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बीहड़ के बीच धरोहर : धौलावीरा का यात्रा वृत्तांत

क्या है धौलावीरा का अर्थ ?

दिल्ली का धौलाकुआँ और कच्छ का धौलावीरा के नाम में समानता है। अर्थ में भी है। कच्छी भाषा में वीरा का अर्थ कुआँ होता है और धोला का अर्थ सफ़ेद अर्थात् सफ़ेद कुआँ। कहते हैं दिल्ली के धौला कुआँ से सफ़ेद रंग का पानी निकलता था इसलिए इसे धौला कुआँ कहा गया और कच्छ के धौलावीरा  के कुएँ में पानी नहीं था बल्कि सफ़ेद नमकीन रेत भरी थी इसलिए इसलिए धौलावीरा यानी सूखा कुआँ कहा गया। शायद दोनों के इतिहास में भी हो। मगर दिल्ली को हम महाभारत के पौराणिक काल से पीछे नहीं ले जा सकते। लेकिन कच्छ के धौलावीरा में जो अवशेष मिले हैं, वे इसे इतिहास से भी पीछे ले जाते हैं। यह धौलावीरा  ईसा से 3000 साल पीछे की सभ्यता है। इसकी पुष्टि होने पर ही यूनेस्को ने 27 जुलाई 2021 को इसे विश्व धरोहर मान लिया है। इससे भारत विश्व के अब उन सात मुल्कों में हो गया है जिनके पास 40 या उससे अधिक धरोहर हैं। इटली, चीन, फ़्रांस, स्पेन और जर्मनी के क्लब में भारत भी पहुँच गया है।

धौलावीरा  का महत्त्व अभी तक कुछ प्राच्य इतिहास के शोधार्थी,  पुरातत्त्वविद या एएसआई के अधिकारी ही जानते थे अथवा कुछ पर्यटक किंतु अब इसका महत्त्व आम लोग भी समझने लगे हैं। इसलिए हो सकता अब धौलावीरा  के खंडहरों के आसपास रहने और भोजन का इंतज़ाम हो जाए। मैं जब 2020 की जनवरी के पहले हफ़्ते में यहाँ गया था, तब दूर-दूर तक सिवाय निर्जन और सूनसान रेतीले मैदानों, कँटीली झाड़ियों तथा कुछ पहाड़ियों के अतिरिक्त कुछ नहीं था। खंडहरों से दो किमी पहले स्थित धौलावीरा  में एक रिजॉर्ट नुमा होटल ज़रूर था जो ज़रूरत से कहीं ज़्यादा महँगा और बहुत सीमित जगह में बना हुआ था। संयोग था कि मेरा इन खंडहरों के बीच बने एएसआई के गेस्ट हाउस में रहने का इंतज़ाम हो गया। लेकिन इस गेस्ट हाउस में न तो बिजली थी, न पानी और न ही भोजन का कोई इंतज़ाम। वह शायद इसलिए भी क्योंकि 1861 से आज तक एएसआई (भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण संस्थान) के पास फंड की क़िल्लत सदैव रही है। इसलिए शोध करते रहो सुविधाएँ मत माँगो। मालूम हो कि एएसआई की स्थापना 1861 में हुई थी और एलग्जेंडर कनिंगहम इसके पहले डायरेक्टर जनरल बने थे।

एक अज्ञात बस्ती की यात्रा

धौलावीरा  के खंडहर सिंधुक़ालीन सभ्यता के अवशेष बताए गए हैं और हड़प्पा, मोअनजोदड़ो, राखीगढ़ी और गनवेरीवाला के बाद आकार के हिसाब से यह पाँचवें नंबर पर है। इनमें से हड़प्पा, मोअनजोदड़ो और गनवेरीवाला अब पाकिस्तान के भू-भाग में है। लेकिन धौलावीरा  की ख़ासियत इस नगर की सुनियोजित बनावट और बसावट है। यहाँ खुदाई से जो अवशेष मिले हैं उनसे इस शहर के त्रिस्तरीय होने का पता चला है। सबसे ऊपर दुर्ग क्षेत्र है, जो आवासीय क्षेत्र के दक्षिण पूर्वी भाग में है। एक तरफ़ राज प्रासाद और दूसरी तरफ़ उप प्रासाद जो कुलीन वर्गों के लिए हैं। फिर मध्य नगर है और इसके बाद अवम नगर है। इस तरह समाज में एक वर्ग विभाजन स्पष्ट दीखता है।

