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<p style="text-align: justify;">तुर्की की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहाँ लगातार भूकंप आते रहते हैं। 2011 में यहाँ भूकंप में लगभग 600 से ज्यादा लोग मारे गए थे वहीं 1999 में आए भूकंप में लगभग 17 हजार से अधिक लोग मारे गए थे।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>तुर्की में भूकंप की बारंबारता के कारण</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भूकंप के लिहाज़ से तुर्की दुनिया के सबसे अधिक संवेदनशील इलाक़ों में आता है। भूगोल के दृष्टिकोण से देखें तो तुर्की का अधिकांश हिस्सा अनाटोलियन प्लेट पर स्थित है। इसी प्लेट के पूर्वी दिशा में पूर्वी अनाटोलियन फाॅल्ट है, जबकि प्लेट की बाईं दिशा में ट्रांसफाॅर्म फाॅल्ट स्थित है जो कि अरेबियन प्लेट के साथ संबद्ध होता है। इसके दक्षिण और दक्षिण-पश्चिमी दिशा में अफ्रीकन प्लेट स्थित है तो उत्तर की ओर यूरेशियन प्लेट है जिसका जुड़ाव उत्तरी अनाटोलियन फाॅल्ट जोन से है। अनाटोलियन टेक्टोनिक प्लेट घड़ी के विपरीत दिशा में घूम रही है जिसपर अरेबियन प्लेट के दबाव देने पर यह यूरेशियन प्लेट से टकरा जाती है और फिर भूकंप के तेज झटके उत्पन्न होते हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंप क्या है?</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">साधारण शब्दों में भूकंप का अर्थ पृथ्वी के कंपन से है। पृथ्वी के अंतर्जात तथा बहिर्जात बलों के कारण ऊर्जा निकलती है जिससे तरंगें पैदा होती हैं जो हर दिशा में फैलकर कंपन पैदा करती हैं। यही कंपन भूकंप कहलाता है। भूकंपीय तरंगों के उत्पन्न होने के स्थान को भूकंप मूल तथा जिस स्थान पर सबसे पहले इन तरंगों का अनुभव होता है उसे भूकंप केंद्र कहते हैं। भूकंप केंद्र, भूकंप मूल के ठीक ऊपर होता है।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंपीय तरंगें</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;"><strong>मूलत: भूकंपीय तरंगें दो प्रकार की होती हैं, भूगर्भिक तरंगें एवं धरातलीय तरंगें।</strong></p>
<p style="text-align: justify;">भूगर्भिक तरंगें उद्गम केंद्र से ऊर्जा के मुक्त होने के दौरान उत्पन्न होती हैं तथा ये पृथ्वी के आंतरिक हिस्सों से होकर सभी दिशाओं में आगे बढ़ती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं..</p>
<p style="text-align: justify;">1. <strong>P तरंगें-</strong> ये तीव्र गति से चलकर धरातल पर सबसे पहले पहुँचती हैं। इन्हें प्राथमिक तरंगें भी कहते हैं जो ध्वनि तरंगों जैसी होती हैं। ये ठोस, दृव व गैस तीनों माध्यमों से गुजर सकती हैं।<br />2. <strong>S तरंगें-</strong> ये धरातल पर कुछ समय बाद पहुँचती हैं तथा द्वितीयक तरंगें कहलाती हैं। ये केवल ठोस माध्यमों में ही चल सकती हैं। ये तरंगें सबसे ज्यादा विनाशकारी होती हैं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>धरातलीय तरंगें-</strong> भूगर्भिक तरंगों एवं धरातलीय शैलों के बीच अन्योन्य क्रिया के कारण उत्पन्न तरंगों को धरातलीय तरंग कहा जाता है। ये तरंगें धरातल के साथ-साथ चलती हैं। इन्हें L तरंगें भी कहते हैं तथा ये भी अत्यंत विनाशकारी होती हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंप के प्रकार</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">1. अधिकांश भूकंप विवर्तनिक भूकंप होते हैं जो कि भ्रंशतल के किनारे चट्टानों के खिसकने की वजह से उत्पन्न होते हैं।<br />2. ज्वालामुखीजन्य भूकंप सक्रिय ज्वालामुखी क्षेत्रों तक ही सीमित रहते हैं।<br />3. नियात भूकंप भूमिगत खानों की छतों के ढह जाने के कारण उत्पन्न होते हैं। इनमें बेहद हल्के झटके महसूस होते हैं।<br />4. बड़े विस्फोटों से भी भूकंप के झटके महसूस हो सकते हैं। इन्हें विस्फोट भूकंप कहते हैं।<br />5. बड़े बांध वाले क्षेत्रों में बांध जनित भूकंप उत्पन्न होते हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>रिक्टर स्केल</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भूकंपीय घटनाओं का मापन आघात की तीव्रता के आधार पर किया जाता है। यह तीव्रता भूकंप के दौरान ऊर्जा के मुक्त होने से संबंधित है। इसे रिक्टर स्केल पर मापा जाता है। इसमें भूकंप की तीव्रता 0-10 तक होती है। भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 5 से अधिक होने पर इसके अत्यंत विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। तुर्की में इसकी तीव्रता 7.5 से भी अधिक थी। रिक्टर स्केल पर 8 से ज्यादा तीव्रता वाले भूकंप के आने की संभावना बहुत कम होती है। जबकि हल्के भूकंप लगभग हर मिनट पृथ्वी के किसी न किसी भाग में आते रहते हैं। तीव्र झटके अक्सर भ्रंस के निकटवर्ती क्षेत्रों में आते हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंपों के प्रभाव</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भूकंप अक्सर विनाशकारी प्रभाव वाले सिद्ध होते हैं, इनके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं:</p>
<p style="text-align: justify;">1. भूकंप भूस्खलन को बढ़ावा दे सकते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन बड़ी तबाही को जन्म दे सकते हैं। इसके साथ ही इससे हिमस्खलन का भी खतरा पैदा हो सकता है।<br />2. भूकंप के कारण बड़े बांध टूट सकते हैं जिससे बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो सकता है। सुनामी जैसी त्रासदियों के लिए भी भूकंपों को ही उत्तरदायी कारक माना जाता है। भारत, जापान, श्रीलंका जैसे कई देशों में भूकंपों से उत्पन्न सुनामी का विनाशकारी प्रभाव देखा जा चुका है।<br />3. भूकंप आधारभूत ढांचो को पूरी तरह से नष्ट कर सकते हैं, ये इमारतों, आवासीय क्षेत्रों, सड़कों, रेल की पटरियों, पुलों इत्यादि को बर्बाद कर सकता है। हालिया तुर्की के भूकंप के साथ ही हम नेपाल, जापान, तथा भारत के कई हिस्सों में आए भूकंपों में इसे देख सकते हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंप से बचाव कैसे करें?</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">वर्तमान में भूकंप आने का पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता। फिर भी कुछ उपायों को अपनाकर इससे होने वाली जनहानि को कम किया जा सकता है।</p>
<p style="text-align: justify;">1. भवन निर्माण में भूकंपरोधी तकनीक का प्रयोग करें ताकि हल्के झटकों में घर सुरक्षित रहे।<br />2. घर के अंदर होने की दशा में भूकंप आने पर किसी मजबूत मेज या बेड के नीचे शरण लें तथा साथ में आपातकालीन किट को रखें।<br />3. खुले क्षेत्रों में रहने पर पेड़ों, खंभों, पुलों, इमारतों इत्यादि से दूर रहें।<br />4. चलते वाहन में होने पर वाहन को रोककर उसमें अंदर बैठे रहें तथा उसे पेड़ों, इमारतों, तारों, इत्यादि से दूर रखें।<br />5. आपातकालीन नंबरों को याद रखें तथा जरूरत पड़ने पर उनसे तुरंत संपर्क करें।</p>
<p style="text-align: justify;">भूकंप का भले ही पूर्वानुमान न लगाया जा सकता हो तथा इसे रोका भी नहीं जा सकता हो पर उपरोक्त उपायों को अपनाकर हम इसके प्रभाव को कम अवश्य कर सकते हैं।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
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<td style="width: 80%;">
<h3><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> अमित सिंह </span></strong></h3>
<p>अमित सिंह उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले से हैं। उन्होंने अपनी पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की है। वर्तमान में वे दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे हैं।</p>
</td>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">वर्तमान समय में विज्ञापन बाजार की दुनिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। एक आंकड़े के अनुसार औसत व्यक्ति प्रतिदिन 280 से 310 विज्ञापन देखता है। विज्ञापन लोगों को सूचना, उत्पादों आदि के बारे में जागरूक करने का एक शानदार तरीका है। लेकिन वर्तमान समय में प्रसारित विज्ञापन समाज के लिए समस्या का कारण भी हो गया है। सभी ने उन विज्ञापनों को देखा है जहां विज्ञापनदाता उपभोक्ता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि एक उत्पाद आपके जीवन को पांच गुना बेहतर बना देगा और जब तक वे उत्पाद नहीं खरीद लेते तब तक उनका जीवन बेहतर नहीं होगा। विज्ञापनदाता का इरादा आपके दिमाग में घुसने की कोशिश करना और आपके विचारों और निर्णयों को प्रभावित करना है। कार, बीमा, दवा, पेय और राजनीतिक विज्ञापन जैसे विज्ञापन अक्सर उपभोक्ता को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। विज्ञापन अपने मजबूत प्रभाव के कारण समाज के लिए हानिकारक है। विज्ञापन हमें यह महसूस कराते हैं कि हम जितने अच्छे हैं वास्तव में उतने अच्छे नहीं हैं। अपना सामान बेचने के लिए विज्ञापन पहले आपको ऐसा महसूस कराते हैं कि आप इस प्रोडक्ट बिना अधूरे हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">अगर संक्षेप में कहें, विज्ञापन आपकी खुशी का वादा करते हैं, बशर्ते कि आप बदले में पैसा खर्च करें। इसका परिणाम होता है गैर जरूरी चीजों का उपभोग करना और अनावश्यक कचरे के उत्पादन का समर्थन करना जो हमारे ग्रह को प्रदूषित कर रहा है। बाजार में अधिक से अधिक अपनी लोकप्रियता बढ़ाने, अपनी साख बनाने, अपने उत्पाद को अन्य उत्पादों की तुलना में बेहतर साबित करने तथा अधिक से अधिक समय तक मार्केट में बने रहने के लिए विज्ञापन का प्रयोग एक सशक्त हथियार के रूप में होता है। वास्तव में विज्ञापन ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पाठक अथवा दर्शक के मन को प्रभावित करते हुए उसके दिल में अपने उत्पाद के प्रति सकारात्मक भाव उत्पन्न करने के सभी कंपनियों द्वारा हर मुमकिन कोशिश की जाती है। विज्ञापनों से हमारे समाज और संस्कृति को लक्षित किया जाता है। चूँकि विज्ञापन का समाज व संस्कृति पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। संचार के सभी माध्यमों में वह चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, विज्ञापन एक अभिन्न अंग बन चुका है। विज्ञापनों ने समाज व संस्कृति को विभिन्न तरह से प्रभावित किया है। इसने, समाज और संस्कृति पर नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित किया है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>विज्ञापन के सकारात्मक प्रभाव</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन ग्राहकों को बाजार या मौजूदा उत्पाद में नया क्या है, इसके बारे में जागरूक बनाता है क्योंकि यदि उत्पादों का विज्ञापन नहीं किया जाता है तो बड़े स्तर पर ग्राहकों को पता नहीं चलेगा कि बाजार में क्या हो रहा है।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन ग्राहकों को उनके लिए सर्वोत्तम उत्पाद खोजने में भी मदद करता है। जब उन्हें उत्पादों की श्रेणी के बारे में पता चलता है, तो वे तुलना करने और उनके लिए सबसे अच्छा क्या खरीदने में सक्षम होते हैं।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन उत्पाद के उत्पादकों या विक्रेताओं के लिए भी महत्वपूर्ण है।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन किसी उत्पाद की बिक्री बढ़ाने में मदद करता है।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन कंपनियों को बाज़ार में अपने प्रतिद्वंद्वियों के बारे में जागरूक करने में मदद करता है और यह बताता है कि वे अपने उत्पाद को कैसे बेहतर बना सकते हैं;</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन किसी भी कंपनी के लिए एक नया उत्पाद लॉन्च करने या जारी करने की नींव है;</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन ग्राहक वफादारी बनाने में मदद करता है;</li>
<li style="text-align: justify;">किसी उत्पाद की मांग विज्ञापन का परिणाम है।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन न केवल ग्राहकों और कंपनियों या उत्पादकों बल्कि बड़े पैमाने पर समाज की भी मदद करता है। विज्ञापन सामाजिक मुद्दों से निपटने और जनता को इन मुद्दों पर शिक्षित करने में मदद करता है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>विज्ञापन के नकारात्मक प्रभाव</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;"><strong>उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा :</strong> विज्ञापन ने उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया है। उपभोक्तावादी संस्कृति एक सिद्धांत पर काम करता है, कि बाजार में सभी वस्तुएं उपभोग करने योग्य हैं बस उन्हें सही तरीके से एक जरूरी वस्तु के रूप में बाजार में स्थापित करने की जरूरत है। उसको खरीदने और बेचने वाले लोग तो मिल ही जाएंगे। विज्ञापन इसी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए बाजार में किसी भी वस्तु को प्रभावी रूप से पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के समक्ष वस्तु की जरूरत को बनाने के प्रयासरत रहते हैं। उन्हें यह अहसास दिलाते हैं कि उस वस्तु के बिना उनका जीवन अधूरा है। विज्ञापन मानव के मन मस्तिष्क को बहुत अधिक प्रभावित करता है। विज्ञापन लोगों को लालच, भय और आवश्यकता बताकर वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित करता है। जिससे कई बार लोग बे काम की वस्तु केवल इसलिए खरीद लेते हैं ताकि उनका समाज में प्रभाव अधिक पड़ सके।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>पश्चिमी सभ्यता का प्रचार :</strong> विज्ञापन से जो हमारे समाज और संस्कृति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है उसमें से एक है पश्चिमी सभ्यता का प्रचार होना। इसका प्रयोग वस्तुओं और सेवाओं को बेचने के लिए, जैसे, अधिक कपड़े की बिक्री के लिए स्पाइडर मैन और सुपरमैन के चित्रों के कपड़े का प्रयोग। ठीक इसी तरह मैगी के विज्ञापन में जल्दी भोजन तैयार करने के लिए 5 मिनट में मैगी तैयार करें।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>सेक्स और हिंसक व्यवहार को बढ़ावा देता है :</strong> विज्ञापन समाज में सेक्स और हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। कई वस्तुओं के विज्ञापन में यह दिखाया जाता है कि, एक व्यक्ति किसी वस्तु का उपयोग कर तीन-चार व्यक्तियों को मार रहा है या किसी वस्तु का उपयोग कर उस व्यक्ति से महिलाएं आकर्षित होती हैं। ठीक इसके विपरीत महिलाएं यदि किसी प्रोडक्ट का प्रयोग करते विज्ञापन में अभिनय कर रही हैं तो पुरुष अधिक आकर्षित होने लगते हैं। इस तरह के विज्ञापनों का उद्देश्य केवल वस्तु की बिक्री को बढ़ाना होता है।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>छोटे उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव :</strong> बाजार में लगभग सभी उत्पादों के विज्ञापन होते हैं। एक ही वस्तु को अलग-अलग कंपनियां निर्माण करती हैं। जिसके कारण सभी उत्पादक अपने वस्तु को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए विज्ञापन का प्रयोग करते हैं। जिस उत्पादक का विज्ञापन उपभोक्ता को अधिक संतुष्ट करता है या जिसका प्रचार बहुत अधिक हुआ होता है तो ऐसे में यह ज्यादा संभव है कि उपभोक्ता उसी वस्तु को खरीदता है। परंतु बाजार में मौजूद छोटे उद्योग अपने उत्पाद का विज्ञापन नहीं कर पाते। जिसका कारण है विज्ञापन पर अधिक लागत खर्च, ऐसे में वह अपनी उपस्थिति को बेच नहीं पाते या उस मात्रा में नहीं भेज पाते जिस मात्रा में विज्ञापन करने वाला उत्पादक अपने माल को बेच रहा होता है। विज्ञापन ने लोगों के मस्तिष्क में एक धारणा बनाई है जिसका विज्ञापन अधिक हो वह 'ब्रांडेड' होता है और जिसका विज्ञापन नहीं होता है वह 'लोकल और खराब' होता है। लोगों की इसी धारणा की वजह से छोटे उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुएं उपभोक्ता ज्यादातर नहीं खरीदते हैं।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>विश्व बाजार का सिद्धांत :</strong> आज विज्ञापन हर क्षेत्र में उपलब्ध हैं। विज्ञापन के कारण विश्व बाजार का सिद्धांत सामने उभरकर आया है। वर्तमान समय में विज्ञापन का महत्व दिन प्रतिदिन और बढ़ता जा रहा है। विज्ञापन का पूरा कारोबार "जो दिखता है वही बिकता है" की तर्ज पर चल रहा है। आज के समय में तो ऐसा हो गया है कि विज्ञापन के माध्यम से मांग पैदा की जा रही है।</li>
</ul>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1680252486_sachin.png" style="display: block; margin-left: auto; margin-right: auto;" caption="false" width="290" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> सचिन समर </strong></span></h3>
<p>सचिन समर ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी वाराणसी से 'हिंदी पत्रकारिता' में स्नातकोत्तर किया है। वर्तमान में भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली में 'विज्ञापन एवं जनसंपर्क' पाठ्यक्रम में अध्ययनरत है साथ ही स्वतंत्र पत्रकारिता एवं लेखन कर रहे हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">कल्पना कीजिये कि आप किसी घर में रह रहे हैं और कोई बाहरी आकर आपको आपके घर से बेदखल कर देता है। इतना ही नहीं, अब आप के रहने के लिए कोई सुरक्षित ठिकाना न बचा हो। ऐसे में आप क्या करेंगे? या तो आप उस बाहरी से लड़ेंगे या फिर कहीं और जाएँगे। वर्तमान में वन्यजीवों के पर्यावास में मानव के बढ़ते हुए हस्तक्षेप के कारण न सिर्फ वन्यजीवों की जान पर आफत आई है बल्कि मानव-वन्यजीव संघर्ष में भी इजाफा हुआ है। इसीलिए वन्यजीवों के संरक्षण की महती आवश्यकता है।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि वन्यजीवों की बात करें तो यह गैर-पालतू जानवरों की प्रजातियों को संदर्भित करता है, हालांकि अब इसमें वे सभी जानवर शामिल हैं जो मानव हस्तक्षेप से मुक्त वातावरण में वनों में अभिवृद्धि हेतु मौजूद हैं। इन वन्यजीवों की विविध प्रजातियों का एक निश्चित भूगोल में एक साथ रहते हुए परिस्थितिकी संतुलन में योगदान देने से जैव विविधता भी मजबूत होती है। जैव विविधता से तात्पर्य है- किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों की संख्या और उनकी विविधता। इसका संबंध पौधों के प्रकार, प्राणियों तथा सूक्ष्म जीवाणुओं से है। उनकी आनुवंशिकी और उनके द्वारा निर्मित पारितंत्र से है। यह पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवधारियों की परिवर्तनशीलता, एक ही प्रजाति तथा विभिन्न प्रजातियों में परिवर्तनशीलता तथा विभिन्न पारितंत्रों में विविधता से संबंधित है। जैव विविधता सजीव संपदा है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस तरह यदि हम देखे तो वन्यजीवों का सुरक्षित पर्यावास ही मानव के अस्तित्व को सततता प्रदान करेगा। इसीलिए सरकारें सांस्थानिक स्तर पर भी इस संबंध में प्रयास करती हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून द्वारा वन्यजीव विज्ञान को प्रोत्साहित किया जाता है ताकि वन्यजीवों के संरक्षण की दिशा में उचित काम हो सकें। यह संस्थान विभिन्न क्षमता निर्माण कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा, शोध और प्रशिक्षण को बढ़ावा देता है। इसके अलावा यह संस्थान वन्यजीव के संरक्षण के संबंध में सरकार का सलाहकारी निकाय भी है।</p>
