शासन व्यवस्था
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में सुधार
प्रिलिम्स के लिये:प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना मेन्स के लिये:प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से बाहर निकलने वाले राज्य, PMFBY संबंधी मुद्दे। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में महाराष्ट्र ने संकेत दिया है कि वह प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से बाहर हो सकता है।
- आंध्र प्रदेश, झारखंड, तेलंगाना, बिहार, गुजरात, पंजाब और पश्चिम बंगाल जैसे कृषि प्रधान राज्य पहले ही इस योजना से बाहर हो चुके हैं।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) से संबंधित प्रमुख प्रावधान:
- वर्ष 2016 में PMFBY को लॉन्च किया गया तथा इसे कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रशासित किया जा रहा है।
- इसने राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (NAIS) और संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (MNAIS) को परिवर्तित कर दिया गया।
- उद्देश्य: फसल के खराब होने की स्थिति में एक व्यापक बीमा कवर प्रदान करना ताकि किसानों की आय को स्थिर करने में मदद मिल सके।
- क्षेत्र/दायरा: वे सभी खाद्य और तिलहनी फसलें तथा वार्षिक वाणिज्यिक/बागवानी फसलें, जिनके लिये पिछली उपज के आँकड़े उपलब्ध हैं।
- बीमा किस्त: इस योजना के तहत किसानों द्वारा दी जाने वाली निर्धारित बीमा किस्त/प्रीमियम- खरीफ की सभी फसलों के लिये 2% और सभी रबी फसलों के लिये 1.5% है। वार्षिक वाणिज्यिक तथा बागवानी फसलों के मामले में बीमा किस्त 5% है।
- किसानों के हिस्से की प्रीमियम लागत का वहन राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा सब्सिडी के रूप में बराबर साझा किया गया था।
- हालाँकि पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में केंद्र सरकार द्वारा इस योजना के तहत बीमा किस्त सब्सिडी का 90% हिस्सा वहन किया जाता है।
- कार्यान्वयन: इसका कार्यान्वयन पैनल में शामिल सामान्य बीमा कंपनियों द्वारा किया जाता है। कार्यान्वयन एजेंसी (IA) का चयन संबंधित राज्य सरकार बोली के माध्यम से करती है।
- संशोधित PMFBY: संशोधित PMFBY को अक्सर PMFBY 2.0 कहा जाता है, इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
- पूर्ण रूप से स्वैच्छिक: वर्ष 2020 के खरीफ सीज़न से यह सभी किसानों हेतु वैकल्पिक है।
- इससे पहले अधिसूचित फसलों के लिये फसल ऋण/किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) खाते का लाभ उठाने वाले ऋणी किसानों के लिये यह योजना अनिवार्य थी।
- केंद्रीय सब्सिडी की सीमा: कैबिनेट ने इस योजना के तहत प्रीमियम दरों को असिंचित क्षेत्रों/फसलों के लिये 30% और सिंचित क्षेत्रों/फसलों हेतु 25% तक सीमित करने का निर्णय लिया है। उल्लेखनीय है कि इन प्रीमियम दरों के आधार पर ही केंद्र सरकार द्वारा 50% सब्सिडी का वहन किया जाता है।
- राज्यों को अधिक नम्यता: सरकार ने राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को PMFBY को लागू करने की छूट दी है और उन्हें किसी भी संख्या में अतिरिक्त जोखिम कवर/सुविधाओं का चयन करने का विकल्प दिया है।
- IEC गतिविधियों में निवेश: बीमा कंपनियों को सूचना, शिक्षा और संचार (IEC) गतिविधियों पर एकत्रित कुल प्रीमियम का 0.5% खर्च करना होता है।
PMFBY से संबंधित मुद्दे:
- राज्यों की वित्तीय बाधाएँ: राज्य सरकारों की वित्तीय बाधाएँ और सामान्य मौसम के दौरान कम दावा अनुपात इन राज्यों द्वारा योजना को लागू न करने के प्रमुख कारण हैं।
- राज्य ऐसी स्थिति से निपटने में असमर्थ हैं जहाँ बीमा कंपनियाँ किसानों को राज्यों और केंद्र से एकत्र किये गए प्रीमियम दर से कम मुआवज़ा देती हैं।
