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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

हिंदी सिनेमा को शेक्सपियर से परिचित कराने वाला फिल्मकार

कौन भरोसा करेगा कि जो फ़िल्मकार शेक्सपियर के नाटकों को रुपहले परदे में उतारने का हुनर रखता है वो पेशेवर क्रिकेटर हुआ करता था। यह दिलचस्प प्रसंग है फिल्मकार विशाल भारद्वाज की। वस्तुतः अपनी किशोरावस्था में विशाल एक प्रतिभाशाली ऑलराउंडर हुआ करते थे। साल 1982 में उत्तर प्रदेश की अंडर-19 क्रिकेट टीम में उनका चयन भी हुआ था लेकिन नियति को शायद उनका क्रिकेटर बनना गवारा नहीं था। कर्नल सी.के.नायडू ट्राफी के अपने पहले मैच से एक दिन पहले छत से टकरा कर उनका सिर फूट गया और वे पूरे टूर्नामेंट से बाहर  हो गए  ।अगले साल कुछ अस्पष्ट नियमों के कारण उन्हें बाहर बैठना पड़ा। लिहाजा उन्होंने दिल्ली आकर अपने क्रिकेट कैरियर को संवारने का निर्णय लिया। क्रिकेटीय प्रतिभा के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कालेज में न केवल उन्हें दाखिला मिल गया बल्कि वे यूनिवार्सिटी की क्रिकेट टीम में भी चुन लिए गए लेकिन भाग्य एक बार फिर उनसे रूठा रहा। मैच प्रैक्टिस करते हुए हाथ में लगे चोट ने उन्हें पूरे सीजन बाहर बैठने पर विवश कर दिया। उल्लेखनीय है कि दिल्ली विश्वविद्यालय की क्रिकेट टीम में विशाल के साथ मनोज प्रभाकर और मनिंदर सिंह जैसे भावी क्रिकेटर भी शामिल थे ।

संगीतकार बनने की कहानी और बम्बई का सफ़र

यूँ तो विशाल के पिता पेशे से गन्ना इंस्पेक्टर थे लेकिन तबीयत से कवि और गीतकार थे। हिंदी सिनेमा के कई संगीतकारों मसलन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ,कल्याणजी-आनंदजी, उषा खन्ना आदि के लिए उन्होंने गाने भी लिखे। गर्मी की छुट्टियों में अपने परिवार के साथ वे बम्बई आया करते थे। इसके अलावा विशाल के बड़े भाई भी मैन्डोलिन बजाया करते थे। इन सब के मिले जुले प्रभाव के कारण संगीत में उनकी स्वाभाविक दिलचस्पी पैदा हुई। आगे पिता की बेवक्त मौत के कारण उपजी आर्थिक चुनौतियों, यूनिवर्सिटी की एक म्युजिकल स्टार  के आकर्षण और क्रिकेट में बार-बार उभरने वाले दुर्भाग्य ने उन्हें एक मुकम्मल संगीतकार बनने का रास्ता दिखाया ।

दिल्ली में रहते हुए उनकी मुलाकात आर.वी. पंडित से हुई जिन्होंने उन्हें सी.बी.एस. म्यूजिक कम्पनी में नौकरी का प्रस्ताव दिया। आर्थिक संघर्ष  से जूझते विशाल ने सहर्ष इस प्रस्ताव को  स्वीकार कर लिया। सी.बी.एस. में रहते हुए ही एक दोस्त के माध्यम  से गुलज़ार  से उनकी मुलाकात हुई। गुलज़ार के लिए विशाल ने “जंगल बुक, एलिस इन वंडरलैंड, गुच्छे जैसे धारावाहिकों में संगीत दिए। गौरतलब है कि जंगल बुक के लिए संगीतबद्ध उनका गाना जंगल "जंगल बात चली है... पता चला है” काफी लोकप्रिय भी हुआ। इसी क्रम में वे सी.बी.एस. के कर्मचारी के रूप में अपना तबादला कराकर बम्बई पहुंचे। आगे चलकर पंडित के इसरार पर उन्होंने गुलज़ार  से उनकी मुलकात कराई। आर.बी.पंडित काफ़ी अरसे से पंजाब के आतंकवाद पर कुछ करने की इच्छुक थे और इस प्रकार उनके सहयोग से 1995 में पंजाब समस्या पर गुलज़ार की फिल्म “माचिस” सामने आई। इस फिल्म के गीत और संगीत ने काफ़ी प्रशंसा बटोरी। इस प्रकार विशाल के फ़िल्मी सफर की आधिकारिक शुरुआत 'माचिस' से हुई। इसके बाद उन्होंने सत्या, गॉड मदर जैसी चर्चित फिल्मों सहित कोई सात- आठ फिल्मों के लिए संगीत दिए। लेकिन अपनी शर्तों पर लीक से हटकर काम करने की चाहत और निर्माता निर्देशकों से बार-बार सवाल करने की अपनी सीरत के कारण उन्हें जितनीं फ़िल्में मिल रहीं थीं, उससे कहीं ज्यादा फ़िल्में उनके हाथों से निकल रही थी।

