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निबंध

सोशल मीडिया द्वारा आत्म-मूल्य का निर्धारण

  • 20 May 2025
  • 22 min read

हाल ही में एक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर की अचानक मृत्यु, जो अपने फॉलोअर्स की संख्या में भारी गिरावट के बाद अवसाद का शिकार हो गई, एक आधुनिक विरोधाभास का प्रमाण है। कानून की डिग्री से लैस, उसके पास विकल्प थे फिर भी उसकी पहचान और अंततः उसका मूल्य बोध ऑनलाइन मान्यता के अस्थिर मीट्रिक से बंधा रहा। अपने जीवन को समाप्त करने का उसका दुखद निर्णय न केवल व्यक्तिगत निराशा को दर्शाता है, बल्कि एक सामाजिक महामारी को भी दर्शाता है, जहाँ एल्गोरिदम गरिमा को निर्धारित करते हैं। जैसा कि एक नैदानिक ​​मनोवैज्ञानिक ने कहा है, "हमने एक ऐसे विश्व का निर्माण किया है जो दृश्यता को मूल्य के साथ, प्रशंसा को प्रामाणिकता के साथ मिलाती है। अनजान लोगों की स्वीकृति पाने की दौड़ में हम स्वयं को मिटा रहे हैं।" इस इन्फ्लुएंसर की कहानी कोई एकल घटना नहीं है; यह एक डरावना प्रतिबिंब है कि कैसे हमें जोड़ने के लिये बनाए गए प्लेटफाॅर्म चुपचाप हमारे  आत्म-सम्मान की नींव को नष्ट कर रहे हैं।

इन्फ्लुएंसर की कहानी इस संकट का एक भयावह सूक्ष्म जगत है। आज के डिजिटल परिदृश्य में जहाँ व्यक्ति अपने मूल्य को अपनी सोशल मीडिया उपस्थिति के बराबर समझते हैं, उसका संघर्ष एक पीढ़ी की खामोश लड़ाई को दर्शाता है। वर्ष 2023 के NIMHANS अध्ययन ने इस वास्तविकता को रेखांकित किया: 30% शहरी भारतीय किशोर सोशल मीडिया की लत से जुड़ी चिंता की रिपोर्ट करते हैं जो लाइक गिनने और दोषरहित व्यक्तित्व बनाने के चक्र में फँस जाते हैं। इस प्रकार, यह निबंध आत्म-मूल्य को आकार देने में सोशल मीडिया की दोहरी भूमिका की जाँच करता है, जो सशक्त बनाने और हाशिये पर रखने की क्षमता रखता है तथा संतुलित सचेत जुड़ाव का समर्थन करता है।

पिछले दो दशकों में सोशल मीडिया व्यापक रूप से फैल चुका है, जिससे यह मूल रूप से बदल गया है कि लोग कैसे जुड़ते हैं, स्वयं को कैसे अभिव्यक्त करते हैं और आत्म-मूल्य को कैसे देखते हैं। शुरुआत में, फ्रेंडस्टर (2002) और माईस्पेस (2003) जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म ने डिजिटल संपर्क के लिये बुनियादी उपकरण प्रदान किये थे — उपयोगकर्त्ता अपनी रुचियाँ सूचीबद्ध कर सकते थे, प्रोफाइल को अनुकूलित कर सकते थे और मित्रों की सूची बना सकते थे। भारत में ऑरकुट, जिसे वर्ष 2004 में लॉन्च किया गया था, शहरी युवाओं के बीच तेज़ी से सबसे लोकप्रिय प्लेटफॉर्म बन गया। इसका स्क्रैपबुक फीचर और कम्युनिटी पेजेस इसे एक सांस्कृतिक घटना बना गए तथा यह कई भारतीयों के लिये ऑनलाइन सोशल नेटवर्किंग का पहला अनुभव साबित हुआ।