- राज्य सरकारें समय पर धनराशि जारी करने में विफल रहीं जिसके कारण बीमा क्षतिपूर्ति जारी करने में देरी हुई है।
- इससे किसान समुदाय को समय पर वित्तीय सहायता प्रदान करने की योजना का मूल उद्देश्य ही विफल हो जाता है।
- दावा निपटान संबंधी मुद्दे: कई किसान मुआवज़े के स्तर और निपटान में देरी दोनों से असंतुष्ट हैं।
- ऐसे में बीमा कंपनियों की भूमिका और शक्ति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योकि कई मामलों में उन्होंने स्थानीय आपदा के कारण हुए नुकसान की जांँच नहीं की जिस कारण दावों का भुगतान नहीं किया।
- कार्यान्वयन के मुद्दे: बीमा कंपनियों द्वारा उन समूहों के लिये बोली लगाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई है जो फसल के नुकसान से प्रभावित हो सकते हैं।
- बीमा कंपनियाँ अपनी प्रकृति के अनुसार यह कोशिश करती हैं कि जब फसल कम खराब हो तो मुनाफा कमाया जाए।
- पहचान संबंधी मुद्दे: वर्तमान में PMFBY योजना बड़े और छोटे किसानों के बीच अंतर नहीं करती है तथा इस प्रकार पहचान के मुद्दे को भी सामने लाती है। छोटे किसान सर्वाधिक कमज़ोर वर्ग हैं।
आगे की राह
- PMFBY में सुधारः अगर किसान प्रीमियम पर 95-98% सब्सिडी के बावजूद फसल बीमा को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं तो इसका मतलब है कि उत्पादन में सुधार की ज़रूरत है।
- इस लिहाज से बीमा कंपनियों को एक क्लस्टर के लिये करीब तीन साल की बोली लगानी चाहिये, ताकि उन्हें अच्छे और बुरे दोनों वर्षों (फसल उत्पादन के सकारात्मक एवं नकारात्मक संदर्भ में) के उचित प्रबंधन का बेहतर मौका मिल सके।
- खरीफ/रबी सीज़न की शुरुआत से पहले बोलियाँ बंद कर दी जानी चाहिये।
- बीड मॉडल को अपनाना: महाराष्ट्र में 'बीड मॉडल’ का पालन किया जा रहा है', जहांँ एक बीमा फर्म को सकल प्रीमियम के 110 प्रतिशत से अधिक के दावों पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है। बीमाकर्त्ता को नुकसान (पूल राशि) से बचाने के लिये एकत्र किये गए प्रीमियम के 110 प्रतिशत से अधिक मुआवज़े की लागत राज्य सरकार को वहन करनी होगी।
- यह मॉडल मौजूदा जटिलताओं से निकलने का रास्ता प्रदान कर सकता है।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
भारतीय राजव्यवस्था
अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान और शिक्षा का अधिकार
प्रिलिम्स के लिये:अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान (MEI), बच्चों का निशुल्क’ और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम 2009, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21A, अनुच्छेद 29 और 30 के तहत सांस्कृतिक एवं शैक्षिक अधिकार। मेन्स के लिये:अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान (MEI) और बच्चों का निशुल्क’ एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 के बीच संबंध। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मदरसों और वैदिक स्कूलों (अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों- MEI) को बच्चों के निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार (RTE) अधिनियम 2009 के दायरे से बाहर करने पर सवाल उठाने वाली एक याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया है।
- इन संस्थानों को विशेष रूप से अगस्त 2012 के संशोधन द्वारा अनिवार्य शिक्षा के अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 में शामिल किया गया था।
- NCPCR की रिपोर्ट में अल्पसंख्यक संस्थानों की अनुपातहीन संख्या या अल्पसंख्यक संस्थानों में गैर- अल्पसंख्यक वर्ग के प्रभुत्व पर प्रकाश डाला गया है।
MEI और RTE के संबंध में कानूनी प्रावधान:
- अनुच्छेद 21A के तहत शिक्षा का अधिकार: यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21(A) (86वें संशोधन) के तहत भारत में 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के महत्त्व के तौर-तरीकों का वर्णन करता है।
- अधिनियम में समाज के वंचित वर्गों के लिये 25% आरक्षण अनिवार्य है और वंचित समूहों में शामिल हैं:
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति
- सामाजिक रूप से पिछड़ा वर्ग
- निःशक्तजन
- अधिनियम में समाज के वंचित वर्गों के लिये 25% आरक्षण अनिवार्य है और वंचित समूहों में शामिल हैं:
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यकों और अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित संस्थानों के अधिकारों को सुरक्षित करने वाले प्रावधान हैं।
- अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को अधिकार प्रदान करता है कि सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करने का अधिकार होगा।
- अधिनियम की धारा 1(4) और 1(5) के संदर्भ में आरटीई में संशोधन किया गया।
- RTI अधिनियम की धारा 1(5) में कहा गया है कि "इस अधिनियम में शामिल कोई भी प्रावधान मदरसों, वैदिक पाठशालाओं और प्राथमिक रूप से धार्मिक शिक्षा प्रदान करने वाले शैक्षणिक संस्थानों पर लागू नहीं होगा
- आरटीई की धारा 1(4) में कहा गया है कि "संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के प्रावधानों के अधीन इस अधिनियम के प्रावधान बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान करने हेतु लागू होंगे।
याचिकाकर्त्ताओं की दलील:
- प्रारंभिक वर्षों में धार्मिक प्रभाव से बचना: धारा 1(4) और 1(5) इस बात को निर्धारित करने में विफल हैं कि 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चे अपनी शिक्षा के प्रारंभिक वर्षों में हैं या नहीं और इस तरह की शिक्षा बच्चों के मन में एक धार्मिक संपृक्तार्थ (Religious Connotation) को उत्पन्न कर सकती है।
- समान स्तर प्रदान करना: सामान्य पाठ्यक्रम और पाठ्यक्रम की शुरुआत से प्रत्येक बच्चे को भविष्य की चुनौतियों के लिये एक समान स्तर पर रखा जा सकेगा।
- किसी बच्चे का अधिकार केवल मुफ्त शिक्षा तक ही सीमित नहीं होना चाहिये, बल्कि इसे बच्चे की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर भेदभाव के बिना समान गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त करने के लिये भी विस्तारित किया जाना चाहिये।
- संवैधानिक मूल्यों का पालन: यह प्रस्तावना के लक्ष्यों, विशेष रूप से बंधुत्व, एकता और राष्ट्रीय एकता के रूप में निर्धारित महान स्वर्णिम लक्ष्यों को प्राप्त करने में सार्थक योगदान देगा।
- इसलिये न्यायालय वर्ष 2009 के अधिनियम की धारा 1(4) और 1(5) को मनमाना और तर्कहीन घोषित कर सकता है।
आगे की राह
- अल्पसंख्यक संस्थानों के संबंध में सूचना के अधिकार के तहत दी गई छूट की समीक्षा करने की आवश्यकता है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिक संरक्षण के लिये अपने संस्थान खोलने का अधिकार सुनिश्चित करता है।
- हालाँकि इसे अनुच्छेद 21(A) का उल्लंघन नहीं करना चाहिये जो बच्चे की शिक्षा के मौलिक अधिकार की रक्षा करता है
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
शासन व्यवस्था
ऑनलाइन गेमिंग पर कर्नाटक उच्च न्यायालय
प्रिलिम्स के लिये:ऑनलाइन गेमिंग, जुआ, कर्नाटक पुलिस (संशोधन) अधिनियम, 2021, कौशल-आधारित गेमिंग, अवसर आधारित खेल, लॉटरी, सट्टेबाज़ी। मेन्स के लिये:निर्णय और मामले, ऑनलाइन गेमिंग और इसके प्रभाव, जुआ, सट्टेबाज़ी एवं लॉटरी से संबंधित कानून। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कर्नाटक पुलिस (संशोधन) अधिनियम, 2021 के प्रमुख हिस्सों को रद्द करते हुए एक निर्णय दिया, जिसमें ऑनलाइन जुआ और कौशल-आधारित गेमिंग प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