<p style="text-align: justify;">खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर स्थित प्रजातियों जैसे- बाघ, शेर, गिद्ध आदि जिनके अस्तित्व पर खतरा है, के संरक्षण हेतु सरकार द्वारा विशेष प्रयास किये जाते हैं। इनके संरक्षण से न सिर्फ इन प्रजातियों को सुरक्षित पर्यावास सुनिश्चित होता है बल्कि इनके द्वारा अपने रहन-सहन, खान-पान के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले एक बड़े क्षेत्र का संरक्षण भी स्वमेव सुनिश्चित हो जाता है। सरकार ने विभिन्न वन्यजीव संरक्षण परियोजनाओं के माध्यम से वन्यजीवों और उनके आवासों को संरक्षित किया है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस दिशा में सरकार द्वारा सर्वप्रथम वर्ष 1970 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश(वर्तमान उत्तराखंड) के अंतर्गत आने वाले केदारनाथ अभ्यारण्य में 'कस्तूरी मृग परियोजना' आरम्भ की गई। इस में अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ का भी सहयोग लिया गया। इसके बाद वर्ष 1973 में बाघ परियोजना की शुरूआत की गई। यह पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु शुरू की विभिन्न परियोजनाओं में से एक सफलतम परियोजना है। भारत का प्रोजेक्ट टाइगर भारत में बाघों की आबादी को बढ़ाने में बेहद सफल रहा है। वर्ष 2021 की बाघ गणना में लगभग 2967 बाघों का अनुमान लगाया गया है। प्रोजेक्ट टाइगर के अंतर्गत विभिन्न टाइगर रिजर्व के माध्यम से बाघों को संरक्षित किया जाता है।</p>
<p style="text-align: justify;">इसके साथ ही सरकार द्वारा वर्ष 1973 में गिर सिंह परियोजना को भी शुरू किया गया। इसके अलावा वर्ष 1975 में कछुआ संरक्षण परियोजना, घड़ियाल प्रजनन परियोजना आदि को भी शुरू किया गया। वर्ष 1992 में हाथी परियोजना की शुरूआत की गई। इसके अंतर्गत हाथियों के सघन पर्यावासों को एलिफैंट रिजर्व की मान्यता प्रदान की गई। जैव विविधता के संतुलन के लिए बेहद आवश्यक इन वन्यजीवों के विशेष संरक्षण प्रयासों के अतिरिक्त सरकार द्वारा विभिन्न क्षेत्रों को वन्यजीव अभ्यारण्य, राष्ट्रीय पार्क आदि के रूप में भी मान्यता प्रदान की जाती है। वर्तमान में देश भर में 106 राष्ट्रीय पार्क है।</p>
<p style="text-align: justify;">राष्ट्रीय पार्क, वन्यजीव अभ्यारण्य के अतिरिक्त कुछ क्षेत्रों को जीवमंडल आरक्षित क्षेत्रों के रूप में भी मान्यता प्रदान की गई है। यूनेस्को विश्व नेटवर्क द्वारा भी भारत के 12 जैवमंडल आरक्षित क्षेत्रों को मान्यता प्रदान की गई है। पर्यावरण संरक्षण के इन सरकारी प्रयासों के अतिरिक्त भारत में सिविल सोसाइटी और व्यक्तिगत स्तर पर भी विभिन्न पर्यावरणीय संरक्षण के आंदोलनों को चलाया गया। इनमें वर्ष 1970 के दशक में उत्तराखंड में प्रारंभ हुआ चिपको आंदोलन, वर्ष 1980 के दशक में शुरू हुआ जंगल बचाओ आंदोलन, वर्ष 1983 में कर्नाटक में शुरू हुआ एप्पिको आंदोलन, वर्ष 1985 में हुआ नर्मदा आंदोलन, वर्ष 1986 में ओडिशा में हुआ बलियापाल आंदोलन, वर्ष 1990 के दशक में उत्तराखंड में हुआ टिहरी आंदोलन और वर्ष 1994 में उत्तराखंड में ही हुआ मैती आंदोलन आदि प्रमुख है।</p>
<p style="text-align: justify;">पर्यावरण संरक्षण को सामुदायिक और व्यक्तिगत स्तर पर प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न सरकारों, गैर सरकारी संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु पुरस्कार भी प्रदान किये जाते है। इनमें राइट लाईवलीहुड पुरस्कार, गोल्डमैन पुरस्कार, इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार, अंतरराष्ट्रीय मौसम विज्ञान संगठन पुरस्कार और सासाकावा पुरस्कार आदि प्रमुख है। यदि भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद की बात की जाए तो इनमें जादव पायेंग, सलीम अली, राजेंद्र सिंह, मेधा पाटकर, किंकरी देवी, महेश चंद्र मेहता, एम.एस स्वामीनाथन, रवींद्र कुमार सिन्हा और कैलाश सांखला आदि प्रमुख हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत में स्थानीय समाज द्वारा वन और वन्यजीवों की पूजा भी की जाती है, इन्हें देव वन या पवित्र उपवन कहा जाता है। इनमें से सरना (बिहार, झारखंड), गुम्पा वन (अरुणाचल प्रदेश),देवराय (गोवा), गमखाप (मणिपुर), देवारा (कर्नाटक) , जोहरा थाकुरामा(ओडिशा), कोविल काडु(पुडुचेरी), शिफिन(हिमाचल प्रदेश) और स्वामी शोला(तमिलनाडु) आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही भारत सरकार द्वारा जैव विविधता की अभिवृद्धि हेतु विभिन्न नीतियों और कानूनों को भी लाया गया है।</p>
<p style="text-align: justify;">इनमें राष्ट्रीय वन नीति, 1988, राष्ट्रीय पर्यावरण कार्ययोजना, 1994, वन्यजीव संरक्षण नीति, 2002, राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 आदि प्रमुख है। इसके साथ ही पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960, पर्यावरण (संरक्षण ) अधिनियम, 1986, जैव विविधता अधिनियम, 2002 और राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010 आदि प्रमुख अधिनियम हैं। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अंतर्गत कुल 6 अनुसूचियाँ है जो अलग-अलग तरह से वन्यजीवों को सुरक्षा प्रदान करता है। इसके साथ ही पर्यावरण संरक्षण से संबंधित विभिन्न सरकारी संस्थाओं द्वारा भी वन्यजीवों के संरक्षण हेतु प्रयास किये जाते है। इनमें राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड, वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो, भारतीय जीव जंतु कल्याण बोर्ड और भारतीय प्राणी सर्वेक्षण संस्थान आदि प्रमुख हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि वन्यजीव संरक्षण के समक्ष चुनौतियों की बात की जाए तो इनमें मानव-वन्यजीव संघर्ष, कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस, पारिस्थितिकी संवेदी क्षेत्रों में निर्माण कार्य और जलवायु परिवर्तन आदि प्रमुख है। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का सिर्फ 5 प्रतिशत हिस्सा ही संरक्षित क्षेत्र के रूप में विद्यमान है। यह क्षेत्र वन्यजीवों के पर्यावास की दृष्टि से पर्याप्त नहीं है। एक ओर संरक्षित क्षेत्रों का आकार बेहद छोटा है, वहीं दूसरी ओर रिज़र्व में वन्यजीवों को पर्याप्त आवास उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त बड़े वन्यजीवों जैसे- बाघ, हाथी, भालू, आदि के शिकारों के पनपने के लिये भी पर्याप्त परिवेश उपलब्ध नहीं हो पाता। उपर्युक्त स्थिति के कारण वन्यजीव भोजन आदि की ज़रूरतों के लिये खुले आवासों अथवा मानव बस्तियों के करीब आने को मजबूर होते हैं। यह स्थिति मानव-वन्यजीव संघर्ष को जन्म देती है।</p>
<p style="text-align: justify;">अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आँकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में भारत दुनिया के सबसे तेज़ी से विकास कर रहे देशों में शामिल रहा है। वैश्विक बाज़ार में भारत की इस बढ़त ने देश के सुदूर हिस्सों में भी विकास कार्यों में तेज़ी प्रदान की है। परंतु कई बार विकास-कार्यों, अवसंरचना निर्माण के दौरान पारिस्थितिकी के क्षरण को रोकने के लिये आवश्यक मापदंडों का पालन नहीं किया जाता, जो कि वन्यजीव पारिस्थितिकी के संरक्षण में एक बड़ी चुनौती है। इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन ने भी वन्यजीवों के पर्यावास को क्षति पहुँचाई है। इसी कारण वन्यजीवों का मानव की रिहायशी बस्तियों की ओर पलायन हुआ है। वन्यजीवों के प्रभावी संरक्षण हेतु इन चुनौतियों से निपटने की बेहद आवश्यकता है।</p>
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<td style="width: 20%; text-align: center;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1680252745_Sankarshan-Shukla.png" caption="false" width="257" /></td>
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<h3><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong><span style="font-size: 18px; background-color: #003366;"> संकर्षण शुक्ला </span></strong></span></h3>
<p>संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">संसार में समस्त प्राणियों में मनुष्य सृष्टि की अनुपम रचना है। मनुष्य को विवेक उपहार में मिला है। मानव सभी प्राणियों में श्रेष्ठतम प्राणी माना जाता है। मनुष्य सुख शांति और दुखों का स्वयं जिम्मेदार है। मनुष्य ने ज्ञान -विज्ञान के दम पर जीवन को सरल बनाया है,जीवन जीने के तरीक़े बदले हैं। भौतिक सेवाएँ अपने श्रेष्ठतम पर हैं , मनुष्य ने तकनीकी उपकरणों से शारीरिक और मानसिक श्रम को बहुत कम कर लिया है फिर भी सुख, शांति, प्रसन्नता और सुकून की तलाश में पूरी दुनिया में भटक रहा है। वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट – 2022 में 146 देशों की सूची में भारत का 136 वां स्थान है। प्रथम और द्वितीय स्थान फिनलैंड और डेनमार्क का है। भारत जैसे देश जहाँ आध्यात्मिक शक्ति से वशीभूत होकर विश्व भर से लोग शांति की तलाश में खिंचे चले आते हैं उस देश के लिए ये रिपोर्ट चौकाने वाली है। भारत अपने रंगीन संस्कृतिक जिंदादिली के लिए पहचाना जाता है, जिसके ज्ञान का नूर सारे जहाँ को रोशन करता है आज वो खुद को खुद से प्रसन्न रखना क्यों भूल रहा है। मनुष्य ने सुख चैन की तलाश में मुस्कुराहट खो दिया है, अच्छा जीवन जीने के लिए व्यक्ति का खुश रहना बेहद जरूरी है। हमारे शास्त्र कहते हैं हम सब का उद्देश्य एक है दु:खों से निवृत्ति पाना और सुख की प्राप्ति करना; सुख प्रसन्नता में निहित होती है। प्रसन्नता से आनंद की अनुभूति होती है। खुशी एक एहसास है, आंतरिक अनुभव है; ये किसी बाह्य कारकों पर निर्भर नहीं करती है। मनुष्य को अपनी जरूरी वस्तुओं के साथ प्रसन्नता को शारीरिक अंग के रूप में शामिल करना चाहिए। प्रसन्नता का अनुभव मनोवैज्ञानिक क्रिया है। प्रसन्नता के एहसास से मनुष्य में डोपोमाइन हार्मोन स्रावित होते हैं जिससे मनुष्य के मन-मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। प्रसन्नता का सम्बन्ध संस्कार से होना चाहिए न कि लक्ष्य प्राप्ति या कार्यों की पूर्ति से। जिंदगी के लक्ष्य के साथ प्रसन्नता का लक्ष्य भी होना चाहिए। सभी लक्ष्य के मार्ग प्रसन्नता से होकर गुजरते हैं। कार्य और प्रसन्नता का लक्ष्य एक नहीं होना चाहिए। मनोवैज्ञानिक पीटर किंडरमैन कहते हैं कि- ‘’हमारी ख़ुशी का राज़ इस बात में छुपा है कि हम अपने जज़्बातों के पेचीदगियों को समझें, फिर जो बातें हमारे ज़हन में नकारात्मक भाव पैदा करती हैं , उनसे निपटने के तरीक़ों पर काम करें, इस तरह से प्रसन्नता हासिल की जा सकती है।“ हमारी परिस्थितियाँ कैसी भी हों , हमें हर परिस्थियों में प्रसन्न रहना चाहिए । जार्ज बर्नार्ड शॉ कहते हैं कि - ‘जीवन अपने आप को खोजने का नाम नहीं वरन् स्वयं के निर्माण का नाम है।’ इस बात को आज देश को समझना चाहिए कि खुशहाली देश की सबसे बड़ी संपत्ति है, इसे बचाने के लिए सकल घरेलू उत्पाद के स्थान पर सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता को अपनाना चाहिए जैसे भूटान की राष्ट्रीय सफलता का पैमाना उसके सकल घरेलू उत्पाद के स्थान पर सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता को माना गया है। आज प्रसन्नता का पाठ स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में शामिल करने की जरूरत है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>प्रसन्नता क्यों जरूरी है:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">मनुष्य को जीवन जीने के लिए वायु, जल और भोजन की आवश्यकता होती है। स्वास्थ्य, सुखमय और लंबा जीवन जीने के लिए मनुष्य को प्रसन्नता की भी आवश्यकता है। अप्रसन्न व्यक्ति न तो पूरी तरह से स्वस्थ है और न ही मन से स्थिर। अप्रसन्न व्यक्ति घोर निराशावादी होता है, उसे सूर्य के प्रकाश में अंधकार नजर आता है। अप्रसन्न व्यक्ति मानसिक रूप से समाज से जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर पाता है। अप्रसन्न व्यक्ति सदैव चिंताग्रस्त ,स्वभाव में आक्रोश, नकारात्मक सोच से घिरा रहता है। प्रसन्नता प्रत्येक वस्तुओं में सकारात्मकता की बोध कराती है। प्रसन्नता से मनुष्य के शरीर में ऑक्सीजन का प्रवाह बढ़ता है। जीवन में प्रसन्नता और सफलता दोनों के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण की जरूरत होती है। प्रसन्नता मानसिक शक्ति और शांत सुखमय जीवन की सक्रियता को बढ़ाने में सहायक होती है। प्रोफेसर रुट वीनहोवन का कहना है कि – “एक ख़ुशहाल जिंदगी बिताने के लिए ज़रूरी है कि आप सक्रिय रहें, इसलिए हम यहाँ क्यों हैं और ऐसा क्यों है? ये सोचने की बजाय ख़ुश होना बेहद ज़रूरी है।“ प्रसन्नता से कई बीमारियों का इलाज सम्भव है, मन और मस्तिष्क के विकारी तत्व को दूर करने में यह सहायक है। एक छोटी सी मुस्कान से आपसी रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है। प्रसन्न व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है जिससे कार्य करने की क्षमता अधिक होती है साथ ही मानसिक रूप से समृद्धि भी होता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>प्रसन्न कैसे रहें :</strong></p>
<p style="text-align: justify;">प्रसन्नता किसी दुकान से खरीदी जाने वाली वस्तु नहीं है, यह केवल अनुभव और हमारे एहसासों पर निर्भर करता है। प्रसन्नता सम्पन्नता पर निर्भर नहीं करता है। प्रत्येक व्यक्ति को भविष्य की चिंता से मुक्त होकर वर्तमान में जीना चाहिए। सर विलियम ऑस्लर कहते हैं’ सिर्फ आज में जियो ‘वर्तमान में अच्छा कार्य करेंगे तो भविष्य बेहतर होगा । बुद्धिमान व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन एक नया जीवन होता है, तो हम अपना समय और खुशी भविष्य की चिंता में क्यों व्यर्थ करें। प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु में सकारात्मकता तलाशे, ऐसे व्यक्तियों ,कार्यों से दूर रहे जिसमें नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हो, आत्मविश्वास और सोच में हीनभावना जन्म ले। रोमन कवि होरेस ने लिखा है” वही और केवल वही खुश है, जो आज को अपना कह सकता है, जो आत्मविश्वास से कह सकता है, कल तुम्हें जो करना हो कर लेना , मैंने आज तो जी लिया है”। प्रसन्न रहने के लिए योग को अपने जीवन में उतारें, योग आध्यात्मिक अनुशासन है जिसमें हमारे मन ,तन और प्रकृति के बीच एकात्म भाव स्थापित करते हैं। प्रतिस्पर्धा से बचना चाहिए, अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य करें । खुद की तुलना दूसरों से न करें, क्योंकि सभी व्यक्तियों में एक जैसी क्षमता, साहस और कार्यशैली नहीं पाई जाती हैं। प्रकृति के करीब रहें, मनपसंद स्थानों पर भ्रमण करें, अपने परिवार के सदस्यों के बीच संवाद स्थापित करें, समस्याओं पर खुल कर बात करें। लालच,ईर्ष्या किसी प्राणी के प्रति न रखें। मनुष्य की सभी प्रकार की इच्छाएँ पूर्ण होने पर भी प्रसन्नचित नहीं हो सकता है क्योंकि प्रसन्नता के बीज मन में प्रस्फुटित होते हैं और मन मस्तिष्क को प्रशिक्षण प्रदान करता है, मस्तिष्क शरीर को संचालित करता है। प्रसन्नता हमारे मस्तिष्क को शांति,साहस, स्वस्थ और आशावादी विचारों से भर देती हैं, क्योंकि मनुष्य का जीवन विचारों से निर्मित होता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>निष्कर्ष :</strong></p>
<p style="text-align: justify;">किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी पूँजी उस राष्ट्र के नागरिक होते हैं। जो राष्ट्र जितना प्रसन्न होगा वह उतनी ही तेजी से उन्नति करेगा। आज जरूरत है सभी देशों को बाजारीकरण के होड़ से बाहर निकल कर अपने नागरिकों के लिए एक मंथन करने की, आखिर क्या कारण है कि विज्ञान और तकनीकी की खोजों ने मनुष्य के जीवन को आसान बनाने के साथ खुशी छीन ली है। प्रत्येक व्यक्ति को इस बात को समझना चाहिए कि सबसे बड़ा धन प्रसन्नता में है। एक प्रसन्न राष्ट्र में योग्य प्रशासन, रोजगार, अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार से मुक्त एक कल्याणकारी राष्ट्र बनाने की शक्ति समाहित होती है। आत्मनिर्भरता का सपना तभी सच होगा जब सभी लोगों में प्रसन्नता बढ़ेगी। राष्ट्र के नागरिक जब प्रसन्नता से सम्पन्न होंगे तभी राष्ट्र का आर्थिक ,सामाजिक और राजनीतिक विकास संभव हो पायेगा।</p>
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<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> अजय प्रताप तिवारी </strong></span></h3>
<p>अजय प्रताप तिवारी, यूपी के गोंडा जिले के निवासी हैं। इन्होंने विज्ञान और इतिहास में पढ़ाई करने के बाद देश के प्रतिष्ठित अखबारों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेखन कार्य किया है। इसके साथ ही इन्हें साहित्य और दर्शन में रुचि है।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">वर्तमान समय में विज्ञापन बाजार की दुनिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। एक आंकड़े के अनुसार औसत व्यक्ति प्रतिदिन 280 से 310 विज्ञापन देखता है। विज्ञापन लोगों को सूचना, उत्पादों आदि के बारे में जागरूक करने का एक शानदार तरीका है। लेकिन वर्तमान समय में प्रसारित विज्ञापन समाज के लिए समस्या का कारण भी हो गया है। सभी ने उन विज्ञापनों को देखा है जहां विज्ञापनदाता उपभोक्ता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि एक उत्पाद आपके जीवन को पांच गुना बेहतर बना देगा और जब तक वे उत्पाद नहीं खरीद लेते तब तक उनका जीवन बेहतर नहीं होगा। विज्ञापनदाता का इरादा आपके दिमाग में घुसने की कोशिश करना और आपके विचारों और निर्णयों को प्रभावित करना है। कार, बीमा, दवा, पेय और राजनीतिक विज्ञापन जैसे विज्ञापन अक्सर उपभोक्ता को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। विज्ञापन अपने मजबूत प्रभाव के कारण समाज के लिए हानिकारक है। विज्ञापन हमें यह महसूस कराते हैं कि हम जितने अच्छे हैं वास्तव में उतने अच्छे नहीं हैं। अपना सामान बेचने के लिए विज्ञापन पहले आपको ऐसा महसूस कराते हैं कि आप इस प्रोडक्ट बिना अधूरे हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">अगर संक्षेप में कहें, विज्ञापन आपकी खुशी का वादा करते हैं, बशर्ते कि आप बदले में पैसा खर्च करें। इसका परिणाम होता है गैर जरूरी चीजों का उपभोग करना और अनावश्यक कचरे के उत्पादन का समर्थन करना जो हमारे ग्रह को प्रदूषित कर रहा है। बाजार में अधिक से अधिक अपनी लोकप्रियता बढ़ाने, अपनी साख बनाने, अपने उत्पाद को अन्य उत्पादों की तुलना में बेहतर साबित करने तथा अधिक से अधिक समय तक मार्केट में बने रहने के लिए विज्ञापन का प्रयोग एक सशक्त हथियार के रूप में होता है। वास्तव में विज्ञापन ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पाठक अथवा दर्शक के मन को प्रभावित करते हुए उसके दिल में अपने उत्पाद के प्रति सकारात्मक भाव उत्पन्न करने के सभी कंपनियों द्वारा हर मुमकिन कोशिश की जाती है। विज्ञापनों से हमारे समाज और संस्कृति को लक्षित किया जाता है। चूँकि विज्ञापन का समाज व संस्कृति पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। संचार के सभी माध्यमों में वह चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, विज्ञापन एक अभिन्न अंग बन चुका है। विज्ञापनों ने समाज व संस्कृति को विभिन्न तरह से प्रभावित किया है। इसने, समाज और संस्कृति पर नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित किया है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>विज्ञापन के सकारात्मक प्रभाव</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन ग्राहकों को बाजार या मौजूदा उत्पाद में नया क्या है, इसके बारे में जागरूक बनाता है क्योंकि यदि उत्पादों का विज्ञापन नहीं किया जाता है तो बड़े स्तर पर ग्राहकों को पता नहीं चलेगा कि बाजार में क्या हो रहा है।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन ग्राहकों को उनके लिए सर्वोत्तम उत्पाद खोजने में भी मदद करता है। जब उन्हें उत्पादों की श्रेणी के बारे में पता चलता है, तो वे तुलना करने और उनके लिए सबसे अच्छा क्या खरीदने में सक्षम होते हैं।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन उत्पाद के उत्पादकों या विक्रेताओं के लिए भी महत्वपूर्ण है।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन किसी उत्पाद की बिक्री बढ़ाने में मदद करता है।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन कंपनियों को बाज़ार में अपने प्रतिद्वंद्वियों के बारे में जागरूक करने में मदद करता है और यह बताता है कि वे अपने उत्पाद को कैसे बेहतर बना सकते हैं;</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन किसी भी कंपनी के लिए एक नया उत्पाद लॉन्च करने या जारी करने की नींव है;</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन ग्राहक वफादारी बनाने में मदद करता है;</li>
