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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

‘अराजनैतिक’ होने की ‘राजनीति’

बीते दिनों अनिल कपूर की ‘नायक’ फिल्म देखी…एक दिन का सीएम। फिल्म में परेश रावल साहब का एक फेमस डायलॉग है….’पॉलिटिक्स एक गटर है’.. ये तो हुई ‘रील’ की बात..पर ‘रियल’ लाइफ में भी कई लोग राजनीति को गटर जितना ही गंदा और ‘अन-कूल’ मानते हैं। अक्सर दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच राजनीतिक चर्चाओं में ‘डर्टी पॉलिटिक्स’, ‘अन-कूल’ और ‘बोरिंग’ जैसे शब्द यदा कदा सुनाई दे ही जाते हैं। सोशल मीडिया पर भी ऐसे कई ट्रेंड देखने को मिलते हैं, जिसमें ‘ए-पॉलिटिकल’ यानी ‘अराजनैतिक’ होने को सामान्य बनाए जाने की बात की जाती है। लोग अक्सर स्वयं के ‘अराजनैतिक’ होने का दावा करते हैं, क्योंकि उन्हें यह केवल पढ़ाई-लिखाई का एक बोरिंग सा विषय लगता है और उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की चुनाव में कौन जीत रहा है या कौन हार रहा है, या फिर देश-दुनिया में क्या चल रहा है। भारत के ‘एलिट’ यानी अभिजात्य वर्ग के बीच तो यह कांसेप्ट काफी ट्रेंड में है…तभी केवल कुछ चुनिंदा और गिने चुने फिल्मी-सितारे ही समसामयिक घटनाओं पर बात करते मिलते हैं….ऐसा इसलिये नहीं है कि उनके पास ख़बरें जानने के लिये टीवी नहीं है या फिर वे पढ़े-लिखे नहीं हैं…बल्कि ऐसा इसलिये है कि मौजूदा समय में ‘अराजनैतिक’ होना स्वयं में एक ‘विशेषधिकार’ है… क्योंकि अगर आप उन 20 मिलियन लोगों में से एक हैं, जो हर साल भूख के कारण मर जाते हैं या उन लोगों में से हैं जो हर साल युद्ध के कारण मारे जाते हैं तो आप ‘अराजनैतिक’ नहीं हो सकते।

‘राजनैतिक’ अथवा ‘अराजनैतिक’ की इस चर्चा से पहले इनका मतलब समझ लेना भी ज़रूरी है। अर्थव्यवस्था का सीधा सा सिद्धांत है कि ससांधन सीमित हैं और मानवीय आवश्यकताएँ असीमित हैं….इस सरल समीकरण एवं मानवीय विविधता के कारण ही लोगों के बीच ‘संघर्ष’ और तनाव उत्पन्न होता है, जिससे निपटने और बेहतर मार्ग खोजने के लिये लोगों के बीच ‘सहयोग’ की आवश्यकता होती है। इस समग्र समीकरण को संक्षेप में ‘राजनीति’ कहा जा सकता है, जिसमें ‘संघर्ष’ और ‘सहयोग’ दो मुख्य घटक हैं। क्लासिक धारणा के अनुसार, राजनीति के अध्ययन का आशय सरकार की कार्यप्रणाली के अध्ययन से है, इस धारणा के तहत 'राजनीति' की परिभाषा को मूलतः 'राजव्यवस्था' तक सीमित कर दिया जाता है। इसके तहत केवल उन्हीं लोगों को राजनीति की परिधि में शामिल किया जाता है, जो किसी-न-किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होते हैं। ऐसे में यह परिभाषा केवल 'राजनेताओं' को ही राजनीति की परिधि में शामिल करती है और प्रायः अधिकतर 'अराजनैतिक' लोग इसी धारणा को मानते हैं, उनके मुताबिक राजनीति केवल 'राजनेताओं' का काम है और आम जनता का उससे कोई लेना-देना नही होता है। इस प्रकार यह परिभाषा 'राजनीति' को एक 'क्षेत्र' (एरीना) के रूप में देखती है तथा उसकी परिधि को कुछ ही लोगों तक सीमित कर देती है। वहीं राजनीति की एक अन्य परिभाषा भी है, जो राजनीति को इतने संकीर्ण नज़रिये से नहीं देखती, बल्कि राजनीति को आम जनमानस के जीवन का एक अभिन्न अंग मानती है। यह दृष्टिकोण खासतौर पर ग्रीक दार्शनिक अरस्तु के काम में देखने को मिलता है। अपनी किताब ‘पॉलिटिक्स’ में राजनीति के महत्त्व को दर्शाते हुए अरस्तु लिखते हैं कि “मनुष्य स्वभाव से एक राजनीतिक जानवर होता है।” यहाँ राजनीतिक जानवर होने से अरस्तु का सीधा सा मतलब है कि ‘मनुष्य केवल राजनीति के एक पूर्वनिर्धारित ढाँचे के भीतर ही सभ्य एवं बेहतर जीवन बिता सकता है। वहीं पश्चिमी दार्शनिक रूसो भी इस विषय पर लिखते हुए बताते हैं कि ‘केवल राजनीति में सभी नागरिकों की प्रत्यक्ष एवं निरंतर भागीदारी के माध्यम से ही राज्य को सार्वजनिक हित के लिये बाध्य किया जा सकता है। ऐसे में यदि सभी नागरिक ‘राजनीतिक’ प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते हैं तो आम जनता के प्रति सरकार के दायित्व का निर्धारण करना असंभव हो जाता है।

