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Mains Marathon

  • 21 Jul 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 3 विज्ञान-प्रौद्योगिकी

    दिवस 31: भारत में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और सतत् कृषि को बढ़ावा देने में जैव प्रौद्योगिकी की भूमिका पर को रेखांकित कीजिये। यह फसल की उपज, रोग प्रतिरोधक क्षमता और जलवायु अनुकूलन क्षमता में सुधार लाने में किस प्रकार योगदान दे सकती है? (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • जैव प्रौद्योगिकी को खाद्य सुरक्षा और सतत् कृषि से जोड़ते हुए आँकड़ों पर आधारित परिचय से दीजिये। 
    • प्रश्न के आधार पर उत्तर को तीन विषयगत खंडों में विभाजित कीजिये: फसल उपज, रोग प्रतिरोधक क्षमता और जलवायु-अनुकूलनशीलता।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    जलवायु परिवर्तन, उत्पादन स्थिरता और पारिस्थितिकीय क्षरण के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जैव प्रौद्योगिकी भारत की खाद्य तथा पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन बनकर उभरी है। भारत की जैव-अर्थव्यवस्था वर्ष 2014 में $10 बिलियन से बढ़कर वर्ष 2024 में $165.7 बिलियन तक पहुँच गई है, जो देश की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 4.25% का योगदान करती है। वर्ष 2030 तक $300 बिलियन के लक्ष्य के साथ यह सतत् कृषि वृद्धि की आधारशिला है।

    फसल उत्पादकता के सुधार में जैव प्रौद्योगिकी की भूमिका:

    • जीनोम-एडिटिंग तकनीकें जैसे CRISPR-Cas9 के माध्यम से धान की उपज बढ़ाने में सफलता मिली है, जैसे MTU-1010 किस्म की DEP1-जीन-संपादित पंक्तियाँ। CRISPR-Cas9 जैसे जीनोम-एडिटिंग उपकरणों ने उत्पादकता को क्षीण करने वाले जीनों को लक्षित करके धान की उपज को बढ़ाया है, जैसे कि DEP1-एडिटेड  MTU-1010 लाइन्स में।
    • स्पीड-ब्रीडिंग प्रयोगशालाएँ, जिन्हें जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) द्वारा समर्थित किया गया है, एक वर्ष में 5 से 8 फसल-किस्में तैयार करने की सुविधा देती हैं, जिससे उन्नत उपज वाली किस्मों का विकास शीघ्रता से हो रहा है।
    • SNP-जीनोटाइपिंग तकनीकें जैसे IndRA (धान हेतु) तथा IndCA (चना हेतु) सटीक गुण चयन में सहायक हैं, जिससे उच्च उत्पादकता वाली किस्मों को शीघ्र विकसित किया जा रहा है।
    • जैव-संवर्द्धित फसलें जैसे कि प्रोटीन व अमीनो अम्ल युक्त चौलाई (अमरंथ)  NIRS से तीव्रता से परखा जा रहा है, जिससे पोषण के साथ-साथ उत्पादन भी बढ़ रहा है।
    • जीनोमिक्स और फीनोमिक्स का संयोजन, स्थानीय जैवविविधता के प्रभावी उपयोग के लिये, क्षेत्र-विशिष्ट उच्च-उपज वाली किस्मों के विकास में सहायक बन रहा है।

    रोग-प्रतिरोधक क्षमता में जैव प्रौद्योगिकी की भूमिका:

    • मायरोथेसियम वेरुकेरिया नामक फफूंद से प्राप्त एंज़ाइम आधारित नैनो-फॉर्मूलेशन, टमाटर और अंगूर में पाए जाने वाले ‘पाउडरी मिल्ड्यू’ रोग के विरुद्ध एक पर्यावरण-अनुकूल समाधान है।
    • कर्नाटक और महाराष्ट्र में ‘फ्यूज़ेरियम प्रोलीफेराटम’ नामक एक नए केसर रोगजनक की पहचान, लक्षित रोग प्रबंधन में सहायता कर रही है।
    • जैव-कीटनाशकों (बायोपेस्टीसाइड) और जैव-कवकनाशकों (बायोफंगीसाइड) का विकास, रासायनिक कृषि-आदान पर निर्भरता को कम करता है तथा फसल स्वास्थ्य बनाये रखता है।
    • GM-नैदानिक परीक्षण और निगरानी प्रणाली, जैव सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा अनुवांशिक संदूषण की समय पर पहचान में सहायक हैं।
    • 'किसान-कवच' जैसे सुरक्षात्मक नवाचार, खेत में कार्य कर रहे कृषकों को रासायनिक दुष्प्रभावों से बचाते हैं तथा अप्रत्यक्ष रूप से पौधों के स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं।

    जलवायु अनुकूल कृषि में जैव प्रौद्योगिकी की भूमिका:

    • SAATVIK (NC9) चना जैसी जलवायु-प्रतिरोधी किस्मों को उच्च सूखा-सहिष्णुता और तनावपूर्ण परिस्थितियों में स्थिर उपज के लिये तैयार किया गया है।
    • जीनोम-वाइड एसोसिएशन स्टडी (GWAS) तथा बहु-स्थानीय क्षेत्र परीक्षण के माध्यम से दालों एवं अनाजों में ताप सहनशीलता और लवणता प्रतिरोध जैसे लक्षणों का चयन किया जा रहा है।
    • जीनोमिक साधन जलवायु-सहिष्णु जीन वाले जंगली किस्मों की पहचान करने में सहायता करते हैं, जिन्हें अब आणविक प्रजनन का उपयोग करके उत्कृष्ट किस्मों में समाहित किया जा रहा है।  
    • DBT द्वारा पोषक तत्त्व और जल-उपयोग दक्षता को अनुकूलित करने के लिये अनुसंधान एवं विकास का समर्थन किया जाता है, जिससे पर्यावरणीय दबाव को घटाते हुए और उच्च स्थिरता वाले जलवायु-स्मार्ट समाधान तैयार किये जाते हैं। 
    • मात्स्यिकी क्षेत्र में भी, जैव प्रौद्योगिकी जैसे कि 'फर्मेंटेड सोया मील' का उपयोग (जो मत्स्य आहार का विकल्प है) झींगा के बेहतर विकास में सहायक बन रहा है, जिससे समुद्री संसाधनों पर दबाव कम होता है।    

    निष्कर्ष:

    भारत में जैव प्रौद्योगिकी, कृषि क्षेत्र को अधिक उत्पादक, रोग-प्रतिरोधी और जलवायु-संवेदनशील बनाने में क्रांतिकारी भूमिका निभा रही है। वैज्ञानिक अनुसंधान, संस्थागत समर्थन और नियामक निगरानी के माध्यम से यह न केवल खाद्य सुरक्षा को सुदृढ़ बना सकती है बल्कि कृषि को सतत्, समावेशी एवं सुरक्षित भी बना सकती है, जो आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

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