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पर्यावरण अनुकूल जीवन शैली कैसी हो?

हम में से कई लोग रोज टहलने जाते हैं। बाज़ार के लिये निकले, किसी दोस्त से मिलने निकले या यूँ ही सेहत बनाने के लिए दौड़ पर निकले। नॉर्वे में हर दूसरा जंगलों या पहाड़ों में यूँ ही टहलता-दौड़ता दिख जाता है। स्वीडन और डेनमार्क में भी कमोबेश यही स्थिति है, डेनमार्क में साइकल-सवार अधिक दिख सकते हैं। इस जॉगिंग के साथ पिछले कुछ वर्षों में एक नया शब्द बना है- प्लॉगिंग (जॉगिंग + प्लक)। अब ये लोग अपने साथ एक झोला लिये चलते हैं, जिसमें रास्ते या जंगल में फेंकी कोई चिप्स का पैकेट या बीयर कैन भर लेते हैं। यह स्कैंडिनेविया की एक संस्कृति बनती जा रही है, जिसे भारत के रिपुदमन बेलवी जैसे लोगों ने भारत की भी संस्कृति बना दी। भारत के प्रधानमंत्री स्वयं एक समंदर तट से कचरा चुनते हुए लोगों को प्रेरित कर रहे थे। यह एक सरल माध्यम है जिससे अपनी सेहत के साथ-साथ पर्यावरण की देख-भाल हो जाती है। लेकिन, इस प्रथा को हमारे डीएनए में कैसे डाला जाए?

सच तो यह है कि भारत के डीएनए में यह पहले से मौजूद है। आज़ादी के पूर्व से ही प्रभात-फेरी जैसी चीजें होती रही हैं, जिसमें गाँव से लेकर नगर तक प्रतिदिन सुबह लोग सफाई करते हुए जागरुकता लाते थे। लेकिन, धीरे-धीरे यह फेरी कम दिखने लगी और राजनैतिक स्टंट तक सिमटती गई कि नेताजी ने एक दिन प्रभात-फेरी आयोजित कर फोटो-शूट कर लिया। इसे पुन: कैसे शुरू किया जाए, और कहाँ से शुरू किया जाए? इसका एक उदाहरण देता हूँ।

नॉर्वे के स्कूलों में एक प्रतियोगिता नियमित होती है, जिसमें बच्चे खाली बोतल आदि इकट्ठा करते हैं। यह कुछ उन दिनों की याद दिलाते हैं, जब भारतीय कस्बों में बोतल-रद्दी खरीदने फेरी वाले आते थे। बच्चे घूम-घूम कर मुहल्लों से ये बोतल इकट्ठा करते हैं। एक सरकारी नियम की तरह हर बोतल पर लिखा होता है कि उस कचरे का मूल्य क्या है। कचरे का भी आखिर मूल्य होता है। जैसे अगर आपने दस बोतल इकट्ठे कर लिये, तो उसे किसी भी ठीक-ठाक दुकान में लगे ‘किओस्क’ मशीन में डाल दें तो आपको मूल्य मिल जाएगा। चाहें तो आप उस रकम से कुछ भोजन या कोई सामान खरीद लें, या एक व्यवस्था है कि आप लॉटरी टिकट खरीद लें। किस्मत रही तो आपको उस कचरे से शायद एक लाख की लॉटरी लग जाए! स्कूलों में नियम यह है कि कचरे से कमाया गया सारा धन इकट्ठा कर चैरिटी में डाला जाता है। इस प्रथा का उद्देश्य यह है कि बच्चे बचपन से ही यह समझ जाएँ कि दुनिया में कचरा कुछ नहीं होता, हर चीज का मूल्य है। हर चीज पुन: रिसाइकल हो सकती है, अथवा उसको एक नियत स्थान दिया जा सकता है।

यह जान कर ताज्जुब हो सकता है कि नॉर्वे और स्वीडन जैसे ठंडे प्रदेश दूसरे देशों से कचरा आयात भी करते हैं, जिसे जला कर ऊर्जा उत्पन्न की जाती है। यह ‘इको-फ्रेंडली’ ईंधन कहलाता है। अगर भारत ऐसा कोई करार कर ले, तो कचरा निर्यात कर इन देशों से अच्छा-खासा कमा सकता है। मेरे ख्याल से इन छोटे देशों के लिए तो दिल्ली का एक ग़ाज़ीपुर डम्प ही काफ़ी होगा। इसलिये, यह बात पुन: कहूँगा कि कचरा मूल्यवान है।

