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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

मानव इतिहास की नवीन व्याख्या करती पुस्तक

पुस्तक : द डॉन ऑफ एवरीथिंग: अ न्यू हिस्ट्री ऑफ ह्यूमैनिटी (2021)

लेखक : डेविड ग्रेबर व डेविड वेनग्रोव

विषय : विश्व इतिहास, नृविज्ञान, पुरातत्व

अधिकांश मानव इतिहास हमारे लिए अपूरणीय रूप से अदृष्ट है। हमारी प्रजाति, होमो सेपियन्स, कम से कम 200,000 वर्षों से अस्तित्व में है लेकिन इस प्रकल्प के अधिकांश समय में क्या घटित हो रहा था आज हमें इसकी जानकारी बहुत कम है। उदाहरण के लिए, उत्तरी स्पेन के अल्तामिरा की गुफा में ढेरों चित्रकारी और उत्कीर्णन लगभग 25,000 और 15,000 ईसा पूर्व के बीच बनाए गए थे। सम्भवतः इस काल में अनेक नाटकीय घटनाएँ घटी होंगी। तब का मानव इन घटनाओं को अभिलेखित भी कर रहा था। लेकिन हमारे पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि उनमें से अधिकतर घटनाएँ क्या थीं? क्या हम प्रागितिहास पर उतना ही विचार कर पाते हैं जितना आधुनिक या समकालीन इतिहास पर? अगर नहीं, तो क्यों? मानव इतिहास का सबसे विस्तृत प्रकल्प तो प्रागितिहास का है। क्या इस काल की उपेक्षा मात्र लेखनी की अनुपलब्धता तक सीमित है?

इन प्रश्नों पर नृविज्ञानी डेविड ग्रेबर (David Graeber) और पुरातत्त्ववेत्ता डेविड वेनग्रोव (David Wengrow) ने अपनी पुस्तक डॉन ऑफ एवरीथिंग: न्यू हिस्ट्री ऑफ ह्यूमैनिटी (2021) में एक नई दृष्टि प्रदान की है। इस नई दृष्टि का अनुरोध क्रांतिकारी है! कैसे? अभी तक मानव इतिहास में व्युत्पत्ति और उद्गम का प्रश्न एक ऐसे वैचारिक मतैक्य के मध्य स्थापित था जिसे किसी ने व्यग्र करने की चेष्टा नहीं की थी।

मानव इतिहास का मतैक्य: रूसो और हॉब्स

यह मतैक्य 18वीं सदी के जिनेवाई दार्शनिक जीन जैक्स रूसो (1712-1778) से संबंधित है। अपनी कृति डिस्कोर्स ऑन ओरिजिन एंड फाउंडेशन ऑफ इनक्वॉलिटी अमंग मैनकाइंड (1754) में रूसो ने इस कथानक को प्रस्तुत किया है। तो कथा कुछ ऐसी है कि एक बार की बात है मानव शिकारी था और बाल निष्कपटता के साथ छोटे झुंडों में दीर्घ काल खण्ड तक जीता रहा। यह झुण्ड समतावादी था। झुण्ड का छोटा होना इसका कारन हो सकता है। यही परिस्थिति 'कृषि क्रांति' तक बनी रही। फिर नगरों का उदय हुआ और 'सभ्यता' और 'राज्य' के प्रारंभ से मानवी समतावाद और निष्कपटता का अंत हो गया। इस अंत की अभिव्यक्ति लिखित साहित्य, विज्ञान और दर्शन में हुई। साथ ही मानव जीवन में लगभग जितनी दुष्कर प्रक्रियाएँ हैं, जैसे पितृसत्ता, स्थायी सेनाएँ, सामूहिक निष्पादन और कष्टप्रद नौकरशाही का भी प्रकटन हुआ।

