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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

क्यों सर्दियों में सबसे घातक हो जाता है दिल्ली-एनसीआर का प्रदूषण

जिन आधुनिक मुसीबतों को हम इंसानों ने खुद जन्म दिया है, उनमें प्रदूषण भी एक है। आज से चार-पाँच सौ साल पहले शायद इस मुसीबत की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन आज यह हमारे जीवन की एक बड़ी सच्चाई बन चुकी है। किसी भी आतंकवादी हमले में, किसी भी प्राकृतिक आपदा में या फिर किसी भी महामारी से ज़्यादा लोग प्रदूषण के चलते बीमार हो रहे हैं या मारे जा रहे हैं। यहाँ तक कि प्रदूषण गर्भस्थ शिशुओं के विकास तक को प्रभावित कर रहा है। यानी यह हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी बीमार और विकलांग बना रहा है। आखिर प्रदूषण की यह परेशानी क्या है? इसके कारण क्या हैं? क्या इसका कोई समाधान नहीं है? इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश हम इस आलेख में करेंगे।

जो लोग दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में रहते हैं और जो इस क्षेत्र में नहीं भी रहते हैं, वे सभी इस बात से वाकिफ हैं कि सर्दियों के मौसम में यह पूरा क्षेत्र कैसे एक भयावह प्रदूषण का सामना करता है। इस दौरान हवा इतनी ज़्यादा ज़हरीली हो जाती है कि स्कूल-कॉलेज व शिक्षण संस्थान बंद करने पड़ते हैं। निर्माण और ध्वस्तीकरण कार्यों पर रोक लगानी पड़ती है। वाहनों पर अलग-अलग तरह की पाबंदियाँ लगाई जाती हैं। डीज़ल से संचालित होने वाले ट्रकों का दिल्ली में प्रवेश बंद कर दिया जाता है। कार्यालयों में लोगों की संख्या सीमित करने के लिए वर्क फ्रॉम होम करने से लेकर व्यक्तिगत वाहनों की बजाय सार्वजनिक परिवहनों का अधिकतम इस्तेमाल करने की अपीलें या सलाह दी जाती हैं।

ज़ाहिर है कि यहाँ पर बेहद संक्षेप में उन कुछ प्रमुख उपायों का ज़िक्र किया गया है जो कि वर्षों से प्रदूषण से मुकाबला करने के लिये अपनाए जाते हैं। हालाँकि, ये उपाय कितने कारगर साबित होते हैं, इनको लेकर अभी विशेष रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि, प्राकृतिक राहतों को छोड़ दिया जाए तो जब प्रदूषण की स्थिति भयावह बनी रहती है तो अन्य उपाय ज़्यादा कामगर नहीं हो पाते हैं। आगे बढ़ने से पहले हमें प्रदूषण की स्थिति की इस भयावहता पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए। यहाँ यह ज़िक्र कर देना भी समीचीन होगा कि दिल्ली की हवा में यूँ तो आमतौर पर ही प्रदूषण का स्तर सामान्य से ज़्यादा रहता है। लेकिन, सर्दियों के मौसम में यह समस्या सबसे ज़्यादा घातक हो जाती है। साल भर में हम कितने दिनों साफ हवा में और कितने दिनों खराब हवा में साँस लेते हैं, यह इन आँकड़ों से समझा जा सकता है। दो सौ से नीचे का वायु गुणवत्ता सूचकांक साँस लेने लायक समझा जाता है, जबकि वायु गुणवत्ता सूचकांक 200 से ऊपर होते ही हवा खराब ज़ोन में चली जाती है। उपरोक्त यह आँकड़े केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से लिये गए हैं–

वर्ष साफ हवा वाले दिनों की संख्या खराब हवा वाले दिनों की संख्या
2016 110 224
2017 152 213
2018 159 206
2019 182 183
2020 227 139
2021 197 168
2022 163 202
2023 206 137

(नोटः वर्ष 2023 के आँकड़े एक जनवरी से लेकर नौ दिसंबर तक के हैं।)

