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हिरोशिमा और नागासाकी के सबक

“ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई…!”

~ मुज़फ़्फ़र रज़्मी

विश्व इतिहास में ऐसी ही दो तारीखें हैं- 6 और 9 अगस्त, 1945। जिस दिन परमाणु बम से अनजान, जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी के नागरिकों को लगा था उनके शहर में सूरज फट गया है। लेकिन ऐसा नहीं था यह तथाकथित विकसित, सभ्य और मुट्ठी भर लोगों का निर्णय तथा एक महाशक्ति द्वारा निर्मित कृत्रिम सूरज था जिसकी आग में लाखों निर्दोष लोग भाप बन कर उड़ गए और मानवता झुलस गई थी। और आज भी दुनिया ऐसे ही अनगिनत कृत्रिम सूरज की लपटों से घिरी हुई है।

हाँ, यह बिल्कुल सच है। दुनिया भर में ऐसी अनगिनत घटनाएं हैं जिनका प्रभाव न सिर्फ तत्कालीन विश्व बल्कि सदियों तक देखा जाता रहा है। जब भी अगस्त माह आता है या परमाणु हथियारों की बढ़ती तादात पर विमर्श होता है तो जापान के दो शहर हिरोशिमा और नागासाकी की दिल दहला देने वाली तस्वीरें जरूर याद आ जाती हैं। इसी घटना की स्मृति में 6 अगस्त को ‘हिरोशिमा दिवस’ और 9 अगस्त को ‛नागासाकी दिवस’ भी मनाया जाता है। इन विध्वंसक घटनाओं के 78 वर्ष बाद भी आज दुनिया युद्ध और हिंसा में संलग्न है और परमाणु हथियारों के ढेर पर बैठी हुई है। हाल ही रूस द्वारा दी गयी परमाणु हमले की धमकी, दुनिया भर में बढ़ती हिंसा की घटनाएं और हथियारों को इकट्ठा करने की होड़ के बीच हमारे सामने यह प्रश्न बार-बार आता है कि हम हिरोशिमा और नागासाकी की घटनाओं से क्या सबक सीख पाए हैं?

पृष्ठभूमि-

द्वितीय विश्वयुद्ध में संघर्षरत जापान के हिरोशिमा शहर के लिए 6 अगस्त 1945 की सुबह एक सामान्य सी सुबह थी। सुबह 8:00 बजे खुले आसमान में अमेरिकन बोइंग B-29 विमान दिखाई दिया और उसके 15 मिनट बाद अर्थात 8 बज कर 15 मिनट पर कुछ गिरता हुआ दिखाई देता है। यह कोई सामान्य चीज नहीं थी बल्कि परमाणु बम था जिससे दुनिया अब तक अनजान थी। यह यूरेनियम बम था जिसका नाम “लिटिल बॉय” था। परमाणु बम गिराए जाने के बाद हिरोशिमा शहर की तस्वीर बदल चुकी थी और इस बम के लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस तापमान के प्रभाव से अधिकांश सजीव और निर्जीव भाप बनकर उड़ गए। इस बम से लगभग 80 हजार लोग मारे गए और बहुत संख्या में लोग हताहत हुए।

9 अगस्त,1945 को दक्षिणी जापान के बंदरगाह नगर नागासाकी पर 11 बज कर 1 मिनट पर 6.4 किलो का प्लूटोनियम-239 बम गिराया गया जिसका नाम “फैटमैन” था। दोनों शहरों में परमाणु बम से लगभग 2 लाख लोग मारे गये और यह परमाणु हमला आने वाली पीढ़ियों के लिए दर्दनाक स्मृतियों का अवशेष भी छोड़ गया।

