प्रयागराज शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 10 जून से शुरू :   संपर्क करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 08 Apr, 2021
  • 45 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक: IMF

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund- IMF) द्वारा वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक (World Economic Outlook), 2021 रिपोर्ट जारी की गई, जिसके अनुसार भारत की वृद्धि दर वित्त वर्ष 2021 में 12.5% रहने का अनुमान है, इससे पहले जनवरी 2021 में इसे 11.5% अनुमानित किया गया था।

प्रमुख बिंदु

भारतीय अर्थव्यवस्था:

  • भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्ष 2021 में 12.5% और वर्ष 2022 में 6.9% की दर से बढ़ने की उम्मीद है।
    • भारत की अर्थव्यवस्था में वर्ष 2020 में 8% का संकुचन देखा गया।
  • वर्ष 2021 में भारत की विकास दर चीन की तुलना में अच्छी स्थिति में है।
    • चीन एकमात्र प्रमुख अर्थव्यवस्था था जिसने वर्ष 2020 में 2.3% की सकारात्मक वृद्धि दर बनाए रखी और इसके वर्ष 2021 में 8.6% तथा वर्ष 2022 में 5.6% की दर से बढ़ने की उम्मीद है।

विश्व अर्थव्यवस्था:

  • IMF ने वर्ष 2021 और 2022 में विश्व की विकास दर क्रमशः 6% तथा 4.4% रहने के कारण एक मज़बूत आर्थिक रिकवरी की भविष्यवाणी की।
    • वैश्विक अर्थव्यवस्था वर्ष 2020 में 3.3% संकुचित हुई है।
  • यह दर्शाता है कि वर्ष 2020 का संकुचन पहले की तुलना में 1.1% कम है:
    • लॉकडाउन के बाद अधिकांश क्षेत्रों में वर्ष की दूसरी छमाही में उच्च वृद्धि की उम्मीद कम हो गई थी और अर्थव्यवस्थाओं ने काम करने के नए तरीकों के साथ अपने आप को अनुकूलित किया।
    • कुछ बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने अपने आपको अतिरिक्त राजकोषीय समर्थन और वर्ष की दूसरी छमाही में वैक्सीन के व्यापार से संभाला।

सुझाव:

  • स्वास्थ्य देखभाल:
    • टीकाकरण, उपचार और स्वास्थ्य देखभाल के लिये बुनियादी ढाँचे पर खर्च को प्राथमिकता देकर स्वास्थ्य संकट से बचने पर ज़ोर देने के साथ ही देशों का राजकोषीय खर्च प्रभावित परिवारों पर अच्छी तरह से लक्षित होना चाहिये।
  • उदार मौद्रिक नीति:
    • मौद्रिक नीति को व्यवस्थित होना चाहिये (जहाँ मुद्रास्फीति अच्छी तरह से व्यवहार करती है), जबकि स्थायी उपायों द्वारा वित्तीय स्थिरता के जोखिमों को दूर करना चाहिये।
  • कठोर दृष्टिकोण:
    • नीति निर्माताओं को महामारी से पहले की तुलना में अधिक सीमित नीति और उच्च ऋण स्तर से निपटने के लिये अपनी अर्थव्यवस्था का समर्थन जारी रखने की आवश्यकता होगी।
    • लंबे समय तक समर्थन के लिये बेहतर लक्षित उपायों की आवश्यकता होती है। मल्टी-स्पीड रिकवरी के साथ एक अनुकूलित दृष्टिकोण आवश्यक है, जिसमें महामारी के चरण में अच्छी तरह जाँची-परखी नीतियों, आर्थिक सुधार और देशों की संरचनात्मक विशेषताएँ शामिल हैं।
  • प्राथमिकताएँ:
    • प्राथमिकताओं में जलवायु परिवर्तन को कम करना, उत्पादन क्षमता को बढ़ाना, बढ़ती असमानता को रोकने के लिये सामाजिक सहायता को मज़बूत करना आदि को शामिल किया जाना चाहिये।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष

  • इस कोष की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) के पश्चात् युद्ध प्रभावित देशों के पुनर्निर्माण में सहायता के लिये विश्व बैंक (World Bank) के साथ की गई थी। 
    • इन दोनों संगठनों की स्थापना के लिये अमेरिका के ब्रेटन वुड्स में आयोजित एक सम्मेलन में सहमति बनी। इसलिये इन्हें ‘ब्रेटन वुड्स ट्विन्स’ (Bretton Woods Twins) के नाम से भी जाना जाता है।
  • वर्ष 1945 में स्थापित IMF विश्व के 189 देशों द्वारा शासित है तथा यह अपने निर्णयों के लिये इन देशों के प्रति उत्तरदायी है। भारत 27 दिसंबर, 1945 को IMF में शामिल हुआ था।   
  • IMF का प्राथमिक उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली की स्थिरता सुनिश्चित करना है। अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली से आशय विनिमय दरों और अंतर्राष्ट्रीय भुगतान की उस प्रणाली से है जो देशों (और उनके नागरिकों) को एक-दूसरे के साथ लेन-देन करने में सक्षम बनाती है।
    • IMF के अधिदेश में वैश्विक स्थिरता से संबंधित सभी व्यापक आर्थिक और वित्तीय मुद्दों को शामिल करने के लिये वर्ष 2012 में इसे अद्यतन/अपडेट किया गया था।
  • IMF द्वारा जारी की जाने वाली रिपोर्ट:

वर्ल्ड इकॉनमी आउटलुक

  • यह IMF का एक सर्वेक्षण है जिसे आमतौर पर अप्रैल और अक्तूबर के महीनों में साल में दो बार प्रकाशित किया जाता है।
  • यह भविष्य के चार वर्षों तक के अनुमानों के साथ निकट और मध्यम अवधि के दौरान वैश्विक आर्थिक विकास का विश्लेषण तथा भविष्यवाणी करता है।
  • इसके पूर्वानुमान के अपडेट्स की बढ़ती मांग के कारण वर्ल्ड इकॉनमी आउटलुक अपडेट जनवरी और जुलाई में प्रकाशित किया जाता है, जो आमतौर पर अप्रैल और अक्तूबर में में प्रकाशित होने वाली मुख्य WEO रिपोर्टों के बीच का समय है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


कृषि

न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रत्यक्ष भुगतान

चर्चा में क्यों?

भारतीय खाद्य निगम (FCI) के नवीनतम आदेशों के बाद फार्म यूनियनों ने चेतावनी दी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के प्रत्यक्ष भुगतान पर केंद्र का आग्रह फसल खरीद प्रक्रिया में बाधक बन सकता है।

प्रमुख बिंदु:

FCI का आदेश:

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का प्रत्यक्ष भुगतान:
    • मध्यस्थों को प्रक्रिया से हटाने के लिये केंद्र सरकार ऑनलाइन प्रक्रिया के ज़रिये सीधे किसानों के बैंक खातों में MSP का भुगतान करना चाहती है।
      • यह फसल की वह कीमत होती है, जिसका भुगतान सरकारी एजेंसी द्वारा फसल विशेष की खरीद करते समय किया जाता है।
    • वर्तमान में आढ़तियों (कमीशन एजेंटों) को उनके खातों में भुगतान किया जाता है और इसके बाद वे चेक के माध्यम से किसानों को भुगतान करते हैं।
    • केंद्र को 2.5 प्रतिशत कमीशन आढ़तियों को देना पड़ता है जो किसानों से लेकर सरकारी एजेंसियों तक फसल की खरीद की सुविधा प्रदान करते हैं और इसके लिये सरकार से कमीशन लेते हैं।
  • जमाबंदी प्रणाली:
    • FCI के आदेश में कहा गया है कि पट्टेदार किसानों और अंशधारकों को एक जमाबंदी समझौता प्रस्तुत करना होगा।
    • जमाबंदी एक कानूनी समझौता है जो साबित करता है कि उन्हें पट्टे की समयावधि तक उस ज़मीन पर अधिकार है, ताकि खरीद की गई फसलों का भुगतान किया जा सके।
  • FCI ने गेहूँ और धान की खरीद के लिये उनकी गुणवत्ता को प्रभावी बनाए जाने का प्रस्ताव किया है।

महत्त्व: 

  • पारदर्शिता और जवाबदेही: FCI ने इस बात पर अधिक बल दिया है कि किसानों के बैंक खातों में सीधे भुगतान करने से शक्तिशाली आढ़तियों (कमीशन एजेंटों) को हटाने से  और अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही लाई जा सकती है। 
  • गैर-भेदभाव की प्रकृति: जाति और भूमि आकार जैसी मापन विधि के आधार पर लाभार्थियों की चयन प्रक्रिया में कोई पूर्वाग्रह शामिल नहीं है।

FCI आदेश को चुनौती:

  • चूँकि आढ़ति समुदाय पंजाब और हरियाणा के कृषि पारिस्थितिकी तंत्र में कृषि ऋण प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, इसलिये इस आदेश का विरोध पंजाब सरकार के साथ-साथ किसानों के एक बड़े वर्ग ने किया है।
  • फार्म यूनियनों के अनुसार, सरकार को बैंक खाते में सीधे भुगतान के प्रावधान को वापस लेना चाहिये क्योंकि इसे ज़ल्दबाज़ी में लागू करने से कई जटिल समस्याएँ पैदा हो सकती हैं जो कई किसानों को उनकी फसल की कीमत पाने से बाहर कर देंगी।
  • हज़ारों शेयरधारकों के पास इस तरह की जमाबंदी या कानूनी समझौता नहीं है और वे इस आदेश  से बहुत प्रभावित होंगे।
  • गेहूँ और धान की खरीद के लिये गुणवत्ता की आवश्यकताओं को प्रभावी बनाने  के FCI के  प्रस्ताव का विरोध किया जा रहा है।
  • व्यापक स्तर पर किसानों ने FCI के साथ कृषि कानूनों को निरस्त करने और सभी फसलों की खरीद के लिये कानूनी गारंटी देने और MSP लागू करने के लिये अपने मुद्दों को  जोड़ा है।