<li style="text-align: justify;">किसी उत्पाद की मांग विज्ञापन का परिणाम है।</li>
<li style="text-align: justify;">विज्ञापन न केवल ग्राहकों और कंपनियों या उत्पादकों बल्कि बड़े पैमाने पर समाज की भी मदद करता है। विज्ञापन सामाजिक मुद्दों से निपटने और जनता को इन मुद्दों पर शिक्षित करने में मदद करता है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>विज्ञापन के नकारात्मक प्रभाव</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;"><strong>उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा :</strong> विज्ञापन ने उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया है। उपभोक्तावादी संस्कृति एक सिद्धांत पर काम करता है, कि बाजार में सभी वस्तुएं उपभोग करने योग्य हैं बस उन्हें सही तरीके से एक जरूरी वस्तु के रूप में बाजार में स्थापित करने की जरूरत है। उसको खरीदने और बेचने वाले लोग तो मिल ही जाएंगे। विज्ञापन इसी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए बाजार में किसी भी वस्तु को प्रभावी रूप से पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के समक्ष वस्तु की जरूरत को बनाने के प्रयासरत रहते हैं। उन्हें यह अहसास दिलाते हैं कि उस वस्तु के बिना उनका जीवन अधूरा है। विज्ञापन मानव के मन मस्तिष्क को बहुत अधिक प्रभावित करता है। विज्ञापन लोगों को लालच, भय और आवश्यकता बताकर वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित करता है। जिससे कई बार लोग बे काम की वस्तु केवल इसलिए खरीद लेते हैं ताकि उनका समाज में प्रभाव अधिक पड़ सके।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>पश्चिमी सभ्यता का प्रचार :</strong> विज्ञापन से जो हमारे समाज और संस्कृति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है उसमें से एक है पश्चिमी सभ्यता का प्रचार होना। इसका प्रयोग वस्तुओं और सेवाओं को बेचने के लिए, जैसे, अधिक कपड़े की बिक्री के लिए स्पाइडर मैन और सुपरमैन के चित्रों के कपड़े का प्रयोग। ठीक इसी तरह मैगी के विज्ञापन में जल्दी भोजन तैयार करने के लिए 5 मिनट में मैगी तैयार करें।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>सेक्स और हिंसक व्यवहार को बढ़ावा देता है :</strong> विज्ञापन समाज में सेक्स और हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। कई वस्तुओं के विज्ञापन में यह दिखाया जाता है कि, एक व्यक्ति किसी वस्तु का उपयोग कर तीन-चार व्यक्तियों को मार रहा है या किसी वस्तु का उपयोग कर उस व्यक्ति से महिलाएं आकर्षित होती हैं। ठीक इसके विपरीत महिलाएं यदि किसी प्रोडक्ट का प्रयोग करते विज्ञापन में अभिनय कर रही हैं तो पुरुष अधिक आकर्षित होने लगते हैं। इस तरह के विज्ञापनों का उद्देश्य केवल वस्तु की बिक्री को बढ़ाना होता है।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>छोटे उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव :</strong> बाजार में लगभग सभी उत्पादों के विज्ञापन होते हैं। एक ही वस्तु को अलग-अलग कंपनियां निर्माण करती हैं। जिसके कारण सभी उत्पादक अपने वस्तु को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए विज्ञापन का प्रयोग करते हैं। जिस उत्पादक का विज्ञापन उपभोक्ता को अधिक संतुष्ट करता है या जिसका प्रचार बहुत अधिक हुआ होता है तो ऐसे में यह ज्यादा संभव है कि उपभोक्ता उसी वस्तु को खरीदता है। परंतु बाजार में मौजूद छोटे उद्योग अपने उत्पाद का विज्ञापन नहीं कर पाते। जिसका कारण है विज्ञापन पर अधिक लागत खर्च, ऐसे में वह अपनी उपस्थिति को बेच नहीं पाते या उस मात्रा में नहीं भेज पाते जिस मात्रा में विज्ञापन करने वाला उत्पादक अपने माल को बेच रहा होता है। विज्ञापन ने लोगों के मस्तिष्क में एक धारणा बनाई है जिसका विज्ञापन अधिक हो वह 'ब्रांडेड' होता है और जिसका विज्ञापन नहीं होता है वह 'लोकल और खराब' होता है। लोगों की इसी धारणा की वजह से छोटे उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुएं उपभोक्ता ज्यादातर नहीं खरीदते हैं।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>विश्व बाजार का सिद्धांत :</strong> आज विज्ञापन हर क्षेत्र में उपलब्ध हैं। विज्ञापन के कारण विश्व बाजार का सिद्धांत सामने उभरकर आया है। वर्तमान समय में विज्ञापन का महत्व दिन प्रतिदिन और बढ़ता जा रहा है। विज्ञापन का पूरा कारोबार "जो दिखता है वही बिकता है" की तर्ज पर चल रहा है। आज के समय में तो ऐसा हो गया है कि विज्ञापन के माध्यम से मांग पैदा की जा रही है।</li>
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<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1680252486_sachin.png" style="display: block; margin-left: auto; margin-right: auto;" caption="false" width="290" /></td>
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<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> सचिन समर </strong></span></h3>
<p>सचिन समर ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी वाराणसी से 'हिंदी पत्रकारिता' में स्नातकोत्तर किया है। वर्तमान में भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली में 'विज्ञापन एवं जनसंपर्क' पाठ्यक्रम में अध्ययनरत है साथ ही स्वतंत्र पत्रकारिता एवं लेखन कर रहे हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">कल्पना कीजिये कि आप किसी घर में रह रहे हैं और कोई बाहरी आकर आपको आपके घर से बेदखल कर देता है। इतना ही नहीं, अब आप के रहने के लिए कोई सुरक्षित ठिकाना न बचा हो। ऐसे में आप क्या करेंगे? या तो आप उस बाहरी से लड़ेंगे या फिर कहीं और जाएँगे। वर्तमान में वन्यजीवों के पर्यावास में मानव के बढ़ते हुए हस्तक्षेप के कारण न सिर्फ वन्यजीवों की जान पर आफत आई है बल्कि मानव-वन्यजीव संघर्ष में भी इजाफा हुआ है। इसीलिए वन्यजीवों के संरक्षण की महती आवश्यकता है।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि वन्यजीवों की बात करें तो यह गैर-पालतू जानवरों की प्रजातियों को संदर्भित करता है, हालांकि अब इसमें वे सभी जानवर शामिल हैं जो मानव हस्तक्षेप से मुक्त वातावरण में वनों में अभिवृद्धि हेतु मौजूद हैं। इन वन्यजीवों की विविध प्रजातियों का एक निश्चित भूगोल में एक साथ रहते हुए परिस्थितिकी संतुलन में योगदान देने से जैव विविधता भी मजबूत होती है। जैव विविधता से तात्पर्य है- किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों की संख्या और उनकी विविधता। इसका संबंध पौधों के प्रकार, प्राणियों तथा सूक्ष्म जीवाणुओं से है। उनकी आनुवंशिकी और उनके द्वारा निर्मित पारितंत्र से है। यह पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवधारियों की परिवर्तनशीलता, एक ही प्रजाति तथा विभिन्न प्रजातियों में परिवर्तनशीलता तथा विभिन्न पारितंत्रों में विविधता से संबंधित है। जैव विविधता सजीव संपदा है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस तरह यदि हम देखे तो वन्यजीवों का सुरक्षित पर्यावास ही मानव के अस्तित्व को सततता प्रदान करेगा। इसीलिए सरकारें सांस्थानिक स्तर पर भी इस संबंध में प्रयास करती हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून द्वारा वन्यजीव विज्ञान को प्रोत्साहित किया जाता है ताकि वन्यजीवों के संरक्षण की दिशा में उचित काम हो सकें। यह संस्थान विभिन्न क्षमता निर्माण कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा, शोध और प्रशिक्षण को बढ़ावा देता है। इसके अलावा यह संस्थान वन्यजीव के संरक्षण के संबंध में सरकार का सलाहकारी निकाय भी है।</p>
<p style="text-align: justify;">खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर स्थित प्रजातियों जैसे- बाघ, शेर, गिद्ध आदि जिनके अस्तित्व पर खतरा है, के संरक्षण हेतु सरकार द्वारा विशेष प्रयास किये जाते हैं। इनके संरक्षण से न सिर्फ इन प्रजातियों को सुरक्षित पर्यावास सुनिश्चित होता है बल्कि इनके द्वारा अपने रहन-सहन, खान-पान के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले एक बड़े क्षेत्र का संरक्षण भी स्वमेव सुनिश्चित हो जाता है। सरकार ने विभिन्न वन्यजीव संरक्षण परियोजनाओं के माध्यम से वन्यजीवों और उनके आवासों को संरक्षित किया है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस दिशा में सरकार द्वारा सर्वप्रथम वर्ष 1970 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश(वर्तमान उत्तराखंड) के अंतर्गत आने वाले केदारनाथ अभ्यारण्य में 'कस्तूरी मृग परियोजना' आरम्भ की गई। इस में अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ का भी सहयोग लिया गया। इसके बाद वर्ष 1973 में बाघ परियोजना की शुरूआत की गई। यह पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु शुरू की विभिन्न परियोजनाओं में से एक सफलतम परियोजना है। भारत का प्रोजेक्ट टाइगर भारत में बाघों की आबादी को बढ़ाने में बेहद सफल रहा है। वर्ष 2021 की बाघ गणना में लगभग 2967 बाघों का अनुमान लगाया गया है। प्रोजेक्ट टाइगर के अंतर्गत विभिन्न टाइगर रिजर्व के माध्यम से बाघों को संरक्षित किया जाता है।</p>
<p style="text-align: justify;">इसके साथ ही सरकार द्वारा वर्ष 1973 में गिर सिंह परियोजना को भी शुरू किया गया। इसके अलावा वर्ष 1975 में कछुआ संरक्षण परियोजना, घड़ियाल प्रजनन परियोजना आदि को भी शुरू किया गया। वर्ष 1992 में हाथी परियोजना की शुरूआत की गई। इसके अंतर्गत हाथियों के सघन पर्यावासों को एलिफैंट रिजर्व की मान्यता प्रदान की गई। जैव विविधता के संतुलन के लिए बेहद आवश्यक इन वन्यजीवों के विशेष संरक्षण प्रयासों के अतिरिक्त सरकार द्वारा विभिन्न क्षेत्रों को वन्यजीव अभ्यारण्य, राष्ट्रीय पार्क आदि के रूप में भी मान्यता प्रदान की जाती है। वर्तमान में देश भर में 106 राष्ट्रीय पार्क है।</p>
<p style="text-align: justify;">राष्ट्रीय पार्क, वन्यजीव अभ्यारण्य के अतिरिक्त कुछ क्षेत्रों को जीवमंडल आरक्षित क्षेत्रों के रूप में भी मान्यता प्रदान की गई है। यूनेस्को विश्व नेटवर्क द्वारा भी भारत के 12 जैवमंडल आरक्षित क्षेत्रों को मान्यता प्रदान की गई है। पर्यावरण संरक्षण के इन सरकारी प्रयासों के अतिरिक्त भारत में सिविल सोसाइटी और व्यक्तिगत स्तर पर भी विभिन्न पर्यावरणीय संरक्षण के आंदोलनों को चलाया गया। इनमें वर्ष 1970 के दशक में उत्तराखंड में प्रारंभ हुआ चिपको आंदोलन, वर्ष 1980 के दशक में शुरू हुआ जंगल बचाओ आंदोलन, वर्ष 1983 में कर्नाटक में शुरू हुआ एप्पिको आंदोलन, वर्ष 1985 में हुआ नर्मदा आंदोलन, वर्ष 1986 में ओडिशा में हुआ बलियापाल आंदोलन, वर्ष 1990 के दशक में उत्तराखंड में हुआ टिहरी आंदोलन और वर्ष 1994 में उत्तराखंड में ही हुआ मैती आंदोलन आदि प्रमुख है।</p>
<p style="text-align: justify;">पर्यावरण संरक्षण को सामुदायिक और व्यक्तिगत स्तर पर प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न सरकारों, गैर सरकारी संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु पुरस्कार भी प्रदान किये जाते है। इनमें राइट लाईवलीहुड पुरस्कार, गोल्डमैन पुरस्कार, इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार, अंतरराष्ट्रीय मौसम विज्ञान संगठन पुरस्कार और सासाकावा पुरस्कार आदि प्रमुख है। यदि भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद की बात की जाए तो इनमें जादव पायेंग, सलीम अली, राजेंद्र सिंह, मेधा पाटकर, किंकरी देवी, महेश चंद्र मेहता, एम.एस स्वामीनाथन, रवींद्र कुमार सिन्हा और कैलाश सांखला आदि प्रमुख हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत में स्थानीय समाज द्वारा वन और वन्यजीवों की पूजा भी की जाती है, इन्हें देव वन या पवित्र उपवन कहा जाता है। इनमें से सरना (बिहार, झारखंड), गुम्पा वन (अरुणाचल प्रदेश),देवराय (गोवा), गमखाप (मणिपुर), देवारा (कर्नाटक) , जोहरा थाकुरामा(ओडिशा), कोविल काडु(पुडुचेरी), शिफिन(हिमाचल प्रदेश) और स्वामी शोला(तमिलनाडु) आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही भारत सरकार द्वारा जैव विविधता की अभिवृद्धि हेतु विभिन्न नीतियों और कानूनों को भी लाया गया है।</p>
<p style="text-align: justify;">इनमें राष्ट्रीय वन नीति, 1988, राष्ट्रीय पर्यावरण कार्ययोजना, 1994, वन्यजीव संरक्षण नीति, 2002, राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 आदि प्रमुख है। इसके साथ ही पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960, पर्यावरण (संरक्षण ) अधिनियम, 1986, जैव विविधता अधिनियम, 2002 और राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010 आदि प्रमुख अधिनियम हैं। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अंतर्गत कुल 6 अनुसूचियाँ है जो अलग-अलग तरह से वन्यजीवों को सुरक्षा प्रदान करता है। इसके साथ ही पर्यावरण संरक्षण से संबंधित विभिन्न सरकारी संस्थाओं द्वारा भी वन्यजीवों के संरक्षण हेतु प्रयास किये जाते है। इनमें राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड, वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो, भारतीय जीव जंतु कल्याण बोर्ड और भारतीय प्राणी सर्वेक्षण संस्थान आदि प्रमुख हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि वन्यजीव संरक्षण के समक्ष चुनौतियों की बात की जाए तो इनमें मानव-वन्यजीव संघर्ष, कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस, पारिस्थितिकी संवेदी क्षेत्रों में निर्माण कार्य और जलवायु परिवर्तन आदि प्रमुख है। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का सिर्फ 5 प्रतिशत हिस्सा ही संरक्षित क्षेत्र के रूप में विद्यमान है। यह क्षेत्र वन्यजीवों के पर्यावास की दृष्टि से पर्याप्त नहीं है। एक ओर संरक्षित क्षेत्रों का आकार बेहद छोटा है, वहीं दूसरी ओर रिज़र्व में वन्यजीवों को पर्याप्त आवास उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त बड़े वन्यजीवों जैसे- बाघ, हाथी, भालू, आदि के शिकारों के पनपने के लिये भी पर्याप्त परिवेश उपलब्ध नहीं हो पाता। उपर्युक्त स्थिति के कारण वन्यजीव भोजन आदि की ज़रूरतों के लिये खुले आवासों अथवा मानव बस्तियों के करीब आने को मजबूर होते हैं। यह स्थिति मानव-वन्यजीव संघर्ष को जन्म देती है।</p>
<p style="text-align: justify;">अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आँकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में भारत दुनिया के सबसे तेज़ी से विकास कर रहे देशों में शामिल रहा है। वैश्विक बाज़ार में भारत की इस बढ़त ने देश के सुदूर हिस्सों में भी विकास कार्यों में तेज़ी प्रदान की है। परंतु कई बार विकास-कार्यों, अवसंरचना निर्माण के दौरान पारिस्थितिकी के क्षरण को रोकने के लिये आवश्यक मापदंडों का पालन नहीं किया जाता, जो कि वन्यजीव पारिस्थितिकी के संरक्षण में एक बड़ी चुनौती है। इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन ने भी वन्यजीवों के पर्यावास को क्षति पहुँचाई है। इसी कारण वन्यजीवों का मानव की रिहायशी बस्तियों की ओर पलायन हुआ है। वन्यजीवों के प्रभावी संरक्षण हेतु इन चुनौतियों से निपटने की बेहद आवश्यकता है।</p>
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<h3><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong><span style="font-size: 18px; background-color: #003366;"> संकर्षण शुक्ला </span></strong></span></h3>
<p>संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">मैं वो हूं जो आज बस और ट्रेन में चलने से डरता है..मैं वो हूं जो काम पर जाता है तो उसकी बीवी को लगता है जंग पे जा रहा है, पता नहीं लौटेगा या नहीं...मैं वो हूं जो कभी बरसात में फंसता है, कभी ब्लास्ट में..झगड़ा किसी का भी हो, बेवजह मरता मैं ही हूं " फिल्म ए वेडनसडे का यह संवाद साल 1913 में आई भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' जो की एक मूक फिल्म थी, से अब तक के सिनेमाई विकास की यात्रा को शानदार तरीके से बयां करता है। राजा हरिश्चंद्र, मुगले-आजम, मदर इंडिया, शोले और लगान से होते हुए आरआरआर तक ने भारतीय सिनेमा ने सफलता के नए मानक गढ़े हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">सिनेमा, जिसे मोशन पिक्चर या फिल्म के रूप में जाना जाता है, आज मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन है। आज सिनेमा हम भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। बिना रंग वाले सिनेमा से लेकर कलरफुल सिनेमा तक; मूक फिल्मों से डॉल्बी साउंड तक, रीलों से एकल शोरील तक; जीरो ग्राफिक्स से लेकर एनिमेशन व वीएफएक्स तक भारतीय सिनेमा का सफर काफी अनूठा रहा है। सिनेमा, सेल्युलाइड पर लिखे जाने वाली साहित्य की आधुनिक विधा माना जाता है जिसमें साहित्य, चित्र, नृत्य और संगीत जैसी सभी विधाएँ आकर समाहित हो जाती हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">भारतीय सिनेमा का विकास एकाएक नहीं हुआ है। भारतीय फिल्म उद्योग दादा साहेब द्वारा बनायी गई पहली मूक फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के बाद से एक लंबा सफर तय कर चुका है। दादा साहेब फाल्के को "भारतीय सिनेमा का जनक" भी माना जाता है। हालांकि यह एक मूक फिल्म थी, लेकिन उन्हें क्या पता था कि वह एक ऐसी कला को जन्म दे रहे हैं जिसकी आवाज दुनिया भर में गूंजेगी। उनकी पहल ने हमारे देश में कई फिल्म निर्माताओं के उदय को प्रेरित किया। वहीं, ध्वनि के साथ पहली मोशन पिक्चर यानी अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्देशित 'आलमआरा' जो 14 मार्च 1931 को रिलीज़ हुई थी। फिल्म ने अपने गानों और बेहतरीन संवादों के जरिए खूब वाह-वाही लूटी। मनोरंजन के इस नए माध्यम लोगों की बढ़ती दिलचस्पी को देखते हुए देश के लगभग सभी नगरों में सिनेमाघर स्थापित किए गए, इससे फिल्म निर्माण को गति मिली।</p>
<p style="text-align: justify;">1944 से 1960 के दशक तक की अवधि को फिल्म इतिहासकारों द्वारा भारतीय सिनेमा का 'स्वर्ण युग' माना जाता है। इस दौर में मनोरंजन प्रधान फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ। अब सिनेमा में सामाजिक संदर्भ, ऐतिहासिक वास्तविकता और तात्कालिकता की भावना प्रमुख हो गई। उस समय शहरी जीवन पर कई अच्छी फिल्में बनीं, जिसमें मदर इंडिया, मुगले आजम, गुरु दत्त की प्यासा (1957) और फूल (1959) और राज कपूर की आवारा और श्री 420 (1955) शामिल हैं। इन फिल्मों ने मुख्य रूप से भारत में कामकाजी वर्ग के शहरी जीवन से संबंधित सामाजिक विषयों को व्यक्त किया। यही वह समय था जब समानांतर सिनेमा अस्तित्व में आया और सत्यजीत रे से शुरू हुई इस परंपरा को ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे निर्माताओं ने आगे बढ़ाया। यह भारतीय रंगमंच और बंगाली साहित्य का प्रभाव था जिसने समानांतर सिनेमा को जन्म दिया और इसके प्रभाव को देश के कई हिस्सों में भी प्रोत्साहित किया गया और इस समयावधि में सिनेमा ने लगभग सभी स्तरों पर सफलता प्राप्त की।</p>