हिरोशिमा और नागासाकी की घटना सामान्य घटना नहीं थी। इसके अवशेष को इतिहास में खोजा जा सकता है। इतिहास हमें कोई छूट नहीं देता है। यदि किसी भी राष्ट्र द्वारा कोई भी फैसला लिया जाता है तो उसकी जनता उसके नतीजे से नहीं बच सकती है। सामान्य रूप से हम इसे अन्याय पूर्ण भी कह सकते हैं। लेकिन इतिहास सिर्फ न्यायपूर्ण हो इसके लिए हम आखिर किसे जिम्मेदार ठहरा सकते हैं? वास्तविकता बहुत से धागों से मिलकर बुनी गई होती है और हिरोशिमा तथा नागासाकी की घटनाओं के पीछे भी ऐसे कई धागे हैं जिनके बारे में जानना बेहद जरूरी है-

हिरोशिमा और नागासाकी की घटना की जड़ें पूरी तरीके से द्वितीय विश्व युद्ध से जुड़ी हुई हैं। 1939 में हिटलर ने पोलैंड पर आक्रमण कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत में ध्रुवीय राष्ट्र के रूप में जर्मनी, इटली और जापान तथा मित्र राष्ट्र के रूप में सोवियत संघ, ग्रेट ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका सामने आते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के निराशाजनक अनुभवों की वजह से अमेरिका, द्वितीय विश्व युद्ध से दूरी बनाए रखना चाहता था। वह यूरोप और एशिया में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था। लेकिन जब जापान ने 7 दिसंबर, 1941 को अमेरिका के मिलिट्री बेस, पर्ल हार्बर पर हमला किया तो अमेरिका इस विश्व युद्ध में शामिल हो गया। पर्ल हार्बर पर हमला कोई तात्कालिक निर्णय नहीं था बल्कि यह जापान की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का परिणाम था। क्योंकि जापान की निगाह कई उपनिवेशों पर थी और वह ग्रेटर एशिया के विचार पर काम कर रहा था। इटली और जर्मनी की पराजय के बाद भी जापान ने आत्मसमर्पण नहीं किया। जनधन के भारी नुकसान के बावजूद जापान अमेरिका से युद्धरत रहा। ओकिनावा की लड़ाई के पश्चात अमेरिकी नेतृत्व इस निर्णय पर पहुंचा कि जापान से संघर्ष को लंबा नहीं खींचना चाहिए और इसका परिणाम हुआ परमाणु बम का प्रयोग। अंततः हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले के पश्चात जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया और द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात असंख्य प्रश्न विमर्श की दुनिया में सदैव अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। जैसे क्या युद्ध मानवता से ज्यादा महत्वपूर्ण है? यदि युद्ध होता भी है तो क्या इसका अंत इसी प्रकार होना चाहिए?

प्रयास-

हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले के पश्चात दुनिया को लगा कि विकास की अंधी दौड़ में हम उस बिंदु तक पहुंच चुके हैं जहां पूरी दुनिया को समाप्त करने की पटकथा लिखी जा रही है। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात दुनिया को शस्त्र मुक्त बनाने के प्रयास तेजी से होने लगे और यह आज भी जारी है। इसे हम हिरोशिमा और नागासाकी से मिले सबक के रूप में भी देख सकते हैं।

युद्ध की विभीषिका से बचने और दुनियां को हथियार मुक्त बनाने का प्रयास 19वीं शताब्दी से ही किया जाता रहा है। इसके पीछे दो अवधारणाएं काम करती रही हैं, जिनकी कई उपधारायें भी हैं-

निरस्त्रीकरण (Disarmament) एवं

शस्त्र नियंत्रण (Arms Control)।

निरस्त्रीकरण एक आदर्शवादी अवधारणा है जो पूरी तरीके से हथियारों की समाप्ति का समर्थन करती है। इससे जुड़े हुए विचारकों का मानना है कि युद्ध का जन्म आयुधों तथा शस्त्रों के कारण होता है। वहीं शस्त्र नियंत्रण, यथार्थवादी अवधारणा है। इससे जुड़े हुए विचारक मानते हैं कि पूरी तरीके से शस्त्रों की समाप्ति नहीं की जा सकती है लेकिन उन पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है।

