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सत्यजित रे : मानवीय मूल्यों के महान फिल्मकार

सत्यजीत रे अब नहीं हैं। उनकी फिल्में हैं। उनकी देखी दुनिया है और दुनिया को देखने के लिये उनकी ऑंखें हैं। एक भरा-पूरा रचनात्मक संसार है उनका। आज उनकी पुण्यतिथि भी है। आइये उनकी स्मृति को नमन करते हुए जानते हैं कि क्यों इतने खास फिल्मकार कहे जाते हैं रे।

-संपादक

उनकी पहली ही फिल्म को तक़रीबन एक दर्जन अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया था। वे चार्ली चैप्लिन के बाद सिनेमा से जुड़े अकेले ऐसे शख्स थे जिन्हें ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने ‘डॉक्टरेट’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया था। कान्स ,वेनिस ,बर्लिन और ऑस्कर सरीखे दुनिया के प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित होने वाले अकेले भारतीय फ़िल्मकार थे। अपने पूरे करियर में बनाए गए कुल तीन दर्जन फिल्मों के लिए उन्हें 32 बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले। ‘भारत रत्न’ पाने वाले वे अबतक के एकमात्र फिल्म निर्देशक हैं। यह मुख़्तसर सा बायोडाटा दुनिया के मानचित्र पर भारतीय फिल्मों को स्थापित करने वाले उस फ़िल्मकार का है,जिसे करीब से जानने वाले ‘माणिक दा’ के नाम से और दुनिया सत्यजित रे (राय ) के नाम से पहचानती है। आखिर ऐसा क्या था सत्यजित रे के काम में जिसे पूरी दुनिया में जाना और सराहा गया? जिसके लिए महान जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा यहाँ तक कह बैठे- “रे की फिल्मों को देखे बिना रहना, चाँद और सूरज को देखे बिना रहना है।”

विशिष्ट फ़िल्मकार

यूँ तो 1955 में फिल्म ‘पथेर पांचाली’ से शुरू हुआ उनका सिनेमाई सफर आखिरी फिल्म ‘आगंतुक’ (1992) तक कुल 37 फिल्मों का रहा। लेकिन उन्हें ‘अपू ट्राइलॉजी’ के नाम से मशहूर शुरुआती तीन फिल्मों (‘पथेर पांचाली’, ‘अपराजितो, और ‘अपुर संसार’ ) से ही विश्व सिनेमा के अग्रणी फ़िल्मकार के रूप में प्रतिष्ठा मिल गई थी। दिलचस्प बात यह है कि ‘पथेर पांचाली’ बनाने से पहले रे के पास न तो फिल्म-निर्माण का कोई अनुभव था और न ही यथार्थवादी फिल्मों का कोई बेहतर भारतीय प्रतिमान सामने था। लेकिन ‘बंगाल रेनेसाँ’ से प्रभावित पारिवारिक पृष्ठभूमि,शांतिनिकेतन में रहते हुए विकसित हुई कला-दृष्टि, अपने साथियों के साथ बनाए गए फिल्म क्लब में विश्व-सिनेमा से परिचित होने के मौकों ने उन्हें संवेदनशील फिल्म दर्शक ज़रूर बना दिया था। वे जॉन फोर्ड, विली वाइल्डर, ऑर्सन वेल्स, फ्रैंक कैप्रा जैसे हॉलीवुड के दिग्गज फिल्मकारों के काम को सूक्ष्मता से देखने-जानने लगे थे। लेकिन फ्रेंच-अमेरिकी फ़िल्मकार ज्यां रेनुवां से मुलाकात और एडवरटाइजिंग एजेंसी में नौकरी के दौरान लंदन में रहते हुए इतालवी दिग्गज विट्टेरियो डी सीका की फ़िल्म ‘बाइसिकल थीव्स ‘(1948) देखना उनके जीवन को बदल देने वाली घटनाएँ हैं। इन दोनों घटनाओं ने फ़िल्मकार बनने के उनके इरादे को तो मजबूत किया ही साथ फिल्म निर्माण के लिए यथार्थवादी ‘अवांगार्द’ दृष्टि भी प्रदान की।

अपनी नई सिने -दृष्टि के साथ सत्यजित रे ने तत्कालीन फिल्म निर्माण के तौर तरीके के विपरीत गैर-पेशेवर अदाकारों और टेक्निशियन्स के साथ आउटडोर लोकेशन पर रियल लाइट में फिल्मांकन किया। इस प्रकार दुनिया में भारतीय सिनेमा को नई पहचान देने वाली फिल्म ‘पथेर पांचाली’ सामने आई।

सत्यजित रे इस मायने में भी अलग थे कि उनकी फिल्मों का कलेवर ‘ललित कलाओं के कोलाज’ सरीखा होता था। शायद यही वजह है कि मशहूर अमरीकी फ़िल्म निर्देशक मार्टिन स्कॉर्सेसी ने कहा भी है –“रे की फिल्मों में काव्य और सिनेमा को मिलाने वाली रेखा एक दूसरे में घुलीमिली सी नज़र आती है।”

संगीतकार के रूप में रे

सत्यजित रे की फ़िल्में अपनी विषय-वस्तु और प्रस्तुति में नायाब होने के साथ-साथ संगीत प्रयोग के लिहाज से भी उल्लेखनीय रही हैं। एक तो संगीत के इस्तेमाल में रे कहानी की प्रकृति, वातावरण और स्थिति को ध्यान में रखते थे और दूसरी तरफ सिनेमा की समयबद्धता के आधार पर वो सटीक संगीत को चुनने पर पर बल देते थे। ‘अपू ट्राइलॉजी’, ’जलसाघर’(1958 ), ‘चारुलता’(1964 ), ‘अरण्येर दिन रात्रि (1969) और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977) जैसी अलग-अलग मिजाज़ की फिल्मों में इस बात की तस्दीक की जा सकती है।