गुलज़ार से जुगलबंदी

गुलज़ार ही वो शख्स हैं जिन्होंने सबसे पहले सही मायने में विशाल की प्रतिभा को पहचाना। जब एक संगीतकार के रूप में उनका कैरियर उतार पर था, गुलज़ार की सलाह पर ही उन्होंने गंभीरता से फिल्म देखना लिखना और सिनेमाई तकनीकों को  जज़्ब करना शुरू किया। इस क्रम में उन्होंने अमेरिकी फिल्मकार क्वेंटिन टेरेंटीनों की मशहूर फिल्म “पल्प फिक्शन” देखी और इसी दौरान उनका सामना पोलैंड के कालजयी सिनेकार क्रित्ज़ोफ़ किस्लोवस्की की ‘टेंन कमांडमेंट’ पर आधारित “डेकालौग (दस फिल्मों की सीरिज)” से हुआ। यहाँ से विशाल भारद्वाज की जीवन धारा ही बदल गई और उन्होंने एक फिल्म निर्देशक बनने निर्णय लिया। 2002 में चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटीऑफ इंडिया (CFSI) के वित्तीय सहयोग से उनकी पहली फिल्म मकड़ी आई। दिलचस्प बात यह है कि इस फिल्म को चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी के कारिंदों ने बेकार निर्देशन का हवाला देकर ख़ारिज कर दिया था लेकिन धुन के पक्के विशाल ने गुलज़ार की सलाह और अपने एक दोस्त की मदद से CFSI से वापस खरीद कर रिलीज किया और इस फिल्म को उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला।

हिंदी फिल्म का शेक्सपियरवाला

गुलज़ार  की सोहबत में सिनेमा से जुड़ी बारीकियों को सीखते हुए विशाल ने शेक्सपियर को बड़ी संजीदगी से पढ़ा। शायद यही वजह है कि ‘मकड़ी' बनाते हुए शेक्सपियर के नाटक ‘मैकबेथ’ को पर्दे पर उतारने का निर्णय ले लिया हालाँकि उससे पहले विश्व सिनेमा के महान फिल्मकारों में गिने जाने वाले जापानी सिनेकार अकीरा कुरोसावा “थ्रोन ऑफ़ ब्लड” के नाम से और अमेरिकी निर्देशक ऑर्सन वेल्स ‘मैकबेथ’ नाम से ही इस नाटक पर कालजयी फिल्म बना चुके थे। लेकिन विशाल ने इसे मुंबई अंडरवर्ल्ड की पृष्ठभूमि पर मक़बूल (2003) नाम से पर्दे पर उतार कर पुनः जीवंत कर दिया। मकबूल के बाद विशाल की सिने फेहरिश्त में एक बार फिर से शेक्सपियर आए, फिल्म थी ‘ओमकारा’ और जिस ड्रामे पर ये आधारित थी वह था – ‘ओथेलो’ । फिल्म पंडितों की माने तो यह ओथेलो का ऑर्सन वेल्स की ‘ओथेलो’ (1948 ) से ज्यादा बेहतर फिल्मान्तरण है। इसके बाद उन्होंने रस्किन बांड की दो कहानियों ‘द ब्लू अम्ब्रेला’ और ‘सुजेनास सेवन हस्बेंड्स’ पर क्रमशः ‘द ब्लू अम्ब्रेला’, ‘सात खून माफ़’ सरीखी फिल्में बनाई। फिर आया  2014 का साल, इस वर्ष कश्मीरी पत्रकार बशारत पीर के साथ मिलकर विशाल ने कश्मीर की पृष्ठभूमि लेकर ‘हैमलेट’ की रूपांतरित पटकथा लिखी और फिल्म बनी-‘हैदर’। इस फिल्म के साथ ही उन्होंने शेक्सपियर के नाटकों पर अपनी ट्राइलॉजी पूरी की। इन फिल्मों के अलावा ‘कमीने’ (2009) ‘मटरू की बिजली का मनडोला’ (2013), ‘रंगून’(2017), चरण सिंह पथिक की कहानी पर आधारित फिल्म ‘पटाखा’ (2018) का निर्देशन उन्होंने किया। विशाल की फ़िल्में बॉक्स ऑफिस के पैमाने से बेहद सफल बेशक न रही हों लेकिन शिल्प और प्रस्तुति में इतनी नायाब ज़रूर हैं कि उनके हर एक फ़्रेम को आप मौलिक पाएंगे और शायद यही उनके जैसे एक्सप्रेशनिस्ट फिल्मकार की पहचान भी होती है।

सुंदरम आनंद

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से हिन्दी कथा साहित्य पर बनी फिल्मों पर शोधरत हैं)

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