निरस्त्रीकरण या शस्त्र नियंत्रण कोई नई घटना नहीं है चाहे इसको सर्वव्यापी मान्यता भले ही द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मिली हो। यदि हम कांट के विचारों को देखते हैं तो वह कहता है कि, “राज्यों के बीच शांति के लिए आवश्यक शर्त यह है कि स्थाई सेनाएं समाप्त की जाएँ । ”19वीं शताब्दी में ही राष्ट्रों के मध्य निरस्त्रीकरण के लिए समझौते हुए लेकिन निरस्त्रीकरण के लिए अधिक गंभीर और लगातार किए जाने वाले प्रयास प्रथम विश्व युद्ध के बाद शुरू हुए। राष्ट्र संघ का एक महत्वपूर्ण कार्य था राष्ट्रीय हथियारों की मात्रा घटकर उसे न्यूनतम स्तर पर ले आना, जो राष्ट्रीय सुरक्षा को देखते हुए उचित हो।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद निरस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियंत्रण को व्यापक तौर पर बढ़ावा मिला। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने अस्तित्व के प्रारंभ से ही निरस्त्रीकरण की दिशा में प्रयासरत रहा है। 26 जनवरी 1946 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा अणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई। फरवरी 1947 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के तहत सुरक्षा परिषद द्वारा परंपरागत हथियार आयोग की स्थापना की गई। सन 1952 में महासभा ने उपर्युक्त दोनों आयोगों को संयुक्त करके निःशस्त्रीकरण आयोग के नाम से एक नया आयोग बना दिया। आयोग को परंपरागत और परमाणु दोनों प्रकार के हथियारों के नियमन के संदर्भ में संधि के प्रारूप तैयार करने का दायित्व सौंपा गया लेकिन यह अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल नहीं रहा।

निःशस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियंत्रण की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण संधियां निम्नलिखित हैं, जिन्हें हम हिरोशिमा और नागासाकी के सबक के रूप में या शांतिपूर्ण विश्व के निर्माण के प्रयास के रूप में भी देख सकते हैं-

आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि या मास्को परीक्षण प्रतिबंध संधि(Partial Test Ban Treaty,1963) - इसे द्वितीय विश्व युद्धोत्तर विश्व में निःशस्त्रीकरण की पहली सफल संधि माना जा सकता है। इसके तीन मूल सदस्य थे- अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ। 1963 के बाद भारत सहित अनेक राष्ट्रों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किया। संधि को आंशिक इसलिए कहा गया क्योंकि इसके द्वारा भूमिगत परमाणु परीक्षणों को प्रतिबंधित नहीं किया गया था। यह संधि निःशस्त्रीकरण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम थी। इसलिए इसे निःशस्त्रीकरण के क्षेत्र में नए युग की शुरुआत के तौर पर भी देखा जाता है।

(परमाणु अस्त्र) अ-प्रसार संधि [(Nuclear Weapons) Non- Proliferation Treaty,1968]- परमाणु हथियारों के खतरे से विश्व को मुक्त करने की दिशा में परमाणु अस्त्र अप्रसार संधि को मील का पत्थर माना जाता है। 1 जुलाई, 1968 को परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किया गया और यह 5 मार्च, 1970 को प्रभाव में आयी। इस संधि के मुख्य प्रावधानों में से एक यह था कि हस्ताक्षरकर्त्ता राष्ट्र परमाणु ऊर्जा के विषय में किसी भी प्रकार की जानकारी गैर-परमाणु राष्ट्रों को नहीं देंगे और व ऐसे राष्ट्र को परमाणु हथियार भी नहीं देंगे। अमेरिका, सोवियत संघ और ब्रिटेन द्वारा संधि पर हस्ताक्षर करने के उपरांत अनेक गैर परमाणु राष्ट्रों ने संधि पर हस्ताक्षर किया लेकिन कई देशों समेत भारत ने इस संधि को भेदभावपूर्ण माना और हस्ताक्षर न करते हुए तर्क दिया कि इससे परमाणु और गैर-परमाणु राष्ट्रों के मध्य खाई चौड़ी होगी तथा गैर परमाणु राष्ट्र परमाणु राष्ट्रों पर निर्भर हो जाएंगे।