भारतीय खाद्य निगम (FCI)

  • भारतीय खाद्य निगम एक सांविधिक निकाय है जिसे भारतीय खाद्य निगम अधिनियम, 1964 के तहत वर्ष 1965 में स्थापित किया गया।
  • FCI उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय’ के खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग के अंतर्गत शामिल सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है।
  • देश में भीषण अन्न संकट, विशेष रूप से गेहूँ के अभाव के चलते इस निकाय की स्थापना की गई थी।
    • इसके साथ ही कृषकों के लिये लाभकारी मूल्य की सिफारिश (MSP) करने हेतु वर्ष 1965 में कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) का भी गठन किया गया। कृषि लागत और मूल्य आयोग भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय से संलग्न कार्यालय है।
  • इसका मुख्य कार्य खाद्यान्न एवं अन्य खाद्य पदार्थों की खरीद, भंडारण, परिवहन, वितरण और बिक्री करना है।
  • FCI के उद्देश्य:
    • किसानों को उनकी फसल लाभकारी मूल्य प्रदान करना।
    • खाद्यान्नों के कार्यात्मक बफर स्टॉक का संतोषजनक स्तर बनाकर राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना।
    • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से संपूर्ण देश में खाद्यान्न का वितरण।
    • किसानों के हितों की सुरक्षा के लिये प्रभावी मूल्य सहायता ऑपरेशन (Effective Price Support Operations) लागू करना।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

स्वास्थ्य सूचनाओं के लिये एकीकृत प्लेटफॉर्म

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने एकीकृत स्वास्थ्य सूचना प्लेटफॉर्म (Integrated Health Information Platform- IHIP) की शुरुआत की जो वर्तमान में इस्तेमाल किये जा रहे एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (Integrated Disease Surveillance Programme) की अगली पीढ़ी का अत्यधिक परिष्कृत संस्करण है।

  • IHIP एक उन्नत रोग निगरानी प्रणाली है।

प्रमुख बिंदु

एकीकृत प्लेटफॉर्म के विषय में:

  • यह पहले की 18 बीमारियों की तुलना में 33 रोगों की निगरानी के अलावा डिजिटल मोड में निकट वास्तविक समय के डेटा की उपलब्धता सुनिश्चित करेगा। 
  • यह रियल टाइम डेटा, केस-आधारित जानकारी, एकीकृत विश्लेषणात्मक और उन्नत दृश्य क्षमता के लिये विकसित स्वास्थ्य सूचना प्रणाली प्रदान करेगा।।
  • इसके  तहत रियल टाइम डेटा उपलब्ध कराया जाएगा:
    • ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे स्वास्थ्यकर्मी अपने गैजेट (टैबलेट) के माध्यम से वास्तविक समय में डेटा प्रदान करेंगे। 
    • स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों (प्राथमिक हेल्थ केयर सेंटर/सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र/ज़िला अस्पताल) में नागरिकों द्वारा मांग किये जाने पर डॉक्टरों द्वारा उनका डेटा उपलब्ध कराया जाएगा। 
    • नैदानिक परीक्षण प्रयोगशालाएँ भी अपने यहाँ की गई जाँचों का डेटा प्रदान करेंगी। 
  • मुख्य विशेषताएँ:
    • मोबाइल एप्लीकेशन के माध्यम से गाँवों, राज्यों और केंद्र सभी स्तरों पर वास्तविक समय की डेटा रिपोर्टिंग।
    • उन्नत डेटा प्रतिरूपण और विश्लेषणात्मक उपकरण।
    • भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) ने एकीकृत डैशबोर्ड में चित्रात्मक डेटा को सक्षम किया।
    • भूमिका और पदानुक्रम-आधारित प्रतिक्रिया और चेतावनी तंत्र।
    • स्वास्थ्य सुविधाओं की रिपोर्टिंग की जियो-टैगिंग।
    • अन्य स्वास्थ्य कार्यक्रमों के साथ डेटा एकीकरण की गुंज़ाइश।

महत्त्व:

  • प्रामाणिक आँकड़ों का संग्रहण आसान हो जाएगा क्योंकि इनका संग्रहण सीधे गाँव/ब्लॉक स्तर से किया जाता है।
  • देश के छोटे-से-छोटे गाँवों और ब्लॉकों में फैली बीमारी के शुरुआती लक्षणों के विषय में बताने के लिये इस तरह का एक उन्नत डिजिटल प्लेटफॉर्म किसी भी संभावित प्रकोप या महामारी से शुरुआत में ही निपटने में सहायता करेगा। 
  • यह राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (National Digital Health Mission) के साथ ताल-मेल पर आधारित है।
    • NDHM का उद्देश्य देश के एकीकृत डिजिटल स्वास्थ्य ढाँचे के लिये आवश्यक आधार विकसित करना है।
  • बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ‘हर बार सही आबादी के लिये, सही समय पर उचित हस्तक्षेप हेतु’ भारत की सूचना प्रणाली को मज़बूती प्रदान करना आवश्यक है।
    • हाल के वर्षों में सार्वजनिक स्वास्थ्य में सटीकता बढ़ाने के लिये प्रौद्योगिकी के उपयोग में लगातार वृद्धि हुई है। इसमें रोगजनक जीनोमिक्स, निगरानी से संबंधित सूचना विज्ञान का विकास और लक्षित हस्तक्षेप शामिल हैं।
  • इसके कार्यान्वयन के साथ भारत प्रौद्योगिकी के उपयोग के माध्यम से स्वास्थ्य देखभाल में आत्मनिर्भर भारत (Atmanirbhar Bharat) की ओर तेज़ी से आगे बढ़ रहा है।
  • यह परिष्कृत डिजिटल निगरानी मंच डेटा प्रदान करने के साथ-साथ डेटा को कनेक्ट करने और ‘एक स्वास्थ्य’ दृष्टिकोण की ओर बढ़ने में सहायता करेगा।
    • ‘एक स्वास्थ्य’ दृष्टिकोण कार्यक्रमों, नीतियों, कानूनों आदि के निर्माण तथा उन्हें कार्यान्वित करने से संबंधित है, इसके तहत विभिन्न क्षेत्र बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य परिणामों की प्राप्ति हेतु एक साथ संवाद तथा काम करते हैं।

एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम

  • यह स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की एक पहल है जिसकी शुरुआत वर्ष 2004 में विश्व बैंक (World Bank) की सहायता से की गई थी।
  • इसे 12वीं योजना (वर्ष 2012-17) के दौरान घरेलू बजट से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission) के अंतर्गत एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम के रूप में जारी रखा गया था।
  • इसके अंतर्गत दिल्ली में एक केंद्रीय निगरानी इकाई (CSU), सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों (UTs) में राज्य निगरानी इकाई (SSU) और सभी ज़िलों में ज़िला निगरानी इकाई (DSU) की स्थापना की गई है।
  • उद्देश्य:
    • रोग की प्रवृत्ति पर नज़र रखने के लिये महामारी प्रवण रोगों हेतु विकेंद्रीकृत प्रयोगशाला आधारित और आईटी सक्षम रोग निगरानी प्रणाली को मज़बूत करना।
    • रोग के प्रकोप का उसके शुरुआती चरण में ही प्रशिक्षित रैपिड रिस्पांस टीमों (Rapid Response Team) के माध्यम से पता लगा कर प्रतिक्रिया देना।
  • कार्यक्रम के घटक:
    • केंद्र, राज्य और ज़िला स्तर पर निगरानी इकाइयों की स्थापना के माध्यम से निगरानी गतिविधियों का एकीकरण और विकेंद्रीकरण करना।
    • मानव संसाधन विकास- रोगों की निगरानी हेतु राज्य और ज़िला निगरानी अधिकारियों तथा अन्य चिकित्सा एवं पैरामेडिकल स्टाफ को प्रशिक्षित करना।
    • डेटा का संग्रहण, संकलन, विश्लेषण आदि के लिये सूचना संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ाना।
    • सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयोगशालाओं को मज़बूत बनाना।
    • ज़ूनोटिक रोगों के लिये अंतर क्षेत्रीय समन्वय।

स्रोत: पी.आई.बी.


शासन व्यवस्था

सीबीआई अंतरिम निदेशक

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने सरकार से कहा कि केंद्रीय जाँच ब्यूरो  (Central Bureau of Investigation- CBI) के निदेशक पद पर अंतरिम नियुक्तियों को जारी नहीं रखा जा सकता है।

  • एक नियमित सीबीआई निदेशक (Regular CBI Director) की सेवानिवृत्ति के बाद अंतरिम सीबीआई निदेशक (Interim CBI Director)  नियुक्त किये जाने पर आपत्ति जताते हुए कोर्ट में याचिका दायर की गई थी।

प्रमुख बिंदु:

याचिकाकर्त्ता के तर्क:

  • सरकार प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता के अंतर्गत गठित एक उच्च अधिकार प्राप्त चयन समिति के माध्यम से एक नियमित निदेशक नियुक्त करने में विफल रही थी।
  • 1946 के दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (DSPE) की वैधानिक योजना में एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से अंतरिम नियुक्ति की परिकल्पना शामिल नहीं थी।
  • इसके अलावा याचिकाकर्त्ता ने न्यायालय से इस बात के लिये भी आग्रह  किया कि CBI निदेशक के पद पर रिक्ति से 1-2 माह पूर्व ही केंद्र सरकार CBI  निदेशक की चयन प्रक्रिया शुरू करने हेतु एक प्रणाली विकसित करे।
  • इस संबंध में याचिकाकर्त्ता द्वारा अंजलि भारद्वाज बनाम भारत संघ (2019) मामले का संदर्भ लिया गया जो केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों में रिक्तियों से संबंधित था।
    • इसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा, यह उचित होगा कि किसी विशेष रिक्ति को भरने की प्रक्रिया उस तिथि से 1-2 माह पूर्व शुरू की जाए, जिस दिन रिक्ति होने की संभावना है, ताकि रिक्ति होने और उसे भरने के मध्य अधिक समय अंतराल न हो।