- वर्तमान में ऑनलाइन गेमिंग एक नियामक ग्रे क्षेत्र में आता है और इसकी वैधता के संबंध में कोई व्यापक कानून नहीं है।
उच्च न्यायालय का फैसला:
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने तीन प्रमुख आधारों पर कर्नाटक पुलिस अधिनियम में संशोधन को रद्द कर दिया:
- व्यापार और वाणिज्य के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन (अनुच्छेद 19), प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 21), भाषण और अभिव्यक्ति (अनुच्छेद 19)।
- स्पष्ट रूप से मनमाना और तर्कहीन होने के कारण यह दो अलग-अलग श्रेणियों के खेल, यानी कौशल और अवसर से संबंधित खेल के बीच अंतर नहीं करता है।
- एक "कौशल आधारित खेल (Game of Skill)" मुख्य रूप से एक अवसर के बजाय किसी खिलाड़ी की विशेषज्ञता के मानसिक या शारीरिक स्तर पर आधारित होता है।
- एक "अवसर आधारित खेल (Game of Chance)" हालाँकि मुख्य रूप से किसी भी प्रकार के यादृच्छिक कारक द्वारा निर्धारित किया जाता है। अवसर आधारित खेल में कौशल का उपयोग होता है लेकिन उच्च स्तर का अवसर सफलता का निर्धारण करता है।
- देश के अधिकांश हिस्सों में कौशल पर आधारित खेलों की अनुमति है, जबकि अवसर आधारित खेलों को जुए के तहत वर्गीकृत किया गया है जो देश के अधिकांश हिस्सों में निषिद्ध हैं। चूँकि सट्टेबाज़ी एवं जुआ राज्य का विषय है, इसलिये विभिन्न राज्यों के अपने-अपने कानून हैं।
- ऑनलाइन कौशल-आधारित खेलों पर कानून बनाने के लिये राज्य विधानसभाओं की विधायी क्षमता का अभाव।
- अदालत ने यह भी माना कि राज्य सरकार ने इस बारे में कोई सबूत या डेटा नहीं दिया कि क्या व्यापक प्रतिबंध उचित था और न ही इस मुद्दे का अध्ययन करने के लिये विशेषज्ञों की समिति का गठन किया।
- अदालत ने यह भी माना कि ऑनलाइन गेम खेलने से व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करने में मदद मिल सकती है तथा ऑनलाइन गेमिंग का आनंद लेना भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा संविधान के तहत गारंटीकृत स्वतंत्रता और गोपनीयता के अधिकार के दायरे में आ सकता है।
- अदालत ने यह भी कहा कि ऑनलाइन गेम का विनियमन एक पूर्ण प्रतिबंध के बजाय एक बेहतर और आनुपातिक समाधान हो सकता है तथा राज्य सरकार के लिये संविधान के प्रावधानों के अनुसार सट्टेबाज़ी एवं जुए से निपटने हेतु एक नया कानून लाने के उद्देश्य से इसे खुला छोड़ दिया गया है।
कर्नाटक पुलिस (संशोधन) अधिनियम, 2021:
- कर्नाटक सरकार द्वारा ऑनलाइन जुआ (Online Gambling) और कौशल-आधारित गेमिंग प्लेटफॉर्म (Skill-Based Gaming Platforms) पर प्रतिबंध लगाने के लिये कानून पेश किया गया था।
- प्रतिबंधि में ऑनलाइन रमी, पोकर और कल्पनाओं पर आधारित खेल शामिल थे जिनमें किसी अनिश्चित घटना पर दाँव लगाना या पैसे का जोखिम शामिल था।
अन्य राज्य जहांँ इस प्रकार के कानून लागू हैं:
- कर्नाटक के अलावा तमिलनाडु सरकार द्वारा पेश किये गए इसी तरह के एक कानून को मद्रास उच्च न्यायालय ने अगस्त 2021 में रद्द कर दिया गया था।
- सितंबर 2021 में केरल उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा विशेष रूप से दाँव के लिये खेले जाने पर आधारित ऑनलाइन रमी के खेल पर प्रतिबंध लगाने वाली एक अधिसूचना को भी रद्द कर दिया था।
राज्यों द्वारा ऑनलाइन गेमिंग पर प्रतिबंध का कारण:
- कई सामाजिक कार्यकर्त्ताओं, सरकारी अधिकारी और कानून लागू करने वालों का मानना है कि रम्मी एवं पोकर जैसे ऑनलाइन गेम व्यसनकारी (Addictive) प्रकृति के हैं। जब इन्हें मौद्रिक दाँव के साथ खेला जाता है तो बढ़ते अवसाद तथा कर्ज के बोझ के कारण आत्महत्याएंँ होती हैं।
- कथित तौर पर ऐसे कुछ उदाहरण हैं जहांँ युवाओं को ऑनलाइन गेम में नुकसान के कारण बढ़ते कर्ज का सामना करना पड़ा है जिसके कारण उन्होंने चोरी और हत्या जैसे अन्य अपराध किये हैं।
