निबंध
म्याँमार : एक असफल राज्य?
- 12 Jun 2025
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असफल राज्य, का आशय ऐसे राज्य से है, जो अपने नागरिकों को मूलभूत सुरक्षा और राष्ट्र के विकास के कार्यों को पूरा करने की अपनी क्षमता खो चुका है तथा वह अपने क्षेत्र और सीमाओं पर प्रभावी नियंत्रण नहीं रख पाता। किसी असफल राज्य की सामान्य विशेषताओं में सरकार की कर संग्रह, विधि प्रवर्तन, सुरक्षा आश्वासन, क्षेत्रीय नियंत्रण, राजनीतिक नियंत्रण, नागरिक कामकाज के ढाँचे को बनाए रखने में असमर्थता जैसे तत्त्व शामिल किये जाते हैं। जब ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं तो व्यापक भ्रष्टाचार और अपराध, गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं का हस्तक्षेप, शरणार्थियों का आना और जनसंख्या का अनैच्छिक पलायन, तीव्र आर्थिक गिरावट और राज्य के भीतर एवं बाहरी, दोनों तरफ से सैन्य हस्तक्षेप होने की संभावना बहुत अधिक होती है। जब यह कहा जाता है कि म्याँमार एक असफल राष्ट्र है तो उपरोक्त वर्णित तथ्यों के आलोक में म्याँमार की वर्तमान स्थिति का आकलन तथ्यपूर्ण ढंग से करना होगा और यदि मानक के आधार पर आरोप सही पाए जाएंगे तो हम कह सकेंगे कि म्याँमार एक असफल राष्ट्र है। म्याँमार की असफलता को समझने के लिये आवश्यक है कि पहले हम उस`के संसदीय लोकतंत्र के विकास और सैन्य व्यवस्था इतिहास को समझ लें। इसी पृष्ठभूमि से ही हम म्याँमार के असफल या सफल राष्ट्र होने का आकलन कर पाएंगे।
जैसा कि हम जानते हैं कि म्याँमार ने 1948 में ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की, तब इसका नाम बर्मा था और कुछ दशकों बाद नाम बदल कर म्याँमार कर दिया गया। बर्मा, ब्रिटिश भारत का ही हिस्सा था। साइमन कमीशन की सिफारिशों के आधार पर बने 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में बर्मा को भारत से अलग करने की व्यवस्था की गई। एक अप्रैल 1937 को बर्मा को ब्रिटिश भारत से अलग करके इसे नया ब्रिटिश उपनिवेश बना दिया गया। 4 जनवरी, 1948 को बर्मा ने ब्रिटिश शासन से मुक्ति हासिल की और एक स्वतंत्र गणराज्य बन गया। म्याँमार बौद्ध धर्म बहुल वाला बहुजातीय समाज है। यहाँ की 88 प्रतिशत जनसंख्या बौद्ध धर्म को मानने वाली है। यहाँ 1962 में सैन्य तख्तापलट हुआ और उसके बाद से कुछ वर्षों को छोड़ कर म्याँमार की सेना ने देश पर नियंत्रण बनाए रखा है। यह सैन्य प्रशासन और अधिक स्वायत्तता पाने के लिये सशस्त्र लड़ाई लड़ रहे जातीय अल्पसंख्यक समूहों के साथ संघर्ष में उलझा हुआ है। इन चल रहे तनावों की जड़ें, देश की जटिल जातीय संरचना और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की विरासत में हैं, जिसने विभिन्न समुदायों के बीच विभाजन को और बढ़ा दिया है। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप म्याँमार के कई क्षेत्रों में व्यापक मानवाधिकार हनन, नागरिकों का विस्थापन और लगातार अस्थिरता हुई है। म्याँमार के सैन्य शासन को जुंटा भी कहा जाता है।