इसी कड़ी में नॉर्वे के लोकप्रिय बाज़ारों की भी बात कर दूँ। ये बाज़ार हैं पुराने सामानों के बाज़ार, जिसे भारत में चोर-बाज़ार या कबाड़ी बाज़ार भी कहते हैं। यहाँ यह आम है कि कोई भी व्यक्ति अपने घर एक ‘गैरेज-सेल’ लगाता है। वहाँ वह बच्चों के पुराने कपड़े, जूते, किचेन के प्लेट, पुरानी गाड़ी के पार्ट, फर्नीचर आदि बेचते दिख जाएँगे। इसे बुरा नहीं माना जाता, बल्कि अच्छी गाड़ियों में सफर कर रहे लोग अपनी गाड़ी पार्क कर इन बाज़ारों से चीजें उठाते हैं। मेरा निजी अनुभव यह है कि इससे बेहतर बाज़ार कोई नहीं। कई किताबें, कई अच्छे फर्नीचर, कई ऐन्टीक सामान, खेल के उपकरण, बड़े सस्ते दामों पर मिल जाते हैं। इसका लाभ यह है कि सामान फेंकने से बेहतर ज़रूरतमंद को मिल जाती है। आपके लिये जो अब कचरा है, वह किसी और के लिए काम की चीज बन जाती है।

कोई यह पूछ सकते हैं कि भोजन तो फेंकना ही होगा। वह तो एक नियत समय तक ही ताज़ा रहता है। मसलन सिर्फ़ नॉर्वे में साठ हज़ार केले रोज कचरे में जाते हैं, क्योंकि वे ताज़ा नहीं रहे। डेनमार्क के कुछ युवाओं ने मिल कर एक ऐप बनाया ‘टू गुड टु गो’। यह अब भारत भी पहुँच चुका है। अगर आपके पास यह ऐप है तो आप मुफ्त या बहुत कम दाम पर एक फ़ाइव-स्टार होटल का बना भोजन खा सकते हैं। दरअसल ये होटल रोज अपना बचा हुआ भोजन कचरे में डालते हैं, जिसे इस ऐप के वोलंटियर उठा लेते हैं, और ऐप पर डाल देते हैं। वे होटल से मुफ्त में उठा कर ज़रूरतमंदों तक पहुँचा देते हैं। यहाँ तक कि अगर घरों में खाना बच गया हो, तो ये घर पर आकर ले जाते हैं। उसके बाद भी अगर बच गया तो वे किसी बेघर के पास पहुँचाने की चेष्टा करते हैं।

दुनिया अब उस सीढ़ी पर है कि लोग मोबाइल हर साल बदल लेते हैं, तो ऐसी योजनाएँ अत्यावश्यक है। अन्यथा हम कचरे के ढेर पर बैठेंगे या उसी ढेर में घुट जाएँगे। दुनिया के कई देश अब उस राह पर हैं कि पेट्रोल-डीज़ल की गाड़ियाँ घटाई जाए। मेरे शहर में अब विद्युत-चालित बस चल रहे हैं, हालाँकि वह भी हल नहीं है। बिजली के लिये भी ईंधन चाहिए ही, भले बैट्री हो। मैंने नीदरलैंड और डेनमार्क में बहुमंजिली साइकल-पार्किंग देखी। हर ट्रेन स्टेशन पर। हालात यह थे कि जो थोड़ा-बहुत भी स्वस्थ है, वह साइकल पर ही है। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री साइकल से ऑफिस निकलते दिख सकते हैं। अब तो ऐसे एक्सप्रेस-वे तैयार हो रहे हैं, जिस पर सिर्फ़ साइकल ही चलेगी। नीदरलैंड के उत्रेख्त में मैंने देखा कि मुख्य सड़क का आधा हिस्सा साइकल-सवारों के लिए आरक्षित था, और गाड़ियाँ एक लेन में दुबकी पड़ी थी। अगर लोग इस तरह बीस-तीस किलोमीटर प्रतिदिन साइकल चला लें, तो पर्यावरण के साथ-साथ वे स्वयं कितने स्वस्थ हो जाएँगे! फिर प्रदूषण रोकने के ऊट-पटांग तरीके अपनाने की ज़रूरत तो नहीं ही होगी।

[प्रवीण झा]

(प्रवीण झा नॉर्वे में डॉक्टर हैं तथा लोकप्रिय पुस्तक ‘कुली लाइंस’ के लेखक हैं।)

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