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राज्यसभा

विशेष/इन-डेप्थ: पॉड (POD), हाइपरलूप, इलेक्ट्रिक/हाइब्रिड, मोनो रेल

  • 24 Apr 2018
  • 19 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि


सरल आवागमन, ट्रैफिक जाम में फँसने का डर नहीं तथा स्पीड...ये कुछ ऐसी सुविधाएँ हैं जिनका किसी भी शहर को आधुनिक कहलाने के लिये होना आवश्यक है। देश के महानगरों या बड़े नगरों को इन पैमानों पर देखा जाए तो ये आधुनिकता से कोसों दूर नज़र आते हैं। देश की राजधानी का हाल सबसे बुरा है, इसीलिये दिल्ली के धौला कुआँ से हरियाणा के गुरुग्राम स्थित मानेसर के बीच सरकार की महत्त्वाकांक्षी 4,000 करोड़ रुपए की लागत वाली 12.3 किमी. की सार्वजनिक परिवहन परियोजना पॉड टैक्सी (मेट्रिनो) पर जल्दी ही काम शुरू होने जा रहा है।

देश की राजधानी के हालात 

  • देश की राजधानी का दम वाहनों तले घुटा जा रहा है, जहाँ रोज़ लगभग 1400 नए वाहन सड़कों पर उतर आते हैं।
  • हालत यह है कि अन्य महानगरों में कुल मिलाकर जितने निजी वाहन नहीं हैं, उससे अधिक अकेले दिल्ली में हैं। 
  • दिल्ली में सड़क के रास्ते कहीं आना-जाना हो तो यह सोचना व्यर्थ है कि पहुँचने में समय कितना लगेगा। 
  • देश में सबसे बड़ा मेट्रो कॉरीडोर दिल्ली में है और फ्लाईओवरों का जाल भी बिछा है। एलिवेटेड रोड भी बनी हैं, लेकिन इन सबके होते हुए दिल्ली की सड़कों पर चलना दूभर हो गया है। 
  • दिल्ली की सडकों पर ट्रैफिक कंजेशन के चलते रोज़ लगभग 70 लाख मानव घंटे बेकार चले जाते हैं।
  • दिल्ली से सटे नोएडा में भी पॉड टैक्सी चलाने की योजना पर काम चल रहा है। नोएडा बोटेनिकल गार्डन से जीआइपी व सेक्टर-18 होते हुए वापस बोटेनिकल गार्डन तक पॉड टैक्सी चलाने की योजना है।

पॉड टैक्सी (मेट्रिनो) चलाने की तैयारी

  • इन सब समस्याओं के मद्देनज़र राजधानी दिल्ली की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को और बेहतर बनाने के लिये दिल्ली से गुरुग्राम तक पॉड टैक्सी चलाने की तैयारी शुरू हो गई है। 
  • इसे यातायात के एक आधुनिक विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है, जिससे यातायात के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आने की संभावना जताई जा रही है।
  • पॉड टैक्सी योजना 4000 करोड़ रुपए के अनुमानित व्यय की केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय की महत्त्वाकांक्षी परियोजना है। 
  • इसे भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) द्वारा क्रियान्वित किया जाएगा।
  • पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इसे दिल्ली-गुडगाँव कॉरिडोर पर दिल्ली-हरियाणा सीमा से राजीव चौक तक 12.3 किलोमीटर की दूरी में सार्वजनिक-निजी सहभागिता (PPP) से चलाया जाएगा।

समिति की सिफारिशें 
कुछ समय पूर्व परिवहन विशेषज्ञ एस.के. धर्माधिकारी की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय समिति ने देश की पहली पॉड टैक्सी सेवा प्रारंभ करने के लिये तकनीकी एवं सुरक्षा मानकों पर आधारित दिशा-निर्देश जारी किये थे, जो सोसाइटी ऑफ सिविल इंजीनियर्स तथा नीति आयोग द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानकों के अनुरूप हैं।

पॉड टैक्सी सेवा क्या है?

  • पॉड टैक्सी सेवा एक आधुनिक और उन्नत सार्वजनिक परिवहन प्रणाली है। 
  • इसे पर्सनल रैपिड ट्रांजिट (Personal Rapid Transit-PRT) के नाम से भी जाना जाता है।
  • यह एक आधुनिक सार्वजनिक परिवहन प्रणाली है जिसमें सामान्य टैक्सी की तरह फीडर और शटल सेवाएँ देने के लिये 3 से 6 यात्रियों के छोटे समूहों को मांग आधारित फीडर एवं शटल सेवाएँ प्रदान कराई जाती हैं, किंतु इसमें स्वचालित इलेक्ट्रिक पॉड का इस्तेमाल किया जाता है। 
  • यह सेवा ट्रैफिक जाम और प्रदूषकों के उत्सर्जन जैसी समस्याओं से मुक्त है तथा आवागमन के लिये एक किफायती माध्यम है।

