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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

क्या खाद्य और पेय पदार्थों पर प्रतिबंध होना चाहिये?

  • 24 Jun 2017
  • 8 min read

संदर्भ
खाद्य और पेय पदार्थों पर प्रतिबंध लगाना न तो वांछनीय होता है और न ही संभव है। इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनावश्यक प्रतिबंध लगाने की कवायद माना जा सकता है। व्यक्तिगत रुचि के विषयों को कानून बनाकर रोकने की बजाय आत्म-संयम से छोड़ने का प्रयास किया जाए तो नतीजे बेहतर होते हैं, हमने अपने राष्ट्र पिता से यही सीखा है। खान–पान पर प्रतिबंध  को लेकर एक पक्ष सहमत है, तो दूसरा पक्ष असहमत, ऐसी परिस्थिति में मध्य मार्ग क्या होना चाहिये, इस लेख में इन्हीं पहलुओं पर चर्चा की गई है।

वाद

  • भारत में निर्धन लोगों की अत्यधिक संख्या के मद्देनज़र शराब पर निषेधाज्ञा का एजेंडा वास्तव में इसके लिये एक तर्कसंगत विकल्प है। 
  • कई अध्ययनों से पता चला है कि विकासशील देशों में नशे की लत का सामाजिक एवं स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव अधिक होता है। शराब का अत्यधिक सेवन रक्तचाप एवं जिगर सिरोसिस के जोखिम को बढ़ाता है। शराब की लत संसाधनों के व्यय को परिवार की बुनियादी आवश्यकताओं  से दूर कर देता है। यह घर के अन्य सदस्यों, विशेष रूप से बच्चों और महिलाओं के कल्याण को प्रभावित करता है। 
  • शराब राज्य सूची का विषय है और प्रत्येक राज्य सरकार को इस पर निषेधाज्ञा लगाने या न लगाने का अधिकार है। शराब पर पूर्ण पाबन्दी पहले गुजरात में फिर बिहार में लगाई  गई थी। 
  • बिहार जैसे गरीब राज्यों में, निषेधाज्ञा का औचित्य भी मज़बूत है क्योंकि वहाँ निर्धनता अधिक है। आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के पुरुषों के बीच शराब की लत अधिक हानिकारक होती है। इस प्रकार गुजरात की तुलना में  यह बिहार जैसे राज्य के लिये एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक एजेंडा है।
  •  विकसित पश्चिमी देशों में से अधिकांश, पूंजीवादी परिवर्तन के अपने शुरुआती चरण में उत्पादक निवेश के बारे में चिंतित थे। उत्तरी अमेरिका और यूरोपीय राज्यों में निषेध के लिये प्रोत्साहन 'पाईस्टिक' और 'संयम' आंदोलन द्वारा संचालित किया गया था। प्रोटेस्टेंट नैतिकता मूलतः मितव्ययी व्यय और बचत के आसपास घूमती है, जो उत्पादक निवेश को जन्म देती है। यही आधार था जिस पर पूंजीवाद बनाया गया था। 'पाईस्टिक' और 'संयम' आंदोलनों ने निषेध का समर्थन किया, जिससे पूंजीवादी संचय और औद्योगिक क्रांति को सुविधा हुई। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी समाज के विकास की अवस्था उस अधिशेष पर निर्भर करती है जिसे वह संचय एवं निवेश करके उत्पन्न करता है।
  •  विकास के इसी परिप्रेक्ष्य में, निषेधाज्ञा का एजेंडा भारत के लिये वास्तव में एक तर्कसंगत विकल्प है, क्योंकि यहाँ अत्यधिक गरीबी है और पूंजीवाद अभी शैशव अवस्था में है।