लगभग यही कथा 17वीं  सदी के अंग्रेजी दार्शनिक थॉमस हॉब्स की कृति लेवियाथन (1651) में अलग परिणामों के साथ सुनाई देती है। हॉब्स में आरंभिक मानव निष्कपट नहीं बल्कि स्वार्थी है जिसे केवल राजकीय अनुशासन ने सौहार्द से साथ रहना सिखाया क्योंकि ‘स्टेट ऑफ नेचर’ में वह केवल संघर्षरत था। लेकिन यहाँ भी राजनीति यानी ‘पॉलिटिक्स’ की केन्द्रीयता ग्रीक शब्द ‘पोलिस’ यानी नगर के समीप रही और वहीं दूसरी ओर लैटिन शब्द ‘सिविटास’ ने ‘सिविलाइजेशन’ के माध्यम से ‘सिविक’ के सहारे सभ्यता की आधुनिक समझ का निर्माण किया। हॉब्स के चिंतन में प्रारंभिक समाजों में छोटे झुंडों में रहने वाला मानव भी तभी सौहार्द से रह पाया जब वहाँ समता को समाप्त करके व्यक्ति विशेष का आधिपत्य किया गया।

तो एक कथा के अनुसार आदिम शिकारी के रूप में जीवन दुष्कर, क्रूर और लघु था जब तक कि राज्य के आविष्कार ने हमें फलने-फूलने की अनुमति नहीं दी। दूसरी कथा कहती है कि प्रकृति के राज में हम एक बाल निष्कपटता की अवस्था में प्रसन्न और स्वतंत्र थे और सभ्यता के आगमन के साथ हमने उस खो दिया। हमनें इन कथाओं में मानव इतिहास को एकरेखीय सूत्र में विभक्त होते देखा है। वह चाहे कार्ल मार्क्स का ‘प्रिमिटिव कम्युनिज्म’ से ‘कम्युनिज्म’ तक की विचार यात्रा हो, या अभी हाल में इजराइली इतिहासकार युवाल नोआह हरारी की सेपियन्स: ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइंड (2011)  के मार्फ़त मानव इतिहास को विभिन्न एकरेखीय चरणों में विकसित होते देखने का उदाहरण हो।

एकरेखीय विकास असत्य है

ग्रेबर और वेनग्रोव ने सारे संसार से प्राप्त हुए नवीन पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर मानव की एकरेखीय विकास की धारणा को ध्वस्त कर दिया है। पुस्तक ने हॉब्स और रूसो के कथानक में उभरने वाले "अचेत असभ्य मानव” को मिथकीय बताते हुए यह दिखाया है कि पुरातात्त्विक साक्ष्य का कोई उदाहरण इस मूलभूत मिथक का समर्थन नहीं करता। इसके बजाय उपलब्ध साक्ष्य यह दिखाते हैं कि मानव इतिहास का प्रक्षेपवक्र हमारे अनुमान से कहीं अधिक विविध और रोमांचक और कम उबाऊ रहा है। साक्ष्य यह दिखाते हैं कि मानव इतिहास एक महत्वपूर्ण अर्थ में कभी भी प्रक्षेपवक्र नहीं रहा है। हम कभी भी छोटे शिकारी समूहों में स्थायी रूप से नहीं रहे। न ही हम कभी स्थायी रूप से समतावादी थे। यदि हमारी प्रागैतिहासिक स्थिति की कोई एक परिभाषित विशेषता है तो वह सभी प्रकार की राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक आयामों के विभिन्न प्रकार में निरंतर स्थानांतरित होने की विस्मयकारी क्षमता है।

ग्रेबर और वेनग्रोव का सुझाव है कि इस बहुरूपदर्शक किस्म के सामाजिक रूपों की व्याख्या करने का एकमात्र तरीका यह है कि हमारे पूर्वज वास्तव में उतने अचेत नहीं थे। बल्कि इसके बजाय आत्म-जागरूक राजनीतिक अभिनेता थे जो परिस्थितियों के आधार पर अपनी सामाजिक व्यवस्था बनाने में सक्षम थे। यह प्रारंभिक मानव  स्थायी सत्तावादी शक्ति के खतरों से बचने के लिए सामाजिक-राजनीतिक अस्मिताओं के मध्य निरंतर परिवर्तन करता रहा था। इसलिए लेखक यह प्रस्तावित कर रहे हैं कि "असमानता क्यों पैदा हुई?" पूछने के बजाय मानव इतिहास के बारे में सबसे रोचक प्रश्न यह है कि "हम इसके साथ क्यों फँस गए?"