सामरिक अस्त्र परिसीमन संधि SALT-1 (Strategic Arms Limitations Treaty)- 70 के दशक के प्रारंभ से ही शीत युद्ध की दोनों महाशक्तियों के मध्य तनाव में शिथिलता का युग प्रारंभ हुआ। दोनों के मध्य सामरिक अस्त्र के परिसीमन पर भी वार्ता का दौर चला। इसी का परिणाम साल्ट-1 और साल्ट-2 की संधियां थी। साल्ट-1 पर 1972 में हस्ताक्षर किया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य दोनों महाशक्तियों के मध्य परमाणु अस्त्रों की होड़ को नियंत्रित करना था। अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा हस्ताक्षरित साल्ट-1 संधि की अवधि अक्टूबर, 1977 में समाप्त हो गई। दोनों महाशक्तियों ने इसके अनुबंधों का पालन किया और इसके साथ ही एक नए समझौते के लिए प्रयास जारी रखा। दीर्घकालीन वार्ता के पश्चात 1 जून, 1979 में दोनों महाशक्तियों के मध्य वियना में साल्ट-2 संधि पर हस्ताक्षर हुआ। संधि द्वारा आक्रामक सामरिक हथियारों को 31 दिसंबर, 1985 तक परिसीमित करने के संदर्भ में प्रावधान किए गये।

स्टार्ट-1 एवं स्टार्ट-2 (Strategic Arms Reduction Treaty-START)- नियंत्रण की जो प्रक्रिया साल्ट-1 से शुरू हुई और साल्ट-2 की असफलता से अवरोधित हुई। वह 1991 में नए सिरे से शुरू होती सी प्रतीत हुई। जब 31 जुलाई, 1991 को अमेरिका और सोवियत संघ ने ऐतिहासिक स्टार्ट- 1 संधि पर हस्ताक्षर करके अपने परमाणु हथियारों में लगभग 30% कटौती के लिए सहमति जताई। संधि की अवधि को 15 वर्ष रखा गया। 3 जनवरी, 1993 को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने एक और संधि पर हस्ताक्षर किया जिसे स्टार्ट-2 का नाम दिया गया। इस संधि के द्वारा अमेरिका के परमाणु आयुधों को 1960 तथा रूस के परमाणु आयुधों को 1970 के दशक के मध्य के स्तर पर लाने का प्रयास किया गया।

समग्र (परमाणु) परीक्षण प्रतिबंध संधि, 1996 (Comprehensive Test Ban Treaty -CTBT)- परमाणु निःशस्त्रीकरण की दिशा में यह नवीन प्रयास है। इस संधि का प्रारूप 1996 में नीदरलैंड के राजनयिक जैथ रेमेकर ने प्रस्तुत किया। जून, 1996 में जिनेवा में आयोजित निःशस्त्रीकरण सम्मेलन में इस संधि पर विचार-विमर्श हुआ। परंतु संधि के प्रारूप पर आम सहमति नहीं बन पायी। भारत सहित अन्य राष्ट्रों ने इसे विभेदकारी बताते हुए स्वीकार करने से इंकार कर दिया। भारत ने सीटीबीटी संधि के मसौदे पर गंभीर आपत्तियां दर्ज करायी। भारत का मानना है की यह संधि विभेदकारी है। यह विश्व को सीधे-सीधे दो भागों में बांटने का प्रयास है। भारत का मानना है कि परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की नीति से भारत पूरी तरह सहमत है किंतु इसे परमाणु हथियारों को समाप्त करने की प्रक्रिया से जोड़ा जाना चाहिए। संधि के प्रावधानों से यह स्पष्ट है कि परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र परमाणु अस्त्रों पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहते हैं और दूसरे देशों की भावी प्रतिस्पर्धा को समाप्त करना चाहते हैं।