इसके बाद, 2004 में फेसबुक के वैश्विक लॉन्च ने उपयोगकर्ताओं को वास्तविक नाम, तस्वीरें और जीवन की घटनाओं को प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहित करके डिजिटल पहचान को फिर से परिभाषित किया। भारत में, फेसबुक ने 2010 के दशक की शुरुआत में धीरे-धीरे ऑर्कुट को पीछे छोड़ दिया, जो क्यूरेटेड डिजिटल व्यक्तित्व की ओर बदलाव के साथ अधिक संरेखित था। समय के साथ, "लाइक", "टिप्पणियाँ" और "शेयर" जैसी सुविधाओं ने आकस्मिक साझाकरण से लेकर प्रतिस्पर्धी आत्म-प्रस्तुति तक दोनों संदर्भों में उपयोगकर्ता व्यवहार को बदल दिया। इंस्टाग्राम (2010) और ट्विटर (2006), ने दृश्यों और संक्षिप्तता पर अपने जोर के साथ, वैश्विक और भारत दोनों में इस परिवर्तन को और तेज कर दिया।

इसके बाद, वर्ष 2004 में फेसबुक के वैश्विक लॉन्च ने उपयोगकर्त्ताओं को वास्तविक नाम, तस्वीरें और जीवन की घटनाओं को प्रस्तुत करने के लिये प्रोत्साहित करके डिजिटल पहचान को पुनः परिभाषित किया। भारत में, फेसबुक ने 2010 के दशक की शुरुआत में धीरे-धीरे ऑर्कुट को पीछे छोड़ दिया, जो क्यूरेटेड डिजिटल व्यक्तित्व की ओर बदलाव के साथ अधिक संरेखित था। समय के साथ, "लाइक", "टिप्पणियाँ" और "शेयर" जैसी सुविधाओं ने आकस्मिक साझाकरण से लेकर प्रतिस्पर्धी आत्म-प्रस्तुति तक दोनों संदर्भों में उपयोगकर्त्ता व्यवहार को बदल दिया। इंस्टाग्राम (2010) और ट्विटर (2006) ने दृश्यों एवं संक्षिप्तता पर अपने ज़ोर के साथ वैश्विक तथा भारत दोनों में इस परिवर्तन को और तीव्र कर दिया।

हाल के वर्षों में, किफायती स्मार्टफोन, सस्ता डेटा (भारत में वर्ष 2016 के बाद एक प्रमुख कारक) और एल्गोरिदम-संचालित सामग्री जैसी तकनीकी प्रगति ने सोशल मीडिया को सर्वव्यापी बना दिया है। प्रभावशाली संस्कृति, वायरल सामग्री और मुद्रीकृत जुड़ाव का उदय एक वैश्विक प्रवृत्ति को दर्शाता है, लेकिन भारत के युवा-संचालित, मोबाइल-प्रथम डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र में भी इसकी मज़बूत प्रतिध्वनि मिलती है। सोशल नेटवर्किंग से सोशल परफॉरमेंस की ओर इस बदलाव ने मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को बढ़ाने में योगदान दिया है।

वर्तमान युग में सोशल मीडिया इस बात पर गहरा प्रभाव डालता है कि लोग, विशेष रूप से युवा, स्वयं को कैसे आँकते हैं। दूसरों के जीवन को लगातार देखते रहने की वजह से बार-बार तुलना करने की आदत बन जाती है, जो अक्सर आत्म-सम्मान में कमी और मानसिक तनाव का कारण बनती है।

शोध से पता चलता है कि सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग किशोरों और युवा वयस्कों में चिंता, शरीर के प्रति असंतोष और अवसाद को बढ़ाता है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) के एक अध्ययन में पाया गया कि सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग किशोरों और युवा वयस्कों में चिंता, शरीर के प्रति असंतोष एवं अवसाद का कारण बन सकता है। इंस्टाग्राम और स्नैपचैट जैसे विज़ुअल प्लेटफॉर्म का उपयोग शारीरिक रूप-रंग के बारे में नकारात्मक धारणाओं एवं कॉस्मेटिक सर्जरी में बढ़ती रुचि से जुड़ा हुआ है, खासकर महिलाओं के बीच। प्रायः ऑनलाइन दिखाए जाने वाले क्यूरेटेड परफेक्शन अवास्तविक मानक तय करते हैं, जिससे उपयोगकर्ता अपने जीवन के बारे में अपर्याप्त और चिंतित महसूस करते हैं। ये मुद्दे व्यक्तियों से आगे बढ़कर सामाजिक कल्याण को प्रभावित करते हैं, क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य संघर्ष परिवारों, स्कूलों और स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों पर दबाव डालते हैं।