<p style="text-align: justify;">70 और 80 के दशक में "मसाला" फिल्मों का निर्माण करने की प्रवृत्ति बढ़ी। यह दौर डरावनी, रहस्यमयी, कॉमेडी, एक्शन, थ्रिलर और रोमांटिक शैली की एक से बढ़कर एक देखने को मिलती हैं। मसाला फिल्मों में वह सब कुछ था जो दर्शकों को बांधे रख सकता था। इस दौर में आयी शोले, दीवार, अमर अकबर एन्थोनी, आनंद जैसी फिल्मों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। शोले फिल्म को भारतीय सिनेमा की कल्ट क्लासिक फिल्मों में शुमार किया जाता है जिसने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। ध्वनि प्रौद्योगिकी, नृत्यकला और तकनीकी में उन्नति ने भारतीय सिनेमा को एक वैश्विक मंच पर लाने का मार्ग प्रशस्त किया, जैसा कि हम आज देखते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">90 के दशक में कॉर्पोरेट जगत धीरे-धीरे निर्माता के रूप में फिल्म उद्योग में प्रवेश कर रहा था। उदारीकरण (1991) सिनेमा में भी काफी तरह के बदलाव लेकर आया। पूँजी फिल्म निर्माण में अब बाधा नहीं थी सो अब बड़े बजट की फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ और कलरफुल फिल्मों की बहार सी आ गई। निर्माताओं ने अपनी फिल्मों को बड़े स्तर पर शूट करना शुरू किया, साल 1995 में आयी दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे इसका एक उदाहरण भर है। यह दौर रोमांटिक म्यूजिकल फिल्मों का माना जा सकता है। आज भी उन फिल्मों के संवाद और गाने लोगों की जुबान पर हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">साल 2000 से अब तक भारतीय सिनेमा ने काफी प्रगति कर ली है। बीस के दशक के शुरू में हर साल करीब 27 फ़िल्में बनती थी आज यह संख्या 2000 फिल्मों तक पहुंच गयी है। आज का सिनेमा 'ब्लॉकबस्टर' और 'बॉक्स ऑफिस कलेक्शन' के इर्द-गिर्द घूमता है। उसकी सौ करोड़ों की छलांगे देखकर आंखें चौंधिया जाती हैं। तकनीकीगत कुशलता ने फिल्मों को लार्जर देन लाइफ वाला बना दिया है। बाहुबली, रॉ वन, रोबोट जैसी फिल्मों में यह देखा जा सकता है। पूंजीगत निवेश और सरकारी सहायता ने इसमें काफी मदद की है। वहीं, ओटीटी और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स ने लोगों के चयन का दायरा बढ़ा दिया है। धर्मिक और पौराणिक कथाओं से शुरु हुआ भारतीय सिनेमा का यह सफर बाजारवादी सिनेमा तक पहुंचते-पहुंचते कई करवटें ले चुका है।</p>
<p style="text-align: justify;">जब बात भारतीय सिनेमा की होती है तो लोग इसे बॉलीवुड या हिंदी सिनेमा से जोड़कर देखते हैं पर ऐसा बिलकुल भी नहीं है। यह बात काफी हद तक सच है कि बॉलीवुड की फिल्मों की लोकप्रियता काफी अधिक है पर बीते कुछ सालों में क्षेत्रीय सिनेमा की फिल्मों को दर्शकों ने खूब पसंद किया है। अब क्षेत्रीय सिनेमा अपने दायरे से निकलकर पैन इंडिया फिल्मों की तरफ मुड़ गया है। बाहुबली, पुष्पा, आरआरआर, केजीएफ और कांतारा ने सफलता के नए कीर्तिमान गढ़े हैं। इन फिल्मों को भारत के बाहर भी खूब पसंद किया गया। कन्नड़, तमिल, तेलगू, मलयालम और मराठी सिनेमा इंडस्ट्री में एक से बढ़कर एक फिल्में बन रहीं हैं और बेहतर डबिंग के कारण भाषाई कठिनाई अब खत्म हो गई है। बीते पांच सालों में फार्मूला बेस्ड फिल्मों से अलग तरह का सिनेमा देखने को मिला है। कुबलंगी नाइट्स, वायरस, सुपर डीलक्स, जय भीम और द ग्रेट इंडियन किचन जैसी फिल्मों को देखकर लगता है कि हिंदी सिनेमा में तो ऐसा कुछ बना ही नहीं। यही कारण है कि आज बॉलीवुड में बनने वाली अधिकतर बड़ी फिल्में क्षेत्रीय फिल्मों का रीमेक होती हैं। आज तकनीक के चलते देशीय और क्षेत्रीय सीमाएं धुंधली पड़ गई हैं। इसे सही मायने में भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम दौर कह सकते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">विश्व सिनेमा जितना व्यापक है, उतनी ही व्यापकता और भव्यता भारतीय सिनेमा में भी देखी जा सकती है। दुनिया में आज साल भर में 2000 फिल्में बनानी वाली कोई इंडस्ट्री नहीं है। वैश्वीकरण के इस दौर में सिनेमा की पहुंच उस व्यक्ति तक भी है जो न तो उस देश को और वहां की भाषा को अच्छे से जानता है। अपने शानदार कंटेंट के कारण अंधाधुन, दंगल, बजरंगी भाईजान, थ्री इडियट्स और हिंदी मीडियम जैसी फिल्मों को चीन, अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात में खूब पसंद किया गया। उदारीकरण के बाद देश में एक नए मध्य वर्ग का उदय हुआ है जो अच्छे कंटेट के लिए पैसे खर्च करने को तैयार है और उसकी इस जरूरत को ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने काफी हद तक पूरा भी किया है। जरूरत है सरकार द्वारा प्रोत्साहन और सहायता की जिससे मनोरंजन के साथ-साथ सिनेमा के जरिए रोजगार भी पैदा हों।</p>
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<h3><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> अनुज कुमार वाजपेई </span></strong></h3>
<p>अनुज कुमार वाजपेई, उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के रहने वाले हैं। स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से करने के बाद इन्होंने IIMC DELHI से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा किया है। कई संस्थानों में काम करने के बाद आजकल ये अनुवादक का कार्य कर रहे हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">संसार में समस्त प्राणियों में मनुष्य सृष्टि की अनुपम रचना है। मनुष्य को विवेक उपहार में मिला है। मानव सभी प्राणियों में श्रेष्ठतम प्राणी माना जाता है। मनुष्य सुख शांति और दुखों का स्वयं जिम्मेदार है। मनुष्य ने ज्ञान -विज्ञान के दम पर जीवन को सरल बनाया है,जीवन जीने के तरीक़े बदले हैं। भौतिक सेवाएँ अपने श्रेष्ठतम पर हैं , मनुष्य ने तकनीकी उपकरणों से शारीरिक और मानसिक श्रम को बहुत कम कर लिया है फिर भी सुख, शांति, प्रसन्नता और सुकून की तलाश में पूरी दुनिया में भटक रहा है। वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट – 2022 में 146 देशों की सूची में भारत का 136 वां स्थान है। प्रथम और द्वितीय स्थान फिनलैंड और डेनमार्क का है। भारत जैसे देश जहाँ आध्यात्मिक शक्ति से वशीभूत होकर विश्व भर से लोग शांति की तलाश में खिंचे चले आते हैं उस देश के लिए ये रिपोर्ट चौकाने वाली है। भारत अपने रंगीन संस्कृतिक जिंदादिली के लिए पहचाना जाता है, जिसके ज्ञान का नूर सारे जहाँ को रोशन करता है आज वो खुद को खुद से प्रसन्न रखना क्यों भूल रहा है। मनुष्य ने सुख चैन की तलाश में मुस्कुराहट खो दिया है, अच्छा जीवन जीने के लिए व्यक्ति का खुश रहना बेहद जरूरी है। हमारे शास्त्र कहते हैं हम सब का उद्देश्य एक है दु:खों से निवृत्ति पाना और सुख की प्राप्ति करना; सुख प्रसन्नता में निहित होती है। प्रसन्नता से आनंद की अनुभूति होती है। खुशी एक एहसास है, आंतरिक अनुभव है; ये किसी बाह्य कारकों पर निर्भर नहीं करती है। मनुष्य को अपनी जरूरी वस्तुओं के साथ प्रसन्नता को शारीरिक अंग के रूप में शामिल करना चाहिए। प्रसन्नता का अनुभव मनोवैज्ञानिक क्रिया है। प्रसन्नता के एहसास से मनुष्य में डोपोमाइन हार्मोन स्रावित होते हैं जिससे मनुष्य के मन-मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। प्रसन्नता का सम्बन्ध संस्कार से होना चाहिए न कि लक्ष्य प्राप्ति या कार्यों की पूर्ति से। जिंदगी के लक्ष्य के साथ प्रसन्नता का लक्ष्य भी होना चाहिए। सभी लक्ष्य के मार्ग प्रसन्नता से होकर गुजरते हैं। कार्य और प्रसन्नता का लक्ष्य एक नहीं होना चाहिए। मनोवैज्ञानिक पीटर किंडरमैन कहते हैं कि- ‘’हमारी ख़ुशी का राज़ इस बात में छुपा है कि हम अपने जज़्बातों के पेचीदगियों को समझें, फिर जो बातें हमारे ज़हन में नकारात्मक भाव पैदा करती हैं , उनसे निपटने के तरीक़ों पर काम करें, इस तरह से प्रसन्नता हासिल की जा सकती है।“ हमारी परिस्थितियाँ कैसी भी हों , हमें हर परिस्थियों में प्रसन्न रहना चाहिए । जार्ज बर्नार्ड शॉ कहते हैं कि - ‘जीवन अपने आप को खोजने का नाम नहीं वरन् स्वयं के निर्माण का नाम है।’ इस बात को आज देश को समझना चाहिए कि खुशहाली देश की सबसे बड़ी संपत्ति है, इसे बचाने के लिए सकल घरेलू उत्पाद के स्थान पर सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता को अपनाना चाहिए जैसे भूटान की राष्ट्रीय सफलता का पैमाना उसके सकल घरेलू उत्पाद के स्थान पर सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता को माना गया है। आज प्रसन्नता का पाठ स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में शामिल करने की जरूरत है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>प्रसन्नता क्यों जरूरी है:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">मनुष्य को जीवन जीने के लिए वायु, जल और भोजन की आवश्यकता होती है। स्वास्थ्य, सुखमय और लंबा जीवन जीने के लिए मनुष्य को प्रसन्नता की भी आवश्यकता है। अप्रसन्न व्यक्ति न तो पूरी तरह से स्वस्थ है और न ही मन से स्थिर। अप्रसन्न व्यक्ति घोर निराशावादी होता है, उसे सूर्य के प्रकाश में अंधकार नजर आता है। अप्रसन्न व्यक्ति मानसिक रूप से समाज से जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर पाता है। अप्रसन्न व्यक्ति सदैव चिंताग्रस्त ,स्वभाव में आक्रोश, नकारात्मक सोच से घिरा रहता है। प्रसन्नता प्रत्येक वस्तुओं में सकारात्मकता की बोध कराती है। प्रसन्नता से मनुष्य के शरीर में ऑक्सीजन का प्रवाह बढ़ता है। जीवन में प्रसन्नता और सफलता दोनों के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण की जरूरत होती है। प्रसन्नता मानसिक शक्ति और शांत सुखमय जीवन की सक्रियता को बढ़ाने में सहायक होती है। प्रोफेसर रुट वीनहोवन का कहना है कि – “एक ख़ुशहाल जिंदगी बिताने के लिए ज़रूरी है कि आप सक्रिय रहें, इसलिए हम यहाँ क्यों हैं और ऐसा क्यों है? ये सोचने की बजाय ख़ुश होना बेहद ज़रूरी है।“ प्रसन्नता से कई बीमारियों का इलाज सम्भव है, मन और मस्तिष्क के विकारी तत्व को दूर करने में यह सहायक है। एक छोटी सी मुस्कान से आपसी रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है। प्रसन्न व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है जिससे कार्य करने की क्षमता अधिक होती है साथ ही मानसिक रूप से समृद्धि भी होता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>प्रसन्न कैसे रहें :</strong></p>
<p style="text-align: justify;">प्रसन्नता किसी दुकान से खरीदी जाने वाली वस्तु नहीं है, यह केवल अनुभव और हमारे एहसासों पर निर्भर करता है। प्रसन्नता सम्पन्नता पर निर्भर नहीं करता है। प्रत्येक व्यक्ति को भविष्य की चिंता से मुक्त होकर वर्तमान में जीना चाहिए। सर विलियम ऑस्लर कहते हैं’ सिर्फ आज में जियो ‘वर्तमान में अच्छा कार्य करेंगे तो भविष्य बेहतर होगा । बुद्धिमान व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन एक नया जीवन होता है, तो हम अपना समय और खुशी भविष्य की चिंता में क्यों व्यर्थ करें। प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु में सकारात्मकता तलाशे, ऐसे व्यक्तियों ,कार्यों से दूर रहे जिसमें नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हो, आत्मविश्वास और सोच में हीनभावना जन्म ले। रोमन कवि होरेस ने लिखा है” वही और केवल वही खुश है, जो आज को अपना कह सकता है, जो आत्मविश्वास से कह सकता है, कल तुम्हें जो करना हो कर लेना , मैंने आज तो जी लिया है”। प्रसन्न रहने के लिए योग को अपने जीवन में उतारें, योग आध्यात्मिक अनुशासन है जिसमें हमारे मन ,तन और प्रकृति के बीच एकात्म भाव स्थापित करते हैं। प्रतिस्पर्धा से बचना चाहिए, अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य करें । खुद की तुलना दूसरों से न करें, क्योंकि सभी व्यक्तियों में एक जैसी क्षमता, साहस और कार्यशैली नहीं पाई जाती हैं। प्रकृति के करीब रहें, मनपसंद स्थानों पर भ्रमण करें, अपने परिवार के सदस्यों के बीच संवाद स्थापित करें, समस्याओं पर खुल कर बात करें। लालच,ईर्ष्या किसी प्राणी के प्रति न रखें। मनुष्य की सभी प्रकार की इच्छाएँ पूर्ण होने पर भी प्रसन्नचित नहीं हो सकता है क्योंकि प्रसन्नता के बीज मन में प्रस्फुटित होते हैं और मन मस्तिष्क को प्रशिक्षण प्रदान करता है, मस्तिष्क शरीर को संचालित करता है। प्रसन्नता हमारे मस्तिष्क को शांति,साहस, स्वस्थ और आशावादी विचारों से भर देती हैं, क्योंकि मनुष्य का जीवन विचारों से निर्मित होता है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>निष्कर्ष :</strong></p>
<p style="text-align: justify;">किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी पूँजी उस राष्ट्र के नागरिक होते हैं। जो राष्ट्र जितना प्रसन्न होगा वह उतनी ही तेजी से उन्नति करेगा। आज जरूरत है सभी देशों को बाजारीकरण के होड़ से बाहर निकल कर अपने नागरिकों के लिए एक मंथन करने की, आखिर क्या कारण है कि विज्ञान और तकनीकी की खोजों ने मनुष्य के जीवन को आसान बनाने के साथ खुशी छीन ली है। प्रत्येक व्यक्ति को इस बात को समझना चाहिए कि सबसे बड़ा धन प्रसन्नता में है। एक प्रसन्न राष्ट्र में योग्य प्रशासन, रोजगार, अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार से मुक्त एक कल्याणकारी राष्ट्र बनाने की शक्ति समाहित होती है। आत्मनिर्भरता का सपना तभी सच होगा जब सभी लोगों में प्रसन्नता बढ़ेगी। राष्ट्र के नागरिक जब प्रसन्नता से सम्पन्न होंगे तभी राष्ट्र का आर्थिक ,सामाजिक और राजनीतिक विकास संभव हो पायेगा।</p>
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<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1680184110_Ajay.png" style="display: block; margin-left: auto; margin-right: auto;" caption="false" width="435" /></td>
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<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> अजय प्रताप तिवारी </strong></span></h3>
<p>अजय प्रताप तिवारी, यूपी के गोंडा जिले के निवासी हैं। इन्होंने विज्ञान और इतिहास में पढ़ाई करने के बाद देश के प्रतिष्ठित अखबारों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेखन कार्य किया है। इसके साथ ही इन्हें साहित्य और दर्शन में रुचि है।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;"><em>बात 23 मार्च 1931 की शाम की है। भगत सिंह प्राणनाथ मेहता की लाई लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। अफसर ने दरवाजा खोला और कहा, “सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है। तैयार हो जाइए।” भगत सिंह के हाथ में किताब थी, उससे नज़रे उठाए बिना ही उन्होंने कहा, “ठहरिये! एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।” कुछ और पंक्तियां पढ़कर उन्होंने किताब रखी और उठ खड़े होकर बोले, चलिए!...</em>और इस प्रकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तय दिन से एक दिन पहले फांसी दे दी गई।</p>
<p style="text-align: center;">प्रस्तुत प्रसंग का वर्णन वीरेंद्र सिन्धु ने अपनी पुस्तक “शहीद भगत सिंह” में किया है।</p>
<p style="text-align: justify;">हमारे बीच में से अधिकांश लोग भगत सिंह को मात्र एक क्रांतिकारी की तरह ही मानते हैं परन्तु भगत सिंह मात्र एक क्रांतिकारी ही नहीं थे। भगत सिंह एक विचार है। एक दर्शन, जिसने क्रांतिकारी गतिविधियों को एक दार्शनिक आयाम दिया। भगतसिंह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगतसिंह के चिन्तनशील व्यक्तित्व की व्यापकता और गहराई पर और अधिक प्रकाश पड़ा है। यह सच्चाई भी पुष्ट हुई है कि भगतसिंह ने अपने अन्तिम दिनों में सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद बुद्धिसंगत ढंग से मार्क्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाया था। हालांकि यह आश्चर्यजनक है कि किस प्रकार उन्होंने ब्रिटिश सेंसरशिप के बावजूद पठन हेतु पुस्तकें और सामग्री एकत्रित की और महज 23 वर्ष की छोटी सी उम्र में चिन्तन का जो स्तर उन्होंने हासिल कर लिया था, वह उनके युगद्रष्टा युगपुरुष होने का ही प्रमाण था। यह सोचना गलत नहीं है कि भगत को 23 वर्ष की अल्पायु में यदि फाँसी नहीं हुई होती तो राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का इतिहास और भारतीय सर्वहारा क्रान्ति का इतिहास शायद कुछ और ही ढंग से लिखा जाता। बहरहाल यह उतना ही दुखद है कि आज भी इस देश के शिक्षित लोगों का एक बड़ा हिस्सा भगत को एक ओर महान तो मानता है, पर यह नहीं जानता कि 23 वर्ष का वह युवा एक महान चिन्तक भी था।</p>
<p style="text-align: justify;">किसी भी महान व्यक्ति का अध्ययन तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। यदि भगत सिंह का झुकाव मार्क्सवाद की तरफ हुआ तो उसके पीछे भी कई कारण विद्यमान थे। दरअसल 1917 की रूस की क्रांति के बाद मार्क्सवाद और समाजवाद पूरी दुनिया में बूम कर गया था। सर्वहारा वर्ग द्वारा निरंकुश शासन पर विजय को हर जगह सराहना मिली और इसे सर्वहारा (शोषित) वर्ग के पक्ष में क्रांति कहा गया। दूसरी बात , 1920 के दशक में पूरे विश्व में समाजवाद की लहर दौड़ रही थी। यही वजह थी कि राष्ट्रीय आंदोलन के कई पुरोधा भी उस लहर से अछूते न रहे। सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू भी समाजवाद के काफी प्रभावित थे। इसके अलावा, 1929-1930 के समय वैश्विक महामंदी के कारण पूंजीवाद की सर्वश्रेष्ठता का भ्रम टूटा और उसकी खामियां उभरकर सामने आई। इसी दौर में, दुनिया को समाजवाद पूंजीवाद के एक श्रेष्ठ विकल्प के रूप में दिखाई देने लगा। यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी समाजवाद की लहर से अछूती ना रही।</p>
<p style="text-align: justify;">यही वो परिस्थितियां थी जिनके आलोक में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी भी मार्क्सवाद और समाजवाद की तरफ आकर्षित हुए।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>आख़िर क्या था भगत सिंह का मार्क्सवादी समाजवाद?</strong></p>
<p style="text-align: justify;">अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भगत सिंह का मन वैयक्तिक हत्या तथा हिंसक गतिविधियों से विरक्त हो गया था। उनका प्रसिद्ध वक्तव्य था: “पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।” इस प्रकार वे मार्क्सवाद की तरफ प्रभावित हुए। उन्होंने कार्ल मार्क्स, व्लादिमीर लेनिन तथा लियोन त्रोत्सकी को पढ़ा। लेकिन वे मार्क्स से कहीं ज्यादा लेनिन के मार्क्सवाद से प्रभावित थे। अपने लेख “टू यंग पॉलिटिकल वर्कर्स” में उन्होंने अपने आदर्श को “नए अर्थात मार्क्सवादी आधार पर सामाजिक पुनर्निर्माण” के रूप में घोषित किया। भगत सिंह का मार्क्सवाद तथा समाज के सम्बन्ध में मार्क्स की वर्गीय अवधारणा में पूर्ण विश्वास था। वे कहते थे ‘किसानों और गरीबों को सिर्फ विदेशी शोषणकर्ताओं से ही मुक्त नहीं होना है अपितु उन्हें पूंजीपतियों और जमीदारों के चंगुल से भी मुक्त होना है।’ उन्होंने समाजवाद की धारणा को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया, जिसका अर्थ था पूंजीवाद और वर्ग प्रभुत्व का पूरी तरह अंत। भगत सिंह पूंजीवाद की अवधारणा को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना सामाजिक और राजकीय दोनो परिप्रेक्ष्य में की। अपनी जेल डायरी में वे लिखते हैं,</p>
<p style="text-align: justify;"><em>“लोकतन्त्र सिद्धान्ततः राजनीतिक और कानूनी समानता की व्यवस्था है, किन्तु ठोस और व्यावहारिक रूप में यह झूठ है, क्योंकि जब तक आर्थिक सत्ता में भारी असमानता है, तब तक कोई समानता नहीं हो सकती, न राजनीति में और न कानून के सामने।…पूँजीवादी शासन में लोकतन्त्र की सारी मशीनरी शासक अल्पमत को श्रमिक बहुमत की यातनाओं के जरिये सत्ता में बनाये रखने के लिए काम करती है।”</em></p>