1962 के सैन्य तख्तापलट के बाद 1990 में, म्याँमार में पहली बार आम चुनाव हुए। इन चुनाव में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की आंग सान सू की ने भारी मतों से जीत हासिल की। लेकिन बर्मा की स्वतंत्रता के लिये लड़ने वाले राष्ट्रवादी नेता और म्याँमार के सबसे प्रमुख लोकतांत्रिक कार्यकर्त्ता आंग सान की इस बेटी को मतदान से पहले जुंटा द्वारा घर में नज़रबंद कर दिया गया। चुनाव के बाद, जुंटा ने परिणामों को मान्यता देने से भी इनकार कर दिया, लेकिन इन चुनावों ने एनएलडी की सफलता ने सेना को जनता के बीच अपने सीमित समर्थन का एहसास कराया। नाराज जुंटा ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिये , ‘लोकतंत्र के लिये रोडमैप’ योजना से सैन्य शासन को बनाए रखने की कवायद की और नया संविधान बनाया। इस नए संविधान में सेना को संसदीय शक्ति देते हुए, सेना को महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों और 25 प्रतिशत संसदीय सीटों पर नियंत्रण दिया गया। इसका अर्थ था कि सेना को प्रभावी रूप से संसदीय कार्यों में वीटो की शक्ति मिल गई। जुंटा के रोडमैप के तहत, सरकार ने नवंबर 2010 में आम चुनाव आयोजित किये। मतदान से पहले, जुंटा ने नए चुनाव कानून पारित किये, जिनके तहत जेल की सजा काट रहे या विदेशी नागरिक से शादी करने वाले किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रपति पद के लिये चुनाव लड़ने से रोक दिया गया। चूँकि सू की ने ब्रिटिश नागरिक से शादी की थी, इसलिये यह स्पष्ट प्रयास था कि नजरबंद चल रही सू की को सत्ता में आने से रोका जाए। इससे एनएलडी ने चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया और सैन्य समर्थित यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) चुनाव जीत गई। वर्ष 2015 में, एनएलडी ने सू की के साथ आम चुनावों में भाग लिया और एनएलडी ने पच्चीस वर्षों में म्याँमार का पहला प्रतिस्पर्धी राष्ट्रीय चुनाव जीता। संशोधित चुनाव कानूनों के कारण, सू की को सत्ता से बाहर होना पड़ा। वह आधिकारिक तौर पर राष्ट्रपति नहीं बन सकीं, लेकिन उनको स्टेट काउंसलर के रूप में वास्तविक नेता बनने से रोका नहीं जा सका। एनएलडी ने 2008 के संविधान के अनुसार सेना के साथ सत्ता-साझाकरण व्यवस्था में प्रवेश किया, जिसके तहत देश का नेतृत्व संसद ने किया और सेना ने महत्त्वपूर्ण कार्यकारी मंत्रालयों को नियंत्रित करना एवं सुरक्षा नीति की देखरेख करना जारी रखा। नवंबर 2020 में, एनएलडी ने फिर से बड़े अंतर से आम चुनाव जीता, लेकिन तीन महीनों के भीतर फरवरी 2021 में, जुंटा ने तख्तापलट किया और सू की सहित वरिष्ठ नेतृत्व को हिरासत में लिया गया। सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद जनरल मिन आंग ह्लाइंग के नेतृत्व वाले सैन्य जुंटा ने एक वर्ष के लिये आपातकाल की घोषणा की। उनके इस कदम की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई और इधर अपदस्थ अधिकारियों, उत्पीड़ित जातीय समूहों एवं लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों ने एकजुट होकर अप्रैल 2021 में राष्ट्रीय एकता सरकार (एनयूजी) का गठन करने की ओर कदम बढ़ाए। इस एनयूजी ने सार्वजनिक रूप से म्याँमार पर ‘संघीय लोकतांत्रिक संघ’ के रूप में शासन करने के अपने लक्ष्य को व्यक्त किया। इसके तुरंत बाद, नए गठबंधन ने जुंटा और उसके सहयोगी बलों से लड़ने के लिये एक सशस्त्र शाखा पीपुल्स डिफेंस फोर्स (पीडीएफ) का गठन किया। जैसे-जैसे जुंटा ने विरोध-प्रदर्शनों को दबाया, लोकतांत्रिक प्रतिरोध आंदोलन के लिये लोकप्रिय समर्थन बढ़ता गया। साल 2022 