भारत सरकार के थिंक-टैंक नीति आयोग द्वारा इसमें प्रयुक्त होने वाली तकनीकी पर आपत्ति जाहिर करने से इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना में देरी हुई है। आयोग ने राजमार्ग मंत्रालय से सिफारिश की है कि वह शुरुआती स्तर पर बोली लगाने वाली कंपनियों से एक किलोमीटर का पायलट प्रोजेक्ट तैयार करवाए, ताकि इसमें प्रयुक्त होने वाली तकनीकियों का परीक्षण किया जा सके।

  • संयुक्त राज्य अमेरिका में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ सिविल इंजीनियर्स द्वारा ऑटोमेटेड पीपुल मूवर (Automated People Mover-APM) मानक निर्धारित किये जाते हैं, जिनमें सुरक्षा और निष्पादन के न्यूनतम स्तर तय किये जाते हैं। भारत की पहली पॉड टैक्सी सेवा भी इन्हीं मानकों पर आधारित होगी।

प्रमुख विशेषताएँ तथा आवश्यक संरचना 

  • पॉड टैक्सी दो तरह की होती है--एक ट्रैक रूट पर चलने वाली और दूसरी केबल पर चलने वाली जिसे हैंगिग पॉड कहा जाता है।
  • हैंगिंग पॉड कार एक स्वचालित छोटा वाहन है। इसके लिये ज़मीन से कई फीट ऊँचे पिलर्स पर अलग से रूट बनाया जाता है। 
  • एक अन्य प्रकार की ट्रैक पॉड कार पटरियों पर चलती है और इसी रूट से जुड़े हुए छोटे-छोटे स्टेशन बनाए जाते हैं।
  • पॉड कार में चार से छह लोगों के बैठने की क्षमता होती है। 
  • इसमें नॉन-स्टॉप, पॉइंट-टू-पॉइंट सफर किया जाता है।
  • इसमें बैठने के बाद यात्रियों को ‘टचस्क्रीन’ पर उस जगह का नाम टाइप करना होता है जहाँ उन्हें जाना है। 
  • गंतव्य स्टेशन आते ही मेट्रो की तरह पॉड कार रुकती है और गेट अपने आप खुल जाते हैं।
  • यह पॉड कार पूरी तरह कंप्यूटराइज्ड होती है और इसे चलाने के लिये किसी ड्राइवर या कंडक्टर की ज़रूरत नहीं होती।
  • यह पॉड कार बिना पेट्रोल-डीज़ल के चार्जेबल लीथियम बैटरी से चलती है और इससे प्रदूषण बिलकुल नहीं होता।
  • इस पॉड कार में सफर करते समय न तो ट्रैफिक सिग्नल मिलता है और न ही ट्रैफिक जाम।
  • शहर के भीतरी इलाके प्रायः बस और मेट्रो ट्रेन की पहुँच में नहीं होते, लेकिन पॉड टैक्सी शहर के कोने-कोने में पहुँच सकती है, जिससे यात्रियों को आगे बेहतर कनेक्टिविटी मिलेगी।
  • मेट्रो पर एक किलोमीटर एलीवेटेड ट्रैक तैयार करने पर 280 करोड़ रुपए खर्च आता है, जबकि पॉड कार का एलीवेटेड ट्रैक तैयार करने पर 50 से 60 करोड़ रुपए प्रति किलोमीटर खर्च आएगा।

कब शुरू हुई पॉड कार 
सबसे पहले इसकी संरचना का विचार डॉन फिक्टर ने 1953 में आगे बढ़ाया था। इसके बाद 1968 में इसको पहली बार एक प्रारूप दिया गया। पॉड कार की सुविधा फिलहाल यूरोप के लंदन और अमेरिका के वेस्ट वर्जिनिया में है। अमेरिका में वेस्ट वर्जिनिया यूनिवर्सिटी में पढ़ने वालों की सुविधा के लिये तथा लंदन में हीथ्रो एयरपोर्ट के टर्मिनल-5 पर पहुँचने के लिये पॉड कार का इस्तेमाल किया जाता है। संयुक्त अरब अमीरात और दक्षिण कोरिया के दो शहरों में भी पर्सनल रैपिड ट्रांज़िट सिस्टम काम कर रहा है।