वायु गुणवत्ता सूचकांक की अलग-अलग श्रेणियों की हम बाद में चर्चा करेंगे। लेकिन, यहाँ पर इस तथ्य को जान लेना होगा कि वायु गुणवत्ता सूचकांक में 50 तक के ही सूचकांक को गुड या अच्छा माना जाता है। यानी अगर वायु गुणवत्ता सूचकांक 50 या उससे नीचे है तो आप समझिये कि आप सबसे ज़्यादा साफ-सुथरी हवा में साँस ले रहे हैं। सीपीसीबी के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2016 में ऐसे एक दिन भी नहीं थे। वर्ष 2017 में ऐसे दिनों की संख्या दो, वर्ष 2018 में शून्य, वर्ष 2019 में दो, वर्ष 2020 में पाँच, वर्ष 2021 में एक, वर्ष 2022 में तीन और वर्ष 2023 में सिर्फ एक रही है। यानी वर्ष 2016से लेकर अभी तक कोई भी साल ऐसा नहीं रहा है जब दिल्ली वालों ने सबसे साफ-सुथरी यानी 50 से नीचे वायु गुणवत्ता सूचकांक वाली हवा में दस दिन भी साँस ली हो। वर्ष 2020 में ऐसे दिनों की संख्या सर्वाधिक यानी पाँच रही थी। उसके पीछे भी कारण कोविड-19 महामारी के चलते होने वाले लॉकडाउन को माना जाता है।

यहाँ पर आँकड़ों का ज़िक्र वर्ष 2016 से इसलिये किया गया है कि वायु गुणवत्ता सूचकांक की जिस मानक प्रणाली को यहाँ पर लिया गया है उसकी शुरुआत ही मध्य 2015 में की गई थी। इसलिए वर्ष 2016 से साल भर के आँकड़े दिल्ली के प्रदूषण पर स्पष्ट तौर पर लिये गए हैं। हालाँकि, इसमें भी वायु गुणवत्ता निगरानी केन्द्रों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही है।

वायु गुणवत्ता सूचकांक के ऊपर दिये गए आँकड़े दिल्ली के हैं लेकिन एनसीआर क्षेत्र की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। खासतौर पर दिल्ली से सटे हुए चार एनसीआर ज़िलों गुरुग्राम, फरीदाबाद, गाज़ियाबाद और गौतम बुद्ध नगर में प्रदूषण की स्थिति काफी हद तक दिल्ली जैसी ही रहती है।

वायु प्रदूषण के कारकों को हम दो अलग-अलग भागों में विभाजित कर सकते हैं–

1. वायु प्रदूषण के प्राकृतिक कारण
2. वायु प्रदूषण के इंसानी कारण

सबसे पहले हम कुछ प्रमुख प्राकृतिक कारणों पर चर्चा कर लेते हैं, जिनकी वजह से दिल्ली और एनसीआर की स्थिति ऐसी बन जाती है कि यहाँ पर प्रदूषण ज़्यादा देर तक टिकता है।

(क) अगर हम भारत के नक्शे पर गौर से निगाह डालें तो पंजाब, हरियाणा से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल तक मैदानी क्षेत्र की एक चौड़ी पट्टी जाती है। इसी को मोटी भाषा में इंडो गैंजेटिक प्लेन या सिंधु गंगा के मैदान कहा जाता है। यह दुनिया के सबसे बड़े मैदानी क्षेत्रों में से एक है। सदियों से यहाँ पर सदानीरा नदियाँ बहती रही हैं और पूरी धरती अच्छी तथा उपजाऊ ज़मीन वाली रही है। ऐतिहासिक तौर पर इस मैदान में लोगों की बसावट प्राचीन समय से रही है। बड़े-बड़े शहर यहाँ पर बसे हैं और भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर ही कल-कारखाने भी लगते रहे हैं। इसी अनुसार यहाँ पर प्रदूषण भी पैदा होता है।

(ख) इस पूरे क्षेत्र में बारिश के आमतौर पर दो पैटर्न दिखाई पड़ते हैं। सबसे पुख्ता पैटर्न तो मानसून का है जो कि जून से लेकर अक्तूबर तक दिखाई पड़ता है। इस दौरान इस क्षेत्र में अच्छी बारिश होती है। लेकिन, इसके बाद पश्चिमी विक्षोभों के चलते गाहे-बगाहे बूँदा-बाँदी या बारिश होती है। जब बारिश होती है तो हवा में घुले-मिले प्रदूषण के कण धुल जाते हैं। लेकिन, जब बारिश नहीं होती है तो वे ज़्यादा देर तक वायुमंडल में बने रहते हैं और उनका बिखराव बेहद धीमा होता है।