इस धौलावीरा  पहुँचने की मेरी कहानी भी मज़ेदार है। दरअसल पहली जनवरी 2020 को मैं अपने परिवार के साथ गुजरात यात्रा पर गया था। गिर, दीव, सोमनाथ, पोरबंदर और द्वारिका तथा कच्छ। द्वारिका में मंदिर एएसआई के अधीन है। वहाँ पर एएसआई के जो प्रमुख थे उन्होंने मुझसे पूछा कि अब कहाँ जाएँगे? तो मैंने कहा भुज जा कर व्हाइट रन देखूँगा। उन्होंने कहा बहुत लंबा सफ़र है। मेरी मानिए तो आप धौलावीरा  जाइए। वहाँ पर आपको व्हाइट रन मिलेगा और खूब शांति भी। यहाँ से भुज की अपेक्षा कम दूरी पर है तथा कम खर्चीला भी। हम चल पड़े उस अज्ञात बस्ती की तरफ, जहाँ खुदाई में मिली न तो लिपि पढ़ी जा सकी है, न उस बस्ती में रहने वालों की पहचान जग-जाहिर हुई है। कहते हैं कि ईसा से दो हज़ार से तीन हज़ार वर्ष पहले यह बस्ती थी। पर उसका नाम भी किसी को नहीं पता। धौलावीरा  तो उसका आज का नाम है, जो समीप के एक गाँव के नाम पर पड़ा। धोला यानी सफ़ेद और वीरा मतलब कुआँ, ऐसा कुआँ जो सूखा है और सफ़ेद है।

अचानक हमारी गाड़ी सड़क की ढलान पर उतरी, मानों कुएँ में घुस गई हो, और जब निकली तब तक घुप्प से सूरज रसातल में चला गया था। नेटवर्क ठप्प! अब शेष दुनिया से हम कट चुके थे और इस लम्बे रास्ते में कोई मदद नहीं मिलने वाली थी, ऊपर से पौष के अमावस की रात। अँधेरे में हम तीर की तरह बढ़े जा रहे थे। हेड लाईट की रौशनी में बस दूर-दूर तक फैला मैदान ही दीखता। न कोई आगे गाड़ी न पीछे और सड़क सकरी। रापड़ से लगभग 40 किमी की तय करने के बाद दोनों तरफ सफ़ेद मैदान चमकने लगे थे। जिनकी सीमा नहीं दिख रही थी। हमने गाड़ी रुकवाई और हेड लाईट ऑफ करवा दी। किंतु अमावस की घोर काली रात में वह सफ़ेद धरती और चमक रही थी। आसमान में सितारे और नीचे सफेदी का समंदर। हम एकबारगी तो प्रकृति की इस मोहक, मगर मारक अदा की गिरफ्त में आ गए, और दूर तक उस सफ़ेद समंदर में दौड़ कर घुस गए। पैर धसने लगे तथा भुरभुरी ज़मीन फूटने लगी। कुछ दूरी पर काले-काले जानवर खड़े दीखने लगे। ऐसा लगा वे जीभ लपलपाए हमारी तरफ बढ़ रहे हैं। अचानक मुझे ख्याल आया कि रेगिस्तान में साँप-बिच्छू बहुत होते हैं, और जहरीले भी। मैं जोर से चीखा वापस लौटो। लेकिन हमारे पैर जैसे मन भर के हो गए हों, चला नहीं जा रहा था। ऊपर से वे जानवर और नजदीक आते जान पड़ रहे थे। हमें ईश्वर का ख्याल आया, पर क़दम बढ़ ही नहीं पा रहे थे। 