- इससे पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा मानसिक विकार के रूप में "गेमिंग डिसऑर्डर" को शामिल करने की योजना की घोषणा की गई थी।
- ऑनलाइन गेम, इनका संचालन करने वाली वेबसाइटों द्वारा हेरफेर किये जाने के प्रति अति संवेदनशील होते हैं और यह संभावना रहती है कि उपयोगकर्त्ता अन्य खिलाड़ियों के विरुद्ध नहीं बल्कि ऐसे स्वचालित मशीनों या 'बॉट्स' के साथ गेम खेल रहे हैं, जिसमें एक सामान्य उपयोगकर्त्ता के जीतने की कोई संभावना नहीं होती।
ऑनलाइन गेमिंग पर प्रतिबंध लगाने के नकारात्मक परिणाम:
- एक साथ प्रतिबंध ऐसे ऑनलाइन गेम- दाँव के साथ या बिना दाँव के खेल को पूरी तरह से रोकने में कारगर नहीं है।
- तेलंगाना, जो वर्ष 2017 में दाँव के लिये ऑनलाइन गेम पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला राज्य था, में अवैध या अंडरग्राउंड ऑनलाइन जुआ एप्स के प्रयोग में तेज़ी देखी गई है।
- जिनमें से अधिकांश चीन या अन्य विदेशी देशों से संबंधित हैं और नकली कंपनियों या हवाला चैनलों के माध्यम से खिलाड़ियों से भुगतान को स्वीकार करते हैं।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) और स्थानीय साइबर अपराध अधिकारियों दोनों ने ऐसे एप्स के प्रयोग को रोकने की कोशिश की लेकिन उन्हें सीमित सफलता ही मिली।
- तेलंगाना, जो वर्ष 2017 में दाँव के लिये ऑनलाइन गेम पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला राज्य था, में अवैध या अंडरग्राउंड ऑनलाइन जुआ एप्स के प्रयोग में तेज़ी देखी गई है।
- उपयोगकर्त्ताओं को ग्रे या अवैध ऑफशोर ऑनलाइन गेमिंग एप में स्थानांतरित करने से न केवल राज्य के कर राजस्व और स्थानीय लोगों की नौकरी के अवसरों का नुकसान होता है, बल्कि इसके परिणामस्वरूप उपयोगकर्त्ता द्वारा भी अनुचित व्यवहार या जीत की राशि का भुगतान करने से इनकार किया जा सकता है।
लॉटरी, जुआ और सट्टेबाज़ी से संबंधित केंद्रीय कानून:
- लॉटरी (विनियमन) अधिनियम, 1998:
- इस अधिनियम के तहत भारत में लॉटरी को कानूनी रूप से मान्यता प्रदान की गई है। लॉटरी का आयोजन राज्य सरकार द्वारा किया जाना चाहिये और लॉटरी के ड्रॉ का स्थान भी उस राज्य विशेष में ही होना चाहिये।
- भारतीय दंड संहिता, 1860:
- यदि सट्टेबाज़ी और जुए की गतिविधियों के विज्ञापन के लिये कोई अश्लील सामग्री का उपयोग करता है तो आईपीसी के प्रावधान लागू हो सकते हैं।
- पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम, 1955:
- यह अधिनियम किसी भी प्रतियोगिता में पुरस्कार को परिभाषित करता है।
- विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999:
- इस अधिनियम के तहत लॉटरी के माध्यम से अर्जित आय के प्रेषण को प्रतिबंधित किया जाता है।
- सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2011:
- इन नियमों के तहत कोई भी इंटरनेट सेवा प्रदाता, नेटवर्क सेवा प्रदाता या कोई भी सर्च इंजन ऐसा कोई भी कंटेंट प्रदान नहीं करेगा, जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुए (Gambling) का समर्थन करता है।
- आयकर अधिनियम, 1961:
- इस अधिनियम के तहत भारत में वर्तमान कराधान नीति प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सभी प्रकार के जुआ उद्योग को कवर करती है।
आगे की राह
- पूर्ण प्रतिबंध के बजाय किसी भी उद्योग को विभिन्न जाँच और संतुलन के साथ लाइसेंस देने व विनियमित करने पर विचार किया जा सकता है, जैसे:
- केवाईसी और एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग प्रक्रियाएँ।
- नाबालिगों को खेल तक पहुँचने से रोकना।
- उस धन पर साप्ताहिक या मासिक सीमा निर्धारित करना जिसे दाँव पर लगाया जा सकता है या जिसे खर्च किया जा सकता है।
