निबंध
21वीं सदी में लोकतंत्र का विकास
- 12 May 2025
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21वीं सदी में लोकतंत्र में काफी परिवर्तन (जिसमें पतन और नवीनीकरण दोनों शामिल हैं) हो रहा है। कई देशों में लोकतांत्रिक पतन देखा जा रहा है, जहाँ निर्वाचित राजनेता लोकतांत्रिक शासन का दिखावा करते हुए संस्थागत ढाँचे और नागरिक स्वतंत्रता को कमज़ोर कर रहे हैं। इसमें न्यायिक स्वतंत्रता को कमज़ोर करना, मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना तथा सार्वजनिक असहमति को दबाना शामिल है। विभिन्न क्षेत्रों में लोकलुभावन नेताओं ने लोगों की हताशा का फायदा उठाने एवं स्वयं को अभिजात वर्ग विरोधी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है और अक्सर इस प्रक्रिया में सत्ता को केंद्रीकृत किया है।
डिजिटल युग में लोकतंत्र का क्षेत्र और भी जटिल हो गया है। एक ओर, इसने अधिक राजनीतिक भागीदारी और लामबंदी को सक्षम बनाया है; दूसरी ओर इससे फेक न्यूज़, ध्रुवीकरण तथा डिजिटल निगरानी को बढ़ावा मिला है। इन घटनाक्रमों से विश्व भर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अखंडता को चुनौती मिली है।
इन असफलताओं के बावजूद, लोकतांत्रिक लचीलेपन के उदाहरण देखने को मिलते हैं। युवाओं के नेतृत्व वाले आंदोलनों से नागरिक विरोध तथा भागीदारी शासन में नवाचार लोकतांत्रिक आदर्शों को जीवंतता मिल रही है। अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों में स्थानीय लोकतांत्रिक प्रयोग तथा सुधार प्रेरणादायी हैं।
इस निबंध में तर्क दिया गया है कि 21वीं सदी में लोकतंत्र को डिजिटल क्रांति, लोकलुभावन राजनीति और वैश्विक पिछड़ेपन के कारण नया रूप मिल रहा है - फिर भी इसमें आश्चर्यजनक लचीलापन और नवाचार भी देखने को मिलता है। दक्षिण एशिया (विशेष रूप से भारत में) के संदर्भ में, लोकतंत्र के समक्ष संस्थागत एवं सांस्कृतिक चुनौतियाँ बनी हुई हैं। इस क्षेत्र में लोकतंत्र के विकास से वैश्विक रुझानों के संदर्भ में अंतर्दृष्टि मिलती है।
डिजिटल क्रांति और लोकतंत्र
प्रौद्योगिकी द्वारा लोकतांत्रिक अनुभव मूल रूप से पुनर्परिभाषित हुआ है, जिससे राजनीतिक जानकारी और भागीदारी पहले से कहीं अधिक सुलभ हो गई है। डिजिटल क्रांति से सहभागिता के नए रूपों को जन्म मिला है। ऑनलाइन याचिकाओं से लेकर हैशटैग आंदोलनों तक, चुनाव अभियानों एवं नीतिगत चर्चा को नया रूप मिला है।
भारत में डिजिटल राजनीतिक समन्वय का दायरा काफी व्यापक है। वर्ष 2014 और 2019 के आम चुनावों में राजनीतिक दलों ने सोशल मीडिया और डेटा एनालिटिक्स का लाभ उठाया है। व्हाट्सएप ग्रुप, ट्विटर ट्रेंड एवं यूट्यूब कंटेंट मतदाताओं तक पहुँचने के क्रम में ज़रूरी साधन बन गए हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म से अन्ना हज़ारे के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से लेकर हाल ही में हुए किसानों के विरोध प्रदर्शनों तक, प्रमुख मुद्दों पर नागरिकों को संगठित करने में मदद मिली है।
हालाँकि, लोकतांत्रिक आवाज़ों को बढ़ावा देने वाले साधन लोकतांत्रिक विमर्श को कमज़ोर भी कर सकते हैं। दक्षिण एशिया में फेक न्यूज़, डिजिटल निगरानी और हेट स्पीच के बढ़ने से ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिला है। उदाहरण के लिये, भारत और बांग्लादेश में, राज्य और गैर-राज्य अभिनेताओं ने असहमति को कमज़ोर करने और सांप्रदायिक बयानबाज़ी फैलाने के लिये ट्रोल सेनाओं और गलत सूचना अभियानों का इस्तेमाल किया है। ऑनलाइन स्पेस पर नियंत्रण और निगरानी गोपनीयता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में चिंताएँ पैदा करती हैं।