में, पीडीएफ ने 65,000 लड़ाकों के साथ आने का दावा किया, जो बढ़कर 85,000 हो गया। आकलन है कि अब वर्तमान में इसकी संख्या दोगुनी हो गई होगी। पीडीएफ को देश के विभिन्न राज्यों में सक्रिय विद्रोही जातीय समूहों का समर्थन मिला और दोनों ने मिलकर गाँवों से सैन्य बलों को पीछे धकेलने के साझा लक्ष्य को पाने में सफलता हासिल की। पीडीएफ को करीब 25 सक्रिय जातीय सेनाओं एवं कई लोकतंत्र समर्थक ताकतों का समर्थन है। इनमें काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी (केआईए), शान स्टेट आर्मी और करेन नेशनल लिबरेशन आर्मी (केएनएलए) शामिल हैं। अक्तूबर 2023 के अंत में, शान राज्य में तीन जातीय सशस्त्र समूहों के गठबंधन ने जुंटा के खिलाफ एक समन्वित आक्रमण ‘ऑपरेशन 1027’ शुरू किया। इस गठबंधन को थ्री ब्रदरहुड अलायंस के रूप में जाना जाता है और इसमें अराकान आर्मी (एए), म्याँमार नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी (एमएनडीएए) और तांग नेशनल लिबरेशन आर्मी (टीएनएलए) शामिल हैं। इन विद्रोहियों ने थाईलैंड की सीमा से लगे पूर्वी काया राज्य, भारत की सीमा से लगे पश्चिमी रखाइन राज्य और चीन की सीमा से लगे उत्तरी शान राज्य में सैन्य और पुलिस चौकियों पर कार्रवाई की। सेना, सशस्त्र विपक्षी समूहों से लड़ने के लिये रूस और चीन जैसे विदेशी शस्त्र आपूर्तिकर्त्ताओं पर निर्भर है और उसकी शक्ति की वास्तविक वजह भी यही है कि उसके पास विद्रोहियों से अधिक बेहतर हथियार एवं सूचना प्रणाली है। हालाँकि, सेना के मनोबल में गिरावट ने सैन्य सामंजस्य बाधित किया है। इस गृहयुद्ध की शुरुआत से ही सेना की संख्या लगातार कम होती जा रही है। सन 2021 में कुल तीन लाख सैनिकों में से केवल लगभग 1,30,000 सैनिक ही बचे हैं। हालाँकि सेना के पास अभी भी तकनीकी श्रेष्ठता है, लेकिन विद्रोही हमलों का मुकाबला करने में सेना अप्रभावी होती जा रही है। इसने महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे और कस्बों पर नियंत्रण खो दिया है तथा देश खासे आर्थिक दबाव एवं खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहा है। सेना ने अपनी जनशक्ति की कमी को दूर करने के लिये फरवरी 2024 में जबरन भर्ती का सहारा लिया। तब से, सेना ने लगभग 30 हज़ार लोगों को भर्ती किया है, जिससे म्याँमार के शहरों से युवाओं का पलायन हुआ है। वर्तमान की बात करें तो साल 2024 में आए आँकड़ों के अनुसार यानी जुंटा के साल 2021 में तख्तापलट के चार साल बाद, म्याँमार की सैन्य सरकार देश के केवल 21 प्रतिशत क्षेत्र को नियंत्रित करती है, जबकि विद्रोही बलों और जातीय सेनाओं का 42 प्रतिशत क्षेत्र पर कब्जा है। कुछ अनुमानों के अनुसार, जुंटा का केवल 15% देश पर पूर्ण नियंत्रण है, जिसमें यांगून, नेपीडा और मांडले जैसे बड़े शहर शामिल हैं, जबकि सीमावर्ती और ग्रामीण क्षेत्रों में जातीय सशस्त्र संगठनों और पीडीएफ का दबदबा है।