<p style="text-align: justify;">जेल में वह सारी मानवजाति के हित में अर्थव्यवस्था और प्राकृतिक संपदा पर वितरण हेतु विश्व समाजवादी क्रांति के विचार में लीन रहे। जेल डायरी के पृष्ठ 190 पर उन्होंने लिखा “समाजवादी व्यवस्था: प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार।” इस प्रकार भगत सिंह के विचारों में समाजवाद की ओर झुकाव काफी पहले से दिखाई देने लगा था। किंतु बाद में वे वैयक्तिगत हिंसा, हत्या और क्रान्तिकारी गतिविधियों से अरुचि से भरने लगे थे। उसके पश्चात वे मार्क्सवाद की और तेजी से झुकते हुए प्रतीत हुए। यही कारण था कि 1928 में उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम परिवर्तित कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) कर दिया। और क्रान्ति की पुनर्व्याख्या करते हुए एवं स्वतंत्र राष्ट्र के निमार्ण हेतु एक ठोस कार्ययोजना प्रस्तुत की। यही विचार उनके भारत नौजवान सभा के गठन के समय युवाओं को सशक्त करने में दिखाई देता है। यदि वह अधिक समय तक जीवित रहते तो उनमें वह प्रतिभा थी कि वह राष्ट्र के भविष्य को भी निर्धारित कर सकते थे।</p>
<p style="text-align: justify;">राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, तत्कालीन समाज विभिन्न समस्याओं से भी उलझ रहा था। भगत सिंह मार्क्सवाद में विश्वास रखने के साथ साथ सामाजिक समस्याओं पर चिंतन भी किया करते थे। जेल में उन्होंने चार पुस्तकें लिखीं थी, दुर्भाग्य से जिनकी पांडुलिपियां आज उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त ‘किरती’ और ‘वीर अर्जुन’ समेत कई पत्रिकाओं में उन्होंने लेख लिखे। इसी परिदृश्य में उन्होंने कुछ लेख लिखे। जोकि इस प्रकार हैं,</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“अछूतो की समस्या” का हल</strong></p>
<p style="text-align: justify;">1920 के दशक में जब राष्ट्रीय आंदोलन अपने प्रवाह में चल रहा था और जन आंदोलन में तब्दील हो रहा था। अंबेडकर भी राजनीति में सक्रिय भूमिका में आ गए थे। और अछूत समस्या की गुत्थी सुलझाने के प्रयत्न प्रारंभ हो गए थे। इसी बीच भगत सिंह ने “किरती” नामक पंजाबी पत्रिका में ‘अछूत का सवाल’ लेख लिखा जोकि जून 1928 में प्रकाशित हुआ। इस लेख में श्रमिक वर्ग की शक्ति व सीमाओं का अनुमान लगाकर उसकी प्रगति के लिए ठोस सुझाव दिये गये थे। सिंध के श्री नूर मोहम्मद का संदर्भ देते हुए वो कहते हैं कि जब तुम एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से इंकार करते हो, स्कूल में पढ़ने का अधिकार नहीं देते, भगवान के मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं देते और एक इंसान के समान अधिकार देने से इन्कार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए? वे कहते हैं कि एक कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है परंतु एक इंसान के स्पर्श मात्र से बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है। आखिर यह कैसी विडंबना है? इस समस्या ने निदान में वह कहते हैं कि सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इन्सान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से। वे अछूत कौम को स्पष्ट रुप से संगठित होने का आह्वान करते हैं। भगत सिंह अछूतो और श्रमिको को असली सर्वहारा के रूप में घोषित करते हुए कहते हैं दूसरो की ओर मुंह न ताको, संगठित हो जाओ। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा करदो और राजनीतिक, आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“सांप्रदायिक समस्या” का हल</strong></p>
<p style="text-align: justify;">असहयोग और खिलाफत आंदोलन की समाप्ति के बाद मुस्लिम लीग और कांग्रेस के रास्ते अलग अलग हो गए। और इसी दशक में देश में सांप्रदायिक दंगे भड़कने लगे। 1926 में कलकत्ता में एक भयानक दंगा हुआ। संयुक्त प्रांत में 1923 और 1927 के बीच लगभग 88 दंगे हुए, जिनके कारण हिंदू-मुस्लिम संबंध लगभग पूरी तरह भंग हो गए। इसी समस्या पर विचार हेतु भगत सिंह ने किरती पत्रिका में “सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़” लेख लिखा। इस लेख में वे सांप्रदायिकता के आलोक में भारत के भविष्य पर प्रश्न उठते हैं। पहली बात, वे दंगों का इलाज भारत की आर्थिक दशा में सुधार को बताते हैं कि भारत के लोगो की आर्थिक हालत इतनी खराब है कि उन्हें एक दूसरे के खिलाफ भड़काना काफी आसान है। क्योंकि भूखा व्यक्ति अपने सिद्धांत ताक पर रख देता है। दूसरी बात, वे लोगो को परस्पर जोड़ने के लिए वर्ग-चेतना की समझ को आवश्यक बताते हैं। वर्ग चेतना की समझ से युक्त व्यक्ति धार्मिक दंगों में नही उलझता। तीसरी बात, वे धर्म को राजनीति से अलग करने पर बल देते हैं कि धर्म एक व्यक्तिगत मामला है, उसे राजनीति में शामिल नहीं करना चाहिए। भगत सिंह कहते हैं कि यदि सांप्रदायिकता को खत्म करना है तो हमें किसी भी व्यक्ति को ‘इन्सान’ के रूप में देखना होगा नाकी किसी ‘धर्म विशेष के व्यक्ति के रूप में’।</p>
<p style="text-align: justify;">सारतः भगत सिंह के संपूर्ण व्यक्तित्व को देखा जाए तो उन्हें मात्र क्रान्तिकारी संबोधित करना न्यायसंगत न होगा। अपितु वह एक सशक्त क्रांतिकारी होने के साथ साथ एक विचारक,चिंतक और बुद्धिजीवी व्यक्तित्व थे। वे अन्य क्रान्तिकारियों से विशिष्ट थे क्योंकि वे राष्ट्र निर्माण का वैकल्पिक विचार रखते थे। बाद में सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था, “भगत सिंह युवाओं में नई जागृति के प्रतीक बन गए थे।” अन्त में शहीद भगत सिंह की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देता हूं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>“दिल से ना निकलेगी, मर कर भी वतन की उल्फत</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ऐ-वतन आएगी।”</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:</strong></p>
<ol>
<li style="text-align: justify;">स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष – बिपन चंद्र</li>
<li style="text-align: justify;">प्लासी से विभाजन तक और उसके बाद – शेखर बंदोपाध्याय</li>
<li style="text-align: justify;">रिवॉल्यूशनरी: द अदर स्टोरी ऑफ हाउ इंडिया वोन इट्स फ्रीडम – संजीव सान्याल</li>
<li style="text-align: justify;">मै नास्तिक क्यों हूं? – भगत सिंह</li>
<li style="text-align: justify;">जेल डायरी ऑफ भगत सिंह – भगत सिंह</li>
<li style="text-align: justify;">गांधी और भगत सिंह – वी. एन. दत्ता</li>
<li style="text-align: justify;">ऑनलाइन और अन्य आर्काइव्स स्त्रोत</li>
</ol>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
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<h3><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> आशू सैनी </strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">आशू सैनी, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले से हैं। इन्होंने स्नातक बी.एस.सी (गणित) विषय से और परास्नातक एम.ए (इतिहास) विषय से किया है। इन्होंने इतिहास विषय से तीन बार यू.जी.सी. नेट की परीक्षा पास की है। वर्तमान में इतिहास विषय में रिसर्च स्कॉलर (पी.एच-डी) हैं। पढ़ना, लिखना, सामजिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करना और संगीत सुनना इनकी रुचि के विषय हैं। इनके कई लेख दैनिक जागरण और जनसत्ता में प्रकाशित हो चुके हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">पंचतत्व जीवन के लिए आधार माने गए हैं। उसमें से एक तत्व जल भी है। अगर जल ही नहीं रहेगा तो जीवन की कल्पना कैसी और सृष्टि का निर्माण कैसा? जल का महत्व इस बात का भी परिचायक है कि दुनिया की बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ और प्राचीन नगर नदियों के किनारे ही बसे और फले-फूले। लेकिन,आज विकास की अंधी दौड़ और विलासिता भरी जिंदगी में प्राकृतिक संसाधनों का तो जैसे कोई मोल नहीं रह गया है।</p>
<p style="text-align: center;"><strong>"बड़बोले पृथ्वी पर</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>मनुष्य की अन्यतम उपलब्धियों के</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>अंत की घोषणा कर चुके हैं</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>और अंत में बची है पृथ्वी</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>उनकी जठराग्नि से जल-जंगल-ज़मीन</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>खतरे में हैं</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>खतरे में हैं पशु-पक्षी-पहाड़</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>नदियाँ-समुद्र-हवा खतरे में हैं।"</strong></p>
<p style="text-align: justify;">लेखक दिनेश कुरावाहा की उपरोक्त पंक्तियाँ स्पष्टतः बताती हैं कि मनुष्य ने किस तरह प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है और अपने लिए खतरे की स्थिति उत्पन्न कर ली है। आज अधिकांश प्राकृतिक संसाधन समाप्ति की कगार पर हैं जिनमें से जल भी एक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि-</p>
<p style="text-align: center;"><strong>जल है तो जीवन है, जीवन है तो ये पर्यावरण है,</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>पर्यावरण से ये धरती है, और इस धरती से हम सब है।</strong></p>
<p style="text-align: justify;">लेकिन, पर्यावरण के साथ निरंतर खिलवाड़ का यह परिणाम हुआ कि आज दुनिया के अधिकांश देश अपनी आबादी को पीने का स्वच्छ पानी तक मुहैया नहीं करा पा रहे हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। तमाम रिपोर्टे इस बात को चीख-चीखकर कह रही हैं कि यदि आज हम जल-संसाधन का उचित प्रबंधन नहीं कर पाते हैं तो भावी पीढ़ी जल के एक-एक बूंद के लिए तरस जाएगी। एक शोध के मुताबिक आज जिस रफ्तार से जंगल खत्म हो रहे हैं उससे तीन गुना अधिक रफ्तार से जल के स्रोत सूख रहे हैं। नीति आयोग के <strong>'समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (Composite Water Management Index)'</strong> की माने तो भारत के लगभग 600 मिलियन से अधिक लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। रिपोर्ट में इस बात का भी अंदेशा जताया गया है कि साल 2030 तक भारत में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी हो जाएगी। इसके अलावा भारत इस समय पेयजल के साथ-साथ कृषि उपयोग हेतु जल संकट से भी गुजर रहा है और यह संकट वैश्विक स्तर पर साफ दिख रहा है। <strong>'सक्रिय भूमि जल संसाधन मूल्यांकन रिपोर्ट 2022'</strong> के मुताबिक भारत में कुल वार्षिक भू-जल पुनर्भरण 437.60 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) है, जबकि वार्षिक भू-जल निकासी 239.16 BCM है। इन आँकड़ों से एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि भारत विश्व में भू-जल का सबसे अधिक निष्कर्षण करता है। हालाँकि, भारत में निष्कर्षित भू-जल का केवल 8 फीसद ही पेयजल के रूप में उपयोग किया जाता है। जबकि, इसका 80 फीसद भाग सिंचाई में और शेष 12 प्रतिशत हिस्सा उद्योगों द्वारा उपयोग किया जाता है। ऐसे में देश में भू-जल की मात्रा में भी दिनों-दिन कमी आ रही है।</p>
<p style="text-align: justify;">लिहाजा, दुनियाभर के देशों को इस जल संकट को दूर करने की दिशा में ठोस कदम उठाने पर विचार करना चाहिए। इस संकट के निवारण हेतु हमें तीन स्तरों पर विचार करना होगा। पहला यह कि अब तक हम जल का उपयोग किस तरह से करते आ रहे थे? दूसरा यह कि भविष्य में इसका उपयोग कैसे करना है? और तीसरा एवं सबसे आखिरी यह कि जल संरक्षण हेतु क्या कदम उठाए जाने चाहिए?</p>
<p style="text-align: justify;">अब तक की पूरी स्थिति पर अगर नजर डालेंगे तो पायेंगे कि अभी तक हम पानी का उपयोग अनुशासित ढंग से नहीं करते आ रहें है। जरूरत से ज्यादा पानी का नुकसान करना तो जैसे हमारी आदत बन गई हो। ऐसे में हमारी भावी पीढ़ी के लिए भी जल की उपलब्धता सुनिश्चित हो, इसके लिए हमें कई कदम उठाने होंगे; जैसे कि-</p>
<ol>
<li style="text-align: justify;">घरेलू स्तर पर जल का उचित व संयमित उपयोग एवं उद्योगों में पानी के चक्रीय उपयोग जल संरक्षण में सहायक हो सकते हैं</li>
<li style="text-align: justify;">इस्तेमाल किये हुए पानी का फिर से शौचालयों अथवा बगीचों में फिर से इस्तेमाल और रिसाइकिलिंग करके</li>
<li style="text-align: justify;">जल का सदुपयोग कैसे करना है, इस दिशा में जन-जागरूकता बढ़ायी जाए</li>
<li style="text-align: justify;">वर्षा-जल का संग्रहण करके हम पानी को बचा सकते हैं</li>
<li style="text-align: justify;">विभिन्न जलाशयों का निर्माण करके उनमें जल संग्रह करना जल संसाधन का सबसे पुराना उपाय है, इसे आगे भी बढ़ाया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">भूमिगत जल संरक्षण के लिए भूमिगत जल का कृत्रिम रूप से पुनर्भरण किया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">टपकन टैंक/ड्रिप/स्प्रिंकल सिंचाई के उपयोग से सिंचाई जल के संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सकता है</li>
<li style="text-align: justify;">Catchment Area Protection (CAP) के माध्यम से जलग्रहण क्षेत्रों का संरक्षण करके जल के साथ-साथ मृदा का भी संरक्षण किया जा सकता है। यह विधि सामान्यतः पहाड़ी क्षेत्रों में प्रयोग में लायी जाती है</li>
<li style="text-align: justify;">फसल उगाने के तरीकों का प्रबंधन करके; जैसे कि कम जल क्षेत्रों में ऐसे पौधों का चयन करके जिनकी पैदावार के लिए कम पानी की जरूरत हो</li>
<li style="text-align: justify;">नहरों की तली व नालियों को पक्का करके नहरों-नालियों से बहने वाले अतिरिक्त जल को बचाया जा सकता है</li>
</ol>
<p style="text-align: justify;">अगर हम बात मौजूदा समय में भारत की जल जरूरत की बात करें तो इसके लगभग 1,100 बिलियन क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष होने का अनुमान है। इस उच्च आवश्यकता को पूरा करने के लिए, भारत सरकार भी विभिन्न साधनों और उपायों के जरिए जल निकायों की स्थिति और बेहतर उपचार प्रणालियों में सुधार करने की कोशिश कर रही है। इनमें से कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं, जिन्हें अपनाया गया है और आगे बढ़ाया गया है-</p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">जल की उपलब्धता, संरक्षण और गुणवत्ता में सुधार के उद्देश्य से 2019 में <strong>'जल शक्ति अभियान'</strong> शुरू किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">जल शक्ति मंत्रालय द्वारा राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को मॉडल बिल का वितरण ताकि वे इसके नियमन और विकास के लिए एक उपयुक्त <strong>'भूजल कानून'</strong> इनेक्ट कर सकें। इस कानून को अब तक 19 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा अपनाया जा चुका है।</li>
<li style="text-align: justify;">भूजल विकास और प्रबंधन के विनियमन और नियंत्रण के लिए 'पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986' के तहत <strong>'केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (CGWA)'</strong> का गठन किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए 'सेंट्रल ग्राउण्ड वॉटर बोर्ड (CGWB)'द्वारा <strong>'मास्टर प्लान- 2020'</strong> तैयार किया गया है, जिसमें मानसूनी वर्षा के 185 बिलियन क्यूबिक मीटर का उपयोग करने के लिए देश में लगभग 1.42 करोड़ वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं के निर्माण की परिकल्पना की गई है</li>
<li style="text-align: justify;">जल संरक्षण की दिशा में प्रशिक्षण, सेमिनार, कार्यशालाएँ, प्रदर्शनियाँ, और चित्रकला प्रतियोगिता आदि जैसे जन-जागरूकता कार्यक्रमों का नियमित आयोजन किया गया।</li>
<li style="text-align: justify;">केंद्र सरकार द्वारा <strong>'प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना - वाटरशेड डेवलपमेंट कंपोनेंट (PMKSY-WDC)'</strong> के जरिए जल संचयन और संरक्षण कार्यों के निर्माण में सहायता प्रदान की जाती है।</li>
<li style="text-align: justify;"><strong>अटल भूजल योजना (ABHY)-</strong> भूजल प्रबंधन पर इस बड़ी योजना का शुभारंभ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा 25 दिसंबर 2019 को किया गया। 6000 करोड़ रुपये की इस योजना में 50 फीसदी फंड विश्व बैंक का और 50 फीसदी भारत सरकार लगाएगी। इस योजना का मकसद देश के 7 चुनिंदा राज्यों के भूजल की कमी से जूझने वाले क्षेत्रों में बेहतर भूजल प्रबंधन करना है। इन राज्यों में गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल हैं।</li>
<li style="text-align: justify;">गंगा बेसिन की नदियों के संरक्षण के लिए जल शक्ति मंत्रालय की <strong>'नमामी गंगे पहल'</strong> और अन्य नदियों के संरक्षण के लिए <strong>'राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (NRCP)'</strong></li>
<li style="text-align: justify;">सरकार के 'जल समृद्ध भारत' के दृष्टिकोण को प्राप्त करने के लिए राज्यों, जिलों, व्यक्तियों, संस्थानों, संगठनों आदि द्वारा किए गए प्रयासों को पहचानने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए जल शक्ति मंत्रालय द्वारा 2018 में<strong> 'राष्ट्रीय जल पुरस्कारों'</strong> की शुरुआत</li>
<li style="text-align: justify;">जल संरक्षण के लिए लोगों के सहयोग से जन जागरुकता अभियान चलाने के लिए 2021 में <strong>'कैच द रैन अभियान'</strong> की शुरुआत</li>
<li style="text-align: justify;">ग्रामीण क्षेत्रों में जल संकट को दूर करने के लिये भारत के प्रत्येक ज़िले में कम-से-कम 75 अमृत सरोवरों के निर्माण के लिए 24 अप्रैल, 2022 को <strong>'अमृत सरोवर मिशन'</strong> का शुभांरभ; 15 अगस्त, 2023 तक इस मिशन का लक्ष्य 50,000 अमृत सरोवरों का निर्माण करना है</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ‘जल संरक्षण’ आज समूची दुनिया के लिए अहम चिंता का विषय है। प्रकृति हमें निरंतर वायु, जल, प्रकाश आदि शाश्वत गति से दे रही है लेकिन हम प्रकृति के इस नैसर्गिक संतुलन को बिगाड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। पानी को बचाने की दिशा में हमें पहले से चेत जाने की जरूरत है क्योंकि-</p>
<p style="text-align: center;"><strong>"रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥"</strong></p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1679553365_Karishma.png" caption="false" width="470" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3 style="text-align: justify;"><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong><span style="font-size: 18px; background-color: #003366;"> करिश्मा शाह </span></strong></span></h3>
<p>करिश्मा शाह, मूलत: बिहार के रोहतास जिले से हैं। इन्होंने समाजशास्त्र में एम. ए. और सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में एडवांस्ड डिप्लोमा (ADSE - Aptech). किया है। इन्होंने दृष्टि आई.ए.एस. संस्थान के मीडिया डिपार्टमेंट में बतौर 'कंटेन्ट राइटर' चार साल तक अपनी सेवाएँ दी हैं। इनके आर्टिकल 'दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण' और निबंध 'प्रतियोगिता दर्पण' में प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान में यह सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए अध्ययनरत् हैं।</p>
</td>
</tr>
</tbody>
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<p></p>',