- नशे की लत वाले खिलाड़ियों के लिये परामर्श की सुविधा और ऐसे खिलाड़ियों के आत्म-बहिष्करण की अनुमति देना आदि।
- केंद्रीय स्तर पर एक गेमिंग अथॉरिटी बनाई जाए। इसे ऑनलाइन गेमिंग उद्योग के लिये ज़िम्मेदार बनाया जा सकता है एवं इसके संचालन की निगरानी, सामाजिक मुद्दों को रोकने, इस खेल को उपयुक्त रूप से वर्गीकृत करने, उपभोक्ता संरक्षण की देख-रेख एवं अवैधता और अपराध का मुकाबला करने की भी ज़िम्मेदारी दी जा सकती है।
- अधिक-से-अधिक युवा ऑनलाइन गेम से जुड़ रहे हैं। अतः भारत में ऑनलाइन गेमिंग उद्योग को विनियमित करने की आवश्यकता है। इसके अलावा ऑनलाइन गेमिंग के नियमन से न केवल आर्थिक अवसर खुलेंगे बल्कि इसकी सामाजिक लागत भी कम होगी।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय इतिहास
गोवा का मुक्ति संग्राम
प्रिलिम्स के लिये:गोवा का मुक्ति संघर्ष, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो), ऑपरेशन विजय। मेन्स के लिये:स्वतंत्रता के बाद भारत का एकीकरण, गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में गोवा के चुनाव में राजनीतिक अभियान के दौरान गोवा की मुक्ति एक विवादास्पद विषय बन गया।
- 1947 में भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होने के 15 वर्ष बाद वर्ष 1962 में गोवा को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराया गया था। 1947 के तुरंत बाद गोवा के स्वतंत्र नहीं होने के कई जटिल कारक हैं।
- गोवा को 19 दिसंबर, 1961 (गोवा का राज्य दिवस) को तीव्र भारतीय सैन्य कार्रवाई द्वारा मुक्त कराया गया था जो दो दिनों से भी कम समय तक चली थी।
गोवा के भारतीय संघ में एकीकरण की समय रेखा:
- वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत और पुर्तगाल के बीच संबंध सौहार्दपूर्ण ढंग से शुरू हुए तथा वर्ष 1949 में राजनयिक संबंध स्थापित हुए।
- हालाँकि भारत के पश्चिमी तट पर गोवा, दमन और दीव, दादरा एवं नगर हवेली के अपने परिक्षेत्रों के आत्मसमर्पण करने से पुर्तगाल के इनकार के बाद वर्ष 1950 में द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट आई।
- दमन और दीव, दादरा एवं नगर हवेली को वर्ष 1961 में भारतीय मुख्य भूमि के साथ मिला लिया गया।
- पुर्तगाल ने वर्ष 1951 में गोवा को एक औपनिवेशिक अधिकार क्षेत्र के रूप में नहीं, बल्कि एक विदेशी प्रांत के रूप में दावा करने के लिये अपने संविधान में परिवर्तन कर दिया।
- इस कदम का उद्देश्य स्पष्ट रूप से गोवा को नवगठित उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) सैन्य गठबंधन का हिस्सा बनाना था।
- इसका उद्देश्य भारत द्वारा हमले की स्थिति में संधि के सामूहिक सुरक्षा खंड को लागू करना था।
- वर्ष 1955 तक दोनों राष्ट्रों के राजनयिक संबंधों पर संकट छाया रहा, जिससे संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई और इसने भारतीय सैन्य बलों द्वारा गोवा की मुक्ति की शुरुआत की एवं वर्ष 1961 में भारतीय परिक्षेत्रों पर पुर्तगाली शासन को समाप्त कर दिया।
- वर्ष 1961 में पुर्तगालियों के साथ राजनयिक प्रयासों की विफलता के बाद भारत सरकार द्वारा ऑपरेशन विजय चलाकर 19 दिसंबर को दमन और दीव तथा गोवा को भारतीय मुख्य भूमि के साथ मिला लिया गया।
- इसने गोवा में पुर्तगाली विदेशी प्रांतीय शासन के 451 वर्षों का अंत कर दिया।
गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास:
- वर्ष 1510 में गोवा एक पुर्तगाली उपनिवेश बन गया, जब एडमिरल ‘अल्फांसो द अल्बुकर्क’ ने जियापुर के सुल्तान युसूफ आदिल शाह की सेना को हराया।
- बीसवीं सदी के अंत तक गोवा में पुर्तगाल के औपनिवेशिक शासन के विरोध में राष्ट्रवादी भावना का उद्गम शुरू हो गया था, जो कि शेष भारत में ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवादी आंदोलन के अनुरूप था।