यहीं पर उत्पन्न होती है ‘अराजनीति’ की धारणा, जिसमें माना जाता है कि ‘राजनीति’ का हमारे जीवन में कोई महत्त्व नहीं होता है और यह हमारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं डालती है। पर यहाँ यह प्रश्न ज़रूरी है कि क्या ‘अराजनैतिक’ होना कोई विकल्प हो सकता है यानी जब राजनीति इतनी महत्त्वपूर्ण है तो इसे विकल्प के तौर पर क्यों देखा जाए? इसका सीधा सा उत्तर है कि नहीं, राजनीति कोई विकल्प नहीं हो सकती, क्योंकि राजनीतिक रूप से सक्रिय होने का अर्थ है ज़िंदा होना…अगर हम ‘अराजनैतिक’ होने का विकल्प चुनते हैं तो इसका अर्थ है कि हम हर साल बुनियादी सुविधाओं जैसे- रोटी, कपड़ा, मकान और स्वास्थ्य आदि की कमी के कारण मारे जाने वाले लोगों की मौत को नज़रअंदाज़ करने का विकल्प चुन रहे हैं। राजनीतिक होने का अर्थ केवल वोट देना भर नहीं होता, आप पेट्रोल भरवाने जाते हैं तो आप राजनीति से प्रभावित होते हैं, आप बाज़ार से सब्जियाँ खरीदते हैं तो भी आप राजनीति से प्रभावित होते हैं। हमारा नाम, हमारा समाज, हम कौन सा अखबार खरीदते हैं, कौन सा न्यूज़ चैनल देखते हैं, कौन सी किताबें पढ़ते हैं, ये सब चीज़ें हमारी राजनीति का निर्धारण करती हैं। हमें सस्ता खाना मिलेगा या नहीं, सरकारी नौकरी मिलेगी या नहीं, आय असमानता, नागरिक कल्याण योजनाएँ आदि सभी किसी-न-किसी स्तर पर राजनीति पर निर्भर करते हैं। इसलिये इन सब चीज़ों को नज़रअंदाज़ कर ‘अराजनैतिक’ बने रहना कोई विकल्प नहीं हो सकता है, खासतौर पर उन लोगों के लिये जो जीवन जीने के लिये प्रतिदिन संघर्ष करते हैं।

इसलिये यह ज़रूरी है कि हम जहाँ तक संभव हो सके राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा लें, पर ‘राजनीतिक’ होने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है हम आँख मूंदकर किसी एक राजनीतिक दल का अंधा समर्थन करें, बल्कि इसका अर्थ है कि हम आम जनमानस को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर अपनी समझ विकसित करें और एक स्टैंड लें। क्योंकि अगर हमें राजनीति में कोई रूचि नहीं है तो इसका मतलब है कि हम अपनी मौजूदा दुनिया को बदलना ही नहीं चाहते और हमें अपने आसपास घटित हो रहे अन्याय से कोई फर्क नहीं पड़ता।

अक्षय शुक्ला

(लेखक दृष्टि वेब कंटेंट टीम से संबद्ध हैं)




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