केंद्रीय जांँच ब्यूरो (CBI) के बारे में:

  • CBI की स्थापना वर्ष 1963 में गृह मंत्रालय के एक प्रस्ताव द्वारा की गई थी।
  • अब CBI कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (DoPT) के प्रशासनिक नियंत्रण में आता है।
  • CBI की स्थापना भ्रष्टाचार निवारण पर संथानम समिति (1962–1964) द्वारा की गई थी।
  • CBI एक सांविधिक निकाय नहीं है। इसे दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 के तहत  शक्तियांँ प्राप्त हैं।
  • यह केंद्रीय सतर्कता आयोग और लोकपाल को भी सहायता प्रदान करता है।
  • यह भारत की नोडल पुलिस एजेंसी भी है जो इंटरपोल सदस्य देशों की ओर से जाँच का समन्वय करती है।

CBI की कार्यप्रणाली से संबंधित मुद्दे:

  • कानूनी अस्पष्टता: कार्यों के अस्पष्ट सीमांकन और विभिन्न संस्थाओं के कार्यों के अतिव्यापन के कारण CBI की अखंडता और प्रभावकारिता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
    • दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 के तहत एक राज्य के क्षेत्र के भीतर किये गए अपराधों की जांँच करने या उस जांँच को जारी रखने हेतु राज्य की सहमति महत्त्वपूर्ण है।
  • मानव संसाधनों का अभाव:  संसदीय पैनल ने वर्ष 2020 में कहा था कि सीबीआई में अधिकारियों की भारी कमी से जांच की गुणवत्ता में बाधा आ सकती है।
    • पैनल द्वारा किये गए निरीक्षण के अनुसार कार्यकारी रैंक में 789 पद, विधि अधिकारियों के 77 पद और तकनीकी अधिकारियों और कर्मचारियों के 415 पद रिक्त हैं।
  • पर्याप्त निवेश का अभाव:
    • कर्मियों के प्रशिक्षण, उपकरणों या अन्य सहायता संरचनाओं में अपर्याप्त निवेश अधिकारियों के कर्तव्यों के निर्वहन में बाधा उत्पन्न करता है।
    • एक प्रभावी आधुनिक पुलिस बल को तैयार करने में उच्च गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है जो पुलिस बल को बदलती सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करने में सक्षम बनाता है।
  • जवाबदेही:
    • पिछले कुछ दशकों में सार्वजनिक जीवन और संस्थानों में पारदर्शिता और जवाबदेही जैसे गुणों में व्यापक प्रगति हुई है।
    • सभी को समान महत्त्व देते हुए सख्ती के साथ आंतरिक जवाबदेही को लागू करके पुलिस बल का मनोबल बनाए रखने की आवश्यकता है।
  • राजनीतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेप:
    • यह देखते हुए कि दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 4 के तहत एजेंसी का अधीक्षण और नियंत्रण व्यापक पैमाने पर कार्यपालिका में निहित है, राजनीतिक साधन के रूप में इसके प्रयोग की संभावना कभी बढ़ जाती है।

आगे की राह: 

  • यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि CBI एक औपचारिक एवं आधुनिक कानूनी ढांँचे जिसे समकालीन जांँच एजेंसियों हेतु निर्मित किया गया है, के तहत कार्य करती है। एक नए CBI अधिनियम को प्रख्यापित किया जाना चाहिये जो CBI की स्वायत्तता सुनिश्चित करता हो, साथ ही पर्यवेक्षण की गुणवत्ता में सुधार भी करता हो।
  •  CBI को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाए जाने की आवश्यकता है। ऐसा करने के लिये आवश्यक है कि नए अधिनियम में सरकारी हस्तक्षेप की स्थिति में अपराधी दायित्व (Criminal Culpability) को निर्धारित किया जाना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजनीति

केंद्रीय सतर्कता आयोग

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission- CVC) द्वारा  सरकारी संगठनों की सतर्कता इकाइयों में अधिकारियों के स्थानांतरण और पोस्टिंग से संबंधित दिशा-निर्देशों को संशोधित करते हुए अधिकारियों के कार्यकाल को किसी एक स्थान पर तीन वर्ष तक सीमित कर दिया है।

प्रमुख बिंदु:

दिशा-निर्देश:

  • निचले स्तर के अधिकारियों सहित सतर्कता इकाई में कर्मियों का कार्यकाल एक स्थान पर केवल तीन वर्ष तक सीमित होना चाहिये।
    • हालांँकि किसी अन्य स्थान पर पोस्टिंग के साथ कार्यकाल को तीन  वर्षों तक और बढ़ाया जा सकता है।
  • जिन कर्मचारियों/कार्मिकों द्वारा एक ही स्थान पर सतर्कता इकाइयों में पाँच वर्ष से अधिक समय पूरा कर लिया है उन्हें  सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर स्थानांतरित किया जाना चाहिये।
  • किसी एक संगठन की सतर्कता इकाई से स्थानांतरण के बाद एक व्यक्ति को पुनः स्थानांतरित करने से पूर्व कम-से-कम तीन वर्ष  की अवधि का अनिवार्य कार्यकाल दिया जाएगा।

