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अदम गोंडवी: संवेदना का विद्रोही स्वर

समाज के संचालन के लिए संवेदना ज़रूरी शर्त है। भौतिक प्रगति के साथ, हमने सबसे मूल्यवान जो चीज़ खोई है, वह है संवेदनशीलता। व्यवस्था से जोंक की तरह चिपके हुए लोग, आख़िर संवेदनहीन व्यवस्था के प्रति विद्रोह का रुख कैसे अख़्तियार करें? ऐसे बहुत कम नाम हैं, जो हिंदी गज़ल साहित्य को संवेदना का स्वर देने की कोशिश करते हैं, जिनकी आवाज़ में जड़ व्यवस्था के प्रति विद्रोह का भाव है।

22 अक्तूबर 1947, भारत की आज़ादी के बाद की एक महत्त्वपूर्ण तारीख़ है। इस तारीख़ को गोंडा, परसपुर के आटा गाँव में, एक ऐसे व्यक्ति का जन्म हुआ जिसकी कलम हमेशा आज़ाद रही। एक ऐसा नाम, जिसने कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाया। एक ऐसा गज़लकों, जिसने ग़ज़ल की दुनिया में दुष्यंत के तेवर को बरकरार रखा। एक ऐसा रचनाकार, जिसकी रचनाएँ नारों में तब्दील हो गईं। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं एक ऐसे गज़लकों की, जो ग़ज़ल को शानो-शौक़त की दुनिया से अलग गाँव की पगडंडियों तक ले जाता है। हम बात कर रहे हैं, जनकवि अदम गोंडवी की। श्रीमती मांडवी सिंह एवं श्री देवी कलि सिंह के सुपुत्र अदम का मूल नाम रामनाथ सिंह था। एक छोटे से गाँव से निकलकर अदम ने हिंदी गज़लकों की दुनिया में अपना विशिष्ट स्थान बनाया और भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। एक ऐसा कवि जो बौद्धिक विलासिता से दूर किसान, गरीब, मज़दूर, दलित, शोषित और वंचित तबकों की बात करता है। एक ऐसा रचनाकार जिसकी रचनाओं में व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और आक्रोश भी है और अथाह पीड़ा भी। अदम ने कभी भी सत्ता की सरपरस्ती स्वीकार नहीं की। वे लगातार भारतीय समाज में विद्यमान जड़ताओं और राजनीतिक मौकापरस्ती पर प्रहार करते रहे।

अदम एकदम खाँटी अंदाज़ में अपने समय और परिवेश के नग्न यथार्थ को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत करते हैं। ज़िंदगी की बेबसी को व्यक्त करते हुए अदम कहते हैं-

‛आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी

हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी।’

अदम महिलाओं पर हिंसा और बलात्कार की घटनाओं का बयान बड़ी बेबाकी से करते हैं-

‛चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई

छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया।’

अदम हमेशा बेबाकी से सधे हुए लहज़े में अपनी बात रखते हैं। अदम संविधान में किए गए प्रावधानों के बावजूद आधारभूत ज़रूरतों से वंचित वर्ग की स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं कि-

‛आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको।’

अदम गोंडवी हिंदी ग़ज़ल को शृंगार की परिधि से निकालकर आम जन के जीवन तक ले जाते हैं। ग्रामीण जीवन को एक विशेष पारदर्शी चश्मे से देखने वाले गोंडवी कहते हैं-

‛ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलक़श नज़ारों में

मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में।’

भुखमरी के दौर में आमजन की ग़रीबी का मज़ाक उड़ाने वाली शानो-शौक़त का सजीव चित्रण करते हुए गोंडवी कहते हैं कि-

‛काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में

उतरा है रामराज विधायक निवास में।’

वे ग़रीब अवाम की भूख की बेबसी को बहुत स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करते हैं-

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को

भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।

गोंडवी राजनीति में विचारधाराओं के घालमेल को भी बखूबी चित्रित करते हुए कहते हैं कि-

‛पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत

इतना असर है खादी के उजले लिबास में।’

अदम भारतीय राजनीति में ब्रिटिश सत्ता के बचे हुए अवशेषों के आधार पर कहते हैं कि-

‛जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे

कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे।’

महंगाई पर तीक्ष्ण व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि-

‛ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर

मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे।’

आज की उथली राजनीति पर भी वो मौंजू व्यंग्य करते हैं-

‛एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए

चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे।’

अदम गोंडवी जनता को सिर्फ़ व्यवस्था की जकड़न में यथास्थिति में रहने की वकालत नहीं करते बल्कि बगावत का उद्घोष करते हुए कहते हैं-

‛जनता के पास एक ही चारा है बगावत

यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवाश में।’

अदम गोंडवी स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय समाज में विद्यमान ऊँच-नीच, भेदभाव और सांप्रदायिकता की समस्या पर मुखर होकर कहते हैं-

‛हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए

अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्बात को मत छेड़िए।

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है

दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले

ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए।’

अदम गोंडवी आज की नौकरशाही में विद्यमान फीताशाही और पंचायती राज व्यवस्था की दुर्दशा का भी बखूबी बयान करते हैं-

‛जो उलझ कर रह गयी हैं फाइलों के जाल में

गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी

राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में।’

गांधी के सपनों के भारत की तस्वीर को धूमिल होता देख अदम बोल पड़ते हैं-

‛देखना सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं

कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गए

कल तलक जो हाशिए पर भी न आते थे नज़र

आजकल बाज़ार में उनके कलेंडर आ गए।’

गांधीवाद को धूल धूसरित होता देख, अदम सपाट लहज़े में कहते हैं-

‛वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है।

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का,

उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।’

नई पीढ़ी के वर्तमान और भविष्य को लेकर चिंतित अदम पीड़ा के स्वर में बोल पड़ते हैं-

‛आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत

वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की।

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया

सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की।’

अदम गोंडवी सामाजिक दुर्दशा को देखते हुए झूठ लिखना स्वीकार नहीं करते हैं। वे कहते हैं-

‛घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है

बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।’

आदम कविताओं में व्यक्त किए गए भाव का कारण भी बताते हैं-

‛याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार

होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की।’

अदम गोंडवी के प्रमुख ग़ज़ल संग्रह-

“धरती की सतह पर” और “समय से मुठभेड़” हैं।

1998 में इन्हें दुष्यंत कुमार पुरस्कार तथा 2001 में शहीद शोभा संस्थान द्वारा माटीरतन सम्मान दिया गया।

आलोचकों का मानना है कि अदम को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह काबिल थे। अदम सत्ता के किसी पद्म सम्मान की परवाह किए बगैर सदैव भारत के आम आवाम की आवाज़ बनते रहे।

सत्ता प्रतिष्ठानों और समाज की व्यवस्था को चुनौती देने वाले अदम, 18 दिसंबर 2011 को शारीरिक रूप से हम लोगों के बीच नहीं रहे। लेकिन नारों के रूप में तब्दील उनकी रचनाएँ, भारत के अलग-अलग हिस्सों में आज भी गूंजती रहती हैं।

  विमल कुमार  

असिस्टेंट प्रोफेसर

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