(ग) मानसून के समय हवा ज़्यादातर पूर्वी दिशा की तरफ से आती है और इसकी गति भी तेज़ होती है। यह हवा अपने साथ नमी भरे बादल लेकर आती है। जिसके चलते बारिश होती है। लेकिन, मानसून के बाद हवा का पैटर्न बदल जाता है। हवा की दिशा आमतौर पर उत्तरी पश्चिमी हो जाती है और जाड़े की शुरुआत के साथ ही हवा की रफ्तार भी कम हो जाती है। हवा की बेहद धीमी गति, बारिश की कमी, समुद्र से दूरी जैसे प्राकृतिक कारकों के चलते वायु मंडल में प्रदूषक कण ज़्यादा समय तक बने रहते हैं और जाड़े के समय लोगों को ज़्यादा प्रदूषण का सामना करना पड़ता है। गर्मियों के समय भी दिल्ली और एनसीआर का इलाका उसी भौगोलिक स्थिति में रहता है। लेकिन, हवा की तेज़ गति, दिन भर निकलने वाली तेज़ धूप से प्रदूषक कणों का बिखराव तेज़ रहता है और प्रदूषण का स्तर गंभीरता तक नहीं पहुँचता है।

अब हम कुछ ऐसे कारकों पर विचार करते हैं जो इंसानी गतिविधियों के चलते पैदा हुए हैं। इनमें से कई कारक गर्मियों में भी मौजूद रहते हैं। लेकिन, गर्मियों में मौसम के कारकों की वजह से लोगों को कम परेशानी होती है जबकि जाड़े में स्थिति गंभीर हो जाती है।

(क) दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र देश के सबसे ज़्यादा घनी बसावट वाला क्षेत्र है। यहाँ पर बहुत ही छोटी जगह पर करोड़ों लोग रहते हैं। अकेले दिल्ली की ही आबादी दो करोड़ के लगभग आँकी जाती है। इसी अनुसार, यहाँ पर हर दिन सड़कों पर उतरने वाले वाहनों की संख्या भी करोड़ों में है। इन वाहनों से निकलने वाले धुएँ में तमाम हानिकारक प्रदूषक कण मौजूद होते हैं जो पूरे क्षेत्र की हवा को ज़हरीला बना देते हैं। अलग-अलग शोध बताते हैं साल भर मौजूद रहने वाले कारकों में वाहनों का धुआँ प्रमुख है। दिल्ली की हवा में वाहनों के धुएँ से होने वाले प्रदूषण की हिस्सेदारी 40 फीसदी से ज़्यादा रहती है।

(ख) दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र देश के सबसे तेज़ी से विकसित हो रहे क्षेत्र में भी शामिल है। यहाँ पर चारों तरफ निर्माण का ज़ोर है। सड़कें बन रही हैं। फ्लाईओवर बन रहे हैं। मेट्रो और रैपिड रेल परियोजना पर काम हो रहा है। बहुमंज़िला इमारतों के तमाम काम चल रहे हैं। पुरानी इमारतों को ध्वस्त करके नई इमारतें बनाई जा रही हैं। लेकिन निर्माण और ध्वस्तीकरण के चलते पूरे वायुमंडल में एक धूल की मौजूदगी बनी रहती है जो कि दिल्ली-एनसीआर के लोगों का दम घोंटती है। सड़कों पर भी यह धूल बैठी रहती है और वाहनों के टायरों के साथ लिपटकर यह वायुमंडल में उड़ती रहती है।