इस प्रकार, जहाँ एक ओर प्रौद्योगिकी से लोकतांत्रिक क्षेत्र का विस्तार हुआ है वहीं इससे नवीन चुनौतियाँ भी उत्पन्न हुई हैं। इस क्षेत्र के अनुभव से पता चलता है कि जब डिजिटल प्लेटफॉर्म को हथियार बनाया जाता है, तो इससे जनमत को विकृत करने एवं असहमति को दबाने के साथ सत्ता पर कब्ज़ा किया जा सकता है।
लोकलुभावनवाद और उदार लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियाँ
"अराजकता का व्याकरण तब शुरू होता है जब संवैधानिक तरीकों की अनदेखी की जाती है।" - डॉ. बी.आर. अंबेडकर
21वीं सदी में लोकलुभावन नेताओं का उदय हुआ है जो भ्रष्ट कुलीन वर्ग और संस्थाओं के खिलाफ आवाज़ उठाने का दावा करते हैं। लोकलुभावनवाद से यह अक्सर वैध शिकायतों का फायदा उठाते हैं- आर्थिक असमानता, पहचान का संकट या राजनीतिक जड़ता- जबकि साथ ही लोकतांत्रिक मानदंडों के समक्ष चुनौती उत्पन्न होती है।
भारत इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करता है कि लोकलुभावनवाद किस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं से संबंधित है। विभिन्न नेताओं ने राष्ट्रवाद, धार्मिक पहचान और आर्थिक वादों को मिलाकर एक शक्तिशाली लोकप्रिय जनादेश तैयार किया है। इसी तरह के रुझान अन्य दक्षिण एशियाई देशों में भी देखे जा सकते हैं, जहाँ नेताओं ने अपनी राजनीति को अभिजात वर्ग के खिलाफ नैतिक धर्मयुद्ध के रूप में ढाला है और इस प्रक्रिया में अक्सर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दरकिनार किया गया है।
श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों में लोकलुभावनवाद के कई रूप देखने को मिलते हैं, जिनमें जातीय-राष्ट्रवादी एजेंडे से लेकर संसदीय तंत्र को दरकिनार करते हुए प्रत्यक्ष शासन की मांग तक शामिल है। हालाँकि ऐसे नेता शुरू में जनसमर्थन जुटा लेते हैं, लेकिन ये अक्सर नियंत्रण और संतुलन को कमज़ोर करने एवं कार्यकारी शक्ति को केंद्रित करने के साथ न्यायिक स्वतंत्रता को कमज़ोर करते हैं।
प्रमुख बात यह है कि लोकलुभावनवाद, लोकतांत्रिक प्रणाली में विकसित होता है- यह स्वाभाविक रूप से अलोकतांत्रिक नहीं है। फिर भी, जब नेता चुनावी जीत को पूर्ण वैधता के बराबर मानते हैं, तो उदार लोकतंत्र की भावना खोखली हो जाती है। दक्षिण एशिया के अनुभव से पता चलता है कि किस प्रकार लोकलुभावन पहलू से औपचारिक संस्थाओं के बने रहने पर भी लोकतांत्रिक संस्कृति कमज़ोर हो सकती है।
वैश्विक और क्षेत्रीय लोकतांत्रिक पतन
लोकतांत्रिक पतन (लोकतंत्र की गुणवत्ता में क्रमिक गिरावट) एक वैश्विक चिंता का विषय है। विश्व भर के देशों में न्यायिक स्वतंत्रता, मीडिया की स्वतंत्रता और नागरिक स्वतंत्रता में कमी आ रही है। दक्षिण एशिया भी इससे अछूता नहीं रहा है।
भारत (जिसे लंबे समय से विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है) ने कई चुनौतियों का सामना किया है, जिससे यहाँ लोकतांत्रिक संस्थाओं के बारे में चिंताओं को बढ़ावा मिला है। फ्रीडम हाउस ने वर्ष 2021 में बढ़ते अधिनायकवाद, इंटरनेट शटडाउन और असहमति के दमन का हवाला देते हुए भारत को “स्वतंत्र” से “आंशिक रूप से स्वतंत्र” का दर्जा दिया। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) और कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निरसन से बहुसंख्यक राजनीति और मानवाधिकारों के संबंध में वैश्विक चिंताओं को बढ़ावा मिला है। इन नीतियों के खिलाफ विरोध आंदोलनों की प्रतिक्रिया में गिरफ्तारियों के साथ इंटरनेट ब्लैकआउट की स्थिति देखी गई।