गाड़ी पर आकर हेड लाइट ऑन की गई तो पता चला कि वे काले-काले कहीं नहीं हैं। वे तो दरअसल काले ड्रम रखे हुए थे तथा लाल रंग से निशान लगाए गए थे। मुझे हँसी छूट गई और हम आगे की तरफ़ चल दिए। कच्छ के सफ़ेद रन में अंधेरे के सन्नाटे को चीरती हुई हमारी गाड़ी नमक के समंदर के बीच से गुजरी पतली-सी डामर रोड को पार कर आखिर रात आठ बजे एक गाँव दिखा। वहाँ कुछ लोग थे। उनसे पूछा कि धौलावीरा  कितनी दूर है? उन्होंने बताया कि धौलावीरा  गाँव यही है। हमने उनसे धौलावीरा  की खुदाई स्थल के बारे में पूछा तो बताया गया कि थोड़ा आगे है। हम चल दिए। गाँव के बाहर एक रिजॉर्ट था, वहाँ लाइट थी। थोड़ा और आगे बढ़े तो पत्थरों से बनी एक प्राचीर के पास जाकर जब रुकी। यहाँ से सड़क ख़त्म हो जाती थी। घुप्प अंधेरा था। कुछ देर बाद दो लोग मेरे समीप आए। एक सज्जन बोले- शुक्ला जी? मैंने कहा- जी, आप जयमल भाई हो? बोले- हाँ! और गले से लग गए।

नमक के रन में क्यों बसे होंगे लोग ?

जयमल भाई पिछले 28 वर्षों से इस खंडहर की रखवाली कर रहे थे। एक टीले की खुदाई के वक़्त से लेकर आज 60 एकड़ में फैले धौलावीरा  के खंडहर का एक-एक पत्थर जयमल भाई का दोस्त है। वे पूरा दिन और कभी-कभी रात को भी इस प्राचीर के अंदर जा कर 5000 साल से अधिक पहले की इस सभ्यता से रूबरू होते हैं। उसे जितना ही जानने का वे प्रयत्न करते हैं, उतना ही उसमें डूबते जाते हैं। कहते हैं कि यहाँ का हर पत्थर उनसे बात करता है। यह पूरा इलाका भारतीय पुरातत्त्व विभाग की देख-रेख में है।

धौलावीरा  के अवशेषों के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। मेरे समय कोर्स में बस मोअनजोदड़ो तथा हड़प्पा को ही पढ़ाया गया था। लेकिन सीबीएसई की आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले मेरे नाती ने बताया कि उसे धौलावीरा  के बारे में पढ़ाया जाता है। यह इंडस वैली सिविलिजेशन (सिंधु घाटी सभ्यता) है, जो मोअनजोदड़ो के बाद डेवलप हुई। इसके बारे में कहा गया है कि यह 2000 से 3000 ईसा पूर्व की सभ्यता है। मुझे लगा कि यदि ऐसा है, तो इसका मतलब कि आर्य सभ्यता के पहले यह विकसित हुई होगी। कहाँ से आए होंगे, यहाँ बसे लोग? मनुष्य तो लगातार इधर से उधर घूमता ही रहा है। और कहाँ विलुप्त हो गए ये लोग? यही सोचते-सोचते हम लोग वापस लौट आए। जयमल भाई ने हाल के अंदर डाइनिंग टेबल पर डिनर जमा दिया। प्योर कच्छी भोजन। लेकिन मैंने तो सिर्फ खिचड़ी और कढ़ी ही खाई। भोजन के बाद हम फिर लान में आ कर बैठ गए।

