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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    चोलकालीन स्थापत्य कला पर प्रकाश डालते हुए इनकी सांस्कृतिक उपलब्धियों की चर्चा करें?

    13 Dec, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 1 संस्कृति

    उत्तर :

    उत्तर की रूपरेखा- 

    • चोलकालीन स्थापत्य कला का परिचय दें।
    • चोलकाल के विभिन्न सांस्कृतिक को बताएँ।
    • निष्कर्ष लिखें।

    चोल काल दक्षिण भारत के इतिहास का चरम बिंदु था, जहाँ स्थापत्य समेत संस्कृति के विभिन्न पक्षों का बहुमुखी विकास हुआ। इसे निम्न रूप में देखा जा सकता है:-

    चोलकालीन स्थापत्य कला

    • चोलकालीन स्थापत्य कला भवन निर्माण की द्रविड़ वास्तुशैली के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप को अभिव्यंजित करती है।
    • मंदिर के गर्भगृह के ऊपर पिरामिडनुमा विमान जो सामान्यतः पाँच से सात मंजिलों से बना होता है, इस शैली की महत्वपूर्ण विशेषता है।
    • गर्भगृह के सामने नक्काशीदार खम्भों वाले विशाल मंडप तथा प्रवेश हेतु भव्य और विशाल गोपुरम्
    • चोलकालीन वास्तुकला की सुन्दरता को बयां करते हैं।

    वास्तुकला के साथ-साथ मूर्तिकला और चित्रकला का बेजोड़ समन्वय चोलकालीन स्थापत्य कला की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। उदाहरण के लिये राजेश्वर मंदिर में दुर्गा, लक्ष्मी, शिव, अर्द्धनारीश्वर जैसे देवताओं कि मूर्तियों के साथ-साथ राजाओं और रानियों की भी प्रतिमाएं हैं।
    नंगावरम् का सुन्दरेश्वर मंदिर, कुम्बकोनाम का नागेश्वर मंदिर तथा मलाई मंदिर, गंगईकोंडचोलपुरम का शिव मंदिर तथा तंजौर का वृह्देश्वर मंदिर चोलकालीन स्थापत्य कला के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। अपनी विशिष्ट सुन्दरता के लिये तंजौर के वृहदेश्वर मंदिर को 1987 में यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है।

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    द्रविड़ मंदिर शैली

    चोलकालीन सांस्कृतिक उपलब्धियों के अन्य पक्ष

    • स्थापत्य कला के अलावा इस काल में भारतीय मूर्तिकला का स्तर भी बढ़ा। श्रवणबेलागोला में गोमेतेश्वर की प्रतिमा इसका एक सुन्दर उदाहरण है।
    • मूर्तिकला में छवि निर्माण की शैली का भी विकास हुआ, जिसमें शिव की नृत्य मुद्रा को बेहद सुन्दर ढंग से उकेरा गया है। इस काल की कांसे की बनी नटराज की मूर्तियाँ सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।
    • मूर्तियों के माध्यम से नृत्य की अभिव्यक्ति इस काल में नृत्यकला के महत्त्व को भी दर्शाती है।
    • इसके अलावा इस काल में विभिन्न राजवंशों ने कला और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। भक्ति के विकास से अलवर और नयनार  संतों की रचनाओं को तिरूमुरई नाम से ग्यारह जिल्दों में संकलित किया गया तथा इन्हें पाँचवां वेद माना गया।
    • तमिल साहित्य के विकास के कारण इस काल को तमिल भाषा का स्वर्ण युग कहा गया है। चोल दरबारी कवी कंबन कृत रामायण को आज भी तमिल साहित्य का एक क्लासिक  माना जाता है।
    • इसके अलावा कन्नड़ तथा तेलूगु साहित्य का भी विकास हुआ। कन्नर काव्य के तीन रत्न पाम्पा, पोंना और रत्ना इसी युग से संबंधित थे। ननैया ने इस  काल में तेलूगु में महाभारत की रचना की, जिसे आगे चल कर टिकन्ना ने पूरा किया।

    स्पष्ट है कि स्थापत्य कला तथा अन्य सांस्कृतिक उपलब्धियों की दृष्टि से चोलकाल दक्षिण भारत का स्वर्णकाल था।

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