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<p style="text-align: justify;">21 मार्च,1960 को पुलिस द्वारा दक्षिण अफ्रीका के शार्पविले में लोगों द्वारा रंगभेदी/नस्लभेदी कानून के विरुद्ध किए जा रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान फायरिंग व आगजनी के कारण 69 लोग मारे गए। जिसके चलते इस नरसंहार की याद में अक्टूबर 1966 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 मार्च को अंतरराष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। यह घोषणा दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति को समाप्त करने हेतु किए गए संघर्षों का भी प्रतीक है।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लवाद:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">नस्लवाद का आशय ऐसी धारणा से है, जिसमे यह मान लिया जाता है कि हर नस्ल के लोगों में कुछ खास खूबियां होती हैं, जो उसे दूसरी नस्लों से कमतर या बेहतर बनाती है। नस्लवाद लोगों के बीच जैविक अंतर की सामाजिक धारणाओं में आधारित भेदभाव और पूर्वाग्रह दोनों होते हैं। और इस शब्द का प्रचलन राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक व कानूनी प्रणालियों में भी देखने व सुनने को मिलते है जो इसके आधार पर भेदभाव तथा धन, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा नागरिक अधिकारों के संदर्भ में नस्लीय असमानता को बढ़ावा देते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लवाद की वर्तमान स्थिति:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">इंटरनेट के बढ़ते प्रसार व इसकी व्यापक उपलब्धता ने नस्लवादी रूढ़ियों और गलत सूचनाओं के ऑनलाइन प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।</li>
<li style="text-align: justify;">वैश्विक महामारी के बाद उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एशिया व एशियाई लोगों के विरुद्ध ऑनलाइन/ वेबसाइटों पर नफरती पोस्ट्स में 200% तक की वृद्धि दर्ज की गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">नित नए तकनीकों के विकास व AI के बढ़ते उपयोग ने भी नस्लवाद को 'तकनीकी-नस्लवाद' के रूप में बढ़ावा दिया है। जिसके चलते किसी भी समुदाय के लोगों के साथ अनुचित व अन्यायपूर्ण व्यवहार करनें की संभावना काफी बढ़ गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">वर्तमान समय में नस्लवाद का स्वरूप अत्यंत जटिल व अप्रकट हो चला है, जिसके चलते भेदभाव, आक्रामकता व अपमान की संरचनात्मक सूक्ष्मता में भी वृद्धि हुई है।</li>
<li style="text-align: justify;">कई समाजशास्त्री विशेषज्ञों का भी कहना है कि, पक्षपातपूर्ण व्यवहार व भेदभावपूर्ण कार्य सामाजिक असमानता को और बढ़ावा देतें है। जिसका उल्लेख 'द लांसेट' में प्रकाशित एक अध्ययन में भी किया गया है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>वैश्विक स्तर पर नस्लवाद:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे कई विकसित देशों में बहुतायत नस्लीय भेदभाव की घटनाएं देखी जा रही हैं जैसे- अमेरिका में जॉर्ज फ्लायड, ब्रियोना टेलर, एलिजा मैक्लेन, जियोना जॉनसन जैसे अश्वेत लोगों को अमेरिकी पुलिस की बर्बरता की वजह से अपना जीवन गंवाना पड़ा। वर्तमान ब्रिटिश pm ऋषि सुनक का खुले मंच से यह स्वीकारना कि उन्होंने भी नस्लवाद का दंश झेला है। जबकि पिछले ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर भारतीय तेज गेंदबाज मोहम्मद सिराज को दर्शकों द्वारा काला बंदर कहकर संबोधित किया जाना, इंग्लैंड के पूर्व क्रिकेट कप्तान माइकल वान द्वारा एशियाई खिलाड़ियों के प्रति नस्लीय ट्वीट करना आदि घटनाएं प्रमुख है। जिसके चलते विकसित देशों पर यह दबाव पड़ने लगा है कि वे अपने राष्ट्रीय कानूनों में रंगभेद और नस्लभेद विरोधी कठोर प्रावधानों को निर्मित करे और उनके अनुपालन में भी सख्ती बरतें।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भारत की स्थिति:</strong></p>
<p style="text-align: justify;">भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15,16,29 के आधार पर कई रूपों में भेदभाव पर प्रतिबंध लगाया गया है तथा भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153A भी 'नस्ल' को संदर्भित करती है। भारत ने वर्ष 1968 में ही नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन हेतु अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन(ICERD) की भी पुष्टि कर दी थी। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त प्रावधानों के बावजूद भी देश में कई स्थानों से जाति या फिर रंग के आधार पर भेदभाव करने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। ज्ञातव्य है कि पिछले कुछ वर्षों में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ बड़ी संख्या में मामले दर्ज किए गए है। जैसे- पूर्वोत्तर के लोगों के साथ दिल्ली व बंगलुरु में नस्लीय भेदभाव की घटनाएं बढ़ी है, यह हमारे देश की आंतरिक व्यवस्था के लिए चिंताजनक बात है।</p>
<p style="text-align: justify;">इस संदर्भ में किसी ने सच ही कहा है कि- "अपरिचय या अनजाने में यदि भेदभाव हो जाए तब तक कोई चिंता की बात नही, लेकिन जब नस्लीय आधार पर कोई पूर्वाग्रह के साथ भेदभाव करे तो स्थिति अलोकतांत्रिक हो जाती है।"</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के कारण:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">प्रजातीय कारण- कुछ प्रजातियों द्वारा स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानना। जैसे- अमेरिकी गोरों द्वारा निग्रो जाति के लोगों को निम्नतम मानना।</li>
<li style="text-align: justify;">सामाजिक कारण- सामाजिक रूढ़ियों एवं कुप्रथाओं के चलते समाज में वर्गभेद जैसी समस्या उत्पन्न होती है और यही वर्गभेद नस्लवाद को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होता है।</li>
<li style="text-align: justify;">धार्मिक कारण- धर्म में पवित्रता एवं शुद्धि का महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसे में कई समाजों में निम्न व्यवसाय वालों को निम्न नस्ल का माना जाता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इंटरनेट का प्रसार- नस्लीय भेदभाव को बढ़ाने में इंटरनेट वर्तमान समय में एक उर्वर भूमि के रूप में कार्य कर रहा है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के लक्षण:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">जन्म के आधार पर सामाजिक हैसियत का निर्धारण होना।</li>
<li style="text-align: justify;">प्रत्येक व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण उसकी जाति, रंग, नस्ल आदि आधारों पर किया जाना।</li>
<li style="text-align: justify;">समाज में जाति, रंग एवं नस्ल के आधार पर ऊंच-नीच की भावना का उपस्थित होना।</li>
<li style="text-align: justify;">खान-पान एवं अंतःक्रिया अन्य जाति- बिरादरियों के बीच न होकर केवल अपनी जाति एवं नस्ल के बीच होना।</li>
<li style="text-align: justify;">अंतर्विवाह की नीति। जैसे- केवल अपनी ही जाति में विवाह की अनुमति।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>नस्लीय भेदभाव के प्रभाव:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव राष्ट्रीय व सामाजिक एकता में बाधक है। जिसके चलते सामुदायिक शत्रुता एवं घृणा जैसे भावों को बढ़ावा मिलता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इसका प्रभाव आर्थिक विकास एवं आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पर भी पड़ता है, जैसे- नस्लवादी मानसिकता के लोग व्यतिगत व सार्वजनिक संपत्ति को तो नुकसान पहुंचाते ही है, साथ ही साथ सरकार के प्रगतिशील कार्यों में भी रुकावट का कारण बनते हैं।</li>
<li style="text-align: justify;">इसके चलते देश में वाह्य एवं आंतरिक सुरक्षा का भी खतरा उत्पन्न हो सकता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लवादी संघर्षों के दौरान असामाजिक तत्वों के कार्यों का प्रभाव सबसे ज्यादा बच्चों, महिलाओं एवं वृद्धों पर पड़ता है। जिसका प्रभाव व दंश कई दशकों तक उनके अंतर्मन में बना रहता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव लोगों को उनके आधारभूत जरूरतों जैसे- रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित कर देता है।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लीय भेदभाव के चलते औद्योगिक विकास एवं सांस्कृतिक विकास का सुचारू रूप से क्रियान्वयन नहीं हो पाता है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;"><strong>वैश्विक स्तर पर नस्लवाद के विरुद्ध कुछ अन्य पहलें:</strong></p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">डरबन डिक्लेरेशन एंड प्रोग्राम ऑफ एक्शन (2001)- इसे नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, जेनोफोबिया और संबंधित असहिष्णुता के खिलाफ विश्व सम्मेलन द्वारा अपनाया गया था।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को न कोरिया गणराज्य के साथ साझेदारी के माध्यम से पेरिस में 22 मार्च, 2021 को 'ग्लोबल फोरम अगेंस्ट रेसिजम एंड डिस्क्रिमिनेशन' की मेजबानी की। इस फोरम के दौरान नस्लीय भेदभाव से निपटने के उद्देश्य से नीति-निर्माता, शिक्षा और अन्य हितधारक भी एकत्रित हुए।</li>
<li style="text-align: justify;">"ब्लैक लाइव्स मैटर" ने न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका बल्कि सम्पूर्ण विश्व में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध लोगों को आंदोलित किया है। जिसके चलते वैश्विक स्तर पर नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध लोगों में एकजुटता देखी गई है।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को द्वारा गठित " समावेशी एवं सतत शहरों का अंतरराष्ट्रीय गठबंधन" शहरी स्तर पर नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष में, बेहतर प्रथाओं को अपनाने के लिए एक मंच प्रदान करता है तथा अच्छे व्यवहारों को बढ़ावा देने हेतु एक प्रयोगशाला की भी भूमिका निभाता है।</li>
<li style="text-align: justify;">यूनेस्को शिक्षा, विज्ञान, सांस्कृतिक संचारों के माध्यम से नस्लवादी विचारों को कम करने हेतु प्रयासरत है।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में उपरोक्त प्रयासों के साथ-साथ कई मानवाधिकार संस्थाओं, सिविल सोसायटी आंदोलनों, वैश्विक संधियों के बावजूद भी कई देशों में ऐसा शिष्टाचार व संस्कृति नही विकसित हो पाई जो नस्लीय भेदभाव का उन्मूलन कर सके। यह कई परिवर्तनों के साथ आज भी अपनी निरंतरता बनाए हुए है, जो किसी एक या दो राष्ट्र के लिए नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व एवं मानव जाति के लिए घातक है।</p>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में वर्तमान समय में नस्लीय भेदभाव में हो रही वृद्धि के चलते यूनेस्को ने इस दिशा में जागरूकता को बढ़ावा देने का प्रयास किया है। इस संदर्भ में यूनेस्को ने मीडिया एवं इंटरनेट को सूचना साक्षरता रूपी औजार के रूप में विकसित किया है। इससे लोगों में विवेचनात्मक सोच, अंतरसांस्कृतिक संवाद एवं आपसी समझ को बढ़ावा मिला है।</p>
<p style="text-align: justify;">ऐसे में इसी इसी तरह कुछ नई पहलों को विकसित कर इस दिशा में सकारात्मक परिणाम प्राप्त किया जा सकता है। इस संदर्भ में निम्नलिखित सुझावों को भी अपनाया जा सकता है, जैसे-</p>
<ul style="list-style-type: square;">
<li style="text-align: justify;">शिक्षा को बढ़ावा देकर, शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो मानवीय दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन ला सकता है।</li>
<li style="text-align: justify;">इस दिशा में जागरूकता कार्यक्रमों को बढ़ावा देकर जिससे शोषित होने पर लोग अपने हक के लिए आवाज उठा सके।</li>
<li style="text-align: justify;">सामाजिक सद्भाव व सद्भावना को बढ़ावा देने के साथ-साथ नस्लविरोधी कानूनों का भी सख्ती से क्रियान्वयन किया जाए।</li>
<li style="text-align: justify;">युवाओं एवं समुदायों में सहिष्णुता को बढ़ावा देने के साथ-साथ अंतर-सांस्कृतिक संवाद एवं सीखने, समझने के नए दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाए तथा हानिकारक रूढ़ियों के उन्मूलन हेतु सामूहिक प्रयास किया जाए।</li>
<li style="text-align: justify;">नस्लवाद से पीड़ित लोगों को राज्य द्वारा मदद प्रदान की जानी चाहिए जिससे वे समाज की मुख्य धारा में पुनः लौट सकें।</li>
</ul>
<p style="text-align: justify;">इस प्रकार नस्लीय भेदभाव को समाप्त कर किसी भी व्यक्ति के गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को प्रभावित होने से बचाया जा सकता है। इस संदर्भ में UN के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान का कथन- " हमारा उद्देश्य ज्ञान के साथ कट्टरता का त्याग करना और उदारता के साथ भेदभाव को दूर करना है।"</p>
<p style="text-align: justify;">नस्लवाद किसी भी स्थिति में और अवश्य ही समाप्त होना चाहिए। और हम सब मिलकर यह सुनिश्चित करें कि हर नस्ल, जाति, रंग, लिंग, पंथ में रुचि रखने वाले लोग एक-दूसरे से सुरक्षित और आपस में संबंधित है, जिससे कि हमारा आने वाला कल सौहार्दपूर्ण तथा समावेशी विकास को बढ़ावा देने वाला हो।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
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<td style="width: 20%;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1679396970_Ankit-Singh.jpeg" caption="false" width="416" style="display: block; margin-left: auto; margin-right: auto;" /></td>
<td style="width: 80%; text-align: justify;">
<h3 style="text-align: justify;"><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> अंकित सिंह </span></strong></h3>
अंकित सिंह उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले से हैं। उन्होंने UPTU से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन में स्नातक तथा हिंदी साहित्य व अर्थशास्त्र में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क (DU) से सोशल वर्क में परास्नातक कर रहे हैं तथा सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग लिखते हैं।</td>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">राष्ट्रीय सुरक्षा से आशय किसी राष्ट्र-राज्य की सरकार की अपने नागरिकों, अर्थव्यवस्था और अन्य संस्थानों की सुरक्षा करने की क्षमता से है। इक्कीसवीं सदी में राष्ट्रीय सुरक्षा सिर्फ सैन्य हमलों के खिलाफ स्पष्ट सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि आज तो राष्ट्रीय सुरक्षा में कई गैर-सैन्य मिशन भी शामिल हैं। यदि राष्ट्रीय सुरक्षा के इन गैर-सैन्य मिशनों की बात की जाएं तो इसके अंतर्गत आर्थिक सुरक्षा, राजनीतिक सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा, मातृभूमि सुरक्षा, साइबर सुरक्षा, मानव सुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा जैसे विषय शामिल हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा की सुनिश्चितता हेतु सरकारें कूटनीति के साथ-साथ राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति आदि रणनीतियों पर अमल करती हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि भारत के संदर्भ में राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी नीतियों और अवधारणाओं पर बात की जाए तो यह उतनी ही पुरानी है जितनी कि राज्य संचालन हेतु शासन-प्रशासन की पद्धति। महान कूटनीतिज्ञ चाणक्य के शब्दों में, किसी भी प्रकार के आक्रमण से अपनी प्रजा की रक्षा करना प्रत्येक राजसत्ता का सर्वप्रथम उद्देश्य होता है। इनके अनुसार, “प्रजा का सुख ही राजा का सुख और प्रजा का हित ही राजा का हित होता है।” चाणक्य ने अर्थशास्त्र में लिखा है कि एक राज्य को चार अलग-अलग प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ सकता है- आंतरिक खतरा, बाहरी खतरा, बाहरी सहायता प्राप्त आंतरिक खतरा आंतरिक रूप से सहायता प्राप्त बाहरी खतरा। कमोबेश यही चार खतरे वर्तमान में भी राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष मौजूद हैं, बस इनके स्वरूप में बदलाव हुआ है।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा की वर्तमान स्थिति पर यदि गौर करें तो केंद्र की अलग-अलग सरकारों ने इसके लिए तमाम इंतज़ाम किये हैं। वर्ष 1980 का राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, राष्ट्रीय सुरक्षा में बाधक तत्त्वों के निवारक निरोध की अनुमति देता है। यदि संबंधित सरकारी प्राधिकारी किसी व्यक्ति के संदर्भ में संतुष्ट हो जाएं कि यह कानून और व्यवस्था के लिए बाधक बन सकता है तो उन्हें तीन महीने तक निवारक निरोध के अंतर्गत निरुद्ध किया जा सकता है। इसके बाद भी व्यक्ति का कारावास जारी रखा जा सकता है यदि सलाहकार बोर्ड द्वारा इस सम्बंध में संस्तुति दे दी जाए। इसका लक्ष्य व्यक्ति को अपराध करने से रोकना है। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी व्यक्ति के निवारक निरोध के आधारों में शामिल हैं- भारत की रक्षा, विदेशी शक्तियों के साथ भारत के संबंधों या भारत की सुरक्षा के प्रतिकूल किसी भी तरीके से कार्य करना आदि।</p>
<p style="text-align: justify;">एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति या नीति, देश के नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं और सुरक्षा चिंताओं को पूरा करने और देश के लिए बाहरी और आंतरिक खतरों को दूर करने के लिए देश के लिए एक महत्वपूर्ण ढांचा है। भारतीय राज्य के पास एक व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का अभाव है जो देश की सुरक्षा के लिए चुनौतियों का व्यापक आकलन करती हो और उनसे प्रभावी ढंग से निपटने के लिए नीतियां बनाती हो। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में एक शीर्ष स्तरीय रक्षा योजना समिति की स्थापना वर्ष 2018 में की गई थी, जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति तैयार करनी थी लेकिन अब तक इस पर कोई प्रगति नहीं हो पाई है।</p>
<p style="text-align: justify;">इसके साथ ही भारत के पास अपना राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत भी नहीं है। राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत राजनेताओं को देश के भू-राजनीतिक हितों की पहचान करने और उन्हें प्राथमिकता देने में मदद करता है। इसमें देश की सैन्य, कूटनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों की समग्रता शामिल है जो देश के राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की रक्षा और बढ़ावा देगी।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष चुनौतियों पर गौर करें तो भारत की भू-राजनीतिक स्थिति, इसके पड़ोसी कारक, विस्तृत एवं जोखिम भरी स्थलीय, वायु और समुद्री सीमा के साथ इस देश के ऐतिहासिक अनुभव इसे सुरक्षा की दृष्टि से अतिसंवेदनशील बनाते हैं। वर्तमान समय में भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष सबसे बड़ा खतरा आतंकवाद है। आतंकवाद ऐसे कार्यों का समूह होता है जिसमें हिंसा का उपयोग किसी प्रकार का भय व क्षति उत्पन्न करने के लिये किया जाता है। यदि भारत मे हुई बड़ी आतंकी घटनाओं की बात की जाएं तो वर्ष 2008 का मुंबई बम धमाका, वर्ष 2016 के पुलवामा हमले ने भारत को गहरे जख्म दिए है।</p>