अमेरिका की तरह कड़े सुरक्षा मानक होंगे
भारत में पॉड टैक्सी के लिये अमेरिकी निकाय के नियमों की तरह कड़े सुरक्षा उपाय किये जाएंगे। इसमें ऑटोमेटेड पीपल मूवर्स मानकों और विशिष्टताओं के अलावा नीति आयोग की सिफारिशों के साथ सामान्य सुरक्षा मानकों को शामिल किया जाएगा। इस पाँच सदस्यीय समिति का गठन पीआरटी के तकनीकी और सुरक्षा मानकों को तय करने के लिये किया गया है। नीति आयोग ने राजमार्ग मंत्रालय से कहा है कि वह शुरुआती बोली लगाने वाली कंपनियों से एक किलोमीटर का पायलट मार्ग तैयार करने को कहे, ताकि इससे जुड़ी सभी प्रौद्योगिकियों की परख की जा सके। समिति की सिफारिशों के अनुरूप सभी सुरक्षा चिंताओं को दूर किया जाएगा। समिति ने परीक्षण के खंड में प्रदर्शन के आधार पर आकलन की आवश्यकता भी बताई है।

मोनो रेल भी है एक विकल्प 

  • दुनिया की पहली मोनो रेल 1820 में रूस के ईवान इलमानोव के द्वारा बेहतर यातायात के विकल्प के तौर पर बनाई गई थी।
  • मोनो रेल ऐसी ट्रेन हैं जो रेलवे लाइन पर नहीं बल्कि एक बीम के सहारे चलती है और इसके सारे कोच इसी बीम से जुड़े होते हैं। 
  • इसका पाथ सड़क मार्ग से लगभग 10 फीट या इससे भी अधिक ऊँचाई पर बनाया जाता है। 
  • इसमें सफर के दौरान दुर्घटना की संभावना नहीं रहती और इसकी रफ्तार भी अन्य ट्रेनों तथा बसों से तेज़ होती है।
  • मोनो रेल को विशेषकर बड़े महानगरों के लिये ही विकसित किया गया है, जहाँ बड़े निर्माणों के लिये ज़मीन की उपलब्धता काफी कम रहती है। 
  • मोनो रेल की पटरियाँ जिन पिलर्स पर टिकी रहती हैं, उनके लिये रोड डिवाइडर जितनी जगह की ज़रूरत पड़ती है। 
  • मेट्रो ट्रेनों की क्षमता ज़्यादा होने के बाद भी मोनो रेल महानगरों का ट्रैफिक कम करने में कारगर साबित हो सकती है, क्योंकि मोनो रेल की लागत मेट्रो की तुलना में लगभग आधी होती है और यह जगह भी कम घेरती है। 
  • राजधानी दिल्ली में सड़कों पर बढ़ते ट्रैफिक जाम और दिल्ली मेट्रो में बढ़ती हुई भीड़ के मद्देनज़र मोनो रेल चलाने की योजना को राज्य सरकार ने 2013 में मंज़ूरी दे दी थी, लेकिन कतिपय कारणों से यह योजना परवान नहीं चढ़ सकी। 
  • फिलहाल देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई के एक छोटे से हिस्से में मोनो रेल का संचालन पीपीपी के तहत किया जा रहा है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

इलेक्ट्रिक/हाइब्रिड 
केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी के अनुसार इलेक्ट्रिक वाहन भारत का भविष्य हैं। देश के कुल सात लाख करोड़ रुपए के तेल आयात में से इन वाहनों की वज़ह से यदि दो लाख करोड़ रुपए का तेल आयात भी घटता है तो इससे देश में दो करोड़ लोगों को रोज़गार मिल सकता है। देश में करीब एक करोड़ लोग यात्रियों और माल परिवहन के लिये रिक्शा चलाते हैं, ऐसे में ई-रिक्शा उद्योग के लिये अपार संभावनाएँ हैं। लेकिन इस उद्योग की सफलता के लिये ज़रूरी है कि पेट्रोल और डीज़ल चालित वाहनों की तुलना में इलेक्ट्रिक वाहनों की परिचालन लागत कम हो। इसके अलावा इलेक्ट्रिक कारों और बसों की उपादेयता जाँचने के लिये प्रायोगिक परीक्षण चल रहे हैं। 