सोशल मीडिया एल्गोरिदम इस तरह से बनाए गए हैं कि वे उपयोगकर्ताओं को वही सामग्री अधिक दिखाते हैं, जिसमें वे पहले से रुचि दिखाते हैं। इससे प्रचलित रुझानों और सौंदर्य मानकों को बढ़ावा मिलता है, जबकि वे आवाज़ें और रूप जो आम मानकों में फिट नहीं होते, हाशिये पर चले जाते हैं। यह डिजिटल इको चैंबर समावेश को सीमित करता है और सुंदरता, सफलता एवं पहचान की परिभाषा को सीमित करता है। इसके अतिरिक्त, सोशल मीडिया दृश्यता को मूल्य के बराबर मानता है, जो व्यक्तिगत पहचान व आत्म-मूल्य के लिये एक परेशान करने वाला बदलाव है। इसके अलावा, एल्गोरिदम पूर्वाग्रह सनसनीखेज, ध्रुवीकरण या सतही सामग्री को प्राथमिकता देता है। इस माहौल में, सनसनीखेज सामग्री, जो अक्सर भावनात्मक रूप से आवेशित, ध्रुवीकरण या भ्रामक होती है, असंगत दृश्यता प्राप्त करती है, क्योंकि एल्गोरिदम बारीकियों पर जुड़ाव को प्राथमिकता देते हैं। यह तर्क पर आक्रोश को पुरस्कृत करके सार्वजनिक विमर्श को विकृत करता है, सार्थक, तथ्य-आधारित बातचीत के लिये स्थान को खत्म करता है। उदाहरण के लिये भारत ने डेटा गोपनीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए वर्ष 2020 में टिकटॉक पर प्रतिबंध लगा दिया था, जो कि ऐप की लत और हानिकारक सामग्री के संपर्क सहित युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव से जुड़ी चिंताओं से उपजा था। भारतीय मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 जैसे उपचारात्मक उपाय, अत्यधिक स्क्रीन समय और सोशल मीडिया के उपयोग के कारण उत्पन्न होने वाली मानसिक बीमारियों के अधिकारों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हैं तथा सोशल मीडिया व आत्म-मूल्य के बारे में युवाओं के दृष्टिकोण को मज़बूत और सुधारते हैं।

मान्यता प्राप्त करने की चाहत रखने वाला व्यवहार एक और चिंता का विषय है। कई उपयोगकर्ता खुद को अभिव्यक्त करने की वास्तविक इच्छा से नहीं बल्कि सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त करने के लिये सामग्री पोस्ट करते हैं। बाहरी अनुमोदन पर यह निर्भरता आंतरिक आत्मविश्वास को कम कर सकती है और स्वयं के बारे में उतार-चढ़ाव उत्पन्न कर सकती है जो सार्वजनिक जुड़ाव पर बहुत अधिक निर्भर करती है। ऑनलाइन उत्पीड़न उपयोगकर्ता के आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान को भी प्रभावित करता है। जब व्यक्तिगत मूल्य ऑनलाइन पहचान से जुड़ा होता है, तो साइबरबुलिंग एवं नकारात्मक बातचीत के विनाशकारी भावनात्मक परिणाम हो सकते हैं। इसका एक वर्तमान उदाहरण भारत के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार द्वारा सामना किया गया लक्षित ऑनलाइन दुर्व्यवहार है, जो इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे उच्च पदस्थ सार्वजनिक अधिकारी भी डिजिटल बदनामी से अछूते नहीं हैं। ऐसी घटनाएँ डिजिटल स्पेस में मज़बूत साइबर शासन, जवाबदेही तंत्र और मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों को स्थापित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देती हैं।