<p style="text-align: justify;">आतंकवाद के अतिरिक्त संगठित अपराध भी आज राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख बड़ा खतरा है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक अथवा अन्य लाभों के लिये एक से अधिक व्यक्तियों का संगठित दल, जो गंभीर अपराध करने के लिये एकजुट होते हैं, संगठित अपराध की श्रेणी में आता है। गैर-पारंपरिक अथवा आधुनिक संगठित अपराधों में हवाला कारोबार, साइबर अपराध, मानव तस्करी, मादक द्रव्य व्यापार आदि शामिल हैं। यदि भारत मे बढ़ते हुए साइबर खतरों को समझना है तो इस संबंध में कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम की रिपोर्ट उल्लेखनीय है। भारत की कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम ने 2022 की अपनी इंडिया रैनसमवेयर रिपोर्ट में कहा था कि भारत में महत्वपूर्ण मूलभूत ढांचे समेत तमाम क्षेत्रों पर रैनसमवेयर के हमलों की संख्या में 51 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।</p>
<p style="text-align: justify;">इन समस्याओं के अतिरिक्त नक्सलवाद भी भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक प्रमुख खतरा है। नक्सलियों के हमलों में तमाम निर्दोष लोगों की जानें गई है। इसके अलावा नक्सलियों ने बहुमूल्य राष्ट्रीय अवसंरचनाओं को भी क्षतिग्रस्त किया है।</p>
<p style="text-align: justify;">धार्मिक कट्टरता एवं नृजातीय संघर्ष भी राष्ट्रीय सुरक्षा को चोट पहुँचा रहे हैं। विभिन्न अतिवादी संगठन अपने धर्म, भाषा या क्षेत्र की श्रेष्ठता का दावा प्रस्तुत करते हैं तथा विद्धेषपूर्ण मानसिकता का विकास करते हैं। इन्हीं के कारण स्वतंत्रता से लेकर अब तक भारत में अनेक साम्प्रदायिक दंगे भी हुए हैं। इन समस्याओं के अतिरिक्त मादक द्रव्यों की तस्करी भी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को चोट पहुँचा रही है। भारत के पड़ोसी देशों में ‘स्वर्णिम त्रिभुज’ (म्यांमार, थाईलैंड और लाओस) व ‘स्वर्णिम अर्द्धचंद्राकार’ (अफगानिस्तान, ईरान एवं पाकिस्तान) क्षेत्रों की उपस्थिति के परिणामस्वरूप मादक द्रव्यों का बढ़ता व्यापार भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख प्रमुख समस्या बन कर उभरा है।</p>
<p style="text-align: justify;">काले धन को वैध बनाने की प्रकिया धन शोधन अर्थात मनी लांड्रिंग कहलाती है। इसमें शामिल धन का उपयोग राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए किया जाता है। मनी लांड्रिंग से उत्पन्न धन से मादक द्रव्यों की तस्करी, आतंकवाद का वित्तपोषण और हवाला कारोबार किया जाता है। इसके अतिरिक्त भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कुछ नीतिगत चिंताएं भी हैं जैसे अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों द्वारा प्रत्येक वर्ष परिस्थितियों के अनुसार अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांतो को संशोधित किया जाता है जबकि भारत में इस संबंध में स्पष्ट कार्ययोजना का अभाव है। इसके अतिरिक्त भारत के पास राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी दीर्घकालिक नीतियों के संबंध में भी अस्पष्टता है।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को वराह युद्ध नीति(Battle pig policy) की आवश्यकता है। इसे इस परिघटना के माध्यम से समझिये- मेगेरा(ग्रीस का एक शहर) की घेराबंदी के दौरान, मैसेडोनिया का राजा एंटीगोनस (द्वितीय) युद्ध क्षेत्र में भारतीय हाथियों को हमले में लाता है। इसके प्रतिउत्तर में एक रणनीति के तहत मेगेरिया की सेना युद्ध के मैदान में सुअरों को छोड़ देती है। इसके साथ ही वहाँ आग लगा दी जाती है और सुअरों को हाथियों के मध्य तितर-बितर कर दिया जाता है। सुअर आग की यातना से कराहते-चिल्लाते है और हाथियों के बीच जितना हो सके आगे की ओर उछलते है। इससे हाथियों का झुंड भ्रम और भय से अपनी श्रेणियों को तोड़ देता है, और अलग-अलग दिशाओं में भाग जाता है। यह कहानी बताती है कि युद्ध में विजय मजबूत सेना को नही बल्कि तीक्ष्ण बुद्धि और तार्किक निर्णय लेने वाली सेना को मिलती है।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए सबसे पहले एक सुस्पष्ट राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को सुपरिभाषित करना होगा। इसके साथ ही एक अलग मंत्रालय के रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के मंत्रालय की स्थापना और राष्ट्रीय सुरक्षा प्रशासनिक सेवा नाम से एक केंद्रीय सेवा की स्थापना करनी चाहिए। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में नीति निर्माण सम्बंधी स्पष्टता के साथ ही प्रभावी क्रियान्वयन की सुनिश्चितता भी संभव होगी।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
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<td style="width: 20%; text-align: center;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1678868464_Sankarshan-Shukla.png" caption="false" width="219" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3><span style="color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong><span style="font-size: 18px; background-color: #003366;"> संकर्षण शुक्ला </span></strong></span></h3>
<p><span><span class="ui-provider vf b c d e f g h i j k l m n o p q r s t u v w x y z ab ac ae af ag ah ai aj ak" dir="ltr">संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।</span></span></p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;">दुनिया की तमाम सभ्यताएँ नदियों के किनारे फली-फूली हैं। सदियों से विभिन्न उद्योग-धंधे नदियों के दम पर विकास की रफ़्तार भरते रहे हैं। परिवहन, पर्यटन, विभिन्न उद्योग, पशुपालन और कृषि के लिए नदियाँ वरदान साबित होती रही हैं। नदियाँ प्राचीन काल से ही मानव सभ्यता की केंद्र में रही हैं। पहले नदियों के साथ मानव सभ्यता क़ायदे से पेश आती थी, फिर हमने इतनी तरक्की कर ली कि हम नदियों पर मनमुताबिक आदेश थोपने लगे। “औद्योगीकरण के दौर में बेतरतीब विकास के कारण अब नदियों के प्रति हमारी राक्षसी प्रवृत्तियाँ साफ-साफ दिखती हैं।” नदियों को जीवनदायिनी कहा जाता है लेकिन आज हमलोग इन्हीं का जीवन समाप्त करने पर तुले हुए हैं। दरअसल नदियाँ संसाधन के अलावा भी कुछ हैं; कल-कल करती नदियाँ, बेपरवाह उफान भरती नदियाँ, एक-दूसरे से जुड़ती और स्वतंत्र होकर मुड़ती नदियाँ यानी अपने उदगम से लेकर गंतव्य तक खुद के अनुसार आगे बढ़ती नदियाँ कितनी अच्छी लगती हैं! नदियाँ अच्छी न लगे तो संकट के बादल न केवल नदियों पर मंडराते हैं बल्कि जलीय जीव और मानव-जगत भी खतरे की परिधि में आ जाते हैं, और शुरू होते हैं संपूर्ण इकोसिस्टम के बुरे दिन।</p>
<p style="text-align: justify;">आपको क्या लगता है; प्रदूषित अथवा विलुप्त होती नदियाँ क्या सभ्य समाज की निशानी है? “सदियों से जिन मानव सभ्यता के लिए नदियाँ माँ की गोद की भाँति अपनी सेवा लगातार देती रही वही आज अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं।” नदियों के ऊपर संकट समय के साथ बढ़ता ही गया है। आनन-फ़ानन में किया गया विकास नदियों के साथ-साथ संपूर्ण जीव जगत के लिए धोखा है। स्थितियाँ ऐसी हैं कि या तो नदियों का जल ज़हर बन रहा है या फिर नदियाँ ही पूर्णतः नालियों में तब्दील हो रही हैं। कहीं-कहीं से नदियों के विलुप्त होने की भी ख़बरें आती रहती हैं। नदियों का सूखना आर्थिक विकास के ऊपर तमाचा नहीं तो क्या है!</p>
<p style="text-align: justify;">“भारत यदि किसानों का देश है तो नदियों का भी देश है। भारत को भारत बनाने में नदियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।” भारत की नदियाँ भारत को विकासशील से विकसित बनाने में डटी हुई हैं। भारत में सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियाँ हैं। सभी छोटी नदियाँ आठ प्रमुख बड़ी नदियों (सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, गोदावरी, कृष्णा और महानदी) के साथ मिलकर नदी प्रणाली बनाती हैं। भारत के प्रमुख शहर और उद्योग किसी न किसी नदी के किनारे विकास के आसमां को छू रहे हैं। एक ओर जहाँ हमारी नदियाँ हमें शीतल, सिंचित और संपन्न कर रही हैं वहीं दूसरी ओर अधिक लोभ के कारण हमारे विकास का पेट नहीं भर रहा है जिससे तस्वीर बद से बदतर हो रही है।</p>
<p style="text-align: justify;">दरअसल अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण नदी को माँ नहीं बल्कि संसाधन के रूप में देखा जाने लगा है। नदियों के अंधाधुंध उपभोग की प्रवृत्ति का आलम यह है कि आज हमारे देश की 70% से ज़्यादा नदियाँ प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण शोध संस्थान नागपुर के अनुसार “गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का कुल 85% जल प्रवाहित होता है। ये सभी नदियाँ इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की 66% बीमारियों का कारण बन रही हैं।” हमने नदियों में फैक्ट्रियों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों के रासायनिक दवा और उर्वरक तथा अस्पतालों के कचरे को छोड़ने में कोई कमी नहीं की है। नदियों को मानो कचरा-घर में तब्दील करने का हमारा लक्ष्य हो। मूर्तियाँ, पूजा के सामान, अधजले शव और मल-मूत्र से न सिर्फ नदियाँ परेशान हैं बल्कि जलीय इकोसिस्टम भी संतुलन खो रही है। एक अध्ययन में सामने आया है कि “दुनिया में केवल 17% नदियाँ ही ऐसी बची हैं जिनमें बह रहा पानी स्वच्छ और ताजा है।” आज हमारे देश की 223 नदियाँ ऐसी हैं जिनमें न तो आप स्नान कर सकते हैं और न ही उनका जल पीने योग्य है। यहाँ तक कि कुछ नदियों की मछलियों को खाना भी सेहत के लिए ठीक नहीं है। यानी उन नदियों में प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि वे जीवनदायिनी से जानलेवा में तब्दील हो चुकी हैं। साल 1970 के बाद इस तरह के नदियों के इकोसिस्टम में लगभग 84% जलीय जीवों की आबादी में कमी आई है। दरअसल हम नदियों में कैडमियम, कॉपर, क्रोमियम, पारा और सीसा जैसे भारी धातुएँ अपशिष्टों के माध्यम से छोड़ रहे हैं। इन्हें जलीय जीव ग्रहण करते हैं और जलीय जीव हमारे भोजन का हिस्सा होता है। अब आप ही बताइए- नदियों और जलीय जीव को संकट में डालकर क्या हम लोग संकटरहित हैं?</p>
<p style="text-align: justify;">कृत्रिम बाँध बनाना, धाराओं को जबरदस्ती मोड़ना, नदियों से मशीनों द्वारा बालू निकालना, नदियों के किनारे अवैध निर्माण कार्य करना और विभिन्न प्रकार के कचरों को नदियों में यूँ ही बहा देना- कुछ ऐसे असंवेदनशील क़दम हैं जिनसे कमोबेश सभी नदियाँ संकट से घिर रही हैं। पहाड़ी इलाकों में विकास योजनाओं के नाम पर बन रही सड़कें, टाउनशिप और सुरंगें जलस्रोत को समाप्त कर रही हैं। डायनामाइट से होने वाले धमाकों से पहाड़ दरक रहे हैं और पहाड़ में मौजूद धाराएँ खत्म हो रही हैं। यदि इन सभी गतिविधियों पर रोक नहीं लगाई गई तो अगले कुछ दशकों में सैकड़ों नदियों का अस्तित्व वैसा ही होगा जैसा हिंडन, यमुना, गोमती, वरुणा, असि, आमी, चंबल, बेतवा, तमसा, कल्याणी, तिलोदकी, पाँवधोई, गुंता, मनसयिता, ससुर खेदरी, केलो और काली नदियों का है। ये सभी नदियाँ लगभग मरणासन्न अवस्था में हैं। हमने इनका दोहन ऐसे किया है जैसे हमलोग ही इस मानव सभ्यता की अंतिम पीढ़ी हों! इन्हीं दोहन का नतीज़ा है कि भारत के कुल 254 जिले सुखाड़ और सैकड़ों जिले बाढ़ को झेलने के लिए विवश हैं। कावेरी, गोदावरी, गंगा, नर्मदा, कृष्णा, भरतपुजा, यमुना, मूसी, नोयल, गोमती, हिंडन और भीमा नदियों की इस सूची में और भी कई भारतीय नदियाँ हैं जिनका जल स्तर अपने प्राकृतिक रूप में नहीं है। नदियाँ एक सीमा तक तो बोझ अथवा प्रताड़ना झेल सकती हैं किंतु जब सीमा का उल्लंघन होने लगे तो खुद भी मिटती हैं और जीव-जगत को भी मिटाती हैं, आप अपने आसपास की ख़बरों अथवा घटनाओं से इस सत्यता को जाँच सकते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">भारत में गंगा नदी को माँ का दर्जा दिया गया है। एक समय था जब इनकी पवित्रता देश-दुनिया में विख्यात थी। तब गंगा-जल तमाम मानकों पर फिट बैठता था। फिलहाल गंगा-जल इतना दूषित हो चुका है कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कहना पड़ा कि “गंगा नदी का पानी पीने के लिए स्वच्छ नहीं है।” दरअसल गंगा में 30% से अधिक कचरा 1100 से अधिक फैक्ट्रियों से आता है। अब गंगा नदी के कुछ जगहों पर नहाना भी बीमारियों को आमंत्रित करने जैसा हो गया है; उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल को इस श्रेणी में रखा गया है। साल 2016 में बिहार में गंगा नदी इतनी ज़्यादा सूख गई थी कि लोग रिवर बेड पर चलने लगे थे और कुछ महीने बाद भयंकर बाढ़ ने रौद्र रूप दिखलाया था। देश की अन्य छोटी-बड़ी नदियाँ भी अलग-अलग प्रकार से संकट में हैं। साल 2015 में तेलंगाना की मंजीरा नदी के सूखने के बाद मगरमच्छ पानी की खोज में गाँवों में प्रवेश करने लगे थे। गुजरात में नर्मदा नदी समुद्र तक नहीं पहुँच पाती है, इसके कारण समुद्र आगे आ रहा है और परिणामस्वरूप मिट्टी का क्षरण खूब हो रहा है। गोदावरी नदी अलग-अलग जगहों पर सूख रही है। कावेरी नदी अपना 40% जल प्रवाह खो दी है। कृष्णा और नर्मदा में 60% पानी कम हो चुका है। स्थिति यह है कि बारहमासी नदियाँ भी धीरे-धीरे मौसमी बन रही हैं। जो नदियाँ दशकों पहले लहलहाती थीं आज वे दम तोड़ रही हैं उदाहरण के लिए केरल की भरतपुजा, कर्नाटक की काबिनी, तमिलनाडु की कावेरी, वैगाई और पलार, उड़ीसा की मुसल तथा मध्यप्रदेश की क्षिप्रा नदी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही हैं। उत्तराखंड के एक तिहाई मौसमी झरने विलुप्त हो गए हैं। इसके कारण यहाँ की नदियों का जल स्तर 65% से भी नीचा चला गया है। समय रहते यदि हमलोग सचेत न हुए तो न केवल नदियाँ विलुप्त होती चली जाएगी बल्कि मानव सभ्यता को भी भयंकर प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। नीति आयोग के अनुसार- “धाराओं के सूखने से केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि जंगल और वन्यजीव भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।”</p>
<p style="text-align: justify;">ऐसा नहीं है कि केवल हमारे देश की ही नदियाँ संकट में हैं। अमेरिका की कोलोराडो नदी का जल स्तर बहुत नीचे जा चुका है जिसके कारण कुल सात अमेरिकी राज्य और मैक्सिको देश आपस में पानी के लिए संघर्षरत रहते हैं। उत्तरी चीन की ह्वांगहो और पश्चिम अफ्रीका की नाइजर नदी के जलप्रवाह में भी गिरावट आई हैं। यही हाल अन्य देशों के नदियों का भी है। दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक इंडोनेशिया की सितारुम नदी आसपास के जीव-जंतुओं के लिए काल के समान है। गौरतलब है कि शहरीकरण, औद्योगीकरण और पूँजीवाद के कारण पूरी दुनिया एक अलग दौर से गुजर रही है। इस दौर की दौड़ इतनी खतरनाक है कि जलवायु परिवर्तन को बल मिल रहा है। फलतः मानव सभ्यता विस्तृत होती जा रही है जबकि नदियाँ सिकुड़ती जा रही हैं। लगता है आधुनिक मानव सभ्यता को चिल्ला-चिल्लाकर बताना ही होगा कि सिंधुघाटी सभ्यता का अंत नदियों ने ही किया था। “यदि नदियों को बदहाल कर हम खुशहाल रहने का दंभ पाल रहे हैं तो यह साजिश ज़्यादा दिनों तक काम आने वाली नहीं है। नदियाँ ज़रूर बदला लेती हैं; यदि हमलोग इनके साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो ये भी पलटवार करेंगी।” अख़बारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन डिबेट्स और पर्यावरणविदों के कथन को डिकोड करने की कोशिश करें तो आप पाएंगे कि नदियों की मुश्किलें कई गुणा बढ़कर हमारी ही मुश्किलें बनती जा रही हैं। यदि संकट में नदियाँ हैं तो महासंकट में मानव सभ्यता भी है।</p>
<p style="text-align: justify;">एक ओर जहाँ तृतीय महायुद्ध के कारणों में सबसे बड़ा कारण जल का महासंकट लगता है तो दूसरी ओर मानव-जगत जल के महत्वपूर्ण स्रोत नदियों के साथ ऐसे व्यवहार कर रही है जैसे इनके नाश होने अथवा न होने से कोई फर्क ही न पड़ेगा। हमें याद रखना चाहिए कि “नदी है तो जल है और जल है तो जीवन है।” हमलोग नदियों को बचाकर ही आधुनिक मानव सभ्यता को सुरक्षित रख सकते हैं। हमें टिकाऊ विकास की राह पर चलकर ही वे तमाम विकास के कार्य करने चाहिए जो मानव और प्रकृति के हित में हो। वह विकास असली विकास हो ही नहीं सकता जो संकट को न्योता दे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते हैं-</p>
<p style="text-align: justify;">“पृथ्वी, सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है किन्तु उनके लालच की पूर्ति के लिए नहीं।”</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
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<h3><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"><strong> राहुल कुमार </strong></span></h3>
<p>राहुल कुमार, बिहार के खगड़िया जिले से हैं। इन्होंने भूगोल, हिंदी साहित्य और जनसंचार में एम.ए., हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा तथा बीएड किया है। इनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये IIMC से पत्रकारिता सीखने के बाद लगातार लेखन कार्य कर रहे हैं।</p>
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'description' => '<p style="text-align: justify;"><strong><span style="color: #ff0000;"><em>धरती के इस छोर से उस छोर तक</em></span></strong><br /><strong><span style="color: #ff0000;"><em>मुट्ठी भर सवाल लिये मैं</em></span></strong><br /><strong><span style="color: #ff0000;"><em>छोड़ती-हाँफती-भागती</em></span></strong><br /><strong><span style="color: #ff0000;"><em>तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर</em></span></strong><br /><strong><span style="color: #ff0000;"><em>अपनी ज़मीन, अपना घर</em></span></strong><br /><strong><span style="color: #ff0000;"><em>अपने होने का अर्थ!</em></span></strong></p>
<p style="text-align: justify;">भारतीय समाज की नारी की स्थिति को बखूबी बयां करती निर्मला पुतुल की ये पंक्तियाँ पूरे समाज की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं। भले ही आज हम यह कहकर अपनी पीठ थपथपा लें कि आजादी के 75 सालों में हमारी महिलाएँ चाँद पर पहुँच गई हैं, फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं, ओलंपिक में पदक जीत रही हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियाँ चला रही हैं या राष्ट्रपति बनकर देश की बागडोर संभाल रही हैं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो यह संख्या महिलाओं की आबादी का अंशमात्र ही है। हमारे समाज की महिलाओं का एक बड़ा तबका आज भी सामाजिक बंधनों की बेड़ियों को पूरी तरह से तोड़ नहीं पाया है; उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है या यूँ कहें कि हमारा पितृसत्तात्मक समाज उन्हें जन्म से ही ऐसे साँचे में ढालने लगता है कि वे अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये पुरुषों का सहारा ढूँढती हैं। वहीं यह भी सत्य है कि ''जब-जब कोई स्त्री अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है तब-तब न जाने कितने रीति-रिवाजों, परंपराओं, पौराणिक आख्यानों की दुहाई देकर उसे गुमनाम जीवन जीने पर विवश कर दिया जाता है।'' इसलिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि तेजी से विकास के पथ पर अग्रसर भारत में शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक स्तर पर महिलाओं ने अब तक कितनी दूरी तय की है-</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>कितनी बढ़ी महिलाओं की साक्षरता दर?</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भारत में आज भी बहुत सी लड़कियाँ ऐसी हैं, जो शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। वहीं, पढ़ाई-लिखाई के दौरान बीच में ही स्कूल छोड़ देने वाली लड़कियों की संख्या भी लड़कों की संख्या से बहुत ज़्यादा है क्योंकि लड़कियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे घर के कामकाज में मदद करें। वहीं, उच्च शिक्षा की बात करें तो बहुत सी लड़कियाँ सिर्फ इसलिए उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती हैं क्योंकि उनके परिवार वाले पढ़ाई के लिये उन्हें घर से दूर नहीं भेजते हैं, जिसके चलते उनका अधिकतर समय घरेलू कामों में खर्च होता है और महिलाओं व पुरुषों के बीच समानता का अंतराल बढ़ता चला जाता है। इससे इस मिथक को बढ़ावा मिलता है कि, शिक्षा-दीक्षा लड़कियों के किसी काम की नहीं है क्योंकि अंत में उन्हें प्राथमिक रूप से घर ही संभालना है, शादी करनी है और पति व बच्चों की सेवा करनी है। इतना ही नहीं, लड़कियों को शादी कब करनी है, किससे करनी है, बच्चे कब पैदा करने हैं? ये सब कुछ भी हमारी पितृसत्ता तय करती है।</p>