ग़ौरतलब है कि अपनी छठी फिल्म ‘तीन कन्या’ ( 1961) से लेकर आखिरी फिल्म ‘आगंतुक’(1992 ) तक उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए खुद ही संगीत तैयार किया था। इनसे पहले की फिल्मों में वे पं. रविशंकर, अली अकबर खान और विलायत खान जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर चुके थे। खुद से संगीत देने के अपने निर्णय के बारे में अपनी किताब ‘आवर फिल्म्स देयर फिल्म्स ‘ में उन्होंने कहा है –“मैंने पेशेवर संगीतकारों की बजाय खुद से संगीत तैयार करना इसलिए तय किया क्योंकि मेरे पास खुद संगीत को लेकर काफी आइडियाज आते रहते हैं और साथ ही पेशेवर संगीतकार बार-बार निर्देशित किया जाना पसंद नहीं करते।”

लेखक के रूप में रे

फ़िल्मकार होने के साथ-साथ सत्यजित रे की पहचान एक सफल लेखक के रूप में रही है। दादा उपेन्द्रनाथ राय और पिता सुकुमार राय की तरह वे बांग्ला बाल साहित्य के उम्दा लेखकों में गिने जाते हैं। उनके द्वारा रचित ‘फेलू दा’, ’प्रोफ़ेसर शोंकू’, ’तारिणी खुरो‘, ’लालमोहन गांगुली’ जैसे चरित्र बांग्ला साहित्य (विशेषतः बाल -साहित्य) के लोकप्रिय चरित्र माने जाते हैं। बाल-साहित्य, कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने फिल्मों के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्षों पर भी प्रचूरता से लिखा है। उनके ऐसे आलेखों का संकलन ‘आवर फिल्म्स देयर फिल्म्स’, ‘डीप फोकस’, ’सत्यजित रे ऑन फिल्म्स’ जैसी किताबों में मिलता है।

रे की आलोचना

यह सच है कि देश और दुनिया में सत्यजित रे के अनगिनत प्रशंसक हैं, जिनमें से कई खुद भी महानता का दर्ज़ा हासिल कर चुके हैं। मसलन हिंदी सिनेमा के दिग्गज निर्देशक श्याम बेनेगल ने जहाँ अपने एक इंटरव्यू में कहा है –“उनकी फिल्मों को देखकर मैंने अपने बारे में सोचना सीखा है”, वहीं मलयालम सिनेमा के मशहूर फ़िल्मकार अडूर गोपालकृष्णन ने ‘फ्रंटलाइन’ में लिखे एक आलेख में यहाँ तक कह दिया है कि “मेरे लिए भारतीय सिनेमा की शुरुआत सत्यजित रे की फिल्मों से होती है।”

लेकिन इन तारीफों के बीच उनपर आलोचनाओं के तीर भी चलते रहे हैं। हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस ने उनपर विदेशों में ‘आधुनिक भारत’ दिखाने की बजाय सिर्फ भारत की गरीबी दिखाने का आरोप लगाया था। वहीँ नामचीन बांग्ला फ़िल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता ने ‘फ्रंटलाइन’ को दिए गए इंटरव्यू में कहा था –“मैं रे को विजनरी नहीं मानता। मैं उन्हें कुरोसावा,बर्गमैन या मिज़ोगुची की श्रेणी में नहीं रखता।”

कुछ इसी तरह का विचार महान फ्रेंच फ़िल्मकार फ्रांस्वां त्रूफो का भी था। रे की फिल्मों पर टिपण्णी करते हुए उन्होंने कहा था –“मैं हाथ से खाना खाते हुए किसानों को दिखाने वाली फ़िल्में नहीं देखना चाहता।”

कुछ आलोचक उनपर अपने दौर की राजनीतिक परिस्थितियों से तटस्थ रहने का भी आरोप लगाते रहे हैं।

रे की प्रासंगिकता

पहले सत्यजित रे मेमोरियल लेक्चर में बोलते हुए जावेद अख्तर ने कहा था “कोई चीज़ तब प्रासंगिक होती है जब उसकी प्रचूर मौजूदगी हो या उसकी भरपूर कमी हो।” जावेद साहब की इस टिपण्णी को सामने रखकर देखें तो दृश्य-ध्वनि, शब्द-संगीत, भाव-भाषा की काव्यमय जुगलबंदी के साथ रे की फ़िल्में शाश्वत मानवीय मूल्यों को सामने लाती हैं। ध्रुवीकरण के खतरे से जूझती आज की दुनिया में केवल अच्छा या केवल बुरा देखने की बजाय अच्छे और बुरे को समान संवेदना के साथ देखना सिखाती हैं। ये फिल्में केवल बंगाल या भारत की संस्कृति को सूक्ष्मता से परदे पर नहीं उकेरतीं बल्कि विविध संस्कृतियों से संवाद करती हुई दर्शकों के दिलो दिमाग को जगा जाती हैं। यही खूबियाँ सत्यजीत रे और उनकी फिल्मों को आज भी प्रासंगिक बनाती हैं।

Sundaram Anand

सुंदरम आनंद

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से हिन्दी कथा साहित्य पर बनी फिल्मों पर शोधरत हैं)

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