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समय प्रबंधन में छिपा है सफलता का रहस्य!

जीवन में हर सुबह नई होती है, हर दिन नया होता है, हर आने वाला मिनट नया होता है। लेकिन लक्ष्य तो निश्चित है, जहाँ हमें एक तय समय में पहुँचना है।

मुझे यह प्रश्न अक्सर सुनने को मिलते रहे हैं कि व्यस्त जीवन में समय कैसे निकालें? घड़ी तो रुक नहीं सकती, दिन में घंटे बढ़ नहीं सकते! मैंने यह प्रश्न एक बार अपनी माँ से पूछा, जो कामकाजी गृहिणी हैं। उन्होंने गृहिणी की ही भाँति एक ‘सूटकेस’ का उदाहरण दिया, जिसमें कपड़े और सामान एक ख़ास तरह से रखे जाएँ तो अधिक-से-अधिक पैक हो जाएंगे, और यदि बेतरतीब रखे जाएँ, तो आधी चीज़ें बाहर ही रह जाएंगी। समय भी उस सूटकेस की तरह है, जिसमें दिनचर्या को तरतीब से रख देना है। अगर गौर से देखा जाए तो इस सूटकेस में जगह अधिक है, और रखने को सामान कम।

बाद में मैं कुछ संगीतकारों की संगत में आया। वे तालबद्ध बंदिश (गीत) गाते हैं।

ताल का समय-चक्र निर्धारित होता है, जैसे- बारह, चौदह, सोलह अदि मात्राओं के ताल। अब यदि बारह मात्राओं में निबद्ध बंदिश को गाना हो तो इसे इस ख़ाके  में यूँ डालना होता है कि बारह मात्राएँ ख़त्म होते ही गायक अगली पंक्ति पर आ जाए, या संगीत की भाषा में कहें तो ‘सम’ पर आ जाए।

तनिक भी हेर-फेर नहीं। इतना ही नहीं, समय के इसी चक्र में वह गायक इसी बंदिश को अलग-अलग लयकारियों , जैसे- दुगुन, तिगुन या चौगुन आदि में भी गा सकता है यानी एक  सूटकेस जो चार डब्बों से भर गया था, उसी में अब आठ, बारह, सोलह या चौबीस डब्बे भी आसानी से आ गए। ज़ाहिर है- गायक ने बंदिश की लय (गति) बढ़ा ली।

मैं दिल्ली के इरविन अस्पताल में कार्यरत था, जहाँ मरीज़ों की भीड़ लगी होती। हम अपने कमरे का दरवाज़ा कुछ खोल कर रखते कि भीड़ का अंदाज़ा लगता रहे। कभी-कभार तो मरीज़ों के मध्य एक फ़ौरी मुआयना भी कर आते। अब चाहे पचास मरीज़ हों, या ढाई सौ, एक ही समय काम शुरू होता और एक ही समय ख़त्म। न पहले, न बाद में। निर्देश भी यही थे, और विकल्प भी यही था।

1975 के क्रिकेट विश्व कप में पहली बार भारत की टीम एकदिवसीय मैच खेलने गई। पहला मैच इंग्लैंड से था, और सुनील गावस्कर जब बल्लेबाज़ी करने उतरे तो साठ ओवर तक खेलते ही रह गए। उन्होंने महज़ छत्तीस रन बनाए। उनसे जब बाद में पूछा गया तो उन्होंने कहा, “मुझे समझ ही नहीं आया कि यह खेल खेलना कैसे है? मैं रन नहीं बना पा रहा था और वे आउट नहीं कर पा रहे थे।" उनके लिये  यह अनुभव नया  था, क्योंकि टेस्ट मैच में समय की ऐसी कोई पाबंदी न थी। 1987 के अपने आख़िरी विश्व कप में उन्होंने इससे कम समय में अपना इकलौता एकदिवसीय शतक बना लिया।

अब तो बीसमबीस (टी 20) खेल का युग है, जब लोग एक-तिहाई समय में ही शतक बना लेते हैं। किंतु  सदी के महानतम बल्लेबाज़ों में से एक सुनील गावस्कर को भी यह ताल बिठाने में वक़्त लगा। इसलिये अगर हम समय का समुचित उपयोग नहीं कर पाते तो निराश होने की बात नहीं। 

आज के समय में इंटरनेट और सोशल मीडिया के बाद सूटकेस में एक नया डब्बा जुड़ गया है, जो पूरी पैकिंग के बाद भी बाहर झाँकता रहता है। सूचना प्रौद्योगिकी की शब्दावली में  ‘स्क्रीनटाइम’नामक एक नया शब्द जुड़ा है। युवाओं से लेकर पेंशनधारियों तक का ख़ासा समय इस मद में जा रहा है। चूँकि ख़बरें, लेख, किताबें, सूचनाएँ आदि इंटरनेट पर द्रुत गति से उपलब्ध होती हैं, इसलिये इनसे मुँह भी नहीं मोड़ा जा सकता। स्मार्टफ़ोन के युग में यह आज के विद्यार्थियों के लिये कड़ी चुनौती है कि आख़िर समय प्रबंधन कैसे मुमकिन हो!

जहाँ तक मेरा विचार है कि डिजिटल युग को दोष देने से बेहतर है, इसे ‘अस्त्र’ बना लिया जाए। डिजिटल अध्ययन में एक बात सामने आई है कि पढ़ने की गति बढ़ गई है, और ध्यान (अटेंशन स्पैन) घट गया है यानी आप अगर पाँच मिनट में एक हज़ार शब्दों का लेख (जैसे यह लेख) पढ़ जाते हैं, तो आपके दिमाग में इसका साठ प्रतिशत ही पहुँच पाता है और आप अगले लेख पर पहुँच जाते हैं। ऐसी स्थिति में हमें पढ़ते वक्त कठिन बिंदु नोट करने होंगे। भाग्य से यह डिजिटल युग में सुलभ ही होता जा रहा है कि आप लिंक अथवा ख़ास  अंश कॉपी कर रख सकते हैं। चूँकि हमने पाँच मिनट में एक बार लेख पढ़ा, तो सात मिनट में हम उसे दो बार या दस मिनट में तीन बार भी पढ़ सकते हैं। समय-चक्र वही है, बस आवृत्ति बढ़ गई; जैसे– संगीत में दुगुन, तिगुन या क्रिकेट में बीसमबीस।

दूसरी बात कि जैसे एक चिकित्सक मरीज़ों की संख्या का मुआयना करते हैं, जैसे विराट कोहली पिच और दूसरी टीम के स्कोर के हिसाब से अपने खेलने की गति निर्धारित करते हैं, उसी तरह हम जब सुबह आँखें मींचते उठें तो अपने लक्ष्य निर्धारित कर लें। इसके लिये पुरानी तकनीक रही है कि काग़ज़ पर खाने  बना कर विषयों के नाम लिखे जाएँ। यह ख़ाका मन में बन जाए और उसी हिसाब से अध्ययन के विषय, गति और आवृत्ति निर्धारित की जाए। जीवन में हर सुबह नई होती है, हर दिन नया होता है, हर आने वाला मिनट नया होता है। लेकिन लक्ष्य तो निश्चित है, जहाँ हमें एक तय समय में ही पहुँचना है।

[प्रवीण झा]

(प्रवीण झा नॉर्वे में डॉक्टर हैं तथा लोकप्रिय पुस्तक ‘कुली लाइंस’ के लेखक हैं।)

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