<p style="text-align: justify;">आँकड़ों पर नजर डालें तो, साल 1951 में भारत की साक्षरता दर केवल 18.3 फीसदी थी जिसमें से महिलाओं की साक्षरता दर 9 फीसदी से भी कम थी। वहीं, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) के डाटा के अनुसार साल 2021 में देश की औसत साक्षरता दर 77.70 प्रतिशत थी जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 84.70 प्रतिशत, जबकि महिलाओं की साक्षरता दर 70.30 प्रतिशत थी। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के बाद से अब तक महिलाओं की साक्षरता दर में वृद्धि हुई है, लेकिन अभी भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। निम्नलिखित पंक्तियाँ देश की बेटियों को एक बार फिर से उठ खड़े होने का ज़ज्बा प्रदान करती हैं-</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><strong><em>आओ उड़ाने भरें</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>पंख भी हैं, खुला आकाश भी है</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>फिर ये न उड़ पाने की मज़बूरी कैसी</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>लगता है, आत्मा पर जंग लगे संस्कारों की</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>कील ठोंक दी गई है</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>कि पंख बस</em></strong></span><br /><span style="color: #ff0000;"><strong><em>यूं ही फड़फड़ाएं और रह जाएं</em></strong></span></p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>रसोई में केवल महिलाएँ ही क्यों?</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भारत के रसोइघरों से महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भी घर की बेटी, बहू, माँ व पत्नी चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी क्यों न हो; कितने ही बड़े पद पर काम क्यों न कर रही हो; घर के सभी सदस्यों के लिये खाना पकाने व परोसने की उम्मीद सिर्फ महिला सदस्य से ही की जाती है। इसी वजह से भारतीय समाज में लड़कियों को बचपन से ही रसोईघर के काम सिखाने शुरू कर दिए जाते हैं, जबकि लड़कों को रसोई से दूर रखा जाता है। जिससे आगे चलकर वे लड़के, जिनसे कभी रसोई के काम नहीं करवाए गए; जिन्होंने कभी अपने पिता को माँ के साथ खाना बनाते या अन्य घरेलू कामों में मदद करते नहीं देखा, वे भी अपने बच्चों को वैसा ही बनाते हैं जैसा उन्होंने अपने परिवार में देखा होता है। जिससे पितृसत्ता की विचारधारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बिना किसी रुकावट के स्थानांतरित होती रहती है और अधिकांश महिलाएँ पूर्ण रूप से देश के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाती हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">यहाँ पर इस बात पर भी विचार करना ज़रूरी है कि, महिलाएँ घर के पुरुषों को खाना खिलाने के बाद अंत में खाना खाती हैं। घर का कोई पुरुष इस बारे में नहीं सोचता कि उन्हें भी हमारे साथ बैठकर खाने का अधिकार है। इसका यह मतलब नहीं कि सभी पुरुष क्रूर और हिंसक है। इसका मतलब यह है कि, पितृसत्ता ने हमें ऐसा बना दिया है कि हम उससे परे जाकर सोच नहीं पाते हैं। जिसमें बदलाव की ज़रूरत है। इस संदर्भ में निर्मला पुतुल की निम्नलिखित पंक्तियाँ बेहद प्रासंगिक हैं-</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><em><strong>तन के भूगोल से परे</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>एक स्त्री के</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>मन की गाँठें खोलकर</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>कभी पढ़ा है तुमने</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>उसके भीतर का खौलता इतिहास?</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>X X X X </strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>अगर नहीं!</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>तो फिर जानते क्या हो तुम</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>रसोई और बिस्तर के गणित से परे</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>एक स्त्री के बारे में...?</strong></em></span></p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>धर्मों में भी महिलाओं का स्थान निम्न</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश में शिक्षा, मीडिया, कानूनी संस्थाएँ, आर्थिक संस्थाएँ, राजनीतिक संस्थाएँ सभी पूरी तरह से पितृसत्तात्मक हैं। यहाँ तक कि, सभी धर्म भी पितृसत्तात्मक हैं। अधिकांश धर्म महिला को अपना मुख्य आराध्य नहीं मानते। चूंकि धर्मों में पितृसत्ता को सर्वोच्च दिखाया गया है इसलिए महिलाओं को हमेशा से धर्म के नाम पर दबाने का प्रयास किया जाता है, और महिलाएँ बिना बराबरी का अधिकार माँगे अपने पति को परमेश्वर, स्वामी मानने लगती हैं। वह इस बात पर ज़रा भी विचार नहीं करतीं कि पति-पत्नी में अगर एक मालिक है तो दूसरा कौन होगा? वह आसानी से अपने आपको गुलाम मान लेती हैं क्योंकि उनका प्राइमरी स्कूल जो कि उनका परिवार होता है, में उन्हें बचपन से ही ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>आर्थिक रूप से कितनी सक्षम हैं भारतीय महिलाएँ</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">आज भी महिलाओं की अधिकांश समस्याओं का कारण आर्थिक रूप से परनिर्भरता है। यह बेहद चिंताजनक है कि देश की कुल आबादी में 48 फीसदी महिलाएँ हैं जिसमें से मात्र एक तिहाई महिलाएँ रोजगार में संलग्न हैं। इसी वजह से भारत की जीडीपी में महिलाओं का योगदान केवल 18 फीसदी है।</p>
<p style="text-align: justify;">यदि परिवार के भीतर और बाहर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावों को समाप्त कर पुरुषों के समान अर्थव्यवस्था में भागीदारी करने के अवसर प्रदान किए जाएं तो अन्य महिलाएँ भी गीता गोपीनाथ, इंद्रा नुई, किरण मजूमदार शॉ की तरह सशक्त होंगी, साथ ही देश भी आर्थिक मोर्चे पर तेजी से प्रगति करेगा। सभी महिलाओं को इन चार पंक्तियों को ज़रूर आत्मसात करना चाहिये-</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><em><strong>न रहो कभी किसी की आश्रिता,</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>खुद बनकर स्वावलंबी बनो हर्षिता</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>हमें खुद अपना संबल बनना है</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>हमें परजीवी लता नहीं बनना है॥</strong></em></span></p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>सत्ता व न्यायालयों में महिलाओं की भागीदारी</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के समय में महिलाएँ घर की चारदीवारी से निकलकर सत्ता की बागडोर संभाल रही हैं, और न केवल संभाल रही हैं बल्कि कुशल संचालन कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ममता बनर्जी, प्रियंका गाँधी, स्मृति ईरानी, मेनका गाँधी, मायावती को देखा जा सकता है। लेकिन देश में महिलाओं की आबादी के अनुसार देखें तो राजनीति में महिलाओं की संख्या अभी भी काफी कम है। भारतीय संसद में केवल14 फीसदी महिलाएँ हैं, जबकि संसद में महिलाओं की वैश्विक औसत भागीदारी 25 फीसदी से ज़्यादा है। इसके अलावा, ग्रामीण अंचलों में पंचायत स्तर पर अधिकांश महिलाओं को केवल मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया जाता है यानी चुनाव तो महिला जीतती है लेकिन सत्ता से संबंधित सभी निर्णय उसके परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">वहीं, न्यायालय में भी महिलाओं की संख्या संतोषजनक नहीं है। आपको जानकर हैरानी होगी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय सहित उच्च न्यायालयों में मौजूद न्यायाधीशों में महज 11 प्रतिशत महिलाएँ हैं। समय की माँग है कि अब महिलाएँ जाग्रत हों और अपनी क्षमता को पहचान कर, परंपरागत रूढ़ियों को खंडित कर देश की मुख्यधारा में अधिक से अधिक योगदान दें।</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><em><strong>ऐ शक्ति स्वरूपा</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>ऐ भावी पीढ़ी की निर्माता</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>मानवता तुम्हे प्रणाम करे</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>आओ! उड़ान भरें</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>आओ! हम सब मिलकर इस पार</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>बादलों के उस पार</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>लंबी-ऊंची उड़ान भरें</strong></em></span></p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>निष्कर्ष</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">रूप में हम कह सकते हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक भारत में महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में एक लंबा रास्ता तय किया है, परंतु अभी भी मंजिल से मीलों दूर हैं। तेजी से भागते समय के इस पहिये के साथ हमारी रफ्तार बहुत धीमी है, और इस रफ्तार को तभी बढ़ाया जा सकता है जब भारतीय समाज पितृसत्तात्मक मानसिकता से ऊपर उठकर महिलाओं को भी पुरुषों के समान बराबरी के अधिकार प्रदान करेगा। हालाँकि हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिए गए हैं लेकिन यहाँ का समाज अपने नियमों के अनुसार, महिलाओं को संचालित करता है, जिसमें बदलाव की सख्त ज़रूरत है।</p>
<p style="text-align: justify;">साथ ही, इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिये कि हमें नारीशक्ति का उद्धारक नहीं, वरन् उनका सहायक बनना है। भारतीय महिलाएँ भी संसार की अन्य महिलाओं की तरह अपनी समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखती हैं। आवश्यकता बस इतनी है कि उन्हें उपयुक्त अवसर प्रदान किए जाएँ; उनका वस्तुकरण करने की बजाय उन्हें मनुष्य समझा जाए। बेहतरीन कवयित्री अनामिका ने स्त्रियों को गहराई से समझने की गुजारिश करते हुए लिखा है-</p>
<p style="text-align: justify;"><span style="color: #ff0000;"><em><strong>सुनो, हमें अनहद की तरह</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>और समझो जैसे समझी जाती है</strong></em></span><br /><span style="color: #ff0000;"><em><strong>नई-नई सीखी हुई भाषा।</strong></em></span></p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
<td style="width: 20%; text-align: center;"><img class="content-img" src="http://drishtiias.com/hindi/images/uploads/1678180683_shalini-bajpayee.png" /></td>
<td style="width: 80%;">
<h3><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> शालिनी बाजपेयी </span></strong></h3>
<p style="text-align: justify;">शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।</p>
</td>
</tr>
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<p style="text-align: justify;">तुर्की की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहाँ लगातार भूकंप आते रहते हैं। 2011 में यहाँ भूकंप में लगभग 600 से ज्यादा लोग मारे गए थे वहीं 1999 में आए भूकंप में लगभग 17 हजार से अधिक लोग मारे गए थे।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>तुर्की में भूकंप की बारंबारता के कारण</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भूकंप के लिहाज़ से तुर्की दुनिया के सबसे अधिक संवेदनशील इलाक़ों में आता है। भूगोल के दृष्टिकोण से देखें तो तुर्की का अधिकांश हिस्सा अनाटोलियन प्लेट पर स्थित है। इसी प्लेट के पूर्वी दिशा में पूर्वी अनाटोलियन फाॅल्ट है, जबकि प्लेट की बाईं दिशा में ट्रांसफाॅर्म फाॅल्ट स्थित है जो कि अरेबियन प्लेट के साथ संबद्ध होता है। इसके दक्षिण और दक्षिण-पश्चिमी दिशा में अफ्रीकन प्लेट स्थित है तो उत्तर की ओर यूरेशियन प्लेट है जिसका जुड़ाव उत्तरी अनाटोलियन फाॅल्ट जोन से है। अनाटोलियन टेक्टोनिक प्लेट घड़ी के विपरीत दिशा में घूम रही है जिसपर अरेबियन प्लेट के दबाव देने पर यह यूरेशियन प्लेट से टकरा जाती है और फिर भूकंप के तेज झटके उत्पन्न होते हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंप क्या है?</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">साधारण शब्दों में भूकंप का अर्थ पृथ्वी के कंपन से है। पृथ्वी के अंतर्जात तथा बहिर्जात बलों के कारण ऊर्जा निकलती है जिससे तरंगें पैदा होती हैं जो हर दिशा में फैलकर कंपन पैदा करती हैं। यही कंपन भूकंप कहलाता है। भूकंपीय तरंगों के उत्पन्न होने के स्थान को भूकंप मूल तथा जिस स्थान पर सबसे पहले इन तरंगों का अनुभव होता है उसे भूकंप केंद्र कहते हैं। भूकंप केंद्र, भूकंप मूल के ठीक ऊपर होता है।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंपीय तरंगें</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;"><strong>मूलत: भूकंपीय तरंगें दो प्रकार की होती हैं, भूगर्भिक तरंगें एवं धरातलीय तरंगें।</strong></p>
<p style="text-align: justify;">भूगर्भिक तरंगें उद्गम केंद्र से ऊर्जा के मुक्त होने के दौरान उत्पन्न होती हैं तथा ये पृथ्वी के आंतरिक हिस्सों से होकर सभी दिशाओं में आगे बढ़ती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं..</p>
<p style="text-align: justify;">1. <strong>P तरंगें-</strong> ये तीव्र गति से चलकर धरातल पर सबसे पहले पहुँचती हैं। इन्हें प्राथमिक तरंगें भी कहते हैं जो ध्वनि तरंगों जैसी होती हैं। ये ठोस, दृव व गैस तीनों माध्यमों से गुजर सकती हैं।<br />2. <strong>S तरंगें-</strong> ये धरातल पर कुछ समय बाद पहुँचती हैं तथा द्वितीयक तरंगें कहलाती हैं। ये केवल ठोस माध्यमों में ही चल सकती हैं। ये तरंगें सबसे ज्यादा विनाशकारी होती हैं।</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>धरातलीय तरंगें-</strong> भूगर्भिक तरंगों एवं धरातलीय शैलों के बीच अन्योन्य क्रिया के कारण उत्पन्न तरंगों को धरातलीय तरंग कहा जाता है। ये तरंगें धरातल के साथ-साथ चलती हैं। इन्हें L तरंगें भी कहते हैं तथा ये भी अत्यंत विनाशकारी होती हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंप के प्रकार</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">1. अधिकांश भूकंप विवर्तनिक भूकंप होते हैं जो कि भ्रंशतल के किनारे चट्टानों के खिसकने की वजह से उत्पन्न होते हैं।<br />2. ज्वालामुखीजन्य भूकंप सक्रिय ज्वालामुखी क्षेत्रों तक ही सीमित रहते हैं।<br />3. नियात भूकंप भूमिगत खानों की छतों के ढह जाने के कारण उत्पन्न होते हैं। इनमें बेहद हल्के झटके महसूस होते हैं।<br />4. बड़े विस्फोटों से भी भूकंप के झटके महसूस हो सकते हैं। इन्हें विस्फोट भूकंप कहते हैं।<br />5. बड़े बांध वाले क्षेत्रों में बांध जनित भूकंप उत्पन्न होते हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>रिक्टर स्केल</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भूकंपीय घटनाओं का मापन आघात की तीव्रता के आधार पर किया जाता है। यह तीव्रता भूकंप के दौरान ऊर्जा के मुक्त होने से संबंधित है। इसे रिक्टर स्केल पर मापा जाता है। इसमें भूकंप की तीव्रता 0-10 तक होती है। भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 5 से अधिक होने पर इसके अत्यंत विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। तुर्की में इसकी तीव्रता 7.5 से भी अधिक थी। रिक्टर स्केल पर 8 से ज्यादा तीव्रता वाले भूकंप के आने की संभावना बहुत कम होती है। जबकि हल्के भूकंप लगभग हर मिनट पृथ्वी के किसी न किसी भाग में आते रहते हैं। तीव्र झटके अक्सर भ्रंस के निकटवर्ती क्षेत्रों में आते हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंपों के प्रभाव</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">भूकंप अक्सर विनाशकारी प्रभाव वाले सिद्ध होते हैं, इनके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं:</p>
<p style="text-align: justify;">1. भूकंप भूस्खलन को बढ़ावा दे सकते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन बड़ी तबाही को जन्म दे सकते हैं। इसके साथ ही इससे हिमस्खलन का भी खतरा पैदा हो सकता है।<br />2. भूकंप के कारण बड़े बांध टूट सकते हैं जिससे बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो सकता है। सुनामी जैसी त्रासदियों के लिए भी भूकंपों को ही उत्तरदायी कारक माना जाता है। भारत, जापान, श्रीलंका जैसे कई देशों में भूकंपों से उत्पन्न सुनामी का विनाशकारी प्रभाव देखा जा चुका है।<br />3. भूकंप आधारभूत ढांचो को पूरी तरह से नष्ट कर सकते हैं, ये इमारतों, आवासीय क्षेत्रों, सड़कों, रेल की पटरियों, पुलों इत्यादि को बर्बाद कर सकता है। हालिया तुर्की के भूकंप के साथ ही हम नेपाल, जापान, तथा भारत के कई हिस्सों में आए भूकंपों में इसे देख सकते हैं।</p>
<h3 style="text-align: justify;"><span style="font-size: 18px;"><strong>भूकंप से बचाव कैसे करें?</strong></span></h3>
<p style="text-align: justify;">वर्तमान में भूकंप आने का पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता। फिर भी कुछ उपायों को अपनाकर इससे होने वाली जनहानि को कम किया जा सकता है।</p>
<p style="text-align: justify;">1. भवन निर्माण में भूकंपरोधी तकनीक का प्रयोग करें ताकि हल्के झटकों में घर सुरक्षित रहे।<br />2. घर के अंदर होने की दशा में भूकंप आने पर किसी मजबूत मेज या बेड के नीचे शरण लें तथा साथ में आपातकालीन किट को रखें।<br />3. खुले क्षेत्रों में रहने पर पेड़ों, खंभों, पुलों, इमारतों इत्यादि से दूर रहें।<br />4. चलते वाहन में होने पर वाहन को रोककर उसमें अंदर बैठे रहें तथा उसे पेड़ों, इमारतों, तारों, इत्यादि से दूर रखें।<br />5. आपातकालीन नंबरों को याद रखें तथा जरूरत पड़ने पर उनसे तुरंत संपर्क करें।</p>
<p style="text-align: justify;">भूकंप का भले ही पूर्वानुमान न लगाया जा सकता हो तथा इसे रोका भी नहीं जा सकता हो पर उपरोक्त उपायों को अपनाकर हम इसके प्रभाव को कम अवश्य कर सकते हैं।</p>
<table style="width: 100%; border-collapse: collapse;">
<tbody>
<tr>
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<td style="width: 80%;">
<h3><strong><span style="font-size: 18px; color: #ffffff; background-color: #003366;"> अमित सिंह </span></strong></h3>
<p>अमित सिंह उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले से हैं। उन्होंने अपनी पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की है। वर्तमान में वे दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे हैं।</p>
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