- वर्ष 1946 में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने गोवा में एक ऐतिहासिक रैली का नेतृत्व किया जिसमें नागरिक स्वतंत्रता और भारत के साथ अंतिम एकीकरण का आह्वान किया गया, यह गोवा के स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्त्वपूर्ण क्षण बन गया।
- तत्कालीन आज़ाद गोमांतक दल (AGD) ने अनुसार, शांतिपूर्ण तरीकों से नागरिक स्वतंत्रता नहीं प्राप्त की जा सकती और इसके लिये आक्रामक सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता थी।
- जैसे-जैसे भारत स्वतंत्रता की ओर बढ़ा, यह स्पष्ट हो गया था कि गोवा जल्द ही मुक्त नहीं होगा, क्योंकि कई तरह के जटिल कारक थे:
- विभाजन का आघात।
- पाकिस्तान के साथ युद्ध का अनुभव।
- भारत खुद को एक शांतिप्रिय राष्ट्र के रूप में प्रदर्शित करना चाहता था।
- पुर्तगाल के नाटो का सदस्य होने के नाते।
- इन कारकों ने भारत सरकार को एक और मोर्चा खोलने से रोक दिया जिसमें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय शामिल हो सके।
- इसके अलावा महात्मा गांधी की राय थी कि लोगों की चेतना को जागृत करने के लिये गोवा में अभी भी बहुत अधिक ज़मीनी कार्य करने की आवश्यकता है और यहाँ उभर रही विविध राजनीतिक आवाज़ों को पहले एक प्रमुख नेतृत्त्वकर्त्ता के अंतर्गत लाया जाना चाहिये।
- गोवा में स्वतंत्रता के लिये लड़ने वाले समूहों (सत्याग्रह बनाम सैन्य कार्रवाई) के भीतर द्वंद्व के कारण भी गोवा की मुक्ति में देरी हुई।
- सत्याग्रह के विचार ने सत्य की शक्ति और सत्य की खोज की आवश्यकता पर बल दिया।
- इनका मानना था कि यदि कारण सही हो और संघर्ष अन्याय के खिलाफ हो तो उत्पीड़क से लड़ने के लिये शारीरिक बल की आवश्यकता नहीं होती है।
गोवा:
- अवस्थिति: गोवा, भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट पर कोंकण क्षेत्र में स्थित है और भौगोलिक रूप से दक्कन उच्च भूमि से पश्चिमी घाट द्वारा अलग होता है।
- राजधानी: पणजी
- आधिकारिक भाषा: कोंकणी
- कोंकणी, आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में से एक है।
- इसे वर्ष 1992 के 71वें संशोधन अधिनियम द्वारा मणिपुरी और नेपाली भाषा के साथ आठवीं अनुसूची में जोड़ा गया था।
- सीमा: यह उत्तर में महाराष्ट्र, पूर्व और दक्षिण में कर्नाटक से घिरा हुआ है तथा अरब सागर इसके पश्चिमी तट पर है।
- भूगोल:
- गोवा का उच्चतम बिंदु सोंसोगोर (Sonsogor) है।
- गोवा के उत्तर में तेरेखोल नदी बहती है जो गोवा को महाराष्ट्र से अलग करती है, राज्य की अन्य प्रमुख नदियों में मांडवी, जुआरी, चपोरा, रखोल, गलगिबाग, कुम्बरजुआ नहर, तलपोना और साल आदि शामिल हैं।
- गोवा की अधिकांश मृदा आवरण लैटेराइट युक्त है।
- वन्यजीव अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान:
- डॉ. सलीम अली पक्षी अभयारण्य
- महादेई वन्यजीव अभयारण्य
- नेत्रावली वन्यजीव अभयारण्य
- कोटिगाओ वन्यजीव अभयारण्य
- भगवान महावीर अभयारण्य
- मोलेम नेशनल पार्क
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय राजव्यवस्था
सार्वजनिक व्यवस्था
प्रिलिम्स के लिये:सार्वजनिक व्यवस्था, हिजाब, मूल अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित मुद्दे मेन्स के लिये:मूल अधिकार, न्यायतंत्र, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, महिलाओं से संबंधित मुद्दे, धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
कर्नाटक उच्च न्यायालय शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने वाली छात्राओं पर राज्य सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा है।
- मामला इस तर्क से संबंधित है कि क्या राज्य 'सार्वजनिक व्यवस्था' (Public Order) के उल्लंघन के आधार पर इस प्रतिबंध को उचित ठहरा सकता है।
सार्वजनिक व्यवस्था क्या है?