हाइपरलूप

  • टेस्ला कंपनी के सह-संस्थापक एलन मस्क ने पहली बार हाइपरलूप का आइडिया दिया था। 
  • हाइपरलूप प्रणाली ट्रांसपोर्ट सिस्टमों में अधुनातन तकनीकी है, जिसमें मैग्नेटिक पावर का इस्तेमाल किया जाएगा। इस तकनीक के लिये कई देशों में प्रयोग चल रहे हैं। 
  • इस तकनीक में खंभों के ऊपर पारदर्शी ट्यूब लगाई जाती है। इस प्रणाली में घर्षण बहुत कम महसूस होता है।
  • हाइपरलूप ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम में पॉड जैसा एक वाहन ट्यूब के ज़रिये चलाया जाता है।
  • बड़े-बड़े पाइपों के अंदर वैक्यूम या निर्वात जैसा माहौल तैयार कर वायु की अनुपस्थिति में पॉड जैसे वाहन में बैठकर 1000 से लेकर 1300 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से यात्रा की जा सकती है। 
  • ट्यूब्स के अंदर निर्वात पैदा करने से वायु द्वारा उत्पन्न प्रतिरोध (Air Friction) समाप्त हो जाता है, जिससे पॉड को इतनी तेज़ गति से चलाया जा सकता है। 
  • इन ट्यूब्स के अंदर पॉड को उत्तोलन (Lavitation) तकनीक के सहारे आगे बढ़ाया जाता है और पॉड को बड़े-बड़े इलेक्ट्रिक चुंबकों के ऊपर चलाया जाता है। 
  • मैग्लेव या मैग्नेटिक लेविटेशन ट्रेनों के विकास पर पहले से काम चल रहा है और इसमें चुंबकीय शक्ति के प्रभाव से ट्रेन थोड़ी ऊपर उठ जाती है तथा बेहद तेज़ गति से ट्रैक से थोड़ा ऊपर उठकर चलती है। 
  • भारतीय परिप्रेक्ष्य में हाइपरलूप से सबंधित कुछ चुनौतियाँ भी हैं:
  • इस परियोजना के लिये वित्त की व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि इसकी लागत अरबों डॉलर में होगी तथा भारतीय परिवहन व्यवस्था में इसे बिना सब्सिडी दिये चला पाना भी संभव नहीं होगा।
  • अभी तक इस तकनीक के परीक्षण बेहद प्रारंभिक स्तर पर हैं, अतः इसमें सुरक्षित परिवहन पर कुछ कहा नहीं जा सकता। 
  • भारत में यात्रियों की बड़ी संख्या मौज़ूद है और हाइपरलूप कुछ ही लोगों को सुविधा दे पाएगा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

इनको दी है नीति आयोग ने मंज़ूरी 
नीति आयोग ने देश में सार्वजनिक परिवहन में सुधार के विकल्पों की खोज के लिये लगभग आधा दर्जन प्रस्तावों को मंज़ूरी दी है। इसके बाद परिवहन मंत्रालय ने इन तकनीकों से जुड़े सुरक्षा के मानकों के अध्ययन के लिये रेलवे के एक पूर्व शीर्ष अधिकारी के नेतृत्व में छह सदस्यीय कमेटी का गठन किया था। इस समिति ने इन प्रस्तावों को मंज़ूरी इस आधार पर दी है कि सुरक्षा मानकों के लिहाज से इन्हें व्यावसायिक तौर पर शुरू करने से पहले मंत्रालय इन सभी का ट्रायल रन करेगा। बेशक, इन नई तकनीकियों से देश में शहरों के अंदर यात्रा करने का तरीका बदल सकता है, लेकिन इस तरह की कोई तकनीक अभी भारत में नहीं होने के कारण इसके वैश्विक सुरक्षा मानकों को जानना और उनके पालन को सुनिश्चित करना आवश्यक है।

निष्कर्ष: वाहनों के अत्यधिक घनत्व के चलते ट्रैफिक की दृष्टि से भारत की राजधानी दिल्ली को दुनिया के सबसे खराब शहरों में माना जाता है। कुछ ऐसा ही हाल इससे सटे हुए नोएडा, गुरुग्राम और फरीदाबाद जैसे सेटेलाइट शहरों का है। यात्रा के समय में कटौती और तीव्र परिवहन समय की मांग है। भारत को अपनी क्षमता के अनुसार तथा उस तकनीक की भारतीय परिप्रेक्ष्य में उपयोगिता को ध्यान में रखकर ही आगे कदम बढ़ाना चाहिये। फिलहाल भारत में नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता अभी हाई-स्पीड ट्रेनों और बुलेट ट्रेन पर आधारित रेलवे परिवहन के विकास की है।

वर्तमान में लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट, आबूधाबी व दक्षिण कोरिया के इंचियन शहरों में ऐसी टैक्सियाँ दौड़ रही हैं। ये टैक्सियाँ तथा अन्य सभी साधन परिवहन के स्वच्छ एवं हरित विकल्प हैं, साथ ही भारत जैसे देश में प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिये बेहतर विकल्प हैं। इसके साथ-साथ इनसे लोगों को जाम जैसी परेशानी से भी निज़ात मिल जाएगी। इन आधुनिक परिवहन साधनों के संचालन में पेट्रोल या डीज़ल का इस्तेमाल बिलकुल नहीं होता यानी ये सभी पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी काफी उपयोगी हैं। 

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