साक्ष्यों की चर्चा करें तो उदाहरण के लिए पुस्तक से हम सीखते हैं कि ऊपरी पुरापाषाण काल ​​में यूरेशिया में भौतिक संस्कृति में एकरूपता का मतलब है कि लोग महाद्वीपों में फैले एक बड़े पैमाने पर कल्पित समुदाय में रहते थे। यह साक्ष्य इस विचार को ध्वस्त करता है कि मानव ने  छोटे झुंडों में रहना सीखा था। इसे प्रति-सहजता से समझें तो मानव इतिहास के दौरान एकल समाजों का पैमाना कम होता गया क्योंकि आबादी बड़ी हो गई। तुर्की में गोबेकली टेप या ओहियो में होपवेल जैसे स्मारकीय स्थलों से हम सीखते हैं कि लोग मौसमी रूप से दूर स्थलों से आकर एक साथ एकत्र होते जो मनोरंजन और ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए सांस्कृतिक संवाद के बड़े केंद्र प्रतीत होते हैं। एक विस्तृत समुदाय में स्वागत की अपेक्षा करते हुए लंबी दूरी की यात्रा करना हमारे पूर्वजों के जीवन की एक विशिष्ट विशेषता थी।

पुस्तक की अगली धुरी कृषि है। प्राप्त विचार यह है कि कृषि के जन्म का अर्थ स्तरीकृत समाजों का कमोबेश स्वत: उदय था। किन्तु एक बार जब हम अमेज़ोनिया में "खेल खेती" जैसी घटना पर विचार करते हैं तो यह धारणा समस्याओं में बदल जाती है। यहाँ नाम्बिकवारा जैसे असिंचित समाज हालाँकि पौधों को परचाने की तकनीकों से परिचित थे। लेकिन उन्होंने जानबूझकर कृषि को अपनी अर्थव्यवस्था का आधार नहीं बनाने का फैसला किया। मध्य पूर्व के उदाहरण से यह सीखने को मिलता है कि यहाँ प्रारंभिक कृषि समाजों ने स्वयं को आसपास की पहाड़ियों के शिकारी वनवासियों से रक्षित करने की प्रतिक्रिया में समतावादी और शांतिपूर्ण बनाया। यहाँ ज्यादातर महिलाओं ने कृषि विज्ञान के विकास को प्रेरित किया। हम यह भी सीखते हैं कि कुछ ऐसे स्थानों पर सिंचाई के जटिल कार्य बिना मुखिया के सामुदायिक रूप से किए जाते थे। अतः कृषि का क्रमिक प्रसार होने के ऊपर अभी तक जो मतैक्य था उसके विरुद्ध इस पुस्तक ने कई उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।

आगे नगरों की ओर चलें। आज के आधुनिक समाज में समतामूलक नगरों की कल्पना यूटोपिया संबंधी लगती है। नगरी विकास ही असामनता पर निर्भर दिखाई देता है। लेकिन इस युक्ति से उलट अतीत में दक्षिणी अनातोलिया में अटलहोयुक जैसी नगर और कई अन्य ऐसे नगरों के अस्तित्व का अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत है जहाँ सत्तावादी शासन का कोई संकेत नहीं मिलता। मिसिसिपी में काहोकिया या चीन में शिमाओ जैसे अन्य प्राचीन शहर विभिन्न राजनीतिक सत्ता के अस्थायी उत्तराधिकार के साक्ष्य प्रदर्शित करते हैं। यह कभी सत्तावाद से समतावाद की ओर बढ़ते हैं तो कभी नहीं।