प्रतिवाद

  • लोगो को पीना (शराब) चाहिये या नहीं इस बहस को उच्च जातियों के पाखंड द्वारा उत्तेजित किया गया है। शराब पर प्रतिबंध  लगाने का अनुभव इस देश को है परन्तु इस पर प्रतिबंध इसके दुरुपयोग को रोक नहीं पाता है, बल्कि ऐसा करने से इसका अपराधीकरण बढ़ता है तथा व्यक्ति के स्वास्थ्य एवं जेब पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
  • ऐसा देखा गया है कि जब एक राज्य में इस पर प्रतिबंध लगता है, तो पड़ोसी राज्यों से इसकी अवैध आपूर्ति होने लगती है और इसके अवैध कारोबार को बढ़ावा मिलने लगता है। इस तरह यह देखा गया है कि देश के कई राज्यों ने अलग-अलग समय पर इस पर पाबंदी लगाई है, और फिर कुछ राज्यों ने प्रतिबंध वापस भी ले लिया है। 
  • निषेध यदि अखिल-राष्ट्रीय स्तर पर होता है, तो इसे लागू करना किसी भी राज्य के लिये आसान होता है, परन्तु केवल एक राज्य में निषेध को लागू करना किसी कठिन चुनौती से कम नही है। पड़ोसी राज्यों के साथ सीमाओं पर इसके असर को देखा जा सकता है। अतः निषेध प्रवर्तन एक चुनौती भी है। 
  • व्यक्तिगत रुचि के विषयों को कानून बनाकर रोकने की बजाय आत्म-संयम से छोड़ने का प्रयास किया जाय तो नतीजे बेहतर होते हैं। अतः प्रतिबन्ध पर पुनर्विचार होना चाहिये।

संवाद

  • एक सभ्य समाज में खाद्य और पेय पदार्थों पर प्रतिबंध लगाना न वांछनीय है और न ही उपयुक्त। यह सामाजिक प्रथाओं एवं धार्मिक संस्कारों में हस्तक्षेप है, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अनावश्यक प्रतिबंध भी। 
  • दुनिया के अधिकांश देशों में तथा गुजरात और नागालैंड जैसे भारतीय राज्यों में जहाँ  शराब की खपत पूरी तरह या आंशिक रूप से प्रतिबंधित है, कानून का पालन कम एवं इसका उल्लंघन अधिक होता है। अमेरिका ने 13 वर्षों के लिये निषेध के साथ प्रयोग किया था, परन्तु इसे अव्यवहारिक और स्वतंत्रता पर हस्तक्षेप  मानते हुए अंततः उठा लिया। 
  • केन्द्र सरकार द्वारा मांस की खपत पर अप्रत्यक्ष प्रतिबंध और केरल में तत्कालीन यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) सरकार द्वारा शराब निषेध  कड़ा कदम है जो  व्यक्तिगत और सामाजिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप  है। इस फैसले से केरल में न केवल पर्यटन उद्योग प्रभावित हुआ, बल्कि राज्य के वित्त और रोज़गार के अवसरों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसके कारण नशीली दवाओं के दुरुपयोग और शराब के अवैध व्यापार में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी। 
  • राज्य में बारों के बंद होने के असर, दुनिया के विभिन्न हिस्सों में शराब प्रतिबंधों के अनुभव और उदयभानू आयोग की सिफारिशों के प्रभाव का आकलन करने के बाद केरल की  नई लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) सरकार की नीति घोषित की गई है, जिसमें निषेध के स्थान पर स्वैच्छिक संयम का प्रस्ताव है। एक ऐसे राज्य में जहाँ प्रति व्यक्ति शराब की खपत अधिक  है, नई नीति शराब की अत्यधिक खपत में निहित खतरों को पहचानती है। 

निष्कर्ष
महात्मा गाँधी ने एवं राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों ने निषेधाज्ञा पर क्या कहा है, हमें ज़रा उस पर भी विचार करना चाहिये। ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता के सात दशकों बाद भी राष्ट्र निर्माण के कई मूलभूत मुद्दों को हमें फिर से देखने की आवश्यकता है। कुछ चीजें केवल प्रतिबंध  से नहीं बल्कि आत्म-संयम से भी बंद हो सकती हैं।

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