कारण:

  • यह देखा गया है कि एक संवेदनशील जगह पर किसी अधिकारी के लंबे समय तक रहने से अधिकारी में उस स्थान के प्रति एक लगाव विकसित होने की संभावना होती है, इसके अलावा अनावश्यक शिकायतें/आरोप आदि बढ़ जाते हैं।
    • इस दृष्टिकोण में पारदर्शिता, निष्पक्षता और एकरूपता सुनिश्चित करना आवश्यक है।

केंद्रीय सतर्कता आयोग

केंद्रीय सतर्कता आयोग के बारे में:

  • केंद्रीय सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission-CVC) एक शीर्षस्‍थ सतर्कता संस्‍थान है जो किसी भी कार्यकारी प्राधिकारी के नियंत्रण से मुक्‍त है तथा केंद्रीय सरकार के अंतर्गत सभी सतर्कता गतिविधियों की निगरानी करता है। 
  • यह केंद्रीय सरकारी संगठनों में विभिन्न प्राधिकारियों को उनके सतर्कता कार्यों की योजना बनाने, उनके निष्‍पादन, समीक्षा एवं सुधार करने के संबंध में सलाह देता है। 

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 1964 में के. संथानम की अध्यक्षता वाली भ्रष्टाचार निरोधक समिति (Committee on Prevention of Corruption) की सिफारिशों पर सरकार द्वारा CVC की स्थापना की गई थी।
  • वर्ष 2003 में केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम (The Central Vigilance Commission Act) द्वारा आयोग के सांविधिक दर्जे की पुष्टि कर दी गई।
  • यह एक स्वतंत्र निकाय है जो केवल संसद के प्रति ज़िम्मेदार है।
    • यह अपनी रिपोर्ट भारत के राष्ट्रपति को सौंपता है।

कार्य:

  • दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (Delhi Special Police Establishment- CBI) के कार्य CVC की निगरानी एवं नियंत्रण में होते हैं क्योंकि यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत अपराधों की जांँच से संबंधित है।
    • CVC भ्रष्टाचार या कार्यालय के दुरुपयोग से संबंधित शिकायतें प्राप्त होने पर उचित कार्रवाई की सिफारिश करता है। 
    • निम्नलिखित संस्थाएँ, निकाय या व्यक्ति CVC के पास अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं: केंद्र सरकार, लोकपाल, सूचना प्रदाता/मुखबिर/सचेतक (Whistle Blower) 
  • CVC की अपनी  कोई अन्वेषण एजेंसी नहीं है। यह CBI तथा केंद्रीय संगठनों के मुख्य सतर्कता अधिकारियों (Chief Vigilance Officers- CVO) पर निर्भर है जबकि दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946  के तहत CBI की अपनी अन्वेषण विंग है।

संरचना:

  • यह एक बहु-सदस्यीय आयोग है जिसमें एक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (अध्यक्ष) और अधिकतम दो सतर्कता आयुक्त (सदस्य) शामिल होते हैं। 

आयुक्तों की नियुक्ति:

  • केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सतर्कता आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा एक समिति की सिफारिश पर की जाती है जिसमें प्रधानमंत्री (अध्यक्ष), गृह मंत्री (सदस्य) और लोकसभा में विपक्ष का नेता (सदस्य) शामिल होता है। 

कार्यकाल:

  • इनका कार्यकाल 4 वर्ष अथवा 65 वर्ष (जो भी पहले हो) तक होता है।  

पदच्युत:

  • राष्ट्रपति केंद्रीय सतर्कता आयुक्त या अन्य किसी भी सतर्कता आयुक्त को उसके पद से किसी भी समय निम्नलिखित परिस्थितियों में हटा सकता है: 
  • यदि वह दिवालिया घोषित हो, अथवा
  • यदि वह नैतिक आधार पर किसी अपराध में दोषी पाया गया हो, अथवा 
  • यदि वह अपने कार्यकाल में कार्यक्षेत्र से बाहर किसी प्रकार का लाभ का पद ग्रहण करता हो, अथवा 
  • यदि वह मानसिक या शारीरिक कारणों से कार्य करने में असमर्थ हो, अथवा 
  • यदि वह आर्थिक या इस प्रकार के कोई अन्य लाभ प्राप्त करता हो जिससे कि आयोग के कार्यों में वह पूर्वग्रह युक्त हो। 

इसके अलावा केंद्रीय सतर्कता आयुक्त या अन्य किसी भी सतर्कता आयुक्त को दुराचार व अक्षमता के आधार पर भी पद से हटाया जा सकता है, अगर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन्हें  जांँच में दोषी पाया जाता है। 

  • वे राष्ट्रपति को पत्र लिखकर भी अपने पद से इस्तीफा दे सकते हैं।

स्रोत: द हिंदू 


शासन व्यवस्था

AI-आधारित पोर्टल: SUPACE

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आधारित पोर्टल ’SUPACE’ लॉन्च किया है, जिसका उद्देश्य कानूनी अनुसंधान के लिये न्यायाधीशों की सहायता करना है।