घुप्प अंधेरा था। बहुत दिनों बाद ऐसा आसमान देखा, जिसका एक-एक तारा साफ दिख रहा था। सप्तऋषि भी और ध्रुवतारा भी। मैंने बच्चों को ये तारे दिखाए। गेस्ट हाउस एक गोलाकार मैदान में बना था, जिसके चारो तरफ चार फुट ऊंची पत्थर की दीवार थी। यह दीवार बीच-बीच में टूटी भी थी। यहाँ कोई हिंसक जानवर तो नहीं था, लेकिन भेड़िये आ जाते थे। उनकी सूचना देने के लिए कई कुत्ते गेस्ट हाउस में पले थे। चोरी का कोई खतरा नहीं था, लेकिन एक तो कमरों के बाहर की ज़मीन ऊबड़-खाबड़ थी, दूसरे साँप-बिच्छू को तो कोई रोक-टोक नहीं थी। जयमल भाई हमें बताने लगे कि यहाँ खुदाई कई बार हुई, आखिरी बार डॉ. आरएस बिष्ट ने कराई थी, और मैं उनके साथ रहा। यह बात 1989-90 की है। यहाँ जो अवशेष मिले हैं, उनसे यह तो लगता ही है कि यहाँ की सभ्यता बहुत उन्नत रही होगी। पर इससे ज्यादा वे नहीं बता सके। यह तय हुआ कि अगले रोज़ हम इन अवशेषों को देखने चलेंगे।

जयमल भाई के जाने के बाद सब लोग सोने चले गए। मैं वहीं बैठा सोचता रहा कि कैसी रही होगी, वह सभ्यता? आज का हौज़ देख कर यह एहसास तो हो ही गया कि उस समय लोगों को जल संरक्षण का ज्ञान तो रहा ही होगा, वर्ना इस इलाके में जहां नमक का रन है, लोग क्यों कर बसे होंगे? यह भी हो सकता है कि इस रेगिस्तान में मीठे पानी का स्रोत रहा हो। क्योंकि सभ्यता का विकास वहीं हो पाएगा, जहां पानी हो और लोगों को आग को संरक्षित करने का ज्ञान हो। इन दोनों चीजों के बगैर कोई सभ्यता विकसित नहीं हो सकती। मुझे प्रतीत होने लगा कि ये पत्थर उसी समय के हैं और मुझे बता रहे हैं कि प्रकृति की क्रूरता से कैसे हम उजड़ गए। अचानक किसी कुत्ते के रोने की आवाज़ आई, मुझे लग गया कि यह भेड़िये के बाबत चेतावनी देने की काल है। घड़ी देखी, बारह बज़ रहे थे। मैं उठ कर कमरे में आ गया।

लेकिन पूरी रात मुझे नींद नहीं आई। बार-बार लगे कि कोई फुसफुसा कर मुझे बुला रहा है, टॉर्च जलाओ तो कहीं कोई नहीं। एकाध बार पलक झपकी तो लगा कि मेरा कमरा कोई हिला रहा है। पर पलक खुली तो सब गायब। यह सब कोई मेरे मन का भ्रम नहीं, दरअसल मैं खुद इस सिंधु घाटी की कल्पनाओं में इतना गुम हो गया कि मुझे वह सभ्यता साक्षात दिखने लगी। मुझे बेकरारी से इंतज़ार था सुबह का। जयमल भाई कह गए थे, कि सुबह पौने सात पर हम यहाँ से आठ किमी दूर फासिल जाएंगे, वहाँ से सूर्योदय देखेंगे। और दूर-दूर तक फैले व्हाइट रन को देखेंगे तथा लाखों वर्ष से पड़े उल्का-पिंडों को भी। जयमल भाई ने यह भी बताया कि बीएसएफ की आखिरी पोस्ट भी कुछ ही दूरी पर है, उसके आगे रन और इस रन के बीच से ही पाकिस्तान का बार्डर। इसलिए इंतज़ार था, तो बस सुबह का।

