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नालंदा विश्वविद्यालय
चर्चा में क्यों?
अर्थशास्त्री सचिन चतुर्वेदी को 21 मई 2025 को बिहार स्थित नालंदा विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया।
मुख्य बिंदु
नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में:
- स्थापना और प्रारंभिक उत्कर्ष:
- नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 427 ई. में गुप्त सम्राट कुमारगुप्त ने वर्तमान बिहार में की थी।
- यह 12वीं शताब्दी तक लगभग 800 वर्षों तक समृद्ध होता रहा।
- यह विश्वविद्यालय सम्राट हर्षवर्द्धन तथा पाल वंश के शासनकाल में अपनी प्रतिष्ठा और वैभव के चरम पर पहुँचा।
- आगंतुक और विद्वान:
- 7वीं शताब्दी के चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेन त्सांग ने नालंदा में लगभग पाँच वर्षों तक अध्ययन किया और कई धर्मग्रंथों को चीन ले गए।
- एक अन्य चीनी तीर्थयात्री ई-त्सिंग ने 670 ईस्वी में नालंदा का भ्रमण किया और लगभग 2,000 छात्रों की उपस्थिति तथा 200 गाँवों से प्राप्त वित्तीय सहायता का उल्लेख किया।
- नालंदा ने चीन, मंगोलिया, तिब्बत और कोरिया सहित पूरे एशिया से छात्रों को आकर्षित किया।
- नागार्जुन, आर्यभट्ट और धर्मकीर्ति जैसे विद्वानों ने यहाँ महत्त्वपूर्ण बौद्धिक योगदान दिये।
- यह क्षेत्र आध्यात्मिक रूप से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भगवान बुद्ध और महावीर ने इसी क्षेत्र में ध्यान लगाया था।
- आक्रमण और पतन:
- नालंदा विश्वविद्यालय को अपने इतिहास में कई बार विनाश का सामना करना पड़ा। 5वीं शताब्दी में हूणों और 7वीं शताब्दी में गौड़ों द्वारा किये गये आक्रमणों से यह आंशिक रूप से नष्ट हुआ, लेकिन दोनों बार इसके पुनर्निर्माण के प्रयास भी किये गए।
- हालाँकि, इसका अंतिम और सबसे विनाशकारी आक्रमण 1193 ईस्वी में बख़्तियार खिलजी द्वारा किया गया, जिसमें विश्वविद्यालय को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया।
- बाद में 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश सर्वेक्षकों फ्राँसिस बुकानन-हैमिल्टन और सर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने इसके अवशेषों को पुनः खोजा।
- पुनरुद्धार प्रयास:
- नालंदा को पुनर्जीवित करने का विचार 2000 के दशक के प्रारंभ में पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, सिंगापुर सरकार और पूर्वी एशियाई शिखर सम्मेलन के नेताओं के समर्थन से गति प्राप्त की।
- इस पुनरुद्धार की परिकल्पना एक क्षेत्रीय ज्ञान केंद्र के रूप में की गई है, जिसमें भारत और पूर्वी एशियाई देशों के बीच सहयोग पर ज़ोर दिया गया।
- कानूनी और संस्थागत ढाँचा:
- नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम भारत की संसद द्वारा वर्ष 2010 में पारित किया गया, जिसने इस नवस्थापित संस्था को कानूनी आधार प्रदान किया।
- बिहार सरकार ने विश्वविद्यालय परिसर के लिये प्राचीन खंडहरों के पास 455 एकड़ भूमि आवंटित की।
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परिसर की रूपरेखा और विशेषताएँ:
- परिसर का डिज़ाइन प्रसिद्ध वास्तुकार बी.वी. दोशी द्वारा तैयार किया गया, जिसमें पर्यावरणीय संतुलन और आधुनिक सुविधाओं का सुंदर समन्वय किया गया है।
यह परिसर एक ‘नेट ज़ीरो’ हरित परिसर (Green Campus) है, जिसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं:
- परिसर का डिज़ाइन प्रसिद्ध वास्तुकार बी.वी. दोशी द्वारा तैयार किया गया, जिसमें पर्यावरणीय संतुलन और आधुनिक सुविधाओं का सुंदर समन्वय किया गया है।
- सौर ऊर्जा संयंत्र
- जल शोधन एवं पुनर्चक्रण प्रणाली
- लगभग 100 एकड़ में फैले जल निकाय
- शैक्षणिक कार्यक्रम:
- .नालंदा विश्वविद्यालय अब बौद्ध अध्ययन, ऐतिहासिक अध्ययन, पारिस्थितिकी और पर्यावरण अध्ययन तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध जैसे क्षेत्रों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम प्रदान करता है।
- मान्यता:
- प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों को वर्ष 2016 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया, जो इसके वैश्विक सांस्कृतिक महत्त्व को दर्शाता है।


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बिरसा मुंडा
चर्चा में क्यों?