इसके नुकसानों के बावजूद, सोशल मीडिया ने लाखों लोगों को सशक्त बनाया है। वंचित समूहों के लिये, यह दृश्यता परिवर्तनकारी हो सकती है। #MeToo और #BlackLivesMatter जैसे आंदोलन इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म कम प्रतिनिधित्व वाली आवाज़ों को वैध बना सकते हैं और सामाजिक बदलाव को बढ़ावा दे सकते हैं। भारत में, #DalitWomenFight और किसानों के अधिकारों जैसे अभियानों ने सोशल मीडिया के कारण गति एवं प्रभाव प्राप्त किया है। ये स्थान समर्थन, मान्यता और एकजुटता प्रदान करते हैं, जिसकी कई लोगों को अपने ऑफलाइन वातावरण में कमी होती है। व्यावसायिक रूप से, सोशल मीडिया कंटेंट क्रिएटर, उद्यमियों और फ्रीलांसरों को अपने कौशल का प्रदर्शन करने एवं ब्रांड बनाने में सक्षम बनाता है। सोशल मीडिया पर मौजूदगी को मूल्यों व व्यक्तिगत पहचान की खोज, आधुनिक समय की जर्नलिंग या कलात्मक अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है। 

कई लोगों के लिये, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त करने और पारंपरिक भौगोलिक या सांस्कृतिक सीमाओं से कहीं आगे के दर्शकों तक पहुँचने के अवसर प्रदान करते हैं। भारत में, यह डिजिटल सशक्तीकरण मेटा और ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स (ONDC) के बीच साझेदारी जैसी पहलों से और समर्थित है, जिसका उद्देश्य लघु व्यवसायों और स्थानीय विक्रेताओं को एक एकीकृत डिजिटल इकोसिस्टम में शामिल करके ई-कॉमर्स तक पहुँच को लोकतांत्रिक बनाना है। इसके अतिरिक्त, डिजिटल सामग्री बनाने की प्रक्रिया आत्म-प्रतिबिंब और रचनात्मकता को प्रोत्साहन प्रदान कर सकती है जबकि आत्म-जागरूकता और पहचान निर्माण को सुदृढ़ करती है। 

फिर भी, आत्म-मूल्य के संदर्भ में सोशल मीडिया की कमियाँ काफी गंभीर हैं। इनमें सबसे प्रमुख है निरंतर तुलना की संस्कृति। उपयोगकर्त्ता अक्सर दूसरों के सजाए हुए जीवन को एक मानक के रूप में देखने लगते हैं, जिससे असफलता या अपर्याप्तता भावना जैसी भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। फेसबुक के माध्यम से पुराने पलों को बार-बार जीने की विवशता या वायरल ट्रेंड्स के पीछे भागने की प्रवृत्ति वास्तविक जीवन जीने की प्रामाणिकता को कम कर देती है।

जैसे-जैसे इन समस्याओं के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, सोशल मीडिया के साथ एक अधिक सतर्क और स्वस्थ संबंध की दिशा में प्रगति के संकेत दिखाई दे रहे हैं। डिजिटल कल्याण (डिजिटल वेलनेस) को लेकर सार्वजनिक चर्चा बढ़ रही है, जिसमें उपयोगकर्त्ता, शिक्षक और नीति-निर्माता सभी सोच-समझकर और संतुलित उपयोग पर ज़ोर दे रहे हैं। तकनीकी प्लेटफार्म भी अब प्रतिक्रिया देने लगे हैं। जैसे—लाइक काउंट छिपाने की सुविधा, स्क्रीन टाइम ट्रैकिंग और मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित संकेत जैसी विशेषताएँ अब सामान्य होती जा रही हैं। कुछ प्लेटफॉर्म ऐसे नए एल्गोरिदमिक मॉडल पर कार्य कर रहे हैं जो वायरल कंटेंट की बजाय गुणवत्तापूर्ण बातचीत (क्वालिटी इंटरैक्शन) को प्राथमिकता देते हैं। शिक्षा इसमें एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विशेष रूप से युवाओं के लिये मीडिया साक्षरता कार्यक्रम उपयोगकर्त्ताओं को यह सिखा सकते हैं कि वे डिजिटल कंटेंट का आलोचनात्मक मूल्यांकन कैसे करें, ऑनलाइन व्यक्तित्वों की कृत्रिमता को समझें और सोशल मीडिया की मान्यता से स्वतंत्र रहकर आत्म-मूल्य बनाए रखें।