विद्रोहियों के बढ़ते कदम राज्य के एकाधिकार की कमी के स्पष्ट संकेत हैं। गृहयुद्ध और सेना की क्रूर कार्रवाईयों के कारण लाखों लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए हैं। 2023 के अंत तक, देश में 26 लाख से अधिक लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए और कई लोग पड़ोसी देशों, विशेषकर थाईलैंड, भारत और बांग्लादेश में शरण ले रहे हैं। संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता ने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है। म्याँमार का प्रमुख कार्य खेती-बाड़ी बुरी तरह प्रभावित हुई है, क्योंकि किसान विस्थापित होकर शिविरों में रह रहे हैं और खेती नहीं कर पा रहे हैं। बेरोजगारी बढ़ गई है और भुखमरी की स्थिति गंभीर है। अनुमान है कि देश की लगभग एक-चौथाई आबादी के पास पर्याप्त भोजन नहीं है। देश की लगभग आधी आबादी अब गरीबी रेखा से नीचे जीवन जी रही है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि देश में 1.8 करोड़ लोगों को मानवीय सहायता की आवश्यकता है। सार्वजनिक सेवाओं का पूरी तरह से पतन हो गया है। देश के कई हिस्सों में चिकित्सा देखभाल लगभग न के बराबर है। अधिकांश स्कूल बंद हो गए हैं, जिससे लाखों बच्चों की शिक्षा बाधित हो रही है। राजनीतिक अनिश्चितता और हिंसा के कारण विदेशी निवेशकों का भरोसा उठ गया है। व्यापार और निवेश बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, जिससे आर्थिक विकास रुक गया है। आर्थिक गतिविधियों में गिरावट के कारण मुद्रास्फीति बढ़ी है और बेरोजगारी आसमान छू गई है। आम लोगों की आजीविका पर इसका गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। गृहयुद्ध के कारण देश का अवसंरचनात्मक ढाँचा कमजोर या नष्ट हो गया है। दुनिया के कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने सैन्य जुंटा पर प्रतिबंध लगाए हैं, जिससे म्याँमार की अर्थव्यवस्था और भी कमजोर हुई है। यह देश अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से काफी हद तक अलग-थलग पड़ गया है, हालाँकि चीन और रूस जैसे कुछ देश जुंटा को समर्थन दे रहे हैं, जिससे उनकी वैधता को कुछ हद तक सहारा मिल रहा है।
इस चर्चा के साथ-साथ हमें म्याँमार की रोहिंग्या समस्या को भी समझना होगा। रोहिंग्या इस्लाम धर्म को मानने वाला एक अल्पसंख्यक समूह है और इसकी आबादी दस लाख के आसपास है। रोहिंग्या पश्चिमी म्याँमार के रखाइन राज्य में रहते हैं, जो वर्तमान बांग्लादेश की सीमा पर है। रोहिंग्या को लंबे समय से जातीय बहुसंख्यकों से उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। म्याँमार की सरकार का दावा है कि 1823 में ब्रिटिश शासन शुरू होने से पहले रोहिंग्या ऐतिहासिक बर्मा में नहीं बसे थे। इस मानदंड पर सरकार ने कहा कि रोहिंग्या देश के 1982 के नागरिकता कानून के तहत म्याँमार के ‘स्वदेशी जातीय’ समूह नहीं हैं और वे देश के नागरिक नहीं माने जाएंगे। दूसरे शब्दों में म्याँमार सरकार उन्हें अपने 135 आधिकारिक जातीय समूहों में शामिल नहीं करती और उन्हें 1982 के नागरिकता कानून के तहत नागरिकता से वंचित कर दिया गया है। सन 2017 में सेना द्वारा चलाए गए ‘क्लीयरिंग ऑपरेशन’ के परिणामस्वरूप हजारों रोहिंग्या मारे गए और सात लाख से अधिक लोग बांग्लादेश भाग गए। रोहिंग्या के खिलाफ हिंसा को देश में लोकतांत्रिक सुधारों की विफलता के रूप में भी देखा गया। अक्तूबर 2016 और अगस्त 2017 में रोहिंग्या उग्रवादियों के सिलसिलेवार हमलों के बाद म्याँमार के रखाइन राज्य में बौद्ध और मुस्लिम समुदायों के बीच तनाव बढ़ गया। तब 2017 में बांग्लादेश ने उदारता दिखाते हुए इस समुदाय के कॉक्स बाजार में बसने की सीमित अनुमति भी दी। हाल ही में बांग्लादेश ने म्याँमार के भूभाग में मगर उससे स्वतंत्र रोहिंग्या देश बसाने की राय रखी, जिसका म्याँमार में जमकर विरोध हुआ है।