- सार्वजनिक व्यवस्था को आमतौर पर सार्वजनिक शांति और सुरक्षा के समान माना जाता है।
- सार्वजनिक व्यवस्था उन तीन आधारों में से एक है जिस पर राज्य धर्म की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकता है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने का सामान अधिकार देता है, बशर्ते ये अधिकार सार्वजनिक व्यवस्थाओं, नैतिकता, स्वास्थ्य एवं मूल अधिकारों से संबंधित अन्य प्रावधानों के अनुरूप हों।
- सार्वजनिक व्यवस्था, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा अन्य मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाले आधारों में से भी एक है।
- संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची (सूची 2) के अनुसार, सार्वजनिक व्यवस्था के पहलुओं पर कानून बनाने की शक्ति राज्यों में निहित है।
न्यायालयों द्वारा सार्वजनिक व्यवस्था की व्याख्या:
- सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारक प्रासंगिक हैं और इनका निर्धारण राज्य द्वारा किया जाता है।
- हालाँकि न्यायालयों ने मोटे तौर पर इसकी व्याख्या कुछ ऐसे साधनों के रूप में की है जो व्यापक स्तर पर किसी समुदाय को प्रभावित करते हैं, न कि कुछ व्यक्तियों को।
- राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य (1965) वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि 'सार्वजनिक व्यवस्था' के मामले में की गई एक विशेष कार्रवाई से किसी समुदाय या जनता को व्यापक रूप से प्रभावित होना पड़ता है।
- कानून का उल्लंघन (ऐसा कुछ करना जो कानून या नियम द्वारा निषिद्ध है) हमेशा आदेश को प्रभावित करता है लेकिन इससे पहले कि इसे सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाला कहा जाए, बड़े पैमाने पर समुदाय या जनता प्रभावित होनी चाहिये।
- इसके लिये तीन संकेंद्रित वृत्तों की कल्पना करनी होगी, जिसमें सबसे बड़ा वृत्त 'कानून और व्यवस्था' का प्रतिनिधित्व करता है, दूसरा 'सार्वजनिक व्यवस्था' का प्रतिनिधित्व करता है और सबसे छोटा वृत्त 'राज्य की सुरक्षा' का प्रतिनिधित्व करता है।
हिजाब पर प्रतिबंध और सार्वजनिक व्यवस्था के बीच संबंध:
- कर्नाटक शिक्षा अधिनियम, 1983 के तहत 5 फरवरी को जारी सरकारी आदेश के अनुसार, ‘एकता’ और ‘अखंडता’ के साथ-साथ ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ भी शैक्षणिक संस्थानों में छात्राओं को हिजाब/हेडस्कार्फ पहनने की अनुमति नहीं देने के कारणों में से एक है।
- इससे पहले भी कई न्यायालय सार्वजनिक संस्थानों में अल्पसंख्यकों के लिये ड्रेस कोड निर्धारित करने के आदेश दे चुके हैं।
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क: याचिकाकर्त्ताओं ने यह तर्क दिया है कि कानून और व्यवस्था का प्रत्येक उल्लंघन, सार्वजनिक व्यवस्था से संबंधित नहीं है।
- सार्वजनिक व्यवस्था अशांति का एक निकृष्ट रूप है जो कि कानून और व्यवस्था के मुद्दे से कहीं ऊपर है।
- याचिकाकर्त्ताओं ने राज्य से कहा कि केवल छात्राओं द्वारा हिजाब पहनना सार्वजनिक व्यवस्था का मुद्दा कैसे बन सकता है।
- कर्नाटक सरकार का रुख: कर्नाटक के महाधिवक्ता ने तर्क दिया है कि सरकारी आदेश में ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ का कोई उल्लेख नहीं है और याचिकाकर्त्ता द्वारा आदेश को पढ़ने या उसके भाषांतरण में त्रुटि हो सकती है।
- कन्नड़ भाषा में दिये गए आदेश में वाक्यांश ‘सार्वजनिक सुव्यवस्था’ (Sarvajanika Suvyavasthe) का उपयोग किया गया है।