इसी से जुड़ा हुआ विषय राज्य का है। लेखक स्पष्ट करते हैं कि इंका या एज़्टेक जैसे समाजों को "प्रारंभिक राज्यों" के रूप में परिभाषित करना कितना भ्रामक है क्योंकि यह समाज इस सीमित और संकुचित संज्ञात्मक कोटि से कहीं अधिक विविध थे। ठीक उसी प्रकार मेसोअमेरिका में ओल्मेक और चाविन समाजों से लेकर दक्षिण सूडान के शिलुक तक डॉन ऑफ एवरीथिंग  हमें पूरे इतिहास में सत्तावादी संरचनाओं की विविधता से परिचित करवाती है। पुस्तक के अंत तक हम एक ऐसे पुरातात्त्विक अपवाद से मिलते हैं जिसे मिनोअन क्रेते कहा जाता है। इस समाज में सभी साक्ष्य महिला राजनीतिक शासन की एक प्राचीन प्रणाली के अस्तित्व की ओर इशारा करते हैं। यहाँ शासक वर्ग धार्मिक पुजारिन समूहों से मिलकर बना था और धर्मशास्त्रों से संचालित था।

पुस्तक की महत्ता

पुस्तक सामाजिक विज्ञान की कुछ स्पष्ट धारणाओं को चुनौती देती है। प्रथम, आग्रह है कि प्रागैतिहासिक समाज और समूहों को विश्लेषित करते हुए हम "सरल" या "जटिल" समाज, "राज्य की उत्पत्ति" या "सामाजिक जटिलता की उत्पत्ति" जैसे अव्ययों का त्याग कर दें। वहीं उत्पादन के तरीकों को भी सामाजिक वर्गीकरण के लिए एक अनुचित मानदंड बताया गया है क्योंकि यह हमें सामाजिक गतिशीलता के बारे में लगभग कुछ भी नहीं बताता है। तो यहाँ प्रश्न यह रह जाता है कि अगर हम प्राप्त विचारों का खंडन करेंगे तो समाज का अध्ययन कैसे करेंगे? ग्रेबर और वेनग्रोव ने इसके लिए सामाजिक वर्चस्व को तीन तत्वों में विभाजित किया है--हिंसा पर नियंत्रण, ज्ञान का नियंत्रण और करिश्माई शक्ति--और यह दिखलाया गया है कि इन तत्वों के क्रमपरिवर्तन से पूरे इतिहास में लगातार कई  पैटर्न उत्पन्न होते हैं। जबकि आधुनिक राष्ट्र-राज्य तीनों का समावेश करता है, अतीत के अधिकांश पदानुक्रमित समाजों में केवल एक या दो ही थे। इस कारण प्राचीन समाज में लोग स्वातंत्र्य की ऐसी विभिन्न अवस्थाओं में रहे जिसकी कल्पना आधुनिक मनुष्य नहीं कर सकता।

अंत में बस यही कहा जा सकता है कि आज फिर से विश्व इतिहास पर बृहत् दृष्टिपात करने का चलन बढ़ा है जैसा कि आप युवाल नोआह हरारी, स्टीवन पिंकर, जारेड डायमंड या फ्रांसिस फुकुयामा जैसे विद्वानों की लेखनी से जानते होंगे। इन सभी विद्वानों में विश्व इतिहास को उद्देश्यवाद की एकरेखीय नीरसता में प्रकट किया गया है। ग्रेबर और वेनग्रोव ने विश्व इतिहास की विविधता के सहारे मानवीय प्रयासों की विवधता और जटिलताओं को सामने रखा है।

शान कश्यप

(लेखक रवेंशा विश्वविद्यालय में आधुनिक इतिहास के शोधार्थी हैं)


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