विद्रोहियों के संघर्ष से राष्ट्रीय एकता सरकार के लिये घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय समर्थन, दोनों में वृद्धि हुई है। 2024 के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि म्याँमार में लगभग 93 प्रतिशत उत्तरदाताओं की इस सरकार या एनयूजी के बारे में अनुकूल राय है। संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया सभी एनयूजी को म्याँमार की वैध सरकार के रूप में मान्यता देते हैं। जनवरी 2025 में, जुंटा ने राजनीतिक नियंत्रण को मजबूत करने के लिये वर्ष के अंत या 2026 की शुरुआत में आम चुनाव कराने की घोषणा की है। चीन ने लगातार संघर्ष में अपनी भागीदारी बढ़ाई है, सैन्य जुंटा को बनाए रखने और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये लड़ाई को समाप्त करने की मांग की है। बीजिंग ने कई युद्धविरामों की मध्यस्थता की है, जिसके मिश्रित परिणाम और अस्थायी युद्धविराम हुए हैं। म्याँमार में चीन के आर्थिक हितों में महत्त्वपूर्ण खनिज, तेल और गैस और बीआरआई अवसंरचना परियोजनाएँ शामिल हैं। म्याँमार गहरे समुद्र के बंदरगाह तक पहुँच और मलक्का जलडमरूमध्य व्यापार मार्ग का एक महत्त्वपूर्ण विकल्प भी प्रदान करता है। हालाँकि चीन जुंटा को सैन्य सहायता प्रदान करना जारी रखता है, लेकिन यह एनएलडी के साथ संबंध भी बनाए रखता है।
संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत टॉम एंड्रयूज ने दो साल पहले ही म्याँमार को एक ‘विफल हो रहे राज्य’ के रूप में वर्णित किया था। राजनीतिक वैज्ञानिक ब्रैडली मर्ग का मानना है कि म्याँमार को एक असफल राज्य के रूप में ही परिभाषित किया जा सकता है, भले ही उसे चीन और रूस का समर्थन मिल रहा हो। निर्वासित राष्ट्रीय एकता सरकार (एनयूजी) का दावा है कि म्याँमार का 70% से अधिक क्षेत्र उसके नियंत्रण में है। इस दावे पर जानकारों ने संदेह भी व्यक्त किया है। पर इतनी तो वास्तविकता है कि सेना का देश पर प्रभावी नियंत्रण बहुत कम रह गया है। उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर, म्याँमार 'असफल राज्य' की अधिकांश परिभाषाओं पर खरा उतरता है।
म्याँमार एक नाजुक मोड़ पर खड़ा है। सैन्य तख्तापलट ने दशकों के संघर्ष और अस्थिरता को एक नए एवं विनाशकारी स्तर पर पहुँचा दिया है। देश में व्यापक मानवाधिकार उल्लंघन, मानवीय संकट और आर्थिक पतन देखा जा रहा है तथा सरकार अपने नागरिकों को बुनियादी सेवाएँ प्रदान करने में असमर्थ है। वैध हिंसा पर राज्य के एकाधिकार की कमी और आंतरिक संघर्षों की तीव्रता को देखते हुए, म्याँमार को एक ‘असफल राज्य’ के रूप में वर्णित करना अनुचित नहीं होगा। जब तक म्याँमार में एक स्थिर, समावेशी और वैध सरकार स्थापित नहीं होती है, जो अपने सभी नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करती है और उन्हें आवश्यक सेवाएँ प्रदान कर सकती है, तब तक यह देश अपनी विफलता की स्थिति से बाहर नहीं निकल पाएगा। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वह इस संकट पर ध्यान केंद्रित करे और म्याँमार के लोगों को उनकी पीड़ा से राहत दिलाने एवं एक स्थिर, लोकतांत्रिक भविष्य की ओर बढ़ने में मदद करे।