुआत हो गई है। इससे ज़मीन संबंधी जानकारियाँ और ठिकाने की पता आसानी से चल सकेगा। यह नक्शा 10 सेंटीमीटर तक की सटीक पहचान प्रदान करेगा। सर्वे ऑफ इंडिया के पास अभी 2500 से ज्यादा ग्राउंड कंट्रोल पॉइंट्स हैं और इसी आधार पर मैपिंग की जाती रही है। यह ग्राउंड कंट्रोल पॉइंट्स देश के हर 30 से 40 किमी. के दायरे में समान रूप से बाँटे गए हैं। नई मैंपिंग के लिये वर्चुअल CORS सिस्टम का इस्तेमाल किया जा रहा है। CORS यानी Continuously Operating Reference Stations अर्थात् सतत संचालन संदर्भ केंद्र। इसके नेटवर्क का उपयोग करते हुए अब जो नक्शे बनाए जा रहे हैं, उनसे तत्काल 3-डी जानकारी हासिल की जा सकती है। नई तकनीक की मदद से विभाग निर्धारित स्केल पर ही डिजिटल नक्शा उपलब्ध कराएगा। अभी जो नक्शा मौजूद है उसे ब्रिटिश सर्वेयर कर्नल सर जॉर्ज एवरेस्ट ने 1 मई, 1830 को बनाया था। 189 साल पुराने इस सटीक नक्शे के प्रकाशन के बाद इसे नए सिरे से बनाने के लिये सरकार ने कई प्रोजेक्ट शुरू किये थे। वर्ष 2017 में डाक विभाग ने मैप माई इंडिया के साथ जुड़कर एक पायलट डिजिटल प्रोजेक्ट शुरू किया था। इसका नाम ई-लोकेशंस था। इस डिजिटल मैपिंग प्रोग्राम का उद्देश्य लोगों के पते की डिजिटल मैपिंग करना था, जिससे भारत की डाक सेवा ज्यादा सटीक हो और रियल एस्टेट के बारे में पारदर्शिता आए। नए सर्वे में सभी घरों की जियो मैपिंग होगी। वास्तविक स्थान को नक्शे पर चिह्नित किया जाएगा। इससे संपत्तियों के टैक्स में सामने आने वाली त्रुटियाँ खत्म होंगी। टैक्स वसूली बढ़ने से नगर निगम और पालिकाओं को आर्थिक मज़बूती मिलेगी। बाढ़ के बाद भी खाली प्लॉट की आसानी के साथ मैपिंग की जा सकेगी। इससे लोगों को राहत मिलेगी।
  • भारत सरकार आसियान (दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन) सदस्य देशों के ऐसे स्टूडेंट्स को फेलोशिप देगी जो IIT से Ph.D. कर रहे हैं। 16 सितंबर को इस फेलोशिप कार्यक्रम की शुरुआत की गई। भारत सरकार इस कार्यक्रम के ज़रिये आसियान के सदस्य देशों के भारत में IIT में पढ़ने वाले 1000 स्टूडेंट्स को फेलोशिप प्रदान करेगी। गौरतलब है कि वर्ष 2018 में आसियान-भारत संबंधों के 25 साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदस्य देशों के स्टूडेंट्स को स्कॉलरशिप देने की घोषणा की थी। इसके साथ ही आसियान हाइवे प्रोफेशनल्स के लिये इंडियन अकेडमी ऑफ हाइवे इंजीनियर्स में ट्रेनिंग कोर्स दिये जाने का भी प्रस्ताव दिया गया था। ज्ञातव्य है कि आसियान की स्थापना 8 अगस्त, 1967 को बैंकॉक, थाइलैंड में हुई थी। इस संगठन के दस स्थायी सदस्य हैं, जिनमें ब्रुनेई, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाइलैंड और वियतनाम शामिल हैं।
  • राजस्थान देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है, जहाँ बिना मांगे सूचनाएँ देने का प्रावधान किया गया है। अब यह अधिकारियों की इच्छा पर निर्भर नहीं होगा कि RTI में कौन सी सूचना देनी है और कौन सी छिपानी है। प्रदेश के सरकारी विभागों में पारदर्शिता और जिम्मेदारी बढ़ाने के लिये जन सूचना पोर्टल 2019 लॉन्च किया गया है। इस पोर्टल के माध्यम से प्रारंभ में आम जनता से जुड़े 13 सरकारी विभागों की 23 योजनाओं की जानकारी अब एक ही क्लिक पर मिल सकेगी। धीरे-धीरे अन्य विभागों की योजनाओं को जोड़ा जाएगा। इस पोर्टल की शुरुआत होने से सरकार के कार्यों में पारदर्शिता व जवाबदेही सुनिश्चित होगी तथा आम लोगों को एक ही जगह पर सूचनाएँ अपने आप उपलब्ध हो जाएंगी। लोगों को किसी तरह की जानकारी लेने के लिये RTI लगाने की आवश्यक्ता नहीं होगी। आरटीआई एक्ट के तहत इस तरह का पोर्टल बनाने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य है। राजस्थान में इस पोर्टल के अलावा सरकारी योजनाओं की जानकारी आमजन तक पहुँचाने के लिये जन सूचना पोर्टल मोबाइल एप भी विकसित किया जा रहा है। जो अधिकारियों को ही सूचना ऑनलाइन उपलब्ध कराने के लिये बाध्य करेगी। इस पोर्टल से आम जनता से जुड़े जिन 13 विभागों को जोड़ा गया है उनमें ऊर्जा, शिक्षा, चिकित्सा व स्वास्थ्य विभाग, सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग, जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग, ग्रामीण विकास व पंचायती राज विभाग, श्रम व रोज़गार विभाग, खनन विभाग, राजस्व विभाग, खाद्य व नागरिक आपूर्ति विभाग, सहकारिता विभाग, ऊर्जा विभाग, आयोजना, सूचना प्रौद्योगिकी विभाग व प्रशासनिक सुधार विभाग शामिल हैं। पोर्टल पर मनरेगा, ग्रामीण क्षेत्रों में खुले में शौचमुक्त लाभार्थियों, पंचायतीराज संस्थाओं के विकास कार्य, मुख्यमंत्री निःशुल्क दवा व जाँच योजना, आयुष्मान भारत, स्वास्थ्य बीमा योजना के लाभार्थियों की जानकारी उपलब्ध होगी। इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा योजना के लाभार्थियों की जानकारी, उचित मूल्य की दुकानों की जानकारी, राशनकार्ड धारकों की जानकारी, किसान कर्ज़ माफी, वन अधिकार अधिनियम आदि के बारे में सूचनाएँ उपलब्ध होंगी।

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