इसके अलावा, प्रामाणिकता, धीमे कंटेंट (स्लो कंटेंट) और वास्तविक बातचीत को बढ़ावा देने वाले वैकल्पिक प्लेटफार्म तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे हैं। ये डिजिटल मंच प्रदर्शन के दबाव को निम्न करने और इसके स्थान पर गहन और अधिक अर्थपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देने का प्रयास करते हैं। व्यापक स्तर पर, डिजिटल पहचान की अवधारणा लगातार विकसित हो रही है। वर्चुअल रियलिटी और मेटावर्स जैसी उभरती तकनीकें यह विस्तार कर रही हैं कि लोग ऑनलाइन स्वयं को कैसे व्यक्त करते हैं। हालाँकि ये उपकरण प्रामाणिकता के संदर्भ में नई चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं, लेकिन ये रचनात्मकता, प्रयोग और व्यक्तिगत विकास के लिये अवसर भी प्रदान करते हैं।

भारत स्वस्थ सोशल मीडिया उपयोग को बढ़ावा देने के लिये IT नियम 2021, डिजिटल इंडिया कार्यक्रम और साइबर क्राइम रिपोर्टिंग पोर्टल जैसी पहलों के माध्यम से कार्य कर रहा है। शैक्षिक प्रयासों में स्कूलों में साइबर सुरक्षा पाठ्यक्रम और ‘We Think Digital’ जैसी जागरूकता अभियानों को शामिल किया गया है, जो डिजिटल साक्षरता, ज़िम्मेदार ऑनलाइन व्यवहार और साइबरबुलिंग व गलत सूचना से सुरक्षा को प्रोत्साहित करते हैं। सोशल मीडिया कंपनियों पर भी अब नैतिक डिज़ाइन प्रैक्टिस को अपनाने का दबाव बढ़ता जा रहा है। विशेषज्ञ कंटेंट मॉडरेशन में जवाबदेही, एल्गोरिदम की पारदर्शिता और डेटा नैतिकता के लिये ज़ोर दे रहे हैं, ताकि डिजिटल वातावरण को अधिक स्वस्थ और सुरक्षित बनाया जा सके।

मीडिया साक्षरता युवाओं और समाज के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह व्यक्तियों को सामग्री का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने, गलत सूचना को पहचानने और डिजिटल प्लेटफार्म का ज़िम्मेदारी से उपयोग करने में सक्षम बनाती है। यह सूचित निर्णय लेने को सुनिश्चित करती है, मानसिक प्रलोभन से सुरक्षा प्रदान करती है और ऑनलाइन संवाद में सम्मानपूर्ण सहभागिता को प्रोत्साहन देती है जो कि तेज़ी से प्रवाहित होती सूचना और सोशल मीडिया प्रभाव के इस युग में अत्यावश्यक कौशल हैं।

सोशल मीडिया का आत्म-मूल्य पर प्रभाव निस्संदेह है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है। यह एक ऐसा उपकरण है जो मानवीय प्रवृत्तियों को दर्शाता और उन्हें बढ़ाता है, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक। हम इससे किस प्रकार जुड़ते हैं और इसे कितनी सजगता से उपयोग करते हैं, यही तय करता है कि यह हमें सशक्त करेगा या अशक्त। पूरी तरह से इससे दूरी बनाने के बजाय समाधान एक स्वस्थ डिजिटल संस्कृति विकसित करने में निहित है। शासन, शिक्षा और नागरिक समाज महत्त्वपूर्ण जागरूकता, ज़िम्मेदार ऑनलाइन व्यवहार विकसित करके और आत्म-विकास को स्थापित करके और प्रोत्साहित करके स्वस्थ डिजिटल सहभागिता को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

उस बदलाव की पहली शुरुआत हमारे भीतर से होती है। सोशल मीडिया उपस्थिति और व्यक्तिगत पहचान के बीच जटिल रास्ते को पार करते हुए, संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। सोशल मीडिया हमारे आत्म-दर्शन में भूमिका निभा सकता है, लेकिन इसे हमारे मूल्य को निर्धारित करने का अधिकार नहीं है। मापदंडों और मीडिया से अपना आत्म-मूल्य वापस लेकर, हम अधिक स्थिर और पूर्ण जीवन की ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हैं, चाहे वह ऑनलाइन हो या ऑफलाइन।

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