(ग) प्रदूषण के कुछ ऐसे स्रोत हैं जो जाड़े के मौसम में ही दिखाई देते हैं। लेकिन वे बेहद घातक साबित होते हैं। खासतौर पर पंजाब और हरियाणा के खेतों में सितंबर महीने से धान की फसल की कटाई शुरू हो जाती है। जबकि, फसल के बचे-खुचे अवशेष यानी पराली को खेत में ही जलाया जाने लगता है। 15 सितंबर से लेकर 30 नवंबर तक यह प्रक्रिया चलती है। इस दौरान हज़ारों जगहों पर खेतों में पराली जलाने की घटनाएँ होती हैं जिनका धुआँ पूरे उत्तर भारत के वायुमंडल में छा जाता है। यही वह समय होता है जब मानसून की वापसी के चलते हवा की गति बेहद धीमी हो जाती है, हवा की दिशा उत्तरी पश्चिमी रहती है और यह हवा अपने साथ पराली का धुआँ दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में ले आती है। चूँकि हवा की गति बहुत धीमी होती है तो इन प्रदूषकों का बिखराव नहीं होता है। ठंड का आगमन शुरू हो चुका है तो हवा में मौजूद नमी के साथ मिलकर यह धुआँ एक स्मोग की चादर में तब्दील हो जाता है। जब यह स्मोग की चादर बन जाती है तो सूरज की रोशनी भी नीचे नहीं पहुँचती और एक प्रकार का ग्रीन हाउस इफेक्ट पैदा हो जाता है जो प्रदूषण की स्थिति और बदतर कर देता है। लेकिन याद रहे कि पराली हमेशा मौजूद रहने वाला प्रदूषक स्रोत नहीं है। यह सिर्फ अक्तूबर के अंत और नवंबर के महीने में ही सबसे घातक रहता है।

(घ) आमतौर पर पराली सीज़न के दौरान ही दीवाली का त्यौहार भी पड़ता है। इस दौरान पराली और दीवाली के दौरान जलाए गए पटाखे तथा आतिशबाज़ी का धुआँ दिल्ली की हवा को आपात स्थिति तक पहुँचा देता है। यह वह समय होता है जब अक्सर ही वायु गुणवत्ता सूचकांक 400 के पार यानी गंभीर श्रेणी में पहुँच जाता है। अगर तत्काल कोई मौसमी कारक जैसे पश्चिमी विक्षोभ आदि से राहत न मिले तो यह स्थिति लंबी खिंच जाती है और प्रदूषण का घातक एपीसोड कई-कई दिनों तक लोगों को झेलना पड़ता है। इसके साथ ही, जाड़े के दिनों में बायोमास और कूड़ा-कचरा जलाने की घटनाएँ भी बढ़ जाती हैं जो कि प्रदूषण के स्तर में इज़ाफा करते हैं। दिल्ली के 300 किलोमीटर के दायरे में 11 कोयला आधारित बिजली संयंत्र हैं। जिनमें जलाए जाने वाले कोयले का प्रभाव भी प्रदूषण पर पड़ता है। दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में हज़ारों की संख्या में ईंट भट्टे हैं, इनका धुआँ भी इस प्रदूषण के स्तर में इज़ाफा करता है।

अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्रदूषक के कई कारण वर्ष भर मौजूद रहते हैं। लेकिन, मौसमी कारकों की वजह से वे गर्मियों में उतना परेशान नहीं करते हैं। जितना घातक वे सर्दियों में हो जाते हैं। दूसरे, प्राकृतिक कारक हमेशा से ही मौजूद रहे हैं और वे हमेशा मौजूद रहेंगे। लेकिन, इंसानी कारकों पर प्रभावी रोकथाम की ज़रूरत है। ताकि, जाड़े के समय भी दिल्ली और एनसीआर के लोग खुलकर साँस ले सकें। ऐसा नहीं होने की स्थिति में इस क्षेत्र में रहने वाले करोड़ों लोगों को हर साल ही इस समस्या का सामना करना पड़ेगा।

  कबीर संजय  

कबीर संजय पेशे से लेखक व पत्रकार हैं। ये तद्भव, पल प्रतिपल, नया ज्ञानोदय, लमही, कादंबिनी, कृति बहुमत, बनास जन, इतिहास बोध, गंगा-जमुना व दैनिक हिंदुस्तान जैसी पत्र-पत्रिकाओं में कहानी व कविताएँ लिखते रहे हैं। ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित इनकी लिखी कहानी ‘पत्थर के फूल’ का लखनऊ में मंचन हो चुका है। इनकी दो कहानियाँ 'संग्रह सुरखाब के पंख' और 'फेंगशुई' प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा वन्यजीवन पर इनकी दो किताबें 'चीताः भारतीय जंगलों का गुम शहजादा' और 'ओरांग उटानः अनाथ, बेघर और सेक्स गुलाम' प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके कहानी संग्रह 'सुरखाब के पंख' के लिए इन्हें प्रथम रवीन्द्र कालिया स्मृति सम्मान से पुरस्कृत किया जा चुका है। ये सोशल माध्यम फेसबुक पर वन्यजीवन और पर्यावरण पर लोकप्रिय पेज़ ‘जंगलकथा’ का संचालन भी करते हैं।

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