25 मई 2025 को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने झारखंड के राँची में जेल संग्रहालय का दौरा किया और बिरसा मुंडा को श्रद्धांजलि अर्पित की।
मुख्य बिंदु
बिरसा मुंडा के बारे में:
- परिचय
- बिरसा मुंडा एक आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी, धार्मिक सुधारक और लोक नायक थे, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ आदिवासी विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को उलिहातु (अब झारखंड के खूंटी ज़िले में) में एक गरीब बटाईदार परिवार में हुआ था
- वे मुंडा जनजाति से संबंधित थे, जो छोटानागपुर पठार का एक प्रमुख आदिवासी समुदाय है।
- प्रारंभिक नाम: दाउद मुंडा, जब उनके पिता ने कुछ समय के लिये ईसाई धर्म अपना लिया था।
- शिक्षा और प्रारंभिक प्रभाव:
- जयपाल नाग के मार्गदर्शन में स्थानीय स्कूलों में पढ़ाई की।
- चार साल तक मिशनरी स्कूल और बाद में चाईबासा के बी.ई.एल. स्कूल में पढ़ाई की।
- ईसाई धर्म से प्रभावित थे लेकिन बाद में सांस्कृतिक और धार्मिक मतभेदों के कारण इसे अस्वीकार कर दिया।
- वैष्णव धर्म और आनंद पनरे (एक मुंशी) से प्रभावित होकर उन्होंने अपना आध्यात्मिक संप्रदाय बनाया।
- अपने अनुयायियों द्वारा भगवान के रूप में जाने जाने लगे और बिरसाइत संप्रदाय की स्थापना की।
- उनके अनुयायी उन्हें प्यार से "धरती आबा" (पृथ्वी के पिता) कहते हैं।
- विश्वास और शिक्षाएँ:
- जनजातीय देवता सिंहबोंगा की पूजा के माध्यम से एकेश्वरवाद को बढ़ावा दिया गया।
- उन्होंने शराबखोरी, काले जादू और अंधविश्वासों में विश्वास तथा जबरन श्रम (बेथ बेगारी) के विरुद्ध अभियान चलाया।
- स्वच्छ जीवन, स्वच्छता और आध्यात्मिक एकता को प्रोत्साहित किया गया।
- जनजातीय संस्कृति और सामुदायिक भूमि स्वामित्व पर गर्व करना सिखाया गया।
- औपनिवेशिक अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध:
- ब्रिटिश भूमि नीतियों ने खुंटकट्टी भूमि व्यवस्था को नष्ट कर दिया, जहाँ भूमि पर सामुदायिक स्वामित्व होता था।
- जमींदारों और ठेकेदारों (बिचौलियों) ने आदिवासियों का शोषण करना शुरू कर दिया, जिससे अनेक आदिवासी बंधुआ मज़दूर बन गए।
- बिरसा ने अपने लोगों को इन अन्यायों के बारे में शिक्षित किया और उनसे अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का आग्रह किया।
- उलगुलान (महान जनजातीय विद्रोह):
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विद्रोह के कारण:
- भूमि की हानि, आर्थिक कठिनाई, वनों की कटाई और सांस्कृतिक क्षरण ने बिरसा को कार्रवाई करने के लिये प्रेरित किया।
- उलगुलान (विद्रोह) का आह्वान किया और आदिवासियों से लगान देना बंद करने का आग्रह किया।
- प्रतिरोध का नारा: "अबुआ राज एते जाना, महारानी राज टुंडु जाना " (रानी का शासन समाप्त हो और हमारा शासन शुरू हो)।
- विद्रोह की रूपरेखा:
- यह विद्रोह वर्ष 1895 में ब्रिटिश राज द्वारा लागू की गई भूमि अतिक्रमण और जबरन श्रम नीतियों के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में शुरू हुआ था।
- वर्ष 1895 में बिरसा मुंडा को दंगा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल की जेल हुई।
- वर्ष 1897 में रिहा होने के बाद उन्होंने अपने प्रयास फिर से शुरू किये, समर्थन जुटाने और जनजातीय नेतृत्व वाले राज्य के दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिये वे गाँव-गाँव गए।
- वर्ष 1900 में बिरसा मुंडा की हैज़ा से मृत्यु हो गई, जिससे विद्रोह का सक्रिय चरण समाप्त हो गया।
- परिणाम और विरासत:
- वर्ष 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया:
- आदिवासियों से गैर-आदिवासियों को भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाया गया।
- खुंटकट्टी अधिकारों को मान्यता दी गई।
- बेत बेगारी (जबरन श्रम) पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
- बिरसा मुंडा को सम्मानित करते हुए:
- वर्ष 2021 से 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस (जनजातीय गौरव दिवस) के रूप में मनाया जाता है।
- उन्हें एक साहसी नेता, आध्यात्मिक मार्गदर्शक और दूरदर्शी के रूप में याद किया जाता है।
- कम आयु में निधन के बावजूद उन्होंने महान रणनीति, साहस और नेतृत्व का परिचय दिया।
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