  • ‘SUPACE’ का पूर्ण रूप है- ‘सुप्रीम कोर्ट पोर्टल फॉर असिस्टेंस इन कोर्ट्स एफिशिएंसी’
  • इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय की ई-समिति द्वारा प्रस्तुत ‘भारतीय न्यायपालिका में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) के कार्यान्वयन के लिये राष्ट्रीय नीति एवं कार्ययोजना-2005’ के आधार पर ई-कोर्ट परियोजना की परिकल्पना की गई थी।

प्रमुख बिंदु

परिचय

  • यह उपकरण प्रासंगिक तथ्यों और कानूनों को एकत्र करता है और उन्हें न्यायाधीशों के लिये उपलब्ध कराता है।
  • इस उपकरण को निर्णय लेने के लिहाज़ से डिज़ाइन नहीं किया गया है, बल्कि यह केवल तथ्यों को संसाधित करेगा और न्यायाधीशों की सहायता के लिये तथ्य उपलब्ध कराएगा।
  • प्रारंभ में इसका प्रयोग बंबई और दिल्ली उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा प्रायोगिक आधार पर किया जाएगा।

महत्त्व

  • यह किसी मामले की विशिष्ट आवश्यकता और न्यायाधीश के सोचने के तरीके के अनुरूप परिणाम उत्पन्न करेगा।
  • इससे समय की काफी बचत होगी, जिससे भारतीय न्याय प्रणाली में लंबित मामलों की संख्या को कम करने में मदद मिलेगी।
  • आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) न्याय तक पहुँच के मौलिक अधिकार के लिये अधिक सुव्यवस्थित, लागत प्रभावी और समयबद्ध साधन प्रस्तुत करेगा।
  • यह सेवा वितरण तंत्र को पारदर्शी और लागत प्रभावी बनाएगा।

चुनौतियाँ

  • ‘SUPACE’ की शुरुआत के बाद न्याय प्रणाली में कुछ विशिष्ट पदों की आवश्यकता नहीं रह जाएगी और समय के साथ उन्हें समाप्त कर दिया जाएगा।
    • चूँकि इसका उद्देश्य उन गतिविधियों को अधिक कुशलतापूर्वक और व्यवस्थित रूप से करना है, जो वर्तमान में मानवों द्वारा की जा रही हैं, ऐसे में बेरोज़गारी में बढ़ोतरी होने की सम्भावना और अधिक बढ़ जाएगी।

ई-कोर्ट परियोजना 

परिचय

  • ई-कोर्ट परियोजना को सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) के माध्यम से भारतीय न्यायपालिका में बदलाव लाने की दृष्टि से संकल्पित किया गया था।
  • ई-कोर्ट परियोजना, एक पैन-इंडिया परियोजना (Pan-India Project) है, जिसकी निगरानी और वित्तपोषण न्याय विभाग, कानून एवं न्याय मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा की जाती है।

परियोजना के उद्देश्य:   

  • ई-कोर्ट प्रोजेक्ट में प्रस्तावित प्रावधानों के तहत प्रभावी और समयबद्ध तरीके से नागरिक केंद्रित सेवाएँ प्रदान करना।
  • न्यायालयों में निर्णय समर्थन प्रणाली को विकसित और स्थापित करना।
  • न्यायिक प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने और सूचना प्राप्ति को अधिक सुगम बनाने के लिये इससे जुड़ी प्रणाली को स्वचालित बनाना।
  • न्याय वितरण प्रणाली को सुलभ, लागत प्रभावी, विश्वसनीय और पारदर्शी बनाने के लिये न्यायिक प्रक्रिया में आवश्यक (गुणवत्तापरक और मात्रात्मक) सुधार करना।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजनीति

अधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) अध्यादेश, 2021

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रपति ने अधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) अध्यादेश [Tribunal Reforms (Rationalisation and Conditions of Service) Ordinance], 2021 जारी किया। इस अध्यादेश द्वारा मौजूदा अपीलीय अधिकरणों के कार्यों को दूसरे न्यायिक निकायों (उच्च न्यायालय) को हस्तांतरित कर दिया गया है।

  • इस अध्यादेश द्वारा वित्त अधिनियम (Finance Act), 2017 में संशोधन किया गया है ताकि खोज-सह-चयन (Search-Cum-Selection) समितियों के संयोजन और उनके सदस्यों के कार्यकाल की अवधि से संबंधित प्रावधानों को इसमें शामिल किया जा सके।

वित्त अधिनियम, 2017

यह अधिनियम केंद्र सरकार को सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क और सेवा कर अपीलीय न्यायाधिकरण जैसे 19 अधिकरणों के सदस्यों की नियुक्ति और सेवा शर्तों से संबंधित नियमों को अधिसूचित करने का अधिकार देता है।

प्रमुख बिंदु

खोज-सह-चयन समितियाँ:

  • केंद्र सरकार द्वारा अधिकरणों के अध्यक्ष और सदस्यों को एक खोज-सह-चयन समिति की सिफारिश पर नियुक्त किया जाएगा।
  • इस समिति में निम्नलिखित सदस्य होंगे:
    • भारत का मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय का अन्य न्यायाधीश जो कि समिति का अध्यक्ष (निर्णायक/कास्टिंग वोट के साथ) भी होगा।
    • केंद्र सरकार द्वारा नामित दो सचिव। 
    • वर्तमान या निवर्तमान अध्यक्ष या सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्ति मुख्य न्यायाधीश। 
    • जिस मंत्रालय के अंतर्गत अधिकरण का गठन किया गया है, उसका सचिव (बिना वोटिंग अधिकार के)। 

कार्यकाल:

  • अधिकरणों के अध्यक्ष का कार्यकाल चार वर्ष या उसकी आयु 70 वर्ष होने तक (इसमें से जो भी पहले हो) होगा।
  • अधिकरण के अन्य सदस्यों का कार्यकाल चार वर्ष या उनकी आयु 67 वर्ष होने तक (इनमें से जो भी पहले हो) होगा।

इस अध्यादेश में निम्नलिखित कानून के अंतर्गत स्थापित अधिकरणों को वित्त अधिनियम के दायरे से बाहर किया गया है:

  • सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952
  • ट्रेड मार्क्स एक्ट, 1999
  • कॉपीराइट एक्ट, 1957
  • सीमा शुल्क अधिनियम, 1962
  • पेटेंट एक्ट, 1970
  • एयरपोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया एक्ट, 1994
  • राष्ट्रीय राजमार्ग नियंत्रण (भूमि और यातायात) अधिनियम, 2002
  • माल के भौगोलिक संकेत (रजिस्ट्रेशन और संरक्षण) अधिनियम, 1999

अधिकरणों के अधिकार क्षेत्र से बाहर करने के कारण:

  • कमज़ोर अधिनिर्णय और विलंब:
    • अधिकरणों के अधिनिर्णय की गुणवत्ता ज़्यादातर मामलों में खराब रही है, इसके साथ ही अंतिम निर्णय आने में देरी होती है क्योंकि सरकार इनमें सक्षम व्यक्तियों को नियुक्त नहीं कर पाती है। इन सब कारणों से न्याय पाना/मुकदमा लड़ना महँगा हो गया है।
  • इन पर आरोप:
    • इन अधिकरणों की कार्यपालिका से स्वतंत्रता जैसे- गंभीर सवालों पर अधिवक्ता बार एसोसिएशनों द्वारा वर्ष 1985 से ही लगातार आरोप लगाया जा रहा है।
  • संबंधित चिंता:
    • उच्च न्यायालयों के पास आने वाले मामलों में बढ़ोतरी हो सकती है।

अधिकरण

अधिकरण की विषय में:

  • यह एक अर्द्ध-न्यायिक संस्था (Quasi-Judicial Institution) है जिसे प्रशासनिक या कर-संबंधी विवादों को हल करने के लिये स्थापित किया जाता है।
  • यह विवादों के अधिनिर्णयन, संघर्षरत पक्षों के बीच अधिकारों के निर्धारण, प्रशासनिक निर्णयन, किसी विद्यमान प्रशासनिक निर्णय की समीक्षा जैसे विभिन्न कार्यों का निष्पादन करती है। 
    • 'ट्रिब्यूनल' (Tribunal) शब्द की व्युत्पत्ति 'ट्रिब्यून' (Tribunes) शब्द से हुई है जो रोमन राजशाही और गणराज्य के अंतर्गत कुलीन मजिस्ट्रेटों की मनमानी कार्रवाई से नागरिकों की सुरक्षा करने के लिये एक आधिकारिक पद था।
    • सामान्य रूप से ट्रिब्यूनल का आशय ऐसे व्यक्ति या संस्था से है जिसके पास दावों व विवादों पर निर्णयन, अधिनिर्णयन या निर्धारण का प्राधिकार होता है, भले इसके नामकरण में ट्रिब्यूनल शब्द शामिल हो या नहीं। 

संवैधानिक प्रावधान:

  • अधिकरण संबंधी प्रावधान मूल संविधान में नहीं थे।       
  • इन्हें भारतीय संविधान में स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों पर 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा शामिल किया गया।
  • इस संशोधन के माध्यम से संविधान में अधिकरण से संबंधित एक नया भाग XIV-A और दो अनुच्छेद जोड़े गए:
  • अनुच्छेद 323A:
    • यह अनुच्छेद प्रशासनिक अधिकरण (Administrative Tribunal) से संबंधित है। ये अधिकरण अर्द्ध-न्यायिक होते हैं जो सार्वजनिक सेवा में काम कर रहे व्यक्तियों की भर्ती और सेवा शर्तों से संबंधित विवादों को हल करते हैं।
  • अनुच्छेद 323B:
    • यह अनुच्छेद अन्य विषयों जैसे कि कराधान, विदेशी मुद्रा, आयात और निर्यात, भूमि सुधार, खाद्य, संसद तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव आदि के लिये अधिकरणों की स्थापना से संबंधित है।

स्रोत: द हिंदू


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2