प्रकृति की भी अजीब लीला है। वह जहाँ जितनी अनुदार होती है, वहां बसे लोग उतने ही परिश्रमी और दृढ-निश्चयी होते हैं। वे प्रकृति के अनुरूप अपने को ढाल लेते हैं। और यह सब ऐसे ही स्थानों पर आकार पता चलता है। इतने कष्टप्रद स्थान पर दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक सिंधु-सभ्यता विकसित हुई। धौलावीरा शब्द का शाब्दिक अर्थ है- धौला यानी सफ़ेद और वीरा अर्थात कुआं। अर्थात सफ़ेद नमक का कुआं। यह वह जगह है जहाँ सैकड़ों मील तक सिर्फ नमक ही नमक है। दूर-दूर तक हरियाली नहीं, यहाँ तक कि हिंसक थलचर भी नहीं दिखते। जहाँ तक नज़र जाती है, बस सफ़ेद परती धरती। यहाँ कुओं में इतना खारा पानी है, जैसे वहां भी नमक घोल दिया गया हो। फिर भी मनुष्य यहाँ है, और हैं उसके चिर-कालीन संगी कुत्ते। कुत्ता ही मनुष्य का वह साथी है, जो धर्मराज युधिष्ठिर के साथ सुमेर पर्वत की हर बाधा को पार करते हुए, सशरीर उनके साथ स्वर्ग तक गया था। जबकि उनकी स्त्री, चारों भाई एक-एक कर साथ छोड़ते गए। कुत्ते के अलावा जो जीव यहाँ मौजूद हैं, वे हैं धरती के भीतर बसने वाले बिच्छू, साँप, चूहे, कछुए और अन्य रेप्टाइल. अक्सर धरती यहाँ धक-धक करने लगती है, तो ये सारे जीव बिलबिला कर बाहर आ जाते हैं। और तब परस्पर सहमति से एक-दूसरे के अस्त्तित्त्व को स्वीकार करते हैं।

खुद जयमल भाई इसके एक उदाहरण हैं। वे पुरातत्त्व-विद नहीं हैं, न ही उन्होंने इतिहास पढ़ा, न ही अँग्रेजी, हिन्दी आदि आधुनिक भाषाएँ। वे ठेठ देहाती हैं। उनका गाँव धौलावीरा  है। 1989 में जब इस स्थान की खुदाई शुरू हुई तब, उनकी उम्र अधिक नहीं थी। और कच्छियों जैसी सहजता के साथ वे यहाँ उस टीले की खुदाई देखने लगा, जिसके भीतर कुछ था, पर क्या था, यह पता नहीं। पुरातत्त्व-विद डॉ. आरएस बिष्ट और डॉ. यदुवीर सिंह रावत, यहाँ पर खुदाई करवा रहे थे। दोनों ही उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र (मौजूदा उत्तराखंड) के मूल निवासी हैं, और क्रमशः लखनऊ विश्वविद्यालय तथा गढ़वाल विश्वविद्यालय में पढ़े हैं। इनकी संगत में जयमल भाई भी यहाँ मज़दूरी करने लगे। वे भले कोई पुरातत्त्व के मर्मज्ञ नहीं हों, मगर वे खुदाई में ऐसे रम गए, कि हर पत्थर उनसे बतियाने लगा। वे बताते हैं कि फावड़ा चलाते ही पत्थर उन्हें बता देता था, कि हौले से जयमल भाई! यहाँ पाँच हज़ार साल पुराना खजाना है। और इसी बूते वे पत्थरों को खोद कर टेराकोटा के भाँड तथा प्रतिमाएँ निकाल सके। यह जमाल भाई की लगन थी।

ऐसे नायाब जयमल भाई ने हमें बताया कि वे रन में मीलों दौड़े हैं पर इसका छोर पता नहीं कर सके। यह रन बरसात में दलदली हो जाता है और गर्मी में सूखा। तब यहाँ इस नमकीन रेत के थपेड़े उड़ते हैं, लेकिन सर्दी में यहाँ बड़ा सुहाना हो जाता है।

आज जब इस साइट को विश्व धरोहर में शामिल कर लिया गया है, तो पुरातत्त्वविदों के चेहरे खिल गए हैं। जो लोग दिन-रात यहाँ लगे रहे उन विशेषज्ञों को लगता है, उनका श्रम सार्थक हुआ। ये प्राचीन सभ्यताएँ कोई मिथक नहीं बल्कि हक़ीक़त हैं। इनका पता चलने से प्राचीन इतिहास के वे बंद पट खुलने लगते हैं जिनके बंद रहने से हम अंधेरे में कल्पना के घोड़े दौड़ाते हैं और हमारे हाथ कुछ अविश्वसनीय कहानियाँ ही लगती हैं, जिनका कोई ओर-छोर नहीं होता। लेकिन जब वे पट खुलते हैं तब इतिहास की कड़ियाँ जुड़ने लगती हैं।

[शंभूनाथ शुक्ल]

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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