उपरोक्त संधियों के अतिरिक्त निम्नलिखित महत्वपूर्ण पहल भी निःशस्त्रीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास हैं-

एबीएम संधि(Anti Ballistic Missile-Treaty-1972),

एमटीसीआर(Missile Technology Control Regime- 1987),

INFT (Intermediate Nuclear Force Treaty-1987),

जैविक हथियार आतंकवाद विरोधी अधिनियम-1990

सॉर्ट(Strategic Arms Reduction Treaty-2010)

परमाणु प्रसार को रोकने दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अंतर्राष्ट्रीय अणु ऊर्जा अभिकरण( International Atomic Energy Agency) की भी है। इसकी स्थापना 29 जुलाई, 1957 को की गई। इसका मुख्य उद्देश्य परमाणु ऊर्जा का प्रयोग शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए हो प्रेरित करना था। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करती है कि संधि के सदस्य अपने उन दायित्वों की पूर्ति करें जो संधि के तहत उन पर आरोपित हैं। यह अपनी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और महासभा दोनों को प्रेषित करती है। अभिकरण नागरिक परमाणु संस्थाओं का निरीक्षण करके देखता है कि जो विवरण दिया गया है उसका पालन किया जा रहा है कि नहीं। अभिकरण इस बात की भी जांच करता है कि नागरिक परमाणु प्रतिष्ठानों द्वारा यूरेनियम उतना ही संवर्धित किया जाए जितना कि नागरिक उपयोग के लिए आवश्यक है। यह इस बात की भी निगरानी करता है कि न्यूक्लियर रिएक्टरों से प्राप्त प्लूटोनियम का उतना शोधन न किया जाए कि उसका प्रयोग बम निर्माण के लिए किया जा सके।

कुछ विचारकों का मानना है कि निः शस्त्रीकरण एवं परमाणु अप्रसार के संबंध में शिक्षा भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान ने शिक्षा को शांति निर्माण(Peace Building) का नाम दिया। उन्होंने अपनी एक रिपोर्ट में निशस्त्रीकरण एवं परमाणु प्रसार के मसले पर नए चिंतन की जरूरत पर बल दिया। उनका मानना है कि पाठ्यक्रमों में परमाणु अप्रसार के विचार को शामिल करके आम जनमानस को भी जागरूक किया जा सकता है।

निष्कर्ष-

आज युद्ध का स्वरूप बदल चुका है। सिर्फ भौतिक नुकसान करके आप युद्ध नहीं जीत सकते हैं। विश्व व्यापार व्यवस्था ने भी युद्ध जैसी परिस्थितियों को परिवर्तित किया है। शीत युद्ध का शांतिपूर्ण समापन साबित करता है कि जब मनुष्य सही फैसले लेते हैं तो महाशक्तियों के टकराव को भी शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया जा सकता है।

हिरोशिमा और नागासाकी के सबक का ही असर है कि आज तक राष्ट्रों के मध्य युद्ध तो हुए लेकिन परमाणु बम का इस्तेमाल नहीं हुआ और आगे भी ऐसी उम्मीद है कि हिरोशिमा और नागासाकी की तरह कोई नया मानव निर्मित सूर्य मानवता को झुलसाने नहीं आएगा बल्कि दुनिया भर के लोग हर रोज वास्तविक सूर्य के प्रकाश में एक बेहतर दुनिया बनाने की दिशा में संघर्षरत रहेंगे…!

  विमल कुमार  

विमल कुमार, राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। अध्ययन-अध्यापन के साथ विमल विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में समसामयिक सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन और व्याख्यान के लिए चर्चित हैं। इनकी अभिरुचियाँ पढ़ना, लिखना और यात्राएं करना है।

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