पाकिस्तान में लोकतंत्र संकर अवस्था में है। नागरिक सरकारें, शक्तिशाली सैन्य संस्थाओं के नियंत्रण में कार्य करती हैं। यहाँ भ्रष्टाचार से अक्सर चुनाव प्रभावित होते हैं, मीडिया सेंसरशिप भी देखने को मिलता है और नागरिक समाज पर निरंतर दबाव बनाया जाता है। बांग्लादेश में भी (विशेष रूप से विवादास्पद चुनावों, विपक्ष की कार्रवाई और डिजिटल सुरक्षा अधिनियम के बाद) लोकतांत्रिक साख पर सवाल उठाए गए हैं।
नेपाल और श्रीलंका में चुनाव होने के बावजूद राजनीतिक अस्थिरता, कार्यकारी हस्तक्षेप और कमज़ोर संस्थाओं की समस्या बनी हुई है। आर्थिक पतन और शासन की विफलताओं से प्रेरित वर्ष 2022 का श्रीलंका संकट इस बात को रेखांकित करता है कि जवाबदेही और पारदर्शिता के अभाव में लोकतांत्रिक मानदंड कितने कमज़ोर हो सकते हैं।
ये क्षेत्रीय पैटर्न व्यापक वैश्विक प्रवृत्तियों को प्रतिबिंबित करते हैं तथा इनसे पता चलता है कि लोकतंत्र प्रत्यक्ष तख्तापलट के माध्यम से नहीं, बल्कि क्रमिक संस्थागत पतन के माध्यम से नष्ट हो सकता है।
नवाचार और लोकतांत्रिक लचीलापन
विभिन्न चुनौतियों के बावजूद, लोकतंत्र अभी भी पुराना नहीं हुआ है। पूरे दक्षिण एशिया में नागरिक और समुदाय आधारभूत स्तर पर सक्रियता, न्यायिक हस्तक्षेप एवं संस्थागत सुधारों के माध्यम से लोकतांत्रिक संस्थाओं को महत्त्व दे रहे हैं।
भारत की न्यायपालिका ने आलोचना का सामना करते हुए भी कई बार सुरक्षा कवच की भूमिका निभाई है तथा नागरिक अधिकारों, पर्यावरण संरक्षण एवं चुनावी अखंडता से संबंधित मामलों में हस्तक्षेप किया है। नागरिक समाज संगठनों ने लैंगिक न्याय से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक के मुद्दों पर लामबंद होकर सत्ता को जवाबदेह बनाने के क्रम में पारंपरिक और डिजिटल दोनों ही तरह के मंचों का इस्तेमाल किया है। CAA विरोधी प्रदर्शन (जो मुख्य रूप से युवाओं के नेतृत्व वाले और विकेंद्रीकृत हैं) इस बात का उदाहरण है कि दमन के बावजूद असहमति कैसे जीवंत बनी हुई है।
नेपाल में राजशाही से संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य में परिवर्तन (हालाँकि अव्यवस्थित है) से एक उल्लेखनीय लोकतांत्रिक प्रयोग पर प्रकाश पड़ता है। जातीय तनाव और राजनीतिक विवादों के बावजूद संविधान निर्माण में नागरिकों की भागीदारी, संघर्ष के बाद के समाजों में सहभागी लोकतंत्र की क्षमता को दर्शाती है।
स्थानीय शासन में विचार-विमर्श और भागीदारीपूर्ण नवाचार विकसित हो रहे हैं। भारत और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में भागीदारीपूर्ण बजट, स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों की सामुदायिक निगरानी तथा ग्राम-स्तरीय योजना से चुनावों से परे, लोकतंत्र की भावना पर प्रकाश पड़ता है। ये पहल एक ऐसे भविष्य की परिचायक हैं जहाँ लोकतंत्र अधिक समावेशी और उत्तरदायी होगा।
इसके अलावा, जलवायु सक्रियता से लेकर लैंगिक न्याय तक के अंतर्राष्ट्रीय युवा आंदोलनों से नवीन लोकतांत्रिक चेतना को बढ़ावा मिल रहा है। दक्षिण एशिया की युवा आबादी केवल एक जनसांख्यिकीय तथ्य नहीं है बल्कि यह एक राजनीतिक शक्ति भी है जिससे समन्वय की रूपरेखा को नया आकार मिल रहा है।
निष्कर्ष
लोकतंत्र एक जीवंत एवं संघर्षपूर्ण प्रक्रिया है जिसका निर्धारण नागरिकों के साहस और रचनात्मकता से होता है। इसका विकास नेताओं एवं संस्थानों द्वारा निर्धारित होता है लेकिन यह नागरिक सहभागिता, संस्थागत जवाबदेही एवं वैश्विक परिवर्तनों के अनुकूल होने की क्षमता पर भी निर्भर है। कुल मिलाकर, वर्तमान में लोकतंत्र न तो पतन की ओर है और न ही उत्थान की ओर- यह प्रवाह में है। लोकतांत्रिक लोकाचार में समन्वय के संतुलन के साथ अनुकूलनशीलता, वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर लोकतंत